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Monday, June 26, 2023

योग दिवस विशेष-छंदबद्ध सृजन

 योग दिवस विशेष-छंदबद्ध सृजन


पात्रे जी: मत्तगयंद सवैया- योग


योग करौ सब लोग करौ हँस लौ सब ला तुम रोज हँसा के।

स्वस्थ समाज निरोग समाज रखौ सपना नित नैन बसा के।।

लोगन योग हवे दुरिहावत नास नशा तन फाँस फँसा के।

जाग जगा अभियान चला सब ला बतला नुकसान नशा के।।


योग निवारण रोग करे रख स्वस्थ निरोग बने हितकारी।

का बुढ़हा अउ का लइका सब योग करौ सुन लौ नर नारी।।

लोम विलोम कपाल सुखासन आवन दे नइ पास बिमारी।

योग गजानन रोज करे महके जिनगी बन के फुलवारी।।


छंदकार- इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"

बिलासपुर (छत्तीसगढ़)

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योग दिवस मा


मोर सोरठा छंद म आसन


करलव संगी योग, थोरक समे निकाल के।

ठाहिल संग निरोग, होवय तन मन हा सुघर।।


जिनगी सुघर बनाय, ठाहिल संग निरोग ये।

धीरज संयम आय, अपनाये ले रोज के।।


करथे दूर तनाव, धीरज संयम आय अउ।

तन ला अपन बचाव, बड़का बड़का रोग ले।।


बीमारी झन होय, तन ला अपन बचाव सब।

जाने बिरला कोय, आवय फोकट के दवा।।


जाने जें अपनाय, महिमा अड़बड़ योग के।

कहै ज्ञानु कविराय, करलव थोरक योग सब।।


ज्ञानुदास मानिकपुरी

चंदेनी कवर्धा

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 *मत्तगयंद सवैया - योग करौ*


रोज बिहान उठौ मुँह धोवव नाम जपौ हरि औ हर संगी।

पेट सफा सब रोग दफा कहिथे सच बात सबो नर संगी।।

योग करौ तन के सुख खातिर रोग नहीं जिनगी भर संगी।

आज तभे सब स्वस्थ समाज निरोग रही फिर का डर संगी।।


भारत विश्व गुरू कहलाइस योग सिखाइस स्वारथ त्यागे।

संत पतंजलि के रसता चल आलस छोड़ सबो नित जागे।।

योग महातम के गुन जानिन एखर ले कतको दुख भागे।

सूरज ले पहिली उठ के मनखे मन ध्यान लगावन लागे।।


योग करौ फिर रोग भगावव होथय ये जिनगी सुखदाई।

सेहत खातिर उत्तम साधन ये पइसा बिन होय सहाई।।

आवव तेज दिमाग बनावव औ करलौ सँग साथ भलाई।

शुद्ध विचार रहै मन भीतर आवव सोच बढ़ावव भाई।।


रचनाकार:-

बोधन राम निषादराज"विनायक"

सहसपुर लोहारा,जिला-कबीरधाम(छ.ग.)

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: योग भगाथे रोग

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(सोरठा छंद)


निसदिन करलव योग,मन मा सुग्घर ठान के।

नइतो होही रोग, तन मन चंगा हो जही।।


भारत के ये ज्ञान, रिसि मुनि सब साधे रहिन।

योग हवै वरदान, पाही जेहा झोंकही।।


मिट जाथे अवसाद,ठंडा होथे चित्त हा।

करे ओम के नाद, रस झरथे अनुलोम मा।।


साधे साँस विलोम, तेज बढ़ाथे भस्त्रिका।

जइसे फरियर व्योम, अंतस निर्मल हो जथे।।


करथे जे व्यायाम, तेकर बल हा बढ़ जथे।

रेंग बिहनिया शाम, हवा जनाथे जस दवा।


रोग बढ़ाथे भोग, मर्यादा ला लाँघ के।

सुख पाथें सब लोग, जे मन के तन स्वस्थ हे।।


 करथे योग किसान, माथ पछीना गार के।

सुग्घर हे पहिचान, मिहनत हा तो योग कस।



चोवा राम वर्मा 'बादल'

हथबंद, छत्तीसगढ़

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 योग महिमा( हरिगीतिका छंद )

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हे योग के महिमा गजब, दुनिया घलो  सब जानगें।

होथे हमर तन बर बने, मनखें  सबो अब मानगें।।

हो रोग कतको गा बड़े, सब दूरिहा जी भाग ही।

अउ पाय बर जी लाभ ला, दे बर  समय गा लागही।।


भरमार आसन के हवय,अड़बड़  नियम हे जान लव।

अब रोज करबो योग ला, अइसन परन सब ठान लव।।

मनखे जनम अनमोल हे, कर लव  जतन अब योग ले ।

सब रोग तन मन के हटा, संसार के सुख भोग ले।।

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-------छंदकार:- मोहन लाल वर्मा 

          ( छंद साधक सत्र- 03)

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*हरिगीतिका छंद*

(16/12),पदांत -212

2212 2212 2 , 212 2212

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नित योग प्राणायाम ले सब, रोग दुरिहा भागही।

