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Wednesday, December 11, 2019

सार छंद - अशोक धीवर "जलक्षत्री"

सार छंद - अशोक धीवर "जलक्षत्री"

 ।। अइसन कलजुग आही ।।

साधु संत मन कहि गय भइया, अइसन कलजुग आही।
मनखे गिद्धा सही माँस ला, चीथ - चीथ के खाही।।

खाना - पीना नइ चाही जी, तेला सबझन खाही।
बेद पुरान ल मानय नाही, राज झूठ के आही।।

मार - काट अतका बढ़ जाही, नदिया खून बहाही।
नइ होवय भगवान घलो कहि, अँगठी सबो उठाही।

सास ससुर के सुनही बेटा, बाप ल अपन ठठाही।
भजन गीत ला नइ गावय जी, डिस्को गाना गाही।। ।।

बहू पहिन के सूट बूट ला, घुमही दुनिया भर ला।
लइका रोहन - बोहन रइही, बेटा रखही घर ला।। ।।

जेहा सबले ताकत वाला, ओहा राज चलाही।
नियम - कायदा नइ रइही जी, मनमौजी हो जाही।।

पापी मन के बात मानही, धरमी ला अलगाही।
पाप - पुण्य नइ होवय कइके, गंदा करम रचाही।।

हाथ जोड़ "जलक्षत्री" बोलय, कोनो बुरा न मानौ।
ये कलजुग के हाल - चाल हा, नइ हे पूरा जानौ।।

छंदकार - अशोक धीवर "जलक्षत्री"
ग्राम - तुलसी (तिल्दा - नेवरा)
 जिला - रायपुर (छत्तीसगढ़)

10 comments:

  1. बहुत सुग्घर रचना सर

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  2. बहुत सुग्घर रचना सर

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  3. बहुत सुन्दर भैया

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  4. कलजुग के गोठ,गजब हावय पोठ
    बधाई

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  5. कलजुग के वास्तविकता भरे रचना,बधाई

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  6. बहुत सुग्घर रचना मैय्या जी, बस तीसरा छन्द के दूसर चरण "नदियाँ खून बोहाही" मा 13 मात्रा हे।

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  7. कलयुग के दुर्दशा के अद्धभुत बखान

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  8. वाहहह!सुग्घर रचना

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