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Sunday, March 27, 2022

सार छंद- श्वनी कोसरे

 *सार छंद- श्वनी कोसरे


अमरइया मा डार झुमरगे, आमा टपकन लागे|

किसिम किसिम के चिरई चुरगुन, खायेबर जुरियागे||


फरगें लटलट ले बर पीपर,भुइँया तीपन लागे||

सोंध सोंध ममहावत डूमर, अमली बड़ गदरागे||


तीतर मैना सारस सुवना, खावत बइठें डारा|

बारोमासी पेंड़ पुरोथें, पंछी मनबर चारा||


फूलधरे हें मउहा पिंवरा, बड़े बिहिनिया झरथें|

घर बन खुश हो झउँहा झउँआ, सोना बिनबिन धरथें||


 गरमी मा दरमी हा फुलथे, कैत बेल मन फरथें|

गंगाइमली कोकी कोकी, चुक लाली हो झरथें||


तेंदू चार चिरौंजी टोरा, मन ला खींचन लागे|

जाम पेंड़ मा फरही जामुन, मुँह मा पानी आगे||


परसा के लाली फुलवा हर, मन ला सबके हरथे|

तेंदू पाना हरियर हरियर, खीसा सबके भरथे||


पेंड़ हवय जब तक भुइँया मा, पुरवइ ला हे बहना|

पानी चाही पेड़ बचावन, ए धरती के गहना|


देखन कैसे रूप सॕवारे, बन हर  मोहय मन ला|

हरियर लागत हवय कलिंदर, धरके लाली तन ला||


छंद साधक-

अश्वनी कोसरे 

 रहँगिया

कवर्धा कबीरधाम

बासी दिवस विशेष- छंदबद्ध रचना

  






1 मई, बासी दिवस विशेष-


कुण्डलिया छंद मा

खावव संगी रोजदिन, बोरे बासी आप |

सेहत देवय देंह ला, मेटय तन के ताप ||

मेटय तन के ताप, संग मा साग जरी के |

भाथे अड़बड़ स्वाद, गोंदली चना तरी के ||

खीरा चटनी संग, मजा ला खूब उडा़वव |

पीजा दोसा छोड़, आज ले बासी खावव ||


सुनिल शर्मा "नील"

छंद साधक

सत्र-13

💐💐💐💐💐💐💐💐💐

बासी

पॉलिश वाला चाँउर, बड़ इतराय।

ढेंकी-युग कस बासी, नही मिठाय।।


हवै गोंदली महँगी, कोन बिसाय।

नान-नान टुकड़ा कर, मनखे खाय।।


साग चना हर अपने, महिमा गाय।

देख जरी वोला मुच-मुच मुस्काय।।


आमा-चटनी मुँह मा, पानी लाय। 

खीरा धनिया अड़बड़, स्वाद बढ़ाय।।


शहर-डहर के मनखे, मन अनजान।

नइ जानँय बासी के, गुन नादान।।


फूलकाँस के बटकी, माल्ही हाय!

ये युग मा इन बरतन, गइन नँदाय।।


*अरुण कुमार निगम*

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 कुण्डलिया-बासी

बासी ला खा के चलै,जिनगी भर मजदूर।

थरहा रोपाई करै,ठेका ले भरपूर।।

ठेका ले भरपूर,कमावय जाँगर टोरत।

डाहर देखय द्वार,सुवारी रोज अगोरत।।

घर आवत ले साँझ,देख लागै रोवासी।

जोड़ी भरथे पेट,नून चटनी खा बासी।।

राजकिशोर धिरही

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 आशा देशमुख: छप्पय छंद


एक बीज दू नाम, जगत बर बहुत जरूरी।

दू बित्ता के पेट , करावत हे मजदूरी।।

बइठे चूल्हा संग, साग चाउंर अउ पानी।

समय चले दिन रात, बीच झूलय जिनगानी।


जरी चना अउ गोंदली, बइठे बासी संग मा।

गरमी हर मुरझात हे, तन मन रहय उमंग मा।


आशा देशमुख

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: *कुण्डलिया छंद--- चटनी बासी*


बासी चटनी गोंदली, गरमी के हे मित्र।

सुघर परोसे गुरु निगम, चना केकरी चित्र।

चना केकरी चित्र, चुरे खेड़हा सॅंग मा।

धनिया पत्ता डार, सजाये गॅंवई रॅंग मा।।

गजब बिटामिन पोठ, आय नइ उॅंग्हासी।

 भरे पसीया लाभ, ससन भर खावव बासी।।



मनोज कुमार वर्मा

बरदा लवन बलौदा बाजार

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: दोहा छंद


बोरे बासी गोंदली,अउ खेड़ा के साग।

कतको झन के भाग ले,काबर जाथे भाग।।


मनखे मन समझैं नहीं,मनखे के जज्बात।

एकर से जादा नहीं,जग मा दुख के बात।।


कभू कभू देदे करव,लाँघन मन ला भात।

अइसन पुन के काज ला,जानौ मनखे जात।।


जीतेन्द्र निषाद 'चितेश'

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: छप्पय छंद


बासी पसिया पेज, पेट बर पाचुक खाना।

फोकट अब झन फेंक, हरे महिनत के दाना।

खाव विटामिन जान, स्वस्थ रइही जी काया।

चना जरी के साग, रोग के करे सफ़ाया।

जागौ चतुर सुजान मन, जिनगी बर उपहार ये।

कतका गुन हे जान लौ,बात इही हर सार ये।।


संगीता वर्मा भिलाई छत्तीसगढ़

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 दिलीप वर्मा सर: चौपाई छंद- बासी 


जिहाँ मारबल टाट हे, ओ का बासी खाय। 

जब खावत हे गोंदली, तहाँ भरोसा आय।1।


जेमन छितका कुरिया रहिथें। दुख पीरा ला निशदिन सहिथें।।

दार भात ला जे नइ पावयँ।  बासी खा दिन रैन बितावयँ।।


कभू गोंदली नइ ले पावयँ। नून मिरच मा काम चलावयँ।।

ओ का खीरा ककड़ी खाहीं। बस आमा के चटनी पाहीं।।


पर ये बासी अलगे लागे। लगे सौंकिया के मन जागे।।

बासी मा तो मही डराये। अउर गोंदली दिये सजाये।।


दुसर प्लेट खीरा ले साजे। अउर चना कड़दंग ले बाजे।।

जरी बने हे चट अमटाहा। तीर सपासप काहय आहा।।


बासी के सँग जरी खिंचावय। अउर गोंदली कर्रस भावय।।

मजा उड़ावय खाने वाला। बासी के हे स्वाद निराला।। 


बासी बावयँ छत्तीसगढ़िया।  कहिथें जिन ला सबले बढ़िया।।

फिर काबर बेकार कहावँव। बासी मँय तो मन भर खावँव।।


हबरस हइया कभू न खावव। नहिते आफत जान फँसावव।।

बासी नरी बीच जा अटके। बिन पानी बासी नइ गटके।।


समे रहे तब माँग के, स्वाद गजब के पाव। 

बइठ पालथी मार के, मन भर बासी खाव।2। 


रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा 

बलौदाबाजार25322

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बरवै छंद....

बिषय.....बासी चटनी


काम करौ बड़ मन भर, मन मुस्काय।

बासी खाके जावव ,काम बढा़य।


बासी के बल जानव, पोठ कमाव।

खाई खजाना फीका, देवव ताव।


बासी ,चटनी,फदका, आम अथान।

दव बघार फोरन के,अबड़ मिठान।


डार गोंदली फाँकी, डारव नून।

पेज मजा के पीयव,सब दू जून।


पसिया ताकत लावय, बाढ़य केंश।

मिलय बिटामिन खाके,अतिक बिशेष।


तइहा मनखे बासी,करय बखान ।

तिहाँ अमरिका जानय, गुण पहिचान।


बासी महिमा गावव,जानव बात।

सबले बढि़या खावव, बोरे भात।


नइ गरीब लागय अब,खाय अमीर।

खावय भूख म मनखे , धरथे धीर।


बासी घर घर राखय,अमृत बताय।

स्वाद पाय मनखे जे,मुह चटकाय।


*धनेश्वरी सोनी गुल*

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*त्रिभंगी छंद*


नइ लगे उदासी,खा ले बासी ,साग हवै जी ,चना जरी।

चटनी मन भावय,खीरा हावय,मीठ गोंदली,थाल तरी ।।

सब रोग भगावय,प्यास बुझावय,

बासी पाचन,खूब करे।

खा ले जी हॅसके,निसदिन डटके,भर के बटकी ,ध्यान धरे।।

 

लिलेश्वर देवांगन

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 (  छत्तीसगढ़ के बासी )


(1)छत्तीसगढ़ के बासी पसिया, संग खेड़हा साग।

बइठे आये देख पड़ोसी,खाँवे येला मांग।


(2)चना साग अउ आमा चटनी, बासी खाँय बुलाय।

खेड़हा झोरहा खीरा मा,बासी गजब मिठाय।

(3)छत्तीसगढ़िया सबले बढ़िया,बासी हे पहिचान।

बोरे बासी चटनी खा के,जावे खेत किसान।


     वसन्ती वर्मा, बिलासपुर

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: *बोरे बासी, खेंड़हा---कुण्डलिया छंद*


खालौ अम्मट मा जरी, संग चना के साग।

बोरे बासी गोंदली, मिले हवै बड़ भाग।

मिले हवै बड़ भाग, पेट ला ठंडा करही।

खीरा फाँकी चाब, मूँड़ के ताव उतरही।

हमर इही जुड़वास, झाँझ बर दवा बनालौ।

बड़े बिहनिया रोज, नहाँ धोके सब खालौ।1


चिक्कट चिक्कट खेंड़हा, चुहक मही के झोर।

बासी ला भरपेट खा,जीव जुड़ाथे मोर।

जीव जुड़ाथे मोर, जरी सस्ता मिल जाथे।

मनपसंद हे स्वाद, गुदा हा अबड़ मिठाथे।

सेहत बर वरदान, विटामिन मिलथे बिक्कट।

बखरी के उपजाय, खेंड़हा चिक्कट चिक्कट।


चोवा राम 'बादल '

हथबंद, छत्तीसगढ़

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 इजारदार: कुण्डलिया....