तन-मन रही जब स्वस्थ सुग्घर, भाग हमरो जागही।

भारी हवय जी योग महिमा, ध्यान दे सुन लव सबो।

बिन योग कइसे स्वस्थ रहिहू, बात ये गुन लव सबो।।


संयम सिखाथे योग विद्या, चित्त मा स्थिरता भरे।

मन ला निरोगी स्वस्थ रख के, देह के पीरा हरे।

आधार प्राणायाम बनथे, बुद्धि बल बढ़वार के।

ये चेतना अंतस जगाथे, राखथे दुख टार के।।


उलझे रहन मत ठान लव अब, रात दिन बस काम मा।

रखबो हमन थोरिक लगा मन, ध्यान प्राणायाम मा।

येकर बिना जिनगी चलय नइ, सच इही हे जान लो।

कर योग प्राणायाम रखबो, स्वस्थ तन-मन ठान लो।


        *इन्द्राणी साहू "साँची"*

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Tuesday, June 20, 2023

जेठ मास---सवैया*

 *जेठ मास---सवैया*


जेठ जरे बड़ चाम तिपे तन पाँव घलो अगियावत हे। 

छाँव निंहीं सुख ठाँव निंहीं रुखुवा ह घलो अइँलावत हे।

ताल सुखे खग राग तजे सब कोन जगा लरघावत हे।

बेर ढरे तब ले रिस मा रवि देव चिढ़े बगियावत हे।


खोर गली सुनसान दिखे जुड़ छाँव तरी म लुकाय रथे।

प्यास हरे करसा मटका पसिया म  जिया ह लुभाय रथे। 

भाय निंहीं पटकू गमछा उघरा उघरा तन भाय रथे।

जेठ तिपे घुसियाय सहीं भभका चुलहा सिपचाय रथे।


रात बिते भुसड़ी चुहके पुरवा हघलो मिटकाय रथे। 

देंह फिजे जब धार बहे खटिया ह घलो सकलाय रथे।

नींद परे बिहना बिहना सुकुवा कुकरा ह जगाय रथे।

 का कहिबे यहु घाम घरी हलकान करे परवान रथे।


राजकुमार चौधरी "रौना"

टेड़ेसरा राजनांदगांव।

अरज दूज(रथ यात्रा विशेष) कविता


 अरज दूज(रथ यात्रा विशेष) कविता

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रथ चढ़े बड़े जान

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रथ चढ़े बड़े जान,जगन्नाथ भगवान,देवत हे वरदान, होवत हे गुणगान।

परब हे ये महान, रजुतिया के हे शान, भक्ति भाव के उफान, संस्कृति के आन बान।

 पूजा पाठ जप ध्यान,यज्ञ होम दान पान, भक्ति भाव के उफान,संस्कार के होथे ज्ञान।

रथयात्रा पहिचान,दूज तिथि फुरमान,पुरी बसे जग प्रान, पावन हे हिंदुस्तान।


चोवा राम वर्मा 'बादल'

हथबंद, छत्तीसगढ़

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दोहा- रथदूज 


तीर समुंदर के बसे,जगन्नाथ पुर धाम।

बहन सुभद्रा कृष्ण जी,बैठे हैं बलराम।।


शुक्ल पक्ष आषाढ़ के,रथ दुतिया हे आज।

पूजन कर जगनाथ के,पूरण होही काज।।


झालर घंटा हे बजे,होवे जयजयकार।

कहिथे जगन्नाथ के,महिमा अपरम्पार ।।


जगन्नाथ के आटिका, खाही जे इक बार।

कहिथे ज्ञानी संत जन, होही भव से पार।।


चार धाम में एक हे,जगन्नाथ के धाम।

तर जाही चोला मनुज,दर्शन कर घनश्याम।।


रथ में बइठे जगपिता,सँग सोहे बलराम।

बहन सुमद्रा बीच में,सुमिरो श्री घनश्याम।।


नगर गली मा घूम के,दर्शन दे भगवान।

पूरण होवे कामना,मन में अतका मान।।


भाई बहना सँग में,दर्शन पाते लोग।

गजामूँग फल फूल ले,लगा रहे हैं भोग।।


केवरा यदु"मीरा"राजिम

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 दोहा - रथयात्रा


महिना लगे अषाढ़ के, मन मा खुशी समाय।

पाख अँजोरी दूज के, रथ यात्रा जब आय।।


व्यास हवै जी सात फुट,सोलह चक्का संग।

ऊँचा   पैंतालीस  फुट, देखत  रहिबे   दंग।।


लम्बाई    पैंतीस  फुट, लकड़ी सुग्घर साज।

चौड़ाई   पैंतीस   फुट, बने हवै रथ  आज।।


बहिन  सुभद्रा  संग मा, जगन्नाथ भगवान।

अउ बइठे बलराम जी, रथ ला झिके सुजान।।


बने    मनाथे   देश  भर, रथयात्रा    त्यौहार।

कहिथे मनखे रजुतिया, चुक-चुक ले श्रृंगार।।


रचनाकार:-

बोधन राम निषादराज"विनायक"

सहसपुर लोहारा,जिला-कबीरधाम(छ.ग.)

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सरसी छंद-रथ यात्रा(गीत)


अरज दूज मा जगन्नाथ के,जय जय गूँजे नाम।

रथ मा कृष्ण  सुभद्रा  बइठे,बइठे  हे  बलराम।


चमचम चमचम रथ हा चमके,ढम ढम बाजय ढोल।

जुरे  हवै  भगतन  बड़  भारी,नाम  जपे  जय  बोल।

झूल झूल के रथ सब खीँचयँ,करै कृपा भगवान।

गजा - मूंग  के  हे  परसादी,बँटत  हवे  पकवान।

तीनों भाई  बहिनी लागय,सुख के सुघ्घर घाम।

अरज दूज मा जगन्नाथ के,जय जय गूँजे नाम।


दूज अँसड़हूँ पाख अँजोरी,तीनों होय सवार।

भगतन मन ला दर्शन देवै,बाँटय मया दुलार।

सुख अउ दुख के आरो लेके,सबके आस पुराय।

भगतन मनके दुःख हरे बर,अरज दूज मा आय।

नाचत  गावत  मगन सबे हे, रथ के डोरी थाम।

अरज दूज मा जगन्नाथ के,जय जय गूँजे नाम।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को(कोरबा)

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रूपमाला छंद- "जगन्नाथ भगवान"

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तीन रथ मा बइठ तीनों, जाय देखन हाल।

देख  तीनों रूप जेंकर, गूँजथे  सुर  ताल।।


चले  अगुवा  बलभद्र हा, सुभद्रा  हा  बीच।

कृष्ण रथ हा तीसरा हे, भक्त मन लय खींच।।


दरस पा के धन्य मानत, भाग ला सँहराय।

मूँग भीजे चना प्रसाद, झोंक ठोम्हा खाय।।


दूज तिथि मा निकल तीनों, गुंडेचा थिराय।

रहय  मौसी गुंडेचा घर, फेर  मंदिर  जाय।।


बसे मालिक हृदय सब के, नाथ जगत कहाय।

नाच गा के  भक्ति करके, आसीस ला  पाय।।


संग तीनों बहन भाई, रूप अचरित पाय।

नाथ तीनों लोक के ये, धाम पुरी कहाय।।

 

धन्य होगे  धाम  धरती, ओड़िसा  के  नाम।

कृष्ण बलराम के बहिनी, सुभद्रा सुख धाम।।

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द्रोपती साहू "सरसिज"


Monday, June 19, 2023

विश्व पिता दिवस के अवसर मा छंदबद्ध कविता

  विश्व पिता दिवस के अवसर मा छंदबद्ध कविता


*पूज्य पिताजी*

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*जीवन बगिया के तैं माली, निस दिन करे सम्हाल।*

*पूज्य पिताजी दुख के आगू, बने कवच अउ ढाल।।*



 खड़े रथस मुड़का कस बोहे ,

खाँध अपन परिवार।

मुस्कावत अउ हाँसत रइथस,

बाँटत मया दुलार।

सुख देये बर अंतस तोरे, नइये कभू दुकाल।

पूज्य पिताजी दुख के आगू, बने कवच अउ ढाल।।


ये धरती मा शिव शंकर कस,

तैं सँउहे भगवान।

 खुशहाली के अमरित देये,

करे कष्ट  विषपान।

हुरियाये दुर्दिन बइरी ला,बन अभाव बर काल।

पूज्य पिताजी दुख के आगू, बने कवच अउ ढाल।।


छाती मा लदकाये करजा, 

माथा चिंता भार।

पूछे मा मैं खुश हँव कइथस,

महिमा तोर अपार।

तोर कृपा पारस ला पाके,

हावन मालामाल।

पूज्य पिताजी दुख के आगू, बने कवच अउ ढाल।।


चोवा राम वर्मा 'बादल'

हथबंद,छत्तीसगढ़

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*पिता दिवस - मत्तगयंद सवैया*


मोर ददा बड़ पेड़ बरोबर गा छइँहा सुख लावत हावै।

जे जिनगी भर खूब सबो बर चाँउर दार भिड़ावत हावै।।

भूख पियास मरै बपुरा खुद जाँगर पेर कमावत हावै।

दुःख कभू पर जाय तहाँ चुपके हिरदे म दबावत हावै।


हाथ धरे लइका खुद के गुरु रूप सबोच सिखावत हावै।

अक्षर ज्ञान करा जिनगी बर सुग्घर राह दिखावत हावै।।

ये अँगरी धर के लइका खुद रेंगत-रेंगत जावत हावै।

हार कभू नइ मानय येहर जीत खुशी बगरावत हावै।।


बोधन राम निषादराज"विनायक"

सहसपुर लोहारा,जिला-कबीरधाम(छ.ग.)

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मुक्तामणि छन्द गीत

पितृ-दिवस


बाबू  पालनहार  हे,बाबू  मोर सहारा।

बाबू आवय देवता,बाबू सबले प्यारा।।


बाबू  सिरजनहार हे,बाबू  मोर विधाता।

बाबू तो संसार मा,सब ले बड़का दाता।।

कमा-कमा के लानथे,मुँह मा डारै चारा।।

बाबू  पालनहार  हे,बाबू  मोर सहारा।।


चरन कमल  के धूल हा,मोर माथ के चंदन।

करय द्वारिका रोज गा,बाबू तोला वंदन।।

सुरुज असन लाये सदा,जिनगी मा उजियारा।

बाबू  पालनहार  हे,बाबू  मोर सहारा।।


डी.पी.लहरे'मौज'

कवर्धा छत्तीसगढ़

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 कुण्डलिया छंद- पितृ दिवस


जीवन के दुख धूप मा, बने पिता सुख छाँव।

जेखर पा पावन चरण, भाग अपन सहराँव।।

भाग अपन सहराँव, पिता के दुलार पा के।

शिक्षा अउ संस्कार, दिये परदेस कमा के।।

मान पिता अभिमान, समर्पित हे ये तन-मन।

तोर नाम से नाम, मोर साँसा ये जीवन।।


पाथँव बहुत सुकून मैं, बइठ पिता के संग।

फेरे सर मा हाथ जब, मन मा जगे उमंग।।

मन मा जगे उमंग, मोर सब दुख मिट जाथे।

जीवन के सुख सार, सिखौना सीख सिखाथे।।

छोड़ शहर परदेश, गाँव मैं जब -जब जाथँव।

बचपन सही दुलार, पिता से अब भी पाथँव।।


इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"

बिलासपुर (छत्तीसगढ़)

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*गीतिका छंद*

*बाप रूप भगवान के*

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बाप बरगद के असन नित छाँव देथे सुख भरे।

बन सहारा संग रइथे रेंगथे अँगरी धरे।।


लानथे सुग्घर खिलौना खइ-खजानी छाँट के।

हो जथे गलती कहूँ ता राखथे वो डाँट के।।


बन जथे घोड़ा कभू अउ पीठ मा बइठारथे।

रीस मा चटकन घलो चेथी डहर ला मारथे।।


रातदिन मिहनत करय आराम ला जानय नहीं।

नव जथे कनिहा तभो ले हार वो मानय नहीं।।


कर सियानी गोठ रखथे जोड़ घर परिवार ला।

मुस्कुराके सह जथे परिवार के दुख भार ला।।


शब्द छोटे पर जवत हे देख ओकर शान ला।

का कहँव कइसे बखानँव बाप के गुनगान ला।।


दुख निवारत संग रइथे रूप मा भगवान के।

भाव कर "साँची" समर्पित बाप ला सम्मान के।।


     *इन्द्राणी साहू"साँची"*

         भाटापारा (छत्तीसगढ़)     

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*उल्लाला - छंद*


गिरे पसीना माथ ला, बाबू अबड़ कमाय गा ।

तब बइठे घर मा सबो, उछल उछल के खाय गा ।।


करथे मिहनत रात दिन, पानी बादर घाम मा।

पाले बर परिवार ला, जावय रोजे काम मा  ।।


*आशीष बघेल "जागृति"* 

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हरे घर के पटिया छत छप्पर धारन नेव मियार ददा।

अथाह समंदर मां बन केंवट खेत रहे पतवार ददा।

धरे सइते दुख ला मन भीतर बाहिर ले सुख सार ददा।

जरे जग ताप म जे जिनगी भर आज बने जग भार ददा।

शशि साहू

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Saturday, June 10, 2023

छत्तीसगढ़ी लोक संगीत के जादूगर श्री खुमान साव जी ला उनकर चौथइया पुण्यतिथि के अवसर म सादर प्रणाम करत, भाव सुमन अर्पित हे।


 

छत्तीसगढ़ी लोक संगीत के जादूगर श्री खुमान साव जी ला उनकर चौथइया पुण्यतिथि के अवसर म सादर प्रणाम करत, भाव सुमन अर्पित हे।


संगीत के जादूगर

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जादूगर संगीत कला के,गुरुवर साव खुमान।

छत्तीसगढ़ी लोक गीत ला, देये जग पहिचान।


गाँव ठेकुवा सन उनीस सौ, बछर रहिस उन्तीस।

पाँच सितम्बर जनम धरे तैं,देइन सब आसीस।

पढ़े-लिखे अउ गुरुजी बनके, बाँटे सुग्घर ज्ञान।

छत्तीसगढ़ के लोकगीत ला, देये जग पहिचान।


नाचा पार्टी मा तैं जावस,मँदराजी के संग।

तोर कला ला देखत लोगन,  हो जावयँ गा दंग।

हरमुनिया मा अँगरी खेलै, अमरित घोरै कान।

छत्तीसगढ़ के लोकगीत ला, देये जग पहिचान।


 रामचंद्र दाऊ के सँग मा, आइस अइसन मोड़।

तैं रम गेये जोगी जइसे, हिरदे नाता जोड़।

फुलिस चँदैनी गोंदा तब तो,धरती बर वरदान।

छत्तीसगढ़ के लोकगीत ला, देये जग पहिचान।


अदभुत धुन सिरजाये तैं हा,मन के मया चिभोर।

गाँव-गाँव अउ गली-गली मा, जेकर होगे सोर।

लोक गीत गा के रस घोरै, मस्तुरिया के तान।

छत्तीसगढ़ के लोकगीत ला, देये जग पहिचान।


भाव सुमन अर्पित हे गुरुवर, पुण्यतिथि मा आज।

बसे हवस जन-जन के हिरदे,अमर करे हस काज।

हे खुमान संगीत अमर तो, करथे जग गुणगान।

छत्तीसगढ़ के लोकगीत ला, देये जग पहिचान।


चोवा राम वर्मा 'बादल'

हथबंद, छत्तीसगढ़

Friday, June 9, 2023

जनकवि मस्तुरिया जी ला काव्याजंलि

 


 बादल: *जनकवि लक्ष्मण मस्तुरिया*

(भावांजलि)


*शब्द शब्द जेकर गीता हे, गीत गीत गंगा धारा।*

*जब ले सूरज चंदा रइही, सुरता करही जग सारा।।*


*कोन हवय जी मस्तुरिहा कस, साहित के चमकत हीरा।*

*जेकर कलम लिखै अउ गावै, दीन दुखी मन के पीरा।*

*देख दसा धरती मइयाँ के, दहकै अंतस  अंगारा ।*

*जब ले सूरज चंदा रइही, सुरता करही जग सारा।*


*मन के उज्जर छत्तीसगढ़िहा, मँदुरस कस गुत्तुर बोली।*

*छत्तीसगढ़ के पावन धुर्रा, जेकर माथा के रोली।*

*खँड़िच नहीं वो जात पाँत मा, बाँटे हे भाई चारा।*

*जब ले सूरज चंदा रइही, सुरता करही जग सारा।*


*छत्तीसगढ़ी रीत नीत के, जेकर हे कंठ खजाना।*

*करमा सुवा ददरिया पंथी, लोकगीत जेकर गाना।*

*चरन कमल मा माथ नवाववँ,जे हे जन-जन ला प्यारा।*

*जब ले सूरज चंदा रइही, सुरता करही जग सारा।*


चोवा राम 'बादल'

हथबन्द, छत्तीसगढ़

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ज्ञानू कवि: जनकवि मस्तुरिया जी ला काव्याजंलि


कुकुभ छंद


कहाँ लुकाये दिखय नही अब, गिरे परे के सँगवारी।

अलख जगाये ज्ञान दीप के, मेटे बर वो अँधियारी।।


दया मया अउ करम धरम के, गीत रोज के उन गावै।

सुनके अंतस हिलोर मारय, दुख पीरा बिसरा जावै।।


करय रातदिन बेटा हितवा, भाखा माटी के सेवा।

जनकवि तब वो नाम धराये, मिलगे जीते जी मेवा।।


ढोंग धतूरा आडंबर के, रहय विरोघी वो भारी।

देख नैन ले आँसू छलके, दीन दुखी अउ लाचारी।।


अमर नाम होगे दुनियाँ मा, हे लक्ष्मण मस्तुरिया जी।

आज कहाँ तँय पाबे अइसन, छत्तीसगढ़िया बढ़िया जी।।


छंदकार-ज्ञानुदास मानिकपुरी

चंदेनी-कबीरधाम

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सोरठा छंद


दुनिया भर मा शोर, उड़त हवय चारों डहर।

अमर नाम हे तोर, शत शत सादर हे नमन।।


जन जन के आवाज, बनके बोलस रोज तँय।

सबके हिरदै राज, करथस तैहा आज भी।।


मैं साथी हव तोर, गिरे परे मनखे तुँहर।

चलव संग मा मोर, दया मया बाँटत कहै।।


छत्तीसगढ़ के शान, दुनिया भर बगराय तँय।

सेवा अउ गुनगान, माटी के सेवा करे।।


रखे जिहाँ तँय पाँव, सात जून उनचास के।

ओ मस्तूरी गाँव, भाग अपन सहरात हे।।


मस्तुरिया के नाम, सबके हिरदै मा बसे।

सादर मोर प्रणाम, अइसन जनकवि ला हवै।।


छंदकार- ज्ञानुदास मानिकपुरी

चंदेनी- कवर्धा

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दोहा छंद- अशोक धीवर "जलक्षत्री"


लक्ष्मण मस्तुरिया हरय, ये माटी के शान।

साहित भाखा गीत के, रखे हवय वो मान ।।

छत्तीसगढ़ी गीत ला, लिख-लिख के वो गाय ।

बोली भाखा के अपन, सुग्घर मान बढ़ाय।।

संग चलव कहिके अपन, सुग्घर गीत बनाय।

परे-डरे ला संग मा, ले के सँघरा जाय।।

बंदत हँव दिन-रात वो, कहत करे जयकार।

धरती माँ के पूत बन, सेवा करे अपार।।

गाड़ी वाला लेग जा, पता अपन दे जाव।

लक्ष्मण मस्तुरिया कहे, मोर संग सब आव।।

दया-मया के गीत ला, गुरतुर-गुरतुर गाय।

लोगन के अंतस छुए, जनकवि वो कहलाय।।

रइही मस्तुरिया अमर, जुग-जुग चलही नाम।

वोखर नाम लिए बिना, सुन्ना साहित धाम।।

खाली रइही वो जघा, जेमा लक्ष्मण जाय।

भाखा के सम्मान बर, जिनगी अपन खपाय।।

पार पाय नइ हम सकन, भाव गीत के तोर।

नइ भूलन उपकार ला, श्रद्धांजलि हे मोर।।

"जलक्षत्री" हा भाव ला, समझ सकय नइ तोर।

माटी महिमा गाय हव, दया-मया ला जोर।।


 रचनाकार- अशोक धीवर "जलक्षत्री"

ग्राम- तुलसी (तिल्दा-नेवरा)

जिला- रायपुर (छत्तीसगढ़) 

मोबाइल नंबर- 9300716740

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 लावणी छंद गीत- मोहन लाल वर्मा 

*लक्ष्मण मस्तुरिया के सुरता*


लक्ष्मण मस्तुरिया के सुरता, कइसे गा हम बिसराबो ।

जब-जब सुनबो अमर गीत ला, आगू मा सउँहे पाबो ।।1।

लक्ष्मण मस्तुरिया के सुरता,------


ये माटी के स्वाभिमान के, गीत सदा जे  गाइँन हें ।

मँय छत्तीसगढ़िया अँव कहिके, जग मा अलख जगाइँन  हें ।।2।

दया-मया के परवा छानी, सुरता मा ओकर छाबो ।।

लक्ष्मण मस्तुरिया के सुरता,------


बन गरीब के हितवा-मितवा, संग चले बर जे बोलँय ।

माघ-फगुनवा मा सतरंगी, मया- रंग ला जे घोरँय ।।3।

देश मया के भारत गीता, संदेशा ला बगराबो ।।

लक्ष्मण मस्तुरिया के सुरता,-----


महानदी-अरपा-पइरी मा, जब- तक पानी हा रइही ।

अपन दुलरवा ये बेटा के, अमर कहानी ला कइही ।।4।

परके सेवा मोर सिखानी, बात कहे ला दुहराबो ।।

लक्ष्मण मस्तुरिया के सुरता,------


सुवा-ददरिया-करमा-पंथी, गुरतुर सुर मा जे गावैं ।

सुरुज-जोत मा करँय आरती, छइयाँ भुइँया दुलरावैं  ।।5।

अइसन जनकवि के चरनन मा, श्रद्धा के फूल चढ़ाबो ।।

लक्ष्मण मस्तुरिया के सुरता,------


लक्ष्मण मस्तुरिया के सुरता, कइसे गा हम बिसराबो ।

जब-जब सुनबो अमर गीत ला, आगू मा सउँहे पाबो ।।


छंदकार- मोहन लाल वर्मा 

पता:- ग्राम-अल्दा,तिल्दा,रायपुर 

(छत्तीसगढ़)

Monday, June 5, 2023

संत कबीर प्राकट्य दिवस विशेष

 संत कबीर प्राकट्य दिवस विशेष




दोहे - सुखदेव सिंह"अहिलेश्वर"


बीत जही बिपदा घड़ी, मन मा धर ले धीर।

सन मा हे आठो पहर, सद्गुरु दास कबीर।।


मूढ़-मती के माथ मा, आ जाही सद्ज्ञान।

सुनही संत कबीर ला, जे दिन देके ध्यान।।


झूठ ढोंग पाखण्ड के, घपटे घुप-ॲंधियार।

वाणी शबद कबीर के, करत रथे उजियार।।


जाति-धरम के नॉंव मा, खींचे कहूॅं लकीर।

जान रिसागे तोर ले, सद्गुरु दास कबीर।।


प्रेम भक्ति अइसे करी, जइसे करिस कबीर।

देख सुफल जोनी जनम, सहुॅंराहय तकदीर।।


रचना-सुखदेव सिंह'अहिलेश्वर'

गोरखपुर कबीरधाम छत्तीसगढ़

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दोहा छंद

संत कबीर 


ज्ञान भक्ति के पंथ मा, ऊँच माथ बड़ धीर। 

ज्ञान दीप बाती जरय, दोहा गुनव कबीर।। 


निर्गुण ज्ञान कपाट हे,नाव सुमर धर 

आस। 

कहाँ ढूँढबे राम ला,अंतस अपने खास।। 


जात-पात झन भेदकर, मानवता धर ध्यान। 

जिहाँ जिहाँ ज्ञानी मिलय, अंतस भर ले ज्ञान।। 


जइसन जेखर धारणा , वइसन वोखर भेष। 

समरसता के आन बर,दे कबीर संदेश।।


मनखें तन ला पाय हस, कर ले तँय उपकार।

बड़ परोपकारी बनव,पेड़

पौध गुनकार।। 

 

डॉ मीता अग्रवाल मधुर रायपुर छग

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: कुण्डलिया छंद- सुन लौ संत कबीर के-


सुन लौ संत कबीर के, बोली सच अनमोल।

मन के अंध किवाड़ ला, देही झटकुन खोल।।

देही झटकुन खोल, ढ़ोंग के सब दरवाज़ा।

चल लौ राह कबीर, कहत हे कब से आ जा।।

तथाकथित पाखंड, छोड़ के सच बर गुन लौ।

जिनगी मा उजियार, तभे होही जी सुन लौ।।


बोली संत कबीर के, शबद-शबद गुन ज्ञान।

भटक-भटक झन खोज मन, पथरा मा भगवान।।

पथरा मा भगवान, कहाँ तँय मनुवा पाबे।

सेवा दीन ग़रीब, करे ले भव तर जाबे।।

पढ़े लिखे इंसान, खेल झन आँख मिचोली।

आजौ शरण कबीर, मान लौ कहना बोली।।


सोंचे आज कबीर हा, देख जगत के हाल।

झूठ ढ़ोंग पाखंड के, फ़इले अब तक जाल।।

फ़इले अब तक जाल, कोंन जी सच ला परखे।

जाति धरम के आड़, डँसत मनखे ला मनखे।।

छाँया छूत अछूत, मनुज तन-मन मा खोंचे।

गजानंद कविराय, कबीरा देखत सोंचे।।


रचना- इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"

बिलासपुर (छत्तीसगढ़)

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 सार छन्द गीत


ए दुनिया मा तोर बात ला,माने कोन कबीरा।।

सत्य बात ला माने बर तो,सब ला होथे पीरा।।


आडंबर ला छोड़व कहिके,कतका ला समझाये।

तभो आजकल के मनखे हा,एही मा बउराये।।

जात-धरम के सब मनखे ला,खावत हावय कीरा।

ए दुनिया मा तोर बात ला,माने कोन कबीरा।।(1)


एक बरोबर सब मनखे ला,सतगुरु साहिब माने।

तोर सिखाये सत्य ज्ञान ला,लोगन समझें आने।।

तोर सहीं अब कोन इहाँ हे,सच्चा आज फकीरा।।

ए दुनिया मा तोर बात ला,माने कोन कबीरा।।(2)


ऊँच-नीच अउ छुआछूत के,छाये हावय जाला।

सत्य बात बोले बर सब के,मुँह मा लगगे ताला।।

अक्षर अक्षर तोर लिखे हा,जइसे मोती,हीरा।

ए दुनिया मा तोर बात ला,माने कोन कबीरा।।(3)


डी.पी.लहरे"मौज"

कबीरधाम छत्तीसगढ़

सप्रेम साहेब बंदगी

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विश्व पर्यावरण दिवस विशेष- छंदबद्ध कविता







विश्व पर्यावरण दिवस विशेष- छंदबद्ध कविता 

लावणी छंद-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

धरती दाई

जतन बिना धरती दाई के, सिसक सिसक पड़ही रोना।
पेड़ पात बिन दिखे बोंदवा, धरती के ओना कोना।।

टावर छत मीनार हरे का, धरती के गहना गुठिया।
मुँह मोड़त हें कलम धरइया, कोन धरे नाँगर मुठिया।
बाँट डरे हें इंच इंच ला, तोर मोर कहिके सबझन।
नभ लाँघे बर पाँख उगा हें, धरती मा रहिके सबझन।
माटी ले दुरिहाना काबर, आखिर हे माटी होना।
जतन बिना धरती दाई के, सिसक सिसक पड़ही रोना।।

दाना पानी सबला देथे, सबके भार उठाय हवै।
धरती दाई के कोरा मा, सरि संसार समाय हवै।
मनखे सँग मा जीव जानवर, सब झन ला पोंसे पाले।
तेखर उप्पर आफत आहे, कोन भला ओला टाले।
धानी रइही धरती दाई, तभे उपजही धन सोना।
जतन बिना धरती दाई के, सिसक सिसक पड़ही रोना।

होगे हे विकास के सेती, धरती के चउदा बाँटा।
छागे छत सीमेंट सबे कर, बिछगे हे दुख के काँटा।
कभू बाढ़ मा बूड़त दिखथे, कभू घाम मा उसनावै।
कभू काँपथे थरथर थरथर, कभू दरक छाती जावै।
देखावा धर मनुष करत हे, स्वारथ बर जादू टोना।
जतन बिना धरती दाई के, सिसक सिसक पड़ही रोना।

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को, कोरबा(छग)
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कुंडलियाँ छ्न्द

जामे नान्हे पेड़ हे,एती वोती देख।
समय हवै बरसात के,बढ़िया जघा सरेख।
बढ़िया जघा सरेख,बगीचा बाग बनाले।
अमली आमा जाम,लगाके मनभर खाले।
हवा दवा फर देय,पेंड जिनगी ला थामे।
खातू पानी छींच,मरे झन पौधा जामे।।

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को(कोरबा)

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*लावणी छंद* -पर्यावरण 

जतन करव भुइँया के संगी, हरियर पेड़ लगा लव गा।
जिनगी खातिर जुरमिल के सब, पर्यावरण बचा लव गा।।

होही हरियर भुइँया सुग्घर, चारो कोती खुशहाली।
खेत-खार मा लहराही जी, हरियर पाना अउ डाली।।
मिहनत करके तुमन सबो झन, धरती सरग बना लव गा।
जिनगी खातिर जुरमिल के सब, पर्यावरण बचा लव गा।।

शुद्ध हवा बड़ मिलही सबला, मिलही निर्मल पानी हर।
हमर पेड़ पौधा ले चलथे, जानव ए जिनगानी हर।।
हरियर रुखवा के छइँहा मा, थोरिक तो सुरतालव गा।
जिनगी खातिर जुरमिल के सब, पर्यावरण बचा लव गा।।

राजकुमार निषाद"राज"
साधक- सत्र -१७

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शंकर छंद (ऊदा-बादी)
काट-काट के जंगल झाड़ी, पारे गा उजार।
ठँव-ठँव मा तैं चिमनी ताने, परिया खेत खार।
धुँगिया-धुँगिया चारों कोती, बगरे शहर गाँव।
खाँसी-खोखी खस्सू-खजरी, सँचरगे तन घाव

पाटे नरवा तरिया डबरा, देये नदी बाँध।
खोज-खोज के चिरई-चिरगुन, खाये सबो राँध।
बघवा‌ भलुवा मन छेंवागे, देये तहीं मार।
जल‌ के जम्मो जीव‌ नँदागे, नइहे तीर तार।

कोड़-कोड़ के डोंगर-पहरी, बनाये मैदान।
होवत-हावय रोज धमाका, खूब खने खदान।
भरभर-भरभर मोटर गाड़ी, घिघर-घारर शोर।
तोरे झिल्ली पन्नी जग मा, देइस जहर घोर।

छेदे छिन छिन छाती धरती, छेद डरे अगास।
खेती खाती डार रसायन, माटी करे नास।
मनमाने मोबाइल टावर, ठँव-ठँव करे ठाढ़।
आनी बानी तोर यंत्र हे, गेइन‌ सबो बाढ़।

सिरतो मैं हा काहत हाबव, बने सुन दे कान।
जिनगी जीबे हली-भली गा, कहे मोरे मान।
रोक रोक अब ऊदा-बादी, होगे सरी नास
रूरत हे तन देखत देखत, थमहत हवय साँस।

  - मनीराम साहू 'मितान'
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विश्व पर्यावरण दिवस म,

सार छंद(गीत)-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

                  "धरती दाई "

चंदन  माटी  राखड़ भइगे,का के तिलक लगावौं।
बंजर होगे खेत खार सब,काय फसल उपजावौं।

सड़क सुते हे लात तान के,महल अटारी ठाढ़े।
मोर नैन  मा निंदिया नइहे,संसो दिनदिन बाढ़े।
नाँव  बुझागे  रुख राई के,धरा  बरत हे बम्बर।
मन भीतर मा मातम छागे,काय करौं आडम्बर।
सिसक सकत नइ हावौं दुख मा,कइसे राग लमावौं।
चंदन  माटी  राखड़ भइगे,का के तिलक लगावौं---।

मोटर  गाड़ी  कार  बनत हे,उपजै सोना चाँदी।
नवा जमाना जल थल जीतै,पतरी परगे माँदी।
तरिया  परिया  हरिया  हरगे,बरगे मया ठिठोली।
हाँव हाँव अउ खाँव खाँव मा,झरगे गुरतुर बोली।
नव जुग हे अँधियार कुँवा कस,भेड़ी असन झपावौं।
चंदन  माटी राखड़ भइगे,का के तिलक लगावौं---।

घुरय हवा पानी मा महुरा ,चूरय  धरती दाई।
सुरसा मुँह कस स्वारथ बाढ़य,टूटय भाई भाई।
हाय विधाता भूख मार दे,तन ला कर दे कठवा।
नवा समै ला माथ नवाहूँ,जिनगी भर बन बठवा।
ठिहा ठौर के कहाँ ठिकाना,दरदर भटका खावौं।
चंदन  माटी  राखड़ भइगे,का के तिलक लगावौं।

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को(कोरबा)


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---- पेड़ लगावव

खेत- खार  मा  पेड़ लगावव ।
धरती  ला  जी  सरग  बनावव ।।

शुद्ध  हवा  शीतल  पुरवाई ।
रुख- राई  हे  बड़  सुखदाई ।।

जुरमिल  पेड़  लगावव  भइया ।
तीपत  हावय  धरती  मइया ।।

पेड़  कभू  झन  काटव  भाई ।
जिनगी  के  होही  करलाई ।।

आवव  सब  झन  पेड़  लगावव ।
जन- मानस  ला  बात  बतावव ।।

रुख- राई  हा  मन  ला भावय ।
भुइयाँ  मा  हरियाली  लावय ।।

मुकेश उइके "मयारू"
ग्राम- चेपा, पाली, कोरबा(छ.ग.)

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- मत्तगयंद सवैया*

पेड़ कटावत जंगल के अब चातर होवत कोन बचाही।
जीव जिनावर जाय कहाँ इँखरो सुख सोचव जी छिन जाही।।
बाँध सुखावत नीर बिना विपदा अब देखव दौड़त आही।
चेत करौ अब पेड़ लगावव ये भुइयाँ तब तो हरियाही।।

शुद्ध हवा बिन पेड़ कहाँ अब दूषित होवत जावत हावै।
साँस इहाँ महँगा कस लागय देखव लोग बिसावत हावै।।
देख अगास धुआँ सब डाहर जाहर रूप उड़ावत हावै।
सूरज देव घलो अब तो धमका बहुते बरसावत हावै।।

बाढ़त हे गरमी अब तो नदिया-नरवा-रुख आज सुखावै।
का दिन बादर आय हवै अब सूरज देव जरावत हावै।।
नीर बिना तड़पै सब जीव बता कइसे अब प्राण बचावै।
हे भगवान करौ बरसा सब जीव इहाँ हिरदे जुड़वावै।।

रचना:-
बोधन राम निषादराज"विनायक"
सहसपुर लोहारा,जिला-कबीरधाम(छ.ग.)

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 मत्तगयंद सवैया*

पेड़ लगावव ~ विरेन्द्र कुमार साहू

नी हरियावय  ये  धरती हर, पेड़ लगावव गोठ करे ले।
गांव-गली परती सँवरे नइ, कागज मा बस नेंव धरे ले।
पेड़ बचा अउ  पेड़ लगा तँय, पार लगे नइ पाँव परे ले।
स्वर्ग इहें  भुँइया गर सुंदर, स्वर्ग मिले  नइ तोर मरे ले।।

कवि-
विरेन्द्र कुमार साहू बोड़राबांधा
जिला - गरियाबंद छत्तीसगढ़
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 *लावणी छंंद*
रुख-राई हा आज उजरगे, जंगल बनगे हे परिया।
भू-जल स्तर गिरगे हावय अब, सुक्खा परगे हे तरिया।। 

जीव-जंतु मन तरसत हें सब, छाँव कहाँ एमन पावय।
अब हावय भरमार स्वार्थ के, रुख-राई कोन लगावय।। 

आज प्रदूषण बढ़गे हावय, अब्बड़ घाम जनावत हे।
बेरा आगी उगलत हावय, सब झन ला तड़पावत हे।। 

रुख-राई ला आज लगाके, धरती ला सबो बचावव।
धरती के दोहन कम करके, भुइयाँ ला सरग बनावव।।

*अनुज छत्तीसगढ़िया*
*पाली जिला कोरबा*
*सत्र 14*
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मदिरा सवैया-


कोंन लगावत पेड़ इँहा अब काम विकास विनाश हवे।

रोज कटावत पेड़ जिहाँ मनखे सुख स्वारथ दास हवे।।

शुद्ध हवा जलवायु कहाँ हर साँस प्रदूषण पास हवे।

चेत गजानन तैं कर ले जिनगी बिरवा बिन लाश हवे।।


मोटर कार अँधाधुँध दौड़त छोड़त खूब अशुद्ध हवा।

पेड़ बिना भुइँया तिपगे जइसे तिपथे चढ़ आग तवा।।

रोग समाय दमा तन मा तरसे मनखे तब साँस दवा।

जान गजानन पेड़ बिना जिनगी नइ होय बिहान नवा।।


रचना- इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"

बिलासपुर (छत्तीसगढ़)

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दोहे 


1-

बइठे कालीदास बन, नीचे काटय डाल |

देख आज इन्सान मन, खुदे बलावय काल ||

2-

हरा-भरा सब पेड़ के, करदिन सत्यानाश |

आ बइला तैं मार ले, होइन जिन्दा लाश ||

3-

कोनो ला मतलब नही, अपने में सब खोय |

शुद्ध कहाँ पर्यावरण, अइसन मा जी होय ||

4-

जंगल झाड़ी काट के, नइ पछतावय लोग |

अंत घड़ी सुरता करे, जभे झपाइस रोग ||

5-

शर्माबाबू देख लव, कोन भला समझाय |

आज मुरुख इन्सान ला, बुद्धि कहाँ ले आय ||


कमलेश प्रसाद शर्माबाबू 

कटंगी-गंडई जिला-केसीजी 

साधक सत्र-20

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केंवरायदु: दोहा छंद 


लीम आँवला पेड़ हा,औषधि के भंडार।

 होही शुद्ध पर्यावरण, मिलही शुद्ध बयार।।


राखो शुद्ध पर्यावरण,पेड़ लगा दू चार।

बोंले रुखवा लीम के,परबे नहीं बिमार।।


मानुष जीवन पाय के,करले पर उपकार। 

शुद्ध हवा मिलही सुनव, पेड़ लगा दू चार।।


पेड़ लगाबो आज ले,जंगल वो बन जाय।

पर्यावरण सुधार के सबले सरल उपाय।।


बड़ पीपर के पेड़ के,कर पितु कस सम्मान।

पर्यावरण सुधार ले,होही रोग निदान।।


केवरा यदु"मीरा"राजिम

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कमलेश्वर वर्मा 9: प्रकृति रानी


 पर्यावरण सबो ला देथे, सुग्घर सुख के जिनगानी।

 रखव अवइया दिन बर संगी, तुम रुख-राई अउ पानी।।

 करिया- करिया धुआँ करत हे,  बीमारी अउ नुकसानी।

 जहर असन अब घुलत हवा मा,साँस होत नइ आसानी।।


 तरिया-नदिया तक मइलागे, जउन हमर हे कल्यानी।

 कचरा मन के ढेर लगा के, करथन जम्मों नादानी।।

 जादा हल्ला-गुल्ला सुनके, होवत हाबय परशानी।

 बिकट प्रदूषण ले पड़ जाही, दुनिया ला मुँह के खानी।।

साफ हवा अउ फरियर जल बर, उदिम करव आनी-बानी।

 पेड़ लगावव पेड़ बचावव,झन काटव तुम मनमानी।।

चिरई-चिरगुन जीव-जंतु के, कम गूँजत मीठा बानी।

सब सँवार दव जुरमिल संगी, हरियर हमर प्रकृति रानी।।


रचना --कमलेश वर्मा

सत्र -09

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 अशोक कुमार जायसवाल: विश्व पर्यावरण दिवस मा

*कुकुभ छंद*

हमर गाँव आबे बरसा मा, हरियाली सुघर दिखा हूँ|

रूख खोंधरा मा चिरई के, सुघ्घर गीत सुना हूँ ||


तरिया नदिया नरवा भरगे,  तउरत कस गाँव दिखा हूँ |

खेत खार सब उल्ला भागे, मुही चोरिया खेलाहूँ ||


चरण पखारत महादेव के, छलकत तरिया के पानी |

जेकर आशीर्वाद मिलेले, हमर चलत हे जिनगानी ||


बबा गुड़ी मा रामायण के, कथा कहय सुघ्घर गा के |

तोरो हिरदे गदगद होही, पावन भुइँया मा आ के ||


अशोक कुमार जायसवाल

भाटापारा

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