1 मई, बासी दिवस विशेष-
कुण्डलिया छंद मा
खावव संगी रोजदिन, बोरे बासी आप |
सेहत देवय देंह ला, मेटय तन के ताप ||
मेटय तन के ताप, संग मा साग जरी के |
भाथे अड़बड़ स्वाद, गोंदली चना तरी के ||
खीरा चटनी संग, मजा ला खूब उडा़वव |
पीजा दोसा छोड़, आज ले बासी खावव ||
सुनिल शर्मा "नील"
छंद साधक
सत्र-13
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बासी
पॉलिश वाला चाँउर, बड़ इतराय।
ढेंकी-युग कस बासी, नही मिठाय।।
हवै गोंदली महँगी, कोन बिसाय।
नान-नान टुकड़ा कर, मनखे खाय।।
साग चना हर अपने, महिमा गाय।
देख जरी वोला मुच-मुच मुस्काय।।
आमा-चटनी मुँह मा, पानी लाय।
खीरा धनिया अड़बड़, स्वाद बढ़ाय।।
शहर-डहर के मनखे, मन अनजान।
नइ जानँय बासी के, गुन नादान।।
फूलकाँस के बटकी, माल्ही हाय!
ये युग मा इन बरतन, गइन नँदाय।।
*अरुण कुमार निगम*
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कुण्डलिया-बासी
बासी ला खा के चलै,जिनगी भर मजदूर।
थरहा रोपाई करै,ठेका ले भरपूर।।
ठेका ले भरपूर,कमावय जाँगर टोरत।
डाहर देखय द्वार,सुवारी रोज अगोरत।।
घर आवत ले साँझ,देख लागै रोवासी।
जोड़ी भरथे पेट,नून चटनी खा बासी।।
राजकिशोर धिरही
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आशा देशमुख: छप्पय छंद
एक बीज दू नाम, जगत बर बहुत जरूरी।
दू बित्ता के पेट , करावत हे मजदूरी।।
बइठे चूल्हा संग, साग चाउंर अउ पानी।
समय चले दिन रात, बीच झूलय जिनगानी।
जरी चना अउ गोंदली, बइठे बासी संग मा।
गरमी हर मुरझात हे, तन मन रहय उमंग मा।
आशा देशमुख
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: *कुण्डलिया छंद--- चटनी बासी*
बासी चटनी गोंदली, गरमी के हे मित्र।
सुघर परोसे गुरु निगम, चना केकरी चित्र।
चना केकरी चित्र, चुरे खेड़हा सॅंग मा।
धनिया पत्ता डार, सजाये गॅंवई रॅंग मा।।
गजब बिटामिन पोठ, आय नइ उॅंग्हासी।
भरे पसीया लाभ, ससन भर खावव बासी।।
मनोज कुमार वर्मा
बरदा लवन बलौदा बाजार
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: दोहा छंद
बोरे बासी गोंदली,अउ खेड़ा के साग।
कतको झन के भाग ले,काबर जाथे भाग।।
मनखे मन समझैं नहीं,मनखे के जज्बात।
एकर से जादा नहीं,जग मा दुख के बात।।
कभू कभू देदे करव,लाँघन मन ला भात।
अइसन पुन के काज ला,जानौ मनखे जात।।
जीतेन्द्र निषाद 'चितेश'
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: छप्पय छंद
बासी पसिया पेज, पेट बर पाचुक खाना।
फोकट अब झन फेंक, हरे महिनत के दाना।
खाव विटामिन जान, स्वस्थ रइही जी काया।
चना जरी के साग, रोग के करे सफ़ाया।
जागौ चतुर सुजान मन, जिनगी बर उपहार ये।
कतका गुन हे जान लौ,बात इही हर सार ये।।
संगीता वर्मा भिलाई छत्तीसगढ़
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दिलीप वर्मा सर: चौपाई छंद- बासी
जिहाँ मारबल टाट हे, ओ का बासी खाय।
जब खावत हे गोंदली, तहाँ भरोसा आय।1।
जेमन छितका कुरिया रहिथें। दुख पीरा ला निशदिन सहिथें।।
दार भात ला जे नइ पावयँ। बासी खा दिन रैन बितावयँ।।
कभू गोंदली नइ ले पावयँ। नून मिरच मा काम चलावयँ।।