बोरे बासी गोंदली,देखत मन ललचाय।

आमा चटनी संग मा,देख लार चुचवाय।।

देख लार चुचवाय, खेड़हा तरी मिठावय

चना साग हे संग,खाय तालू चटकावय।।

कँकड़ी खीरा खाय,घाम कब्भू नइ झोरे।

धनिया ले ममहाय,हाय रे बासी बोरे।।

दुर्गा शंकर ईजारदार

सारंगढ़(मौहापाली)

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: आल्हा छंद


बोरे बासी खालव भैया,झन फेंकव तुम बाॅंचे भात।

अन्न हमर हे जीवन दाता,प्राण बचाथे ओ दिन रात।।


सुग्घर मिरचा चटनी देखव,साग खेड़हा भाजी आय।

स्वाद ग़ज़ब के रइथे ओकर,लार घलो चुचवावत जाय।।


काट गोंदली गरमी जाही,खाबो जी हम मन भर आज।

देशी खाना खालव कइथॅंव,एमा का के हावय लाज।।


✍️ओम प्रकाश पात्रे "ओम"

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 *उपमान छंद*


बोरे बासी


बासी के हे गुण अबड़, संगी तँय सुनले।

वैज्ञानिक मन तक कहँय, तहूँ तनिक गुनले।

येमा हे प्रोटीन गा, दवा जान खाले।

दूर भगावय कब्ज ला, तन के सुख पाले।



मिलथे मिनरल फ़ाइबर, लू गरमी भागे।

बोरे बासी  रोज खा, जब जब मन लागे।।

पाए हावंय शोध मा, गुण येखर भारी।

पेट ल  ये ठंडा रखय, तन बर हितकारी।।


आशा देशमुख

एनटीपीसी जमनीपाली कोरबा

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: कुंडलिया छंद


बासी चटनी संग मा, खावँय घर परिवार|

अब तो नइहे गाँव मा, चिटको मया दुलार||

चिटिको मया दुलार, कहाँ अब बँटथे पीरा|

चुचरन चुहकन पोठ, जरी अउ खावन खीरा ||

साग चना के जोर, भेज दँय बतर बियासी

चिटिक मही ला डार, ससन भर झड़कन बासी||


अश्वनी कोशरे

कबीरधाम

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 *सार छंंद*

साग अमटहा खेड़ा के अउ, चना संग मा हावय।

बासी के संग गोंदली ला,  मजा खाय मा आवय।। 


करय गोंदली रक्षा लू ले, बासी प्यास बुझाथे।

भरे बिटामिन खेड़ा मा अउ, शक्ति चना ले आथे।।

*अनुज छत्तीसगढ़िया*

 *पाली जिला कोरबा*

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सार छंद गीत


     """""बासी"""""

बासी मा हे सबो बिटामिन, चवनप्रास नइ लागे ।

खा ले भइया कॅवरा आगर, मन उदास नइ लागे ।


रतिहा कुन के बोरे बासी, गुरतुर पसिया पीबे ।

मही मिलाके झड़कत रहिबे, सौ बच्छर ले जीबे ।

नाॅगर बक्खर सूर भराही, करबे तिहीं सवाॅगे--------------।


बटकी के बारा उप्पर मा, थोरिक नून मड़ाले ।

थरकुलिया के आमा चटनी, गोही चुचर चबाले ।

ठाढ मॅझनिया पी ले पसिया, प्यास ह दुरिहा भागे'-----------------।


कातिक अग्घन सिलपट चटनी, धनिया सोंध उड़ाथे ।

पूस माॅघ मा तिंवरा भाजी, बासी संग मिठाथे ।

बासी महिमा ला सपनाबे, रतिहा सूते जागे-----------------।


राजकुमार चौधरी

     टेड़ेसरा

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नानकुन प्रयास... घनाक्षरी म....


माड़े  हवै  बटकी मा मही डारे बोरे बासी,

तँउरत ए प्याज देख मन छुछुआत हे।

गाँवे म रहइ अउ बोरे बासी के खवइ के बने,

रहि रहि के तो आज सुरता देवात हे।।

एकर असन कहाँ पाहीं कोनो टॉनिक जी,

शहरी मानुष एला खाए बर भुलात हे।।

फास्ट फुड पिज्जा बर्गर के दीवानगी गा,

नवा पीढ़ी के तो कथौं हेल्थ ला गिरात हे।।


झोर वाले चना संग माड़े आमा चटनी अउ

परुसाए थरकुलिया मा बने जरी साग।

तिरियाये खीरा चानी कहत शहरिया ल,

अइसन टॉनिक छोड़ फोकटे जाथौ जी भाग।।

बटकी म बासी चुटकी म नून गीत के तो,

अमर ददरिया के सुनव सुनाव राग।

सेहत गिराऔ झन खाके मेगी फास्ट फुड,

अभी भी समे हे संगी चलौ सब जावौ जाग।।


सूर्यकान्त गुप्ता, सिंधिया नगर दुर्ग(छ.ग.)

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बासी खाये ले कथे,ठंड़ा रहे शरीर।

बी पी हा बाढ़े नहीं,हरथे तन के पीर।

हरथे तन के पीर,पियो पहिया ला हनके।

दिन भर करलो काम,चलो तुमन हा तनके। 

पिज्जा बर्गर छोड़,खाय ले  लगे थकासी।

मानो सब झिन बात,पेट भर खाने बासी।।


मँगलू बासी खाइ के,करथे दिन भर काम।

गरमी जबले आय हे,नइतो लागे घाम।

नइतो लागे घाम, गोंदली संग म खाथे।

जरी चना के दार,खाव जी गजब मिठाथे।

खीरा ठंडा होय,नहीं लागय ऊँघासी 

कतको करले काम,गोंदली झड़को बासी।।


केवरा यदु"मीरा"राजिम

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 जीतेन्द्र वर्मा खैरझिटिया: बासी- कुंडलियाँ

बासी आय गरीब के, आज सोचथें लोग।

पर ये आवैं काम बड़, जाय खाय मा रोग।

जाय खाय मा रोग, ताकती होथे तन बर।

जरी गोंदली नून, संग सब खाय ससन भर।

राजा हो या रंक, सबे के हरय उदासी।

बचे रात के भात, कहाये बोरे बासी।


बासी के गुण हे जबर, हरथे तन के ताप।

भाजी चटनी नून मा, खा मँझनी चुपचाप।

खा मँझनी चुपचाप, खेड़हा राँध मही मा।

होय नही अनुमान, खाय बिन स्वाद सही मा।

बासी खा बन बीर, रेंग दे मथुरा कासी।

छत्तीसगढ़ के शान, कहाये चटनी बासी।


थारी मा ले काँस के, नून चिटिक दे घोर।

चटनी पीस पताल के,भाजी भाँटा झोर।

भाजी भाँटा झोर, संग खा बरी बिजौरी।

 आम अथान पियाज, खाय हँस बासी गौरी।

खा पी के तैयार, सिधोवै घर बन बारी।

अउ बड़ स्वाद बढ़ाय, काँस के लोटा थारी।


लगही पार्टी मा घलो, बासी के इंस्टॉल।

खाही छोटे अउ बड़े, सबे उठाके भाल।

सबे उठाके भाल, झड़कही चटनी बासी।

आही अइसन बेर, देख लेहू जग वासी।

पिज़्ज़ा बर्गर चाँट, मसाला तन ला ठगही।

पार्टी परब बिहाव, सबे मा बासी लगही।


जीतेंन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

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 *बोरे बासी - छन्न पकैया छंद*


छन्न पकैया छन्न पकैया,खालव बोरे बासी।

जाँगर पेरव बने कमावव,होवय नहीं  उदासी।   


छन्न पकैया छन्न पकैया,बासी  के  गुन  भारी।

जरी खेड़हा घुघरी खीरा,खावव सब सँगवारी।।


छन्न पकैया  छन्न  पकैया, छत्तीसगढ़ी  जेवन।

सुत-उठ के जी बड़े बिहनिया,बोरे बासी लेवन।।


छन्न पकैया छन्न पकैया, खावव  बहिनी भाई।

एमा सबके मन भर जाही,नइ होवय करलाई।।


छन्न पकैया छन्न पकैया,बासी के गुन भारी।

रात बोर के बिहना खावव,संग गोंदली चारी।।


छन्न पकैया छन्न पकैया,सदा  निरोगी  रहना।

खावव बासी फेर देख लव,मोर बबा के कहना।।


छन्न पकैया छन्न पकैया,करौ किसानी जा के।

छत्तीसगढ़ी बोरे बासी,जम्मों देखव खा के।।


बोधन राम निषादराज"विनायक"

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: कुण्डलिया छंद- बोरे-बासी


बोरे-बासी खाय ले, भगथे तन ले रोग।

सुबह मझनिया शाम के, कर लौ संगी भोग।।

कर लौ संगी भोग, छोड़ के कोका कोला।

हरथे तन के ताप, लगे ना गर्मी झोला।।

नींबू आम अथान, मजा के स्वाद चिभोरे।

दही मही के संग, सुहाथे बासी-बोरे।।


बोरे-बासी खाय ले, पहुँचे रोग न तीर।।

ठंडा रखे दिमाग ला, राखे स्वस्थ शरीर।

राखे स्वस्थ शरीर, चेहरा खिल-खिल जाथे।

धरौ सियानी गोठ, कहे ये उमर बढ़ाथे।।

गाँव शहर पर आज, स्वाद बर दाँत निपोरे।

पिज़्ज़ा बर्गर भाय, भुलागे बासी-बोरे।।


गुणकारी ये हे बहुत, भरथे तन के घाँव।

बोरे-बासी खाव जी, मेंछा देवत ताव।

मेंछा देवत ताव, मजा मन भर के पा लौ।

जोतत नाँगर खेत, ददरिया करमा गा लौ।।

मिर्चा नून पताल, संग मा पटथे तारी।

बोरे-बासी खाव, हवय ये बड़ गुणकारी।।


बोरे-बासी संग मा, जरी चना के साग।

जीभ लमा के खा बने, सँवर जही जी भाग।

सँवर जही जी भाग, संग मा रूप निखरही।

वैज्ञानिक हे शोध, फायदा तन ला करही।।

गजानंद के बात, ध्यान दे सुन लौ थोरे।

छत्तीसगढ़ के मान, बढ़ावय बासी-बोरे।।



इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"

बिलासपुर ( छत्तीसगढ़ )

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नून गोंदली बासी (सार छन्द)


नून गोंदली अउ बासी के, टूटिस कहूँ मितानी।

तरुवा तीपत देर न लगही, सुन लेवय रजधानी।


मँहगाई के मार जना गे, पेट पीठ करलागे।

भारी अनचित हमर गोंदली, हमरे ले दुरिहागे।


सरू सकाऊ सरसुधिया मन, ठाढ़े ठाढ़ ठगा गें।

बैंक लूट चरबाँक चतुर मन, रातों-रात भगा गें।


हमरे जाँगर नाँगर बैला, हमरे ले बयमानी।

तरुवा तीपत देर न लगही, सुन लेवय रजधानी।


झोला-झक्कर घाम-तफर्रा, धूँका-गर्रा आथे।

नून गोंदली बोरे बासी, पेट मुड़ी जुड़वाथे।


एनू-मेनू हम का जानी, खाथे तउन बताथे।

जरी खेड़हा मही म राँधे, गउकी गजब सुहाथे।


हँसी उड़ाही कोनो कखरो, कहिके आनी-बानी।

तरुवा तीपत देर न लगही, सुन लेवय रजधानी।


-सुखदेव सिंह "अहिलेश्वर "

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 *रोला छंद* 

बासी महिमा


बड़े बिहनिया रोज, नून संग खावय बासीl

पोषण ले भरपूर, लगे ना कभू उदासी||

दही- मही ला डार, बोर के खाले बढ़िया|

झड़कव संग अथान, छाप हे छत्तीसगढ़िया||


रतिहा मँझना साँझ, बचे जे भात तियासी|

बोरे पानी डार, बने ओ गुरतुर बासी||

खावत हे बनिहार, किसनहा खरे मँझनिया|

जरी तरी के संग, ससन भर बड़े बिहनिया||


मजदूरन के शान, जान ले हावय बासी|

बटकी भर भर खाँय, लगय ना कभू उबासी||

कभू अपच ना होय, मिटाथे गैंस कबज ला|

उज्जर करथे रंग, चुँदी जामे बजबजला||


लगय कभू ना घाम, तपन अउ लू ले रक्षा|

बासी के गुणगान, पढ़ँय सब पहिली कक्षा|

हरथे आलस रोग, मिटाथे तनके पीरा|

झावाँ झुर्री टार, पोठ तन करदय हीरा|| 


अश्वनी कोसरे 

रहँगिया

कवर्धा कबीरधाम छ. ग.

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 बोरे बासी

(रोला छंद)


पानी बोरे भात, कहाथे बोरे बासी।

ये सुग्घर जुड़वास, आय गर्मी के नासी।

पसिया प्यास बुझाय, दूरिहाके लू रहिथे।

जे हा एला खाय, झाँझ ला हाँसत सहिथे।


बासी अबड़ सुहाय, गोंदली सँग मा खाले।

थोकुन डारे नून,चाब मिरचा सुसवाले।

मिलगे कहूँ अथान, स्वाद का कहिबे भाई।

ये हर दवा समान, भगाथे टेंशन हाई।


चढ़े शुगर के रोग, खाय बासी मिट जाथे।

होथे कायाकल्प, झड़क बुढ़ुवा फुन्नाथे।

बासी के गुन खास, सफाई करथे नस के।

खा मजदूर किसान, मेहनत करथें कसके।


बोरे बासी खाय, कलेक्टर आफिस जाही।

ठंडा रखे दिमाग, योजना बने बनाही।

बटकी भरे दहेल, एस० पी० धरही डंडा। 

नइ होही अपराध,  न्याय के गड़ही झंडा।


का गरीब धनवान, भोग ये छप्पन सब बर ।

संस्कृति अउ संस्कार,इही हे हमर धरोहर।

बासी गुन के खान,जेन हा एला खाथे।

छत्तीसगढ़ के मान, सरी दुनिया बगराथे।


चोवा राम ' बादल '

हथबंद, छत्तीसगढ़

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बासी-सोभन छंद(सिंहिका छंद)

2122 2122, 21 21 121

चान चानी गोंदली के, नून संग अथान।

जुड़ हवै बासी झडक ले, भाग जाय थकान।

बड़ मिठाथे मन हिताथे, खाय तौन बताय।

झाँझ झोला नइ धरे गा, जर बुखार भगाय।

जीतेंन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

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सार छंद-- बासी 


समे-समे मा नाम धराये , तीन तरह के बासी। 

पहिली बासी दुसरा बोरे, तीसर रहे तियासी। 


रतिहा बेरा भात बचे तब, पानी डार रखाथे। 

उही बिहिनिया के बासी ये, जे हर सब ला भाथे।  


इही हरे ओ असली बासी, जेखर महिमा गाथें। 

मही डार के चटनी सँग मा, जेला दुनिया खाथें।


दोपहरी के भात बचे मा, संझा पानी डारयँ। 

ते हर बोरे बासी बनथे, भुखहा मन ला तारयँ। 


गरमी के दिन बड़का होथे, चार बखत सब खाथें। 

बिहना बासी संझा बोरे, खाके सबो अघाथें।


दोपहरी के भात बचे ला, संझा जब नइ खावय।  

उही बिहनिया होय तियासी, पचपच ले हो जावय।


अमसुरहा जब रहे तियासी,  कोनो मन नइ भावयँ। 

नून डार खलखल ले धोके, मही डार सब खावयँ।


बासी हो या रहे तियासी, खावत निदिया आथे।  

पर बासी हर सब मौसम मा, सिरतो गजब सुहाथे।  


जे नइ खाये ते का जानय, कतका हे गुणकारी। 

भात तको ला तिरिया सकथे, खा देखय इक बारी।


रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा 

बलौदाबाजार

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Friday, March 25, 2022

चित्र विशेष छंदबद्ध रचनाएं


 चित्र विशेष छंदबद्ध रचनाएं

*बिजउरी (दोहा)*

पीस उरिद के दार ला, तिल ला दिए मिलाय।

बासी बोरे सन सबो, चुर्रुस चुर्रुस खाय।।

पीसव अपन घमंड ला, सद्गुन ला सब झींक।

देत बिजउरी ज्ञान‌ हे, लागे अड़बड़ नीक।।

आगी मा जब भूंजबे, चाहे तेल तलाय।

चेम्मर गुन जब छूटथे, सबला तभे सुहाय।।

अइसन मानुस हाल हे, जभे छोड़ही ठाठ।

अमर रही संसार मा, बांध मया के गाॅंठ।।


*तुषार शर्मा "नादान"*

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 कुण्डलिया छंद--- *बिजौरी*


रखिया पीठी संग मा, फेट तिली ला सान।

डारे मिरचा नून ला, बने बिजौरी जान।।

बने बिजौरी जान, भूॅंज अॅंगरा मा खावव।।

हावै गजब मिठास, पोठ के मन हरसावव।।

बॉंट बॉंट के खाॅंय, रोज के जी सब सखिया।

सबले गजब मिठास, रथे बढ़िया जी रखिया।। 


मनोज कुमार वर्मा

बरदा लवन बलौदा बाजार

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आशा देशमुख: *बरवै छंद*


पाँच जिनिस मन मिलके,  दें आकार।

अलग अलग गुण बनथे , जग  व्यवहार।।


सुख दुख के फेंटा मा , सब लपटाँय।

घाम शीत अउ पानी , सबो जनाँय।।


करिया तन के भीतर,  सार सफेद।

तिल्ली उरिद करी मा , नइहे भेद।।


अहम भाव जब जरथे ,,आगी आँच।

निर्मल मया भराये , भीतर साँच।।


गोल गोल दुनिया मा , मया भराय।

स्वाद सुवारथ मन के , बड़ ललचाय।।



आशा देशमुख

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: लावणी छंद- बिजौरी 


दया मया के लेप लगाके, दाई जस रिस्ता जोड़य। 

पीठी तक हर तीली जोड़े, एक्को ठन ला नइ छोड़य। 


घाम दिखाके बने बिजौरी, रिस्ता ठोस बनाये हे। 

कड़क रहे बँधना झन छूटय, निशदिन बहुत तपाये हे। 


गरम तेल मा डार बिजौरी, गजब परीक्षा लेवत हे।

भूरा होवत बपुरा जर जय, पर खुशबू ओ देवत हे।  


त्याग तपस्या के बल बूते, आज बिजौरी अटल खड़े। 

जेमन जिनगी मा अस तपथें, ओ दुश्मन ले गजब लड़े।


पाँच तत्व जस पाँच बिजौरी, गुण पाँचो के पाये हे। 

सजे धजे थारी मा देखव, सब के मन ललचाये हे। 


चाँदी के बर्तन मा रहिके, थोरिक नइ अभिमान करे।  

स्वाद लगा जे मन भी खावयँ, ओखर मनके पेट भरे। 


रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा 

बलौदाबाजार 24322

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 आल्हा छंद - बरा-बिजौरी


रखिया बीजा अउ तिल्ली सँग,उड़द दार मा फेंट सुखाय।

चुरत-चुरत गजबे ममहावय,खाय-खाय बर मन हा भाय।।


उड़द दार के बरा बिजौरी,जेमा तिल्ली घलो मिलाय।

देखत तुरते लार बहावय,जिवरा सबके बड़ ललचाय।।


बोधन राम निषादराज

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*मनहरण घनाक्षरी*


रखिया बरी के छोटे बहिनी बिजौरी हवै,

तिल्ली के सिंगार कर, चले संगेसंग मा।

बरी खाये गूदा-गूदा बिजौरी ह पाये बीजा

तभो ले हुलास भरे हवै अंग-अंग मा।।

जब जाए मइके ले ससुरार मोठरी मा

सुख-दुख गोठियाए अपनेच ढंग मा।

आगी मा भुंजाये चाहे तेल मा तलाये तभो,

रंग डारे मनखे ला पिरित के रंग मा।।


*अरुण कुमार निगम*

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[मोद सवैया


दार उरीद फुलोय हवै भउजी बड़ पीठी सान बनाय।

गोल बनावत हे बढि़या परिवार बिजौरी खाय चबाय।

ध्यान धरै सबके सुख ला कतको कन छानै पोठ मिठाय।

डार मया मुठिया भर के तिल टूटय नाता ला सिरजाय।


*धनेश्वरी सोनी गुल*✍️✍️

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*कहिस बिजौरी-सार छंद*


सजे प्लेट मा हवै बिजौरी, रहि रहि के बिजराथे।

छुनहुन छुनहुन मन हा लागै, मुँह मा पानी आथे।।


दाऊ खाही तैं का खाबे, चल फुट मँगलू आगे।

कहिस बिजौरी हँसी उड़ावत,सुनके मति छरियागे।।


आय तिली हमरे उपजाये, लिस खरीद वो दाऊ।

 नइ तो बाँचिस एको काठा , हम फाऊ के फाऊ।।


मूँग उरीद हमीं उपजाथन, पेट आन के जाथे।

कर्जा बोड़ी छूटे खातिर, मंडी जा बेंचाथे।।


करना चाही चेत हमूँ ला,  हमरो लइकन खावैं।

रहना चाही हमरो घर मा, पहुना मन जब आवैं।।


चुर्रुस चुर्रुस ददा चबावै, कुर्रुस कुर्रुस दाई।

पापड़ संग बिजौरी फोरे, बने पोरसय बाई।।


चोवा राम 'बादल '

हथबंद, छत्तीसगढ़


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 वीरेंद्र साहू9: बिजौरी (सार छंद)


बैगुण हा गुण बन जाथे जब, संगत मिलथे सुग्घर।

रखिया बीजा तिली पिठी मिल, बने बिजौरी घर-घर।


छेल्ला रहिथे ता कचरा कस, मान जुड़े मा पाथे।

रखिया बीजा बने बिजौरी, ये संदेश बताथे।


ठिहा पाय बर पिसथे तपथे, तउने शोभा पाथे।

तरे बिजौरी सजे थाल मा, महिनत के गुण गाथे।


खाथे कोनों चुर्रुस चुर्रुस, लेथे मजा बिजौरी।

कहिथे बढ़िया संगत मा सुख, बात मान ले गौरी।  


परमारथ मा फूल घलो हा, रँउदाये तरपौरी।

सुख टूटे मा घलो समाये, बात बताय बिजौरी।।


विरेन्द्र कुमार साहू बोड़राबाँधा (गरियाबंद)

साधक सत्र - 9

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: *बिजौरी* (छन्न पकैया)


छन्न पकैया छन्न पकैया, आज बिजौरी खाबो।

गुरूदेव के सँग मा सबझन, अबड़ मजा हम पाबो।।


छन्न पकैया छन्न पकैया, गोल-गोल सिरजाये।

अदरक अउ तिल्ली के येमा, बढ़िया स्वाद भराये।।


छन्न पकैया छन्न पकैया, सुग्घर प्लेट सजाये।

देख देख के येला संगी, मुँह मा पानी आये।।


छन्न पकैया छन्न पकैया, दया मया लपटाये।

देख बिजौरी साधक मन हर, सुग्घर कलम चलाये।।


छन्न पकैया छन्न पकैया, जम्मो झन सकलाये।

इँहा बिजौरी के सब गुण ला, मिल के आज बताये।।


प्रिया देवांगन *प्रियू*

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: घनाक्षरी- बिजौरी 


कस रे बिजौरी बता, झन अब तें ह सता, 

कोन ह बनाये तोला,कइसे निर्माये हे। 

पीठी म तीली मिलाके, रखिया बीजा ल पाके,  

अनेकता म एकता के गुण दरसाये हे।  

घाम म सुखाये तोला, आगी म जलाये तोला, 

तेल म चुरोये तोला, तभे सब खाये हे। 

तोर गुण गान भारी, रस के बखान जारी, 

पाँच पंडवा ल देहे, थारी म सजाये हे।  


रचनाकार- दिलीप वर्मा

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 लीलेश्वर देवांगन,बेमेतरा: रोला,,,बिजौरी


पिठी ,तिली के संग, बिजौरी नेक बनाथे  ।

साग भात के संग ,बिजौरी खूब सुहाथे।

तिली बिजौरी देख ,देख सब के मन भाथे।

तेल तेल मा सेक, सेक के सबझन खाथे।


लिलेश्वर देवांगन

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डी पी लहरे: गीतिका छंद 

*सास*

चल बनाबो ओ बहुरिया चल बिजौरी साथ मा।

लान पीठी नून मिरचा धर थपटबो  हाथ मा।।

पेट भर खाना खवाथे ए बिजौरी जब रथे।

मोर घर के डोकरा हा ला बिजौरी ला कथे।।


*बहुरिया*

देख मोबाइल म मँय बीजी रथौं दिन-रात ओ।

तँय बिजौरी के कभू करबे कभू झन बात ओ।

आज लिज्जत पापड़ी के हे ज़माना सास जी।

देख एक्को कन नहीं टाईम तो मोर पास जी।।


*सास*

बात ला देखौ बहुरिया मन कभू मानँय नहीं।

काय होथे ए बिजौरी तेन ला जानँय नहीं।

ए बिजौरी ला कभू मँय तो नँदावन दँव नहीं।

ए जमाना ला बिजौरी ला भुलावन दँव नहीं।।


द्वारिका प्रसाद लहरे"मौज"

कवर्धा छत्तीसगढ़

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Friday, March 18, 2022

रंगपरब विशेष छंदबद्ध कविता


 रंगपरब विशेष छंदबद्ध कविता

 मनहरण घनाक्षरी छंद :- जगदीश "हीरा" साहू


होली हे....


हाथ मा गुलाल धरे, कोनो पिचकारी भरे,

कोनो हा लुका के खड़े, आगू पाछू जात हे।

लईका सियान संग, बुढ़वा जवान घलो,

रंगगे होली मा गली गली इतरात हे।।

गली मा नगाड़ा बाजे, मूड़ पर टोपी साजे,

बड़े बड़े मेंछा मुँह ऊपर नचात हे।

गावत हावय फ़ाग, लमावत हावै राग,

सबो संगवारी मिल, मजा बड़ पात हे।।


बाहिर के छोड़ हाल, भीतर बड़ा बेहाल,

भौजी धर के गुलाल काकी ला लगात हे।

हरियर लाली नीला, बैगनी नारंगी पीला,

आनी बानी रंग डारे, सब रंग जात हे।।

माते हावै हुड़दंग, भीगे सब अंग अंग,

अँगना परछी सबो रंग मा नहात हे।

बइठे बाबू के दाई, सब के होली मनाई,

अपन समय के आज सुर ला लमात हे।।


जगदीश "हीरा" साहू (व्याख्याता)

कड़ार (भाटापारा) छत्तीसगढ़

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 घनाक्षरी होली-शृंगार रस


रूप तोरे मन मोहे,अंग अंग रंग सोहे।

भारी मारे पिचकारी,रंग बरसाय रे।

संग तोर छुटे नहीं,मया डोर टूटे नहीं।

ऐती ओती चारो कोती,रंग ला लगाय रे।

दया मया रंग घोरे,पोत डारे मन मोरे।

मन मोहना तैं मोरे,मन भरमाय रे।

मोर संग खेले होली,गुरतुर बोले बोली।

मन मिला के मोहन,मन मा समाय रे।।(१)


गोरी तोर अंग अंग,डार दँव मया रंग।

छोड़े कभू छुटे नहीं,कतको छोड़ाय ओ।

दया मया राग ले ले,चल जोही फाग खेले।

मोर तीर आना जोही,काहे शरमाय ओ।।

रंग ला लगाले  गोरी,झन कर जोरा जोरी,

आज हे तिहार होरी,कहाँ तैं लुकाय ओ।

मया मधुरस घोर,मात गेहे मन मोर।

बाँधे हँव मया डोर,कोन छोर पाय ओ।।(२)


गाबो चल फाग जोही,धरे सातो राग जोही।

दुख पीरा भाग जाही,खेलबो आ रंग ओ।

देख लेना हाथ मोरे,धरे रंग लाल घोरे।

मलौं गोरी गाल तोरे,फिंजे अंग अंग ओ।

संगी-साथी जोर लेना,गोरी मोरो सोर लेना।

तहूँ रंग घोर लेना,पीबो मया भंग ओ।

मात जाबो संगे संग,खेलबो मया के रंग।

चढ़ जाही नशा अंग,लग जाबो संग ओ।।(३)


गोरी तोरे अंग अंग,चढ़े मया रंग रंग,

रख मोला संग संग,जिनगी पहाँव ओ।

थोरको हियाव कर,अब तो नियाव कर,

मोर ले बिहाव कर,महूँ मया पाँव ओ।।

बाँध लेना मया डोरी,बन रानी मोर गोरी,

झन कर जोरा जोरी,दे दे मया छाँव ओ।

मन दुनों साँट लेबो,मया डोरी आँट लेबो,

दुख पीरा बाँट लेबो,पाबो मया ठाँव ओ।।(४)


द्वारिका प्रसाद लहरे"मौज"

कवर्धा छत्तीसगढ़

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 माते हावय फाग देख लव, गाँव सहर मा भइया l

बजे नंगारा गली खोर मा , नाचे थाथा थइया ll

काड़ी खूँटी कचरा लाके, बारव होरी मिलके l

बचे रहे झन अवगुन भइया,बैर भाव जी दिल के ll

मया पिरित के रंग लगावव , जीवन भर झन छूटय l

दया मया के डोरी बंँधना , ठोकर ले झन टूटय ll

पीयव झन जी भांग मऊहाँ , हावय बड़का अवगुन l

मया पिरित के होरी भइया , खेलव होके बीधुन ll


होली के अनंत शुभकामनाएँ 🌹🌹🌹

दूजराम साहू *अनन्य*

खैरागढ़ (राजनांदगाँव) 

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-मनहरण घनाक्षरी

करलौ हँसी ठिठोली,मनालौ सुग्घर होली,

मया रंग डारौ बने,सब बनै मीत गा।

हरियर लाली नीला,जामुनी नारंगी पीला,

रंग मा बूड़े राहय,बने दव छींत गा।।

फाग गावव मिलके,नाँचव सब झूमके,

कोन बड़े कोन छोटे,गाव सब गीत गा।

इरखा सबो मिटाके,रंग गुलाल लगाके,

जात पात भेद मिटा,बढ़ावव प्रीत गा।।

✍️

विजेंद्र वर्मा

नगरगाँव धरसीवाँ

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 उल्लाला


जगर बगर उल्लास हे, महिना ये मधुमास हे।

पिचका रंग गुलाल हे, बजे नगाड़ा ताल हे।।


अंतस उमड़े प्यार हे, जिनगी के ये सार हे।

उत्सव रंग हजार हे, होली आज तिहार हे।।


रंग रंग के रंग हे, मन मा आज उमंग हे।

होली के हुड़दंग हे, राधा किसना संग हे।।

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सार छंद - बोधन राम निषादराज*


(जिनगी के होरी)


देखव संगी फागुन आए,ढोल नँगारा बाजय।

लइका बुढ़वा दाई माई,घर कुरिया ला साजय।।


जिनगी मा जी काय धरे हे,बैर भाव ला झारव।

बइरी हितवा जम्मो मिलके,रंग मया के डारव।।


लाली हरियर नीला पिँउरा,सुघ्घर रंग समाए।

छींचव संगी जोर लगाके,फागुन बड़ मन भाए।।


रंग लगावय आनी-बानी, मउहा  पीके  झूले।

धर पिचकारी मारय फेंकय,कोनों रेंगत भूले।।


फाग होत हे चारो कोती,नर-नारी  बइहाए।

नाच-नाच के मजा करत हे,सुग्घर होरी आए।।


ए जिनगी मा काय धरे हे,चलो मनालव खुशियाँ।

ए जिनगी नइ मिलय दुबारा,झन बइठव जी दुखिया।।


रचनाकार:-

बोधन राम निषादराज"विनायक"

सहसपुर लोहारा,जिला-कबीरधाम(छ.ग.)

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 रोला छंद


पहिली ले तइयार, रहय जी होरी थुनिया।

परसा फुलवा खोंच, खुशी मा नाचय गुनिया।।

नेंग धरे के बाद, रचावय झिटिया डारा।

गावँय रतिहा फाग, बइठ के आरा पारा।।


ढोवँय चना मसूर, फाँद गाड़ी अउ गाड़ा।

फुरसुदहा मा रोज, बजावँय ढोल नगाड़ा।।

बाजत हवय निशान, मधुर हे सुर  शहनाई।

गमकत सुग्घर फाग, झोंकिहव मोर बधाई।।


होरी हे.....


छंद साधक

अश्वनी कोसरे 

रहँगी पोंड़ी कवर्धा

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: कुंडलिया छंद 


परसा फूले खार मा,धर जोगी के भेष।

कहिथे बन जा संत कस,त्याग कपट छल द्वेष।

त्याग कपट छल द्वेष,बोल ले मीठा बोली।

आथे यहू तिहार, बरस भर में गा होली।

सबके बन जा मीत,गुलाबी रंग ल बरसा।

मन भावन हे रंग, खार मा देखव परसा।।


केवरा यदु"मीरा"राजिम

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रंग परब(सरसी छंद)


फागुन पुन्नी जरय होलिका,होय   बुराई  नास।

सत के जोती जग मा बगरे,मन भाये मधुमास।


चढ़े दूसर दिन रंग मया के,सबझन खेलैं फाग।

होरी   होरी  चारो   कोती, गूँजय  एक्के  राग।

ढोल नँगाड़ा बजे ढमाढम,बजे  मँजीरा  झाँझ।

रंग गुलाल उड़ावय भारी,का बिहना का साँझ।

करिया पिवँरा लाली हरियर,चढ़े रंग बड़ खास।

फागुन पुन्नी जरय होलिका,होय बुराई नास...।


डूमर गूलय परसा फूलय,सेम्हर लागय लाल।

सरसो चना गहूँ बड़ नाचय,नाचे मउहा डाल।

गस्ती तेंदू  चार  चिरौंजी,गावय  पीपर  पान।

बइठे  आमा  डार  कोयली ,सुघ्घर छेड़े तान।

घाम हवे ना जाड़ हवे जी,हवे मया के वास।

फागुन पुन्नी जरय होलिका,होय बुराई नास--


होली मा हुड़दंग  मचावय,पीयय गाँजा  भांग।

इती उती चिल्लावत घूमय,खूब  रचावै  स्वांग।

तास जुआ अउ  दारू पानी,झगरा झंझट ताय।

अइसन मनखे गारी खावय,कोनो हा नइ भाय।

रंग मया के अंग लगाके,जगा जिया मा आस।

फागुन पुन्नी जरय होलिका,होय बुराई नास..।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को(कोरबा)

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झन बिगाड़ होली मा बोली- गीत(चौपाई छंद)


चिल्लाथस बड़ होली होली, लोक लाज के फाटक खोली।

झन बिगाड़ होली मा बोली, झन बिगाड़ होली मा बोली।।


मया पिरित के ये तिहार मा, द्वेष रहे झन तीर तार मा।

बार बुराई होली रचके, चल गिनहा रद्दा ले बचके।।

उठे कभू झन सत के डोली, पथ चतवार असत ला छोली।

झन बिगाड़ होली मा बोली, झन बिगाड़ होली मा बोली।।


बजा नँगाड़ा झाँझ मँजीरा, नाच नाच दुरिहा दुख पीरा।

समा जिया मा सब मनखे के, दया मया नित ले अउ दे के।

छीच मया के रँग ला घोली, बना बने मनखे के टोली।

झन बिगाड़ होली मा बोली, झन बिगाड़ होली मा बोली।।


एखर ओखर खाथस गारी, अबड़ मताथस मारा मारी।

भाय नही कोनो हर तोला, लानत हे अइसन रे चोला।।

दारू पानी गाँजा गोली, गटक कभू झन मिल हमजोली।।

झन बिगाड़ होली मा बोली, झन बिगाड़ होली मा बोली।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

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रोला छंद-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

आगे रंग तिहार, चलत हे बड़ पिचकारी।
बाजे मांदर झाँझ, नँगाड़ा तासक भारी।
लइका संग सियान, मगन सब मिलजुल नाँचे।
चिक्कन कखरो गाल, आज के दिन नइ बाँचे।

भजिया बरा बनाय, खाय सब झन मिलजुल के।
होके मस्त मतंग, फाग मा नाँचे खुलके।।
काय बड़े का छोट, पटत हे सबके तारी।
कोई लागय लाल, गाल कखरो हे कारी।

धरती संग अगास, रंग गय हे होली मा।
परसा सेम्हर साल, प्लास नाँचे होली मा।
नवा नवा हे पात, फूल हे आनी बानी।
सज धज हे तइयार, गजब के धरती रानी।

छोड़ तोर अउ मोर, तभे होली हे होली।
मिल अन्तस् ला खोल, बोल मधुरस कस बोली।
चुपर मया के रंग, धोय मा नइ धोवाये।
नीला पीला लाल, रंग दू दिन के ताये।

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को, कोरबा(छग)

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ढोल नगाड़ा बिसरगे, गाय कोन हर फाग।

डी जे के हुड़दंग मा, बिगड़त हे अब राग।।


स रा र रा के अब इहॉं, सररइया ह नॅंदाय।

जोगीरा होरी हवै, बबा घलो नइ गाय।।


झॉंझ मॅंजीरा ठेलहा, बेबी मॉंगे बेस।

होरी हे मान न बुरा, कहय धरे सब द्वेष।।


फीका आज अबीर हे, रंगै नही गुलाल।

पिचकारी हे रंग बिन, हाथ मले बस गाल।।


दारू गॉंजा संग मा, भॉंग घले हे मात।

मउहा परसा फूलगे, झार सबो जी पात।।


दॉंड़ होलिका नइ जले, घर घर जरगे आग।

ढोल नगाड़ा बिसरगे, गाय कोन हर भाग।।

डी जे के हुड़दंग मा, बिगड़त हे अब राग.....


मनोज कुमार वर्मा

बरदा लवन बलौदा बाजार

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: *शंकर छंद*

*विषय-होली*


आगे होली हा अब संगी , मातगे हे फाग।

ढोल नँगाड़ा बाजत हावय, छेड़ दे हें राग।।

नाचत कूदत झूमत हें सब, अउ मिलावत ताल।

हरियर लाली ले रंगे हें, देख सबके गाल।।


*अनुज छत्तीसगढ़िया*

 *पाली जिला कोरबा*

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*दोहा छन्द*

पिचकारी हे हाथ मा, सब ला रंग लगाय।

रंग बुकाये हें सबो,कोनो नइ चिनहाय।।


दारू पीये हें कहूँ, कोनो खाये भंग।

एती ओती हें गिरत, सम्हलत हे ना अंग।।


बजत नगारा खोर मा,माते हे हुड़दंग।

सरा ररा गावत हवँय, फगुवा गीत मतंग।।


संगी सहेली ला पकड़, डारत रंग गुलाल।

चुनरी साड़ी भींग गे, गोरी हे बेहाल।।


मस्त मगन हावँय सबो, सबके एके हाल।

एक बराबर हें दिखत, कारी गोरी गाल।।


मानव होली हो मगन, जुरमिल के सब कोय।

ध्यान रखव अतका घलो, दुखी कहूँ झन होय।।


*भागवत प्रसाद चन्द्राकर

साधक सत्र-15*

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: त्रिभंगी छंद

****होरी***


हा फागुन आगे ,मन ला भागे , झूमो नाचो ,संग  चलो ।

सब मया‌ पिरित के ,रंग सजाके , जिनगी मा जी, खूब फलो ।

सब खेलव होरी,  छोरा छोरी ,दया मया के, रंग भरो ।

सब रंग लगाके,ढोल बजाके , भेदभाव ला ,दूर करो ।


छंद के छ सत्र 10

लिलेश्वर देवांगन

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*शुभ* *होली* 

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विष्णुपद छंद 

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सूरत होगे भकमुड़वा कस,सतरंगी मुख हे। 

मूँड़ पिराय गुलाल लगे ले, तबहो ले सुख हे। 

सिर ले गोड़ शरीर भींजगे, पिचका के मारे। 

तबहो मन कहिथे अउ कोनो, बचे रंग डारे। ।

रंग गुलाल भले बाहिर ले, शकल बिगाड़य जी। 

पर मनखे मनखे मा सुमता, मया जुगाड़य जी। ।

रचे रँगे सब एक दिखत हें, का गरीब बड़हर। 

भेद मिटावय प्रेम बढ़ावय, ए होली सुघ्घर। ।🙏


दीपक निषाद 

छंद साधक-सत्र-10

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: सार छन्द 


जेकर अँगना सुख के बरसा, ओकर होथे होली। 

चारो कोती अँजोर बगरे,  हाँसय  बोलयँ  बोली।। 


होय करेजा चानी चानी, ओ आँसू  बोहाथे। 

कतको बरसय रंग सुहावन, मन ला कहाँ सुहाथे।। 


हिरदे के रस सब सूखागे, आँखी होगे झिरिया। 

कतको मनला सँवास राखवँ, उमड़त रहिथे पिरिया।। 


कोन समझ थे मनके दुख ला, उठै शूल कस पीरा।

सबो रंग हर कचरा  लगथे,  गँवा  जथे  जब हीरा।। 


सुमित्रा शिशिर

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 मनोज वर्मा: *त्रिभंगी छंद*


हे आनी बानी, सज मनमानी, सबो घुमे जी, रूप धरे।

संगी सॅंगवारी, दे दे गारी, पूज होलिका, बिहा करे।

रॅंगके जी तन मन, छेड़ें अनबन, बुरा न मानो, राग जपे।

वुढ़वा अउ लइका, पाके मउका, करत बहाना, पोठ तपे।।



हे रंग बिरंगी, रुख सतरंगी, सजे पान फर, डार बड़े,

परसा हर फूले, अमुआ झूले, सुघर सेम्हरा, हॉंस खड़े।

ऋतु बसंत राजा, ले के बाजा, ढोल नगाड़ा, संग चले।

बुढ़वा अउ लइका, पाके मउका, रंग गाल भर, डार मले।


मनोज कुमार वर्मा

बरदा लवन बलौदा

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छंद के आनंद लेत, इहाँ हे हेराये चेत

होली के तिहार मा जी घुरे प्रेम रंग हे।

टिमकी नँगारा संग राग अनुराग फाग

गावत हें  झूम झूम बाजत मृदंग हे।।

आये हवँय कान्हा राधा खेले बर होली  'कांत'

मन मा तो उमड़त कतका उमंग हे।

आपदा ले चिटिकुन उबरे जुरे हें जम्मो,

नाचत नचावत इहाँ सबो ल अनंग हे।।


सूर्यकान्त गुप्ता

सिंधिया नगर दुर्गा

.......

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: *त्रिभंगी छंद - बोधन राम निषादराज*

विषय - होली


(1) 

चल खेलौ होली,मिल हमजोली,रंग गुलाली,धरे रहौ।

धर भर पिचकारी,ए सँगवारी,मन मा खुशियाँ,भरे रहौ।।

सब बइरी हितवा,बन के मितवा,गला मिलौ जी,आज सबो।

सब भेद छोर के,मया जोर के,करलौ सुग्घर,काज सबो।।


(2)

होली मा सुग्घर,मन हो उज्जर,भेद भाव ला,छोर चलौ।

अउ बजै नँगारा,आरा-पारा,रंग मया के,घोर चलौ।।

सब बनौ सहाई,भाई-भाई,दया मया सुख,छाँव रहै।

झन मन मुटाव हो,नेक भाव हो, होली के शुभ,नाँव रहै।।


(3)

होली के आवन,बड़ मन भावन,चारों कोती,शोर उड़ै।

मन मा खुशहाली,रंग गुलाली,गली मुहल्ला,खोर उड़ै।।

फागुन के मस्ती,छाए बस्ती,लइका बुढ़वा,खेल करै।

होली हुड़दंगा,मन रख चंगा,मनखे-मनखे,मेल करै।।


बोधन राम निषादराज✍️

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Wednesday, March 16, 2022

चित्र आधारित छंदबद्ध कविता


 फोटो- साभार अरुण निगम

( फूल ले लदे परसा अउ मुख्य सड़क)

चित्र आधारित छंदबद्ध कविता

: *त्रिभंगी छंद - बसंत के परसा*


आगे ऋतु राजा,बजगे बाजा,ढोल नँगारा,रंग उड़ै।

परसा के लाली,हो मतवाली,थिरकत जम्मों,अंग उड़ै।।

आमा मउरागे,तन बउरागे,कोकिल कुहकत,डार हवै।

डोंगर सब साजे,सरग बिराजे,दुल्हिन जइसन,खार हवै।।


बोधन राम निषादराज

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[: बसंत आय हे-मनहरण घनाक्षरी

उलहा डारा पाना हे,कोयली गावै गाना हे,

गमकत दमकत,बसंत हा आय हे।

मउँरे अमुवा डाल,परसा फूले हे लाल,

अंतस मारे हिलोर,खुशी बड़ छाय हे।।

बाँधय मया के डोरी,दाई सुनावय लोरी,

झूमत मन मँजूर,पाख फइलाय हे।

चना सरसों तिंवरा,देख जुड़ाय जिंवरा,

मउँहा मतौना बने,गंध बगराय हे।।


विजेंद्र वर्मा

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: लाल लाल रुखुवा दिखय,सब के मन ला भाय।

सुग्घर फुलुवा देख के, भौंरा मन ललचाय।।


दहकत आगी कस लगय, दिखय न रुखुवा डार।

डारा सब तोपाय हे, टेसू के भरमार।।


अजय अमृतांशु, भाटापारा

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आशा देशमुख: हरिगीतिका छंद


अब्बड़ सुघर परसा खिले रिरतुराज के स्वागत करे।

फागुन महीना बर घलो, ये रंग लाली ला धरे।।

टेशू बघारत टेश बड़ , मन ला अबड़ ललचात हे।

आगी सही दहकत हवय, बिरहिन ल जस चिढ़हात हे।।


आशा देशमुख

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 इजारदार: *दोहा*

फागुन के तो रंग मा,माते खेती खार ,

अमुवा सुग्घर मौर गे,परसा लहसे डार।


मन भौंरा हा मात गे ,देखत परसा फूल,

गोरी सुरता तोर ओ ,हुदकत हावय शूल।।

आशा देशमुख

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 रंग बिरंगी, सब सतरंगी, सजे पान फर, डार बड़े,

परसा हर फूले, अमुआ झूले, सुघर सेम्हरा, हॉंस खड़े।

ऋतु बसंत राजा, ले के बाजा, ढोल नगाड़ा, संग चले।

बुढ़वा अउ लइका, पाके मउका, रंग गाल भर, डार मले।


मनोज कुमार वर्मा

बरदा लवन बलौदा बाजार

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 त्रिभंगी छंद......



परसा हा फूले, डारी झूले  ,लाली लाली, रंग खिलै।

गुलमोहर मोहै, वन वन सोहै ,खुशी खुशी मन, झूम मिलै।

पंछी चहकय वन ,सुघ्घर उपवन ,रंग बिरंगा, डार भरै।

अमवा ममहावै, फर भर जावै ,किसम किसम फल, पेड़ धरै।


*धनेश्वरी सोनी गुल*

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 *सार छन्द* 


परसा फूले लाली- लाली, सड़क तीर पयडगरी। 

पहिरे टुरी लाल लुगरा जस, ढाँके तन ला सगरी।। 


ठाढ़े - ठाढ़े देखत रहिथे, मनखे मोटर- गाड़ी। 

कभू-कभू ओ मुसका देथे, दाँत दबा के साड़ी।। 


 🙏🙏धन्नूलाल भास्कर 🙏🙏

******************************

 - परसा (दोहा)


तिलक लगाही भाल मा, संग चुपरही गाल।

पहुना के स्वागत निमित, परसा धरे गुलाल।।


का सुख हवय गृहस्थ मा, का जानय बैराग।

परसा फूल अगास ले, दगत दिखे जस आग।।


धर के रंग सुहाग के, शोहय परसा फूल।

देखय बिधवा बिरहनी, बढ़य बिरह के शूल।।


ललियाये हे सेम्हरा, परसा हे चुक लाल।

चर्चा हे चौपाल मा, रखबे तहूँ खियाल।।


-सुखदेव सिंह "अहिलेश्वर"

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] डी पी लहरे: सार छन्द गीत

लाली लाली परसा फुलवा,देखत मन हरसागे।

ऐती-ओती  चारो  कोती,रंग बसंती  छागे।।


उलहा होके मुस्कावत हे,अब तो परसा पाना।

परसा के फुलवा मा बइठे,भौंरा गावय गाना।।

परसा लाली ओन्हा ओढे,दुलहिन जइसे लागे।

ऐती-ओती  चारो  कोती,रंग बसंती  छागे।।


कंक्रिटिंग के सेती नइहे,पैडगरी अउ धरसा।

तभो सबो जीव जंतु मन ला,छाँव देत हे परसा।।

देत सँदेशा परसा फुलवा,फागुन महिना आगे।

ऐती-ओती  चारो  कोती,रंग बसंती  छागे।।


द्वारिका प्रसाद लहरे"मौज"

कवर्धा छत्तीसगढ़

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: कुण्डलिया छंद


फगुआ के पा शोर ला, परसा फूले लाल।

पुचपुचहा कस बाट मा, अपन जनावय चाल।

अपन जनावय चाल, रंग खेले होली मा।

बनके लाल गुलाल, चढ़े गोरी चोली मा।

माते तब अउ खास, संग देवय जब महुआ।

मिलके रंग जमाय, गाँव के फागुन फगुआ।।


विरेन्द्र साहू साधक - 9

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: हरिगीतिका छंद


*परसा कहै अब मोर कर भौरा झुले तितली झुले।*

*तड़पे हवौं मैं साल भर तब लाल फुलवा हे फुले।*

*जब माँघ फागुन आय तब सबके अधर छाये रथौं।*

*बाकी समय बन बाग मा चुपचाप मिटकाये रथौं।*


*सजबे सँवरबे जब इहाँ तब लोग मन बढ़िया कथे।*

*मनखे कहँव या जीव कोनो सब मगन खुद मा रथे।*

*कवि के कलम मा छाय रहिथौं एक बेरा साल मा।*

*देथौं झरा सब फूल ला नाचत नँगाड़ा ताल मा।*


खैरझिटिया

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लावणी छंद- दिलीप कुमार वर्मा 


लाल चुनरिया ओढ़ सुँदरिया, सुग्घर स्वांग रचाये हे।

बने दुल्हनिया परसा रुखुवा, सब ला पास बलाये हे। 


बिन देखे कोनो नइ बाँचय, सबके मन ला भावत हे। 

मन मोहे बन के बन कैना, सब मा बाण चलावत हे। 


घायल होगे अमुवा रुखुवा, बात समझ नइ पाये हे। 

तुरते ताही खाप मउर ला, दूल्हा बन के आये हे।


जस-जस सूरज आँखी फारय, तस-तस रूप बढ़ावत हे। 

कोयल छेड़य गाके गाना, भौरा तान मिलावत हे। 


मउहा रुखुवा झूमत आगे, पग-पग फूल बिछाये हे। 

महर-महर महका घर अँगना, देख रूप बउराये। 



रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा 

बलौदाबाजार

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हरियर हरियर खेतखार अउ, हरियर हे धरसा।

फागुन मस्त महीना सुग्घर, फूले हे परसा।


ज्ञानु

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: चोवा राम ' बादल '-----कुण्डलिया छंद।


*रितु राजा आये हवै, कामदेव हे संग।*

*हावय परघावत प्रकृति,चारों खूँट उमंग।*

*चारों खूँट उमंग,हवा सुग्घर ममहावै।*

*चुपरे लाल गुलाल, अबड़ परसा इँतरावै।*

*ढोल नगाड़ा झाँझ, गुड़ी मा घिड़कै बाजा।*

*फागुन हे मतवार,देख हाँसै रितु राजा।*



*मउहा रुखुवा मातगे, कउहा हे भकुवाय।*

*कुलकत हावय गँधिरवा,आमा गद मउराय।*

*आमा गद मउराय,गहूँ के चढ़े जवानी।*

*हावै भारी पाँव, पिंयारी सरसों रानी।*

*घुँघरु ला छनकाय, चना हा लउहा लउहा।*

*भँवरा हे बउराय,छकत ले पी रस मउहा।*



*कुहकत हावय कोइली, बइठे अमुवा डार।*

*सात धार रोवत हवै, सुनके बिरहिन नार।*

*सुनके बिरहिन नार,पिया के सुरता आथे।*

*छटपट छइया  रात, सेज हा अगिन लगाथे।*

*करिया परगे अंग, रकत चिंता हे चुहकत।*

*उठथे हिरदे हूक,कोइली हावय कुहकत।*

बादल

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 कांकेर: परसा फूल

छंद - दोहा

लाली परसा फूलगे, आमा हे मउराय।

मउहा बड़ ममहात हे, फागुन महिना आय।।


मन भावन मौसम बने, सब ला हवय लुभाय।

नाचत गावत सब मगन, फाग गीत ला गाय।।

अनिल सलाम

जिला - कांकेर छत्तीसगढ़

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 अश्वनी कोसरे 9: सरसी छंद


रंग धरे हे परसा लाली, जस मँदार के फूल|

दुलहिन लागत हावय फागुन, जियँरा मारत हूल||


गली गली मा रंग उड़त हे, मिलके गावँय फाग|

रंग भंग मा रंग नँदागे, साजे सुग्घर राग||


छंद साधक

अश्वनी कोसरे

कवर्धा कबीरधाम

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[परसा फुलगे लाली लाली, लागे बसंत आगे। 

बजही ढोल नगारा अब तो, रंग मया के पागे।। 

मउहा झरही कोवा फरही, तेंदू चार मिठाथे। 

ये फुलवा धरती के गहना, शोभा गजब बढ़ाथे।। 


सुमित्रा शिशिर

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: सवैया- दिलीप कुमार वर्मा 


परसा फुलुवा जबले फुलगे, लगथे धरती धधके जस आगी। 

कुहकी जब पारत कोयलिया, गमके सब ओर बने जस रागी।  

जिन देखत हे तिन मानत हे, नइ हे कउनो हमले बड़ भागी। 

दुलही बनके बन ठाड़ रहे, दमके हर अंग रहे नइ दागी।


रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा 

बलौदाबाजार

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: रोला छंद- दिलीप कुमार वर्मा

परसा रुखुवा बोल, कोन बर सजधज आये। 

दिखा-दिखा के रूप, कोन ला बता रिझाये। 

दमकत हे सब अंग, लाल जे पहिरे चोला। 

काखर देखे राह, बता दे अब तो मोला। 


भौरा गीत सुनाय, तोर चक्कर काटत हे

अपन मया के बात, सबोला  जा बाँटत हे। 

मउहा हे मदहोश, देख के तोर जवानी। 

आमा बाँधे मौर, करत हावय नादानी। 


तोर रूप ला देख, मेनका तको लजागे। 

रति रम्भा के हाल, निचट पतझड़ कस लागे। 

सुरुज देव हो ठाढ़, एक टक गजब निहारे। 

दिखा जवानी रूप, जगत होरी कस बारे। 


बजा नगाड़ा ढोल, बराती बन सब आगे। 

दूल्हा होही कोन, सबोझन सोंचन लागे। 

नाचत कूदत संग, फूल के रंग लगावयँ। 

लगा-लगा हर अंग, सबोझन बड़ सुख पावयँ। 


रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा 

बलौदाबाजार

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: *रोला छंद*

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भागत हावय तेज, देख दुनिया सँगवारी ।

सब ला हावय आज, फिकर जिनगी के भारी ।।

सड़क तीर मा एक, पेड़ परसा के हावय ।

जेकर लाली फूल, सहज अंतस ला भावय ।।1।


कतको मनखे रोज, निहारँय आवत - जावत।

अफसर या मजदूर, बिहनिया- साँझ पहावत ।।

मन मा उमड़य भाव, सोंच हे जेकर जइसे ।

आगे हवय बसंत, बतावय मोहन कइसे ।।2।


झुमरय गा दिन-रात, मगन हो परसा फुलवा ।

चुहक- चुहक रस सार, चिरैया झूलैं झुलवा ।।

व्यस्त हवँय संसार, लगे हे आवा- जाही।

अंतस ले अब कोन, फगुनवा गीत सुनाही ।।3।


पहिली सहीं उमंग, कहाँ तँय पाबे भइया ।

भागँय मनखे रोज, रेस कस सरपिट सइया ।।

धूल- धुआँ अउ शोर, प्रदूषण बाढ़त हावय ।

बुढ़वा परसा पेड़, अपन दुख व्यथा सुनावय ।।4।


कहँय सुजानिक लोग, जमाना बदलय भाई ।

स्वारथ सुख बर आज, काँटथे गा रुखराई ।।

चेतव करव विचार, नहीं पाछू पछताहू ।

स्वच्छ हवा अउ छाँव, बतावव कइसे पाहू ।।5।


------ मोहन लाल वर्मा 

     (छंद साधक सत्र-03

  पता :-  ग्राम अल्दा तिल्दा रायपुर (छत्तीसगढ़ )

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 *आल्हा छंद*

चमचम चमचम चमकत हावय,सड़क बने हे अपरंपार,

जगमग जगमग शहर करे बर ,बिजली खंभा खड़े हजार।।


चींबो चींबो कर भागत हे,कतका मोटर सइकल कार,

अपन अपन के धुन हे रेंगत,दूसर बर नइ दारमदार।।


बने अहाता कतका बड़खा, भीतर हे अंग्रेजी फूल ,

उही जगा मा परसा भैय्या, खड़े खड़े खावत हे धूल।।


दुनिया के तो चकाचौंध ला,देखत परसा हा मुस्काय,

कान लगा के सुनौ सबो झन,अंतस के तो बात बताय।।


सड़क बहुत तँय चमकत हावस,काकर दम मा येला जान,

तोर बने बर कतका जंगल, हो गिस हावय रे कुर्बान।।


खंभा जादा झन इतरा तँय,तोर ल ऊपर भैय्या साल,

तोर जनम के खातिर सुन रे,मोरो कटगे कतका डाल।।


बड़े अहाता भीतर फुलवा,हाँसत हस तँय गर्मी जून,

तोर जरी बर पानी बनगे,कतको माली मन के खून।।


आपा धापी चकाचौंध मा,मनखे मोला झन बिसराव,

अंत समय मा मँय हर देहूं,दया मया के तोला छाँव।।


  छंद साधक

दुर्गा शंकर ईजारदार

सारंगढ़( मौहापाली)

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 दोहा छन्द


लाली परसा फूल गे,फगुआ छेड़े राग।

पिया बिरह मा देख तो,लागे तन मा आग।।


बूड़े फागुन रंग मा,परसा पाना डार।

माते राधा अउ किशन, होत रंग बौछार।।


राजेन्द्र कुमार निर्मलकर

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चित्रा श्रीवास: दोहा छंद-


मोटर  गाड़ी के धुआँ, रहिथे साँस समाय।

परसा मन के पीर ला,काला जाय बताय।।

गर्दा पाना मा जमे,उड़थे देखव धूल।

बीपत जम्मो भूल के,झूमे परसा फूल।।

कार ट्रक अउ टेम्पो, हे दिन भर चिचियाय।

कान फोरथे शोर हा,ब्लड प्रेशर बढ़ाय।।

बइठे सबके बीच मा,मन पंछी उड़ियाय।

फोरलेन के भीड़ मा,परसा हे तिरियाय।।

आँसू ढरके गाल मा,होगे आँखी लाल।

कहिथे लोगन  देखके,बिखरे हवे गुलाल।।

चित्रा श्रीवास

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सार छंद 

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परसा के सुघ्घर फुलवा मन, हाँसत या रोवत हें। 

मनखे के स्वारथ के आघू, प्रकृति प्रेम सोवत हें। ।

अब विकास के भेड़चाल मा, पर्यावरण पिसागे। 

पेड़ काट के पौध लगाना, खानापूर्ती लागे। ।

बन संपदा लुटावँय दिनदिन,कटँय पेड़ मन सरलग। 

इँखर जघा मा कंकरीट के, जंगल लागँय जगमग। ।

खड़े चौंक चौराहा जइसे, महापुरुष के मूरत। 

बस शोभा बर लगयँ पेड़ झन, बदलै अइसन सूरत। ।

पेड़ लीम बर पीपर जम्मो, आमा अमली गस्ती। 

फिर से पावँय मया सबो खुँट, खेत खार घर बस्ती। ।

तब रुख राई के हर पाना, फर फुलवा इतराहीं।

अउ भुइँया के कोना कोना, मुसकाहीं ममहाहीं। ।

तब परसा के फुलवा देखत, सबके अंतस खिलहीं। 

अउ बसंत के असल मजा हा, हर मानस ला मिलहीं। ।🙏


दीपक निषाद 

छंद साधक-सत्र-10

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 कुण्डलिया- 


परसा के ये फूल हा, देवत हे संदेश।

पेड़ बचावव साँस बर, स्वच्छ रखौ परिवेश।।

स्वच्छ रखौ परिवेश, करौ मिल दूर प्रदूषण।

सजे प्रकृति तन माथ, पेड़ बन के आभूषण।।

गजानंद अब गाँव, शहर नइ बाचिस धरसा।

रहय कटाकट पेड़, लीम बमरी अउ परसा।।


इंजी. गजानंद पात्रे 'सत्यबोध'

बिलासपुर (छत्तीसगढ़)

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परसा (सार छन्द)


परसा फूल हवे सुरता मा, सिरजत कविता गाना।

परसा पाना ला बिसरा के, करत बिकास जमाना।


सुख-दुख मा परिवार कुटुम जब, एक जघा सकलावय।

पतरी दोना बन हर घर मा, परसा पाना आवय।


परसा के पतरी दोना मा, जेवन हर परसावय।

अंगत अंग लगाके मनखे, मनभर जेवन खावय।


पाना के पतरी दोना उठ, घुरवा मा फेंकावय।

सड़ के सहज खाद बन जावय, भुँइया के मन भावय।


नइ नुकसान करय ओ पतरी, पत्ता सिकुने तावय।

चाही कोनो कर उड़ जावय, चाही गरुवा खावय।


प्लास्टिक के गिलास पत्तल मा, परसावत अब खाना।

परसा पाना ला बिसरा के, करत बिकास जमाना।


परसा फूल बरोबर देखव, ललियावत हे दुनिया।

आही आँच झुलसही जिनगी, युद्ध न देत रउनिया।


विश्व कुटुम के भाव भवन का? पोठ बनाही दुनिया।

मनुज माथ मद मा मतलाये, नींव धरत बदगुनिया।


युद्ध लड़ाई के न दवाई, खोज पूछ लौ दुनिया।

डॉक्टर बैद हकीम न एखर, नइहे बइगा-गुनिया।


चैनल चौपालन के चर्चा, चुगली चारी सुनि आ।

तहूँ अपन कुछ बदरा दाना, उँखरे आघू फुनि आ।


करनी कमजोरी ढाँके के, बिकथे लाख बहाना।

परसा पाना ला बिसरा के, करत बिकास जमाना।


-सुखदेव सिंह "अहिलेश्वर "

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*रोला छंद* 


उपजे रहय रवार, नीम मउहा बर परसा।

पेंड़ लगावन रोज, रितोवन पानी करसा।।

ताप बढ़े दिन रात, कहाँ ले होवय बरषा।।

कटगे जंगल ठाढ़, कहाँ बाँचे बन परसा।।



गरम हवा के जोर, जनावत हावय भारी।

नइहे कुछु सेवाद, साग-भाजी तरकारी।

मौसम हे बेहाल,  धुआँ धुर्रा गरदा ले।

झाँकत हवय विकास, देख खिड़की परदा ले।।



कहाँ बगइचा बाग, टँगे हे छत मा गमला।

काटे बर बन झाड़, लगे हें सारी अमला ।

बन मा भोगँय राज ,कोन बनके दरबारी।

काट लगाथे पेंड़ ,रोज अमला सरकारी।।


कटगे कतका पेंड़, सड़क ले आरी पारी।

रोवत हावँय डार, ठूँठ मन देवँय गारी।।

बिखरे हावँय फूल, तना ले कटगे शाखा।

पारत हें गोहार, पेंड़ धर मनखे भाखा।।


छंद साधक

अश्वनी कोसरे

रहँगी पोंड़ी

कवर्धा

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दोहा

फागुन महीना आय तब, परसा हो तैयार।

धरसा बन अउ बाग मा, बइठे आगी बार।


धुँगिया उगले रात दिन, मोटर गाड़ी कार।

तभ्भो लाली फूल धर, हाँसे परसा डार।।


मनुष भुलय इंसानियत, बिपत कहूँ यदि आय।

पेड़ बिचारा का करे, सब दिन फरज निभाय।।


धधकत हे अन्तस् जबर, धूल धुँवा हे काल।

तभ्भो देख पलास ला, फुले हवे चुक लाल।

जीतेंन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

💐💐💐8💐💐💐💐💐💐💐💐

Sunday, March 13, 2022

कुण्डलिया छन्द -*

 *कुण्डलिया छन्द -*


 (1) होरी खेलय श्याम


मोहन गावय फाग ला, राधा  रंग  लगाय।

बरसत हावै प्रेम हा, मनखे मन बउराय।।

मनखे मन बउराय, देख लव  माते  होरी।

नाचत हावय गोप, संग मा राधा  गोरी।।

बरसाना हा देख, सबो के मन ला भावय।

होरी खेलत श्याम, फाग ला सुघ्घर गावय।।


(2) पुरवइया


फागुन आ गे देखतो, परसा फुलगे लाल।

चारो मूड़ा धूम हे, बदले हावै चाल।।

बदले हावै चाल, समागे  सबके  मन  मा।

सरसो फूल अपार, छाय हे सब उपवन मा।।

अइसन बेरा देख, मोर मन ला बड़ भा गे।

सुग्घर पुरवा आय, देख तो फागुन आ गे।।


(3) बिरहिन 


हाँसत हावै  फूल हा, मोरो  मन   बउराय।

भँवरा गुनगुन गात हे, आगी हिया लगाय।। 

आगी जिया लगाय, कोन ला भेजँव पाती।

जोड़ी  गै  परदेश, दुःख मा  जरथे छाती।।

बइरी फागुन आय, करौं का कुछु नइ  भावै।

देख हाल ला मोर, फूल  हा  हाँसत  हावै।।


बोधन राम निषादराज"विनायक"

🙋‍♀️✍️🙋‍♀️✍️

Tuesday, March 8, 2022

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस विशेषांक





 

शंकर छंद-खैरझिटिया


महतारी कोरा मा लइका,खेल खेले  नाच।

माँ के राहत ले लइका ला,आय नइ कुछु आँच।

दाई दाई काहत लइका,दूध पीये हाँस।

महतारी हा लइका मनके,हरे सच मा साँस।


करिया टीका माथ गाल मा,कमर करिया डोर।

पैजन चूड़ा खनखन खनके,सुनाये घर खोर।

लइका के किलकारी गूँजै,रोज बिहना साँझ।

महतारी के लोरी सँग मा,बजै बाजा झाँझ।


धरे रथे लइका ला दाई,बाँह मा पोटार।

अबड़ मया महतारी के हे,कोन पाही पार।

बिन दाई के लइका के गा,दुक्ख जाने कोन।

दाई हे तब लइका मनबर,हवे सुख सिरतोन।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को(कोरबा)

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: *नारी महिमा - हरिगीतिका छंद*

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नारी जनम भगवान के,वरदान हावै मान लौ।

देवी बरोबर रूप हे,सब शक्ति ला पहिचान लौ।।

दाई  इही  बेटी   इही, पत्नी   इही  संसार मा।

अलगे अलग सब मानथे,जुड़थे नता ब्यौहार मा।।


नारी बिना मनखे सबो,होवय अकेला सुन  सखा।

परिवार सिरजय संग मा,तब होय मेला सुन सखा।।

अँगना  दुवारी  रोज के, नारी करै श्रृंगार जी।

सब ले बने करके मया,लावै सरग घर द्वार जी।।


नारी अहिल्या रेणुका,अउ राधिका सुख कारिणी।

सीता इही गीता इही,लक्ष्मी इही जग तारिणी।।

पूजा जिहाँ होथे इँखर,भगवान के छइँहा रथे।

सम्मान नारी के करौ,सुख घर दुवारी आ जथे।।

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बोधन राम निषादराज"विनायक"

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*दोहा छंंद*

*नारी*

जुलुम करौ झन गा तुमन, नारी गुन लौ जान।

शान हवय जी देश के, एकर कर लौ मान।। 


होथे शक्ति अपार गा, नारी नइ कमजोर।

बड़का करथे काम गा, जग मा होथे शोर।। 


नारी ला तैं झन सता, मया करे ला जान।

रखथे दू परिवार के, नारी हा सम्मान ।। 


होत बिहिनिया उठ करय, घर के बूता काम।

देखभाल नारी करय, देवय सब आराम।। 


बेटी-बहिनी अउ बहू, दाई कभू कहाय।

कई रूप नारी धरे, घर के काम बनाय।।

*अनुज छत्तीसगढ़िया*

 *पाली जिला कोरबा*

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हे देवी अवतार, नारी ला सम्मान दव।

इँखरे ले घर द्वार, इँखरे ले दुनिया चलय।।


का बरसा का धूप, दुख पीरा सहिथे गजब।

त्याग तपस्या रूप, दया मया बाँटय सदा।।


सदा नवावव शीश, नारी के सम्मान बर। 

करथे तब जगदीश, मनवांछित पूरा हमर।।


गावय बेद पुरान, नारी के महिमा सदा। 

ऋषि मुनि अउ भगवान, पार कहाँ पाथे इँखर।।


करव सदा सम्मान, बेटी बहिनी के तुमन।

सँउहे गा भगवान, हावय दाई रूप मा।।


धरे हाथ मा हाथ, हरपल जीवनसंगिनी।

देथे सहिके साथ, कतको दुख पीरा रहय।।


ज्ञानु


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*नारी  के महिमा*

(त्रिभंगी छंद)



  हिरदे मा ममता ,सब बर समता ,अँचरा मा सुख , छाँव रहै।

 गुन ला सब गावै, माथ नवावै , जग महतारी , बेद कहै।

 ओ हर ए नारी, महिमा भारी , बेटी बहिनी, रूप धरै । 

लाँघन तक रहि के ,विपदा सहि के ,बाँटत कौंरा , दुःख हरै।1


 जग ला निक शिक्षा ,अगिन परीक्षा, देथच माता, बखत परे।

 दुर्गा बन जाथच,  लाश बिछाथच ,काली चंडी, रूप धरे। 

सावित्री मइँया ,तैं अनुसुइया , मातु जसोदा, आच तहीं ।

हे विश्व मोहिनी करौं सुमरनी, तैं अबला अच ,नहीं नहीं ।2


चोवा राम 'बादल '

हथबंद, छत्तीसगढ़

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 मनीराम साहू: नारी


नइहे कोनो अबला अब गा, सबला जम्मो नारी हें।

शारद लछमी दुरगा काली, शक्ति रूप अँवतारी हें।


कोनो नइहें पाछू संगी, चलँय खाँध जोरे-जोरे।

सबो काम मा रइथें आगू, नइ सोंचयँ जादा थोरे।


लड़त हवँय बइरी ले देखव, मेड़ो मा ताने सीना।

करत हवयँ मिलके रखवारी, डरँय नही मरना जीना।


उड़त हवँय आगास देख लव, नँगत शक्ति हे नारी के।

रँधनी ले अब बाहिर आके, गढ़ँय बाट बढ़वारी के।


नाम करत हें अपन देश के, ओमन पद बड़का पाये।

लगथे जेहा हवय असंभव, संभव करके देखाये।


मनीराम साहू 'मितान'

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मीता अग्रवाल: नारी 


मै नेह सुधा के रस धारा, बोहाथवअमरित धारा ।

लज्जा  करुणा ममता सागर,

गुनगान करय जग सारा।।


सबो विपत ले टकराथव मै,

बनथव रणचंडी काली।

झटकुन विपदