_पढ़इया लइका के गर्मी छुट्टी_
*कुकुभ छंद* - अश्वनी कोसरे 'रहँगिया'
लइकन जब पढ़थें इसकुल मा, सरग बरोबर लगथे जी |
फुलवारी के फूल बरोबर, अँगना सबो महकथे जी ||
जब छुट्टी होथे लइकन के, गर्मी के मौसम होथे |
नाना - नानी के घर मा फिर, देख उधम कइसे होथे ||
दिन - दिन भर घुमथें लइकन मन, गली - खोर अउ पारा मा |
गिल्ली - डंडा भौरा - बांटी, खेलँय घलो बियारा मा ||
नवा जमाना के खेलौना, मोबाइल ले खेलत हें |
छुटगे कथा कहानी सुनना, पालक मन दुख झेलत हें ||
कम्प्यूटर कस मशीन जुग मा, टीवी अउ दुनिया दारी |
पढ़ई - लिखई ला बिसरा के, समय गँवावत हें भारी ||
रतिहा जागे ताकत रहिथें, मार - मार उन चिल्लाथें |
आँखी - कान घुसरगे भीतर, सोय नींद मा चिचियाथें ||
डाटा रोज सिरावत हावय, बिक्कट नशा हमागे हे |
नान - नान लइकन मन लत मा, अपने ले दुरिहागे हें ||
समझावन व्यवहार बने के, जिनगी भर लइका रोही |
बात करे मा हल मिलथे, घर ले अपन पहल होही ||
संग रहँय दादा - दादी के, सबो सीख सुग्घर पाहीं |
पुरखा मन के गोठ सियानी, सब विकार दुरिहा जाहीं ||
कभू खेत ले जावन उनला, जानँय भेद परिश्रम के |
सिरजावत सिरजन ला देखँय, देख करम कइसे दमके ||
बढ़इ ठठेरा कर्मकार के, कारज ले परिचित होंही |
उपजइया उपजाथे कइसे, देख समझ के सुख बोंही ||
हटरी बजार लेके जावन, जिनगी ले उन जुड़ पाहीं |
सीख धरे के सुग्घर मउका, घेरी- बेरी गुन गाहीं ||
तरिया - नरवा जल संसाधन, कुआँ बगइचा ला जानय |
दाना - पानी उगथे कइसे, कीमत इँकरो पहिचानय ||
रधनी खोली हाँथ बटावँय, कइसे आटा हर सनथे |
धोवँय बरतन जेवन परसँय, देखँय भोजन कब बनथे ||
तीर परोसी के घर जावँय, ले जावँय खाई - खाजा |
सबो सहारा एक दुसर बर, खुलय सदा बर दरवाजा ||
गइया - गोरु भइँसी - भइँसा, बछरू मन ला लालन दे |
चिरई चुरगन हीत जतन बर, कुत्ता बिल्ली पालन दे ||
ऊँकर तन हर जतिक सनावय, बोझा मन के मेलन दे |
हिष्ट - पुष्ट हो जावय काया, धुर्रा - माटी खेलन दे ||
लू बर पना पियावत राहन, गरम हवा ला झन पाहीं |
माटी सानत घर मा खेलँय, पुतरा - पुतरी बन जाहीं ||
मातु पिता हम फर्ज निभावन, सुग्घर लालन पालन दे |
पाँख जमा लइका मन उड़ही, सदविचार भर डालन दे ||
छंदकार
अश्वनी कोसरे 'रहँगिया'
कवर्धा कबीरधाम