ओ का खीरा ककड़ी खाहीं। बस आमा के चटनी पाहीं।।
पर ये बासी अलगे लागे। लगे सौंकिया के मन जागे।।
बासी मा तो मही डराये। अउर गोंदली दिये सजाये।।
दुसर प्लेट खीरा ले साजे। अउर चना कड़दंग ले बाजे।।
जरी बने हे चट अमटाहा। तीर सपासप काहय आहा।।
बासी के सँग जरी खिंचावय। अउर गोंदली कर्रस भावय।।
मजा उड़ावय खाने वाला। बासी के हे स्वाद निराला।।
बासी बावयँ छत्तीसगढ़िया। कहिथें जिन ला सबले बढ़िया।।
फिर काबर बेकार कहावँव। बासी मँय तो मन भर खावँव।।
हबरस हइया कभू न खावव। नहिते आफत जान फँसावव।।
बासी नरी बीच जा अटके। बिन पानी बासी नइ गटके।।
समे रहे तब माँग के, स्वाद गजब के पाव।
बइठ पालथी मार के, मन भर बासी खाव।2।
रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा
बलौदाबाजार25322
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बरवै छंद....
बिषय.....बासी चटनी
काम करौ बड़ मन भर, मन मुस्काय।
बासी खाके जावव ,काम बढा़य।
बासी के बल जानव, पोठ कमाव।
खाई खजाना फीका, देवव ताव।
बासी ,चटनी,फदका, आम अथान।
दव बघार फोरन के,अबड़ मिठान।
डार गोंदली फाँकी, डारव नून।
पेज मजा के पीयव,सब दू जून।
पसिया ताकत लावय, बाढ़य केंश।
मिलय बिटामिन खाके,अतिक बिशेष।
तइहा मनखे बासी,करय बखान ।
तिहाँ अमरिका जानय, गुण पहिचान।
बासी महिमा गावव,जानव बात।
सबले बढि़या खावव, बोरे भात।
नइ गरीब लागय अब,खाय अमीर।
खावय भूख म मनखे , धरथे धीर।
बासी घर घर राखय,अमृत बताय।
स्वाद पाय मनखे जे,मुह चटकाय।
*धनेश्वरी सोनी गुल*
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*त्रिभंगी छंद*
नइ लगे उदासी,खा ले बासी ,साग हवै जी ,चना जरी।
चटनी मन भावय,खीरा हावय,मीठ गोंदली,थाल तरी ।।
सब रोग भगावय,प्यास बुझावय,
बासी पाचन,खूब करे।
खा ले जी हॅसके,निसदिन डटके,भर के बटकी ,ध्यान धरे।।
लिलेश्वर देवांगन
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( छत्तीसगढ़ के बासी )
(1)छत्तीसगढ़ के बासी पसिया, संग खेड़हा साग।
बइठे आये देख पड़ोसी,खाँवे येला मांग।
(2)चना साग अउ आमा चटनी, बासी खाँय बुलाय।
खेड़हा झोरहा खीरा मा,बासी गजब मिठाय।
(3)छत्तीसगढ़िया सबले बढ़िया,बासी हे पहिचान।
बोरे बासी चटनी खा के,जावे खेत किसान।
वसन्ती वर्मा, बिलासपुर
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: *बोरे बासी, खेंड़हा---कुण्डलिया छंद*
खालौ अम्मट मा जरी, संग चना के साग।
बोरे बासी गोंदली, मिले हवै बड़ भाग।
मिले हवै बड़ भाग, पेट ला ठंडा करही।
खीरा फाँकी चाब, मूँड़ के ताव उतरही।
हमर इही जुड़वास, झाँझ बर दवा बनालौ।
बड़े बिहनिया रोज, नहाँ धोके सब खालौ।1
चिक्कट चिक्कट खेंड़हा, चुहक मही के झोर।
बासी ला भरपेट खा,जीव जुड़ाथे मोर।
जीव जुड़ाथे मोर, जरी सस्ता मिल जाथे।
मनपसंद हे स्वाद, गुदा हा अबड़ मिठाथे।
सेहत बर वरदान, विटामिन मिलथे बिक्कट।
बखरी के उपजाय, खेंड़हा चिक्कट चिक्कट।
चोवा राम 'बादल '
हथबंद, छत्तीसगढ़
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इजारदार: कुण्डलिया....
बोरे बासी गोंदली,देखत मन ललचाय।
आमा चटनी संग मा,देख लार चुचवाय।।
देख लार चुचवाय, खेड़हा तरी मिठावय
चना साग हे संग,खाय तालू चटकावय।।
कँकड़ी खीरा खाय,घाम कब्भू नइ झोरे।
धनिया ले ममहाय,हाय रे बासी बोरे।।
दुर्गा शंकर ईजारदार
सारंगढ़(मौहापाली)
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: आल्हा छंद
बोरे बासी खालव भैया,झन फेंकव तुम बाॅंचे भात।
अन्न हमर हे जीवन दाता,प्राण बचाथे ओ दिन रात।।
सुग्घर मिरचा चटनी देखव,साग खेड़हा भाजी आय।
स्वाद ग़ज़ब के रइथे ओकर,लार घलो चुचवावत जाय।।
काट गोंदली गरमी जाही,खाबो जी हम मन भर आज।
देशी खाना खालव कइथॅंव,एमा का के हावय लाज।।
✍️ओम प्रकाश पात्रे "ओम"
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*उपमान छंद*
बोरे बासी
बासी के हे गुण अबड़, संगी तँय सुनले।
वैज्ञानिक मन तक कहँय, तहूँ तनिक गुनले।
येमा हे प्रोटीन गा, दवा जान खाले।
दूर भगावय कब्ज ला, तन के सुख पाले।
मिलथे मिनरल फ़ाइबर, लू गरमी भागे।
बोरे बासी रोज खा, जब जब मन लागे।।
पाए हावंय शोध मा, गुण येखर भारी।
पेट ल ये ठंडा रखय, तन बर हितकारी।।
आशा देशमुख
एनटीपीसी जमनीपाली कोरबा
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: कुंडलिया छंद
बासी चटनी संग मा, खावँय घर परिवार|
अब तो नइहे गाँव मा, चिटको मया दुलार||
चिटिको मया दुलार, कहाँ अब बँटथे पीरा|
चुचरन चुहकन पोठ, जरी अउ खावन खीरा ||
साग चना के जोर, भेज दँय बतर बियासी
चिटिक मही ला डार, ससन भर झड़कन बासी||
अश्वनी कोशरे
कबीरधाम
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*सार छंंद*
साग अमटहा खेड़ा के अउ, चना संग मा हावय।
बासी के संग गोंदली ला, मजा खाय मा आवय।।
करय गोंदली रक्षा लू ले, बासी प्यास बुझाथे।
भरे बिटामिन खेड़ा मा अउ, शक्ति चना ले आथे।।
*अनुज छत्तीसगढ़िया*
*पाली जिला कोरबा*
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सार छंद गीत
"""""बासी"""""
बासी मा हे सबो बिटामिन, चवनप्रास नइ लागे ।
खा ले भइया कॅवरा आगर, मन उदास नइ लागे ।
रतिहा कुन के बोरे बासी, गुरतुर पसिया पीबे ।
मही मिलाके झड़कत रहिबे, सौ बच्छर ले जीबे ।
नाॅगर बक्खर सूर भराही, करबे तिहीं सवाॅगे--------------।
बटकी के बारा उप्पर मा, थोरिक नून मड़ाले ।
थरकुलिया के आमा चटनी, गोही चुचर चबाले ।
ठाढ मॅझनिया पी ले पसिया, प्यास ह दुरिहा भागे'-----------------।
कातिक अग्घन सिलपट चटनी, धनिया सोंध उड़ाथे ।
पूस माॅघ मा तिंवरा भाजी, बासी संग मिठाथे ।
बासी महिमा ला सपनाबे, रतिहा सूते जागे-----------------।
राजकुमार चौधरी
टेड़ेसरा
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नानकुन प्रयास... घनाक्षरी म....
माड़े हवै बटकी मा मही डारे बोरे बासी,
तँउरत ए प्याज देख मन छुछुआत हे।
गाँवे म रहइ अउ बोरे बासी के खवइ के बने,
रहि रहि के तो आज सुरता देवात हे।।
एकर असन कहाँ पाहीं कोनो टॉनिक जी,
शहरी मानुष एला खाए बर भुलात हे।।
फास्ट फुड पिज्जा बर्गर के दीवानगी गा,
नवा पीढ़ी के तो कथौं हेल्थ ला गिरात हे।।
झोर वाले चना संग माड़े आमा चटनी अउ
परुसाए थरकुलिया मा बने जरी साग।
तिरियाये खीरा चानी कहत शहरिया ल,
अइसन टॉनिक छोड़ फोकटे जाथौ जी भाग।।
बटकी म बासी चुटकी म नून गीत के तो,
अमर ददरिया के सुनव सुनाव राग।
सेहत गिराऔ झन खाके मेगी फास्ट फुड,
अभी भी समे हे संगी चलौ सब जावौ जाग।।
सूर्यकान्त गुप्ता, सिंधिया नगर दुर्ग(छ.ग.)
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बासी खाये ले कथे,ठंड़ा रहे शरीर।
बी पी हा बाढ़े नहीं,हरथे तन के पीर।
हरथे तन के पीर,पियो पहिया ला हनके।
दिन भर करलो काम,चलो तुमन हा तनके।
पिज्जा बर्गर छोड़,खाय ले लगे थकासी।
मानो सब झिन बात,पेट भर खाने बासी।।
मँगलू बासी खाइ के,करथे दिन भर काम।
गरमी जबले आय हे,नइतो लागे घाम।
नइतो लागे घाम, गोंदली संग म खाथे।
जरी चना के दार,खाव जी गजब मिठाथे।
खीरा ठंडा होय,नहीं लागय ऊँघासी
कतको करले काम,गोंदली झड़को बासी।।
केवरा यदु"मीरा"राजिम
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जीतेन्द्र वर्मा खैरझिटिया: बासी- कुंडलियाँ
बासी आय गरीब के, आज सोचथें लोग।
पर ये आवैं काम बड़, जाय खाय मा रोग।
जाय खाय मा रोग, ताकती होथे तन बर।
जरी गोंदली नून, संग सब खाय ससन भर।
राजा हो या रंक, सबे के हरय उदासी।
बचे रात के भात, कहाये बोरे बासी।
बासी के गुण हे जबर, हरथे तन के ताप।
भाजी चटनी नून मा, खा मँझनी चुपचाप।
खा मँझनी चुपचाप, खेड़हा राँध मही मा।
होय नही अनुमान, खाय बिन स्वाद सही मा।
बासी खा बन बीर, रेंग दे मथुरा कासी।
छत्तीसगढ़ के शान, कहाये चटनी बासी।
थारी मा ले काँस के, नून चिटिक दे घोर।
चटनी पीस पताल के,भाजी भाँटा झोर।
भाजी भाँटा झोर, संग खा बरी बिजौरी।
आम अथान पियाज, खाय हँस बासी गौरी।
खा पी के तैयार, सिधोवै घर बन बारी।
अउ बड़ स्वाद बढ़ाय, काँस के लोटा थारी।
लगही पार्टी मा घलो, बासी के इंस्टॉल।
खाही छोटे अउ बड़े, सबे उठाके भाल।
सबे उठाके भाल, झड़कही चटनी बासी।
आही अइसन बेर, देख लेहू जग वासी।
पिज़्ज़ा बर्गर चाँट, मसाला तन ला ठगही।
पार्टी परब बिहाव, सबे मा बासी लगही।
जीतेंन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को,कोरबा(छग)
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*बोरे बासी - छन्न पकैया छंद*
छन्न पकैया छन्न पकैया,खालव बोरे बासी।
जाँगर पेरव बने कमावव,होवय नहीं उदासी।
छन्न पकैया छन्न पकैया,बासी के गुन भारी।
जरी खेड़हा घुघरी खीरा,खावव सब सँगवारी।।
छन्न पकैया छन्न पकैया, छत्तीसगढ़ी जेवन।
सुत-उठ के जी बड़े बिहनिया,बोरे बासी लेवन।।
छन्न पकैया छन्न पकैया, खावव बहिनी भाई।
एमा सबके मन भर जाही,नइ होवय करलाई।।
छन्न पकैया छन्न पकैया,बासी के गुन भारी।
रात बोर के बिहना खावव,संग गोंदली चारी।।
छन्न पकैया छन्न पकैया,सदा निरोगी रहना।
खावव बासी फेर देख लव,मोर बबा के कहना।।
छन्न पकैया छन्न पकैया,करौ किसानी जा के।
छत्तीसगढ़ी बोरे बासी,जम्मों देखव खा के।।
बोधन राम निषादराज"विनायक"
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: कुण्डलिया छंद- बोरे-बासी
बोरे-बासी खाय ले, भगथे तन ले रोग।
सुबह मझनिया शाम के, कर लौ संगी भोग।।
कर लौ संगी भोग, छोड़ के कोका कोला।
हरथे तन के ताप, लगे ना गर्मी झोला।।
नींबू आम अथान, मजा के स्वाद चिभोरे।
दही मही के संग, सुहाथे बासी-बोरे।।
बोरे-बासी खाय ले, पहुँचे रोग न तीर।।
ठंडा रखे दिमाग ला, राखे स्वस्थ शरीर।
राखे स्वस्थ शरीर, चेहरा खिल-खिल जाथे।
धरौ सियानी गोठ, कहे ये उमर बढ़ाथे।।
गाँव शहर पर आज, स्वाद बर दाँत निपोरे।
पिज़्ज़ा बर्गर भाय, भुलागे बासी-बोरे।।
गुणकारी ये हे बहुत, भरथे तन के घाँव।
बोरे-बासी खाव जी, मेंछा देवत ताव।
मेंछा देवत ताव, मजा मन भर के पा लौ।
जोतत नाँगर खेत, ददरिया करमा गा लौ।।
मिर्चा नून पताल, संग मा पटथे तारी।
बोरे-बासी खाव, हवय ये बड़ गुणकारी।।
बोरे-बासी संग मा, जरी चना के साग।
जीभ लमा के खा बने, सँवर जही जी भाग।
सँवर जही जी भाग, संग मा रूप निखरही।
वैज्ञानिक हे शोध, फायदा तन ला करही।।
गजानंद के बात, ध्यान दे सुन लौ थोरे।
छत्तीसगढ़ के मान, बढ़ावय बासी-बोरे।।
इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"
बिलासपुर ( छत्तीसगढ़ )
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नून गोंदली बासी (सार छन्द)
नून गोंदली अउ बासी के, टूटिस कहूँ मितानी।
तरुवा तीपत देर न लगही, सुन लेवय रजधानी।
मँहगाई के मार जना गे, पेट पीठ करलागे।
भारी अनचित हमर गोंदली, हमरे ले दुरिहागे।
सरू सकाऊ सरसुधिया मन, ठाढ़े ठाढ़ ठगा गें।
बैंक लूट चरबाँक चतुर मन, रातों-रात भगा गें।
हमरे जाँगर नाँगर बैला, हमरे ले बयमानी।
तरुवा तीपत देर न लगही, सुन लेवय रजधानी।
झोला-झक्कर घाम-तफर्रा, धूँका-गर्रा आथे।
नून गोंदली बोरे बासी, पेट मुड़ी जुड़वाथे।
एनू-मेनू हम का जानी, खाथे तउन बताथे।
जरी खेड़हा मही म राँधे, गउकी गजब सुहाथे।
हँसी उड़ाही कोनो कखरो, कहिके आनी-बानी।
तरुवा तीपत देर न लगही, सुन लेवय रजधानी।
-सुखदेव सिंह "अहिलेश्वर "
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*रोला छंद*
बासी महिमा
बड़े बिहनिया रोज, नून संग खावय बासीl
पोषण ले भरपूर, लगे ना कभू उदासी||
दही- मही ला डार, बोर के खाले बढ़िया|
झड़कव संग अथान, छाप हे छत्तीसगढ़िया||
रतिहा मँझना साँझ, बचे जे भात तियासी|
बोरे पानी डार, बने ओ गुरतुर बासी||
खावत हे बनिहार, किसनहा खरे मँझनिया|
जरी तरी के संग, ससन भर बड़े बिहनिया||
मजदूरन के शान, जान ले हावय बासी|
बटकी भर भर खाँय, लगय ना कभू उबासी||
कभू अपच ना होय, मिटाथे गैंस कबज ला|
उज्जर करथे रंग, चुँदी जामे बजबजला||
लगय कभू ना घाम, तपन अउ लू ले रक्षा|
बासी के गुणगान, पढ़ँय सब पहिली कक्षा|
हरथे आलस रोग, मिटाथे तनके पीरा|
झावाँ झुर्री टार, पोठ तन करदय हीरा||
अश्वनी कोसरे
रहँगिया
कवर्धा कबीरधाम छ. ग.
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बोरे बासी
(रोला छंद)
पानी बोरे भात, कहाथे बोरे बासी।
ये सुग्घर जुड़वास, आय गर्मी के नासी।
पसिया प्यास बुझाय, दूरिहाके लू रहिथे।
जे हा एला खाय, झाँझ ला हाँसत सहिथे।
बासी अबड़ सुहाय, गोंदली सँग मा खाले।
थोकुन डारे नून,चाब मिरचा सुसवाले।
मिलगे कहूँ अथान, स्वाद का कहिबे भाई।
ये हर दवा समान, भगाथे टेंशन हाई।
चढ़े शुगर के रोग, खाय बासी मिट जाथे।
होथे कायाकल्प, झड़क बुढ़ुवा फुन्नाथे।
बासी के गुन खास, सफाई करथे नस के।
खा मजदूर किसान, मेहनत करथें कसके।
बोरे बासी खाय, कलेक्टर आफिस जाही।
ठंडा रखे दिमाग, योजना बने बनाही।
बटकी भरे दहेल, एस० पी० धरही डंडा।
नइ होही अपराध, न्याय के गड़ही झंडा।
का गरीब धनवान, भोग ये छप्पन सब बर ।
संस्कृति अउ संस्कार,इही हे हमर धरोहर।
बासी गुन के खान,जेन हा एला खाथे।
छत्तीसगढ़ के मान, सरी दुनिया बगराथे।
चोवा राम ' बादल '
हथबंद, छत्तीसगढ़
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बासी-सोभन छंद(सिंहिका छंद)
2122 2122, 21 21 121
चान चानी गोंदली के, नून संग अथान।
जुड़ हवै बासी झडक ले, भाग जाय थकान।
बड़ मिठाथे मन हिताथे, खाय तौन बताय।
झाँझ झोला नइ धरे गा, जर बुखार भगाय।
जीतेंन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को,कोरबा(छग)
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सार छंद-- बासी
समे-समे मा नाम धराये , तीन तरह के बासी।
पहिली बासी दुसरा बोरे, तीसर रहे तियासी।
रतिहा बेरा भात बचे तब, पानी डार रखाथे।
उही बिहिनिया के बासी ये, जे हर सब ला भाथे।
इही हरे ओ असली बासी, जेखर महिमा गाथें।
मही डार के चटनी सँग मा, जेला दुनिया खाथें।
दोपहरी के भात बचे मा, संझा पानी डारयँ।
ते हर बोरे बासी बनथे, भुखहा मन ला तारयँ।
गरमी के दिन बड़का होथे, चार बखत सब खाथें।
बिहना बासी संझा बोरे, खाके सबो अघाथें।
दोपहरी के भात बचे ला, संझा जब नइ खावय।
उही बिहनिया होय तियासी, पचपच ले हो जावय।
अमसुरहा जब रहे तियासी, कोनो मन नइ भावयँ।
नून डार खलखल ले धोके, मही डार सब खावयँ।
बासी हो या रहे तियासी, खावत निदिया आथे।
पर बासी हर सब मौसम मा, सिरतो गजब सुहाथे।
जे नइ खाये ते का जानय, कतका हे गुणकारी।
भात तको ला तिरिया सकथे, खा देखय इक बारी।
रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा
बलौदाबाजार
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