Followers

Sunday, February 10, 2019

बसन्त विशेषांक


सवाई छन्द - जनकवि कोदूराम “दलित”

बसंत बहर

हेमंत गइस जाड़ा भागिस, आइस सुख के दाता बसंत
जइसे सब-ला सुख देये बर आ जाथे कोन्हो साधु-संत ।

बड़ गुनकारी अब पवन चले, चिटको न जियानय जाड़ घाम
ये ऋतु-मा सुख पाथंय अघात, मनखे अउ पशु-पंछी तमाम ।

जम्मो नदिया-नरवा मन के, पानी होगे निच्चट फरियर
अउ होगे सब रुख-राई के, डारा -पाना हरियर-हरियर ।

चंदा मामा बाँटँय चाँदी अउ सुरुज नरायन देय सोन
इनकर साहीं पर-उपकारी, तुम ही बताव अउ हवय कोन ?

बन,बाग,बगइचा लहलहाँय, झूमय अमराई-फुलवारी
भाँटा, भाजी, मुरई, मिरचा-मा, भरे हवय मरार-बारी ।

बड़ सुग्घर फूले लगिन फूल, महकत हें-मन-ला मोहत हें
मँदरस के माँछी रस ले के, छाता-मा अपन सँजोवत हें ।

सरसों ओढ़िस पींयर चुनरी, झुमका-झमकाये हवँय चार
लपटे-पोटारे रुख मन-ला, ये लता-नार करथंय दुलार ।

मउरे-मउरे आमा रुख-मन , दीखँय अइसे दुलहा -डउका
कुलकय, फुदकय, नाचय, गावय, कोयली गीत ठउका-ठउका ।

बन के परसा मन बाँधे हें, बड़ सुग्घर केसरिया फेंटा
फेंटा- मा कलगी खोंचे हें, दीखत हें राजा के बेटा ।

मोती कस टपकँय महुआ मन, बनवासी बिनत-बटोरत हें
बेंदरा साहीं चढ़ के रुख-मा गेदराये तेंदू टोरत हें ।

मुनगा फरगे, बोइर झरगे, पाकिस अँवरा, झर गईस जाम
"फरई-झरई, बरई-बुतई" जग में ये होते रथे काम ।

लुवई-मिंजई सब्बो हो गे अउ धान धरागे कोठी-मा
बपुरा कमिया राजी रहिथंय, बासी- मा अउर लँगोटी-मा ।

अब कहूँ, चना, अरसी, मसूर के भर्री अड़बड़ चमकत हें
बड़ नीक चंदैनी रात लगय डहँकी बस्ती-मा झमकत हें ।

ढोलक बजाँय दादरा गाँय, ठेलहा-म दाई-माई मन
ठट्ठा, गम्मत अउ काम-बुता, सब करँय ननद-भउजाई मन ।

कोन्हों मन खेत जाँय अउ बटुरा-फली लाँय भर के झोरा
अउ कोन्हों लाँय गदेली गहूँ-चना भूँजे खातिर होरा ।

अब चेलिक-मोटियारिन मन के,खेले-खाए के दिन आइस
डंडा - फुगड़ी अउ रिलो-फाग , नाचे-गाये के दिन आइस ।

गुन, गुन, गुन, गुन करके भउँरा मन, गुन बसंत के गात हवँय
अउ रटँय 'राम-धुन' सुवना मन, कठखोलवा ताल बजात हवँय।

कवि मन के घलो कलम चलगे, बिन लोहा के नाँगर साहीं,
अउहा -तउहा लिख डारत हें, जे मन में भाय कुछू काहीं ।

होले तिहार अब त हवय, हम एक रंग रंग जाबो जी,
"हम एक हवन, हम नेक हवन" दुनिया ला आज बताबो जी ।

एकर कतेक गुन गाई हम, ये ऋतु के महिमा हे अनंत
आथय सबके जिनगानी-मा, गर्मी, बरखा, जाड़ा, बसंत ।
  • जनकवि कोदूराम “दलित”
********************************
रोला छन्द - जितेंद्र वर्मा खैर झिटिया

रितु बसंत

गावय  गीत बसंत,हवा मा नाचे डारा।
फगुवा राग सुनाय,मगन हे पारा पारा।
करे  पपीहा  शोर,कोयली  कुहकी पारे।
रितु बसंत जब आय,मया के दीया बारे।

बखरी  बारी ओढ़,खड़े  हे लुगरा हरियर।
नँदिया नरवा नीर,दिखत हे फरियर फरियर।
बिहना जाड़ जनाय,बियापे  मँझनी बेरा।
अमली बोइर  आम,तीर लइकन के डेरा।

रंग  रंग के साग,कढ़ाई  मा ममहाये।
दार भात हे तात,बने उपरहा खवाये।
धनिया  मिरी पताल,नून बासी मिल जाये।
खावय अँगरी चाँट,जिया जाँ घलो अघाये।

हाँस हाँस के खेल,लोग लइका मन खेले।
मटर  चिरौंजी  चार,टोर के मनभर झेले।
आमा  अमली डार, बाँध  के झूला झूलय।
किसम किसम के फूल,बाग बारी मा फूलय।

धनिया चना मसूर,देख के मन भर जावय।
खन खन करे रहेर,हवा सँग नाचय गावय।
हवे  उतेरा  खार, लाखड़ी  सरसो अरसी।
घाम घरी बर देख,बने कुम्हरा घर करसी।

मुसुर मुसुर मुस्काय,लाल परसा हा फुलके।
सेम्हर हाथ हलाय,मगन हो मन भर झुलके।
पीयँर  पीयँर पात,झरे  पुरवा आये तब।
मगन जिया हो जाय,गीत पंछी गाये तब।

माँघ पंचमी होय,शारदा माँ के पूजा।
कहाँ पार पा पाय,महीना कोई दूजा।
ढोल नँगाड़ा झाँझ,आज ले बाजन लागे।
आगे  मास बसन्त,सबे कोती सुख छागे।

जीतेन्द्र कुमार वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को,कोरबा(छ्ग)
*********************************

रोला छन्द - गजानंद पात्रे

ऋतु  बसंत शुरुआत,आज ले  होगे संगी।
मन मा  जगे उमंग,देख  फुलवा सतरंगी।
जीव  जंतु अउ पेड़,लता  सब नाचे झूमे।
प्रेम  रंग भर  राग ,रीति  रस यौवन चूमे।।

मधुर  माधवी गंध, महक छवि  सने रसाला।
झपत झार मधु अंध,देख अब बनके प्याला।
फूले  फूल पलाश,लगे जस  सजे स्वयंबर।
ऋतु  बसन्त  बारात,चले  हे अवनी अम्बर।।

स्वागत  खड़े दुवार,चमेली  कुरबक बेला।
कमल आम  कचनार, नीम अउ नींबू केला।
बजे  नगाड़ा   ढोल, कोयली   फगुवा गाये।
लगे  मया के  रंग, सबो के  मन हरसाये।।

रचना:- इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"
**********************************

घनाक्षरी छन्द - जितेंद्र वर्मा “खैरझिटिया”

बसन्त ऋतु

अमरइया मा जाबों,कोयली के संग गाबो
चले सर सर सर,पुरवइया राग मा।।
अरसी हे घमाघम,चना गहूँ चमाचम
सरसो मँसूर धरे,मया ताग ताग मा।
अमली झूलत हवै,अमुवा फुलत हवै,
अरझ जावत हवै,जिवरा ह बाग मा।
रौंनिया म माड़ी मोड़,पापड़ चना ल फोड़
खाबों तीन परोसा गा,सेमी गोभी साग मा।

जब ले बसंत लगे,बगुला ह संत लगे
मछरी ल बिनत हे, कलेचुप धार मा।।
चिरई के बोली भाये, पुरवा जिया लुभाये
लाली रंग रंगत हे, परसा ह खार मा।।
खेत खार घर बन,लागे जैसे मधुबन
तरिया मा मुँह देखे,बर खड़े पार मा।।
बसंत सिंगार करे,खुशी दू ले चार करे
लइका कस धरती ह,हाँसे जीत हार मा।।

दोहा-

परसा सेम्हर फूल हा,अँगरा कस हे लाल।
आमा बाँधे मौर ला,माते मउहा डाल।1।

पुर्वाही सरसर चले,डोले पीपर पात।
बर पाना बर्रात हे,रोजे दिन अउ रात।2।

खिनवा पहिरे सोनहा,लुगरा हरियर पान।
चाँदी के पइरी सजा,बम्हरी छेड़े तान।3।

चना गहूँ माते हवै,नाचे सरसो खेत।
अरसी राहर लाखड़ी,हर लेथे मन चेत।4।

नाचत गावत माँघ मा,आथे देख बसन्त।
दुल्हिन कस लगथे धरा,छाथे खुशी अनन्त।5।

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को(कोरबा)

*******************************
बसंत के दोहा - अजय अमृतांशु

कोयल कूके डार मा, आमा मउँरे जाय।
सरसो पींयर हे फुले,परसा फर मुस्काय।

ना सरदी के कोप हे, ना गरमी के धूप।
शीतल मंद बयार हे, मौसम बदले रूप।

पीपर पाना डोल के,सबके मन ला भाय।
गोंदा चुक ले हे फुले,कपसा हा बिजराय।

झोझो बने लपेट के,माँग माँग के खाय।
मुनगा आलू संग मा,सिरतो गज़ब मिठाय।

अंधी हे राहेर के,अउ बटकर के साग।
तिंवरा भाजी संग मा खाना हे ता भाग।

- *अजय अमृतांशु*
***********************************
घनाक्षरी छन्द - दिलीप कुमार वर्मा

लग गे बसंत मास,रख जिनगी मा आस,
हावय महीना खास,मान एसो साल जी।
शारद दाई ह आही, सुख ओहा बरसाही,
कोयलिया गीत गाही,हवा देही ताल जी।
सरसो पलाश फूले,अमुवा म मौर झूले,
महुवा महक मारे,फूले डाल डाल जी।
नगाड़ा म फाग गाही,रंग सबो बरसाही,
धरती ह हरसाही,उड़ही गुलाल जी।

दिलीप कुमार वर्मा
बलौदा बाज़ार
************************************
वसंती वर्मा: *छप्पय*  *छंद*

              *बैरी* *बसंत*

कुहू-कुहू के बोल,सुनें ता मन हा डोले।
कोयल के जी बोल,कि मन के गाँठ ल खोले।।
देख बैरी बसंत,फेर आगे बिन बोले।
जोही सुरता आय,कि मन अब होथे रो ले।।
जोही हे परदेश मा,मन मा ताप हमाय जी।
सुरता मा तन-मन जरे,काबर बसंत आय जी।।

        -वसन्ती वर्मा
*************************************

दोहावली-श्रीमती आशा आजाद

माँ शारदा

सरी  जगत के तारिणी, शारद  माई मोर।
सुमिरत हावव तोहिला,दुनो हाथ ला जोर।।

मोला  विद्या  ज्ञान दे,ले  ले श्रद्धा भाव।
सत के मारग रेंग के,सुमता जग मा लाव।।

भाईचारा   राह मा,सबझन   रेंगत जाय।
अइसन सुमता लाव मँय,मनखे मन मुस्काय।।

हे  दाई  सुन शारदा,इही   मोर गोहार।
सुमिरत तोरे नाँव ला,बगरे सत व्यवहार।।

इही मोर विनती हवय,पावव मँय सत ज्ञान।
सरी जगत मा नाँव हो,मिलत रहय सम्मान।।

सुनले दाई शारदा,झन बिगड़े जी काम।
नेक भाव  संदेश ले,होत रहय जी नाम।।

रचनाकार-श्रीमती आशा आजाद
पता-मानिकपुर कोरबा छत्तीसगढ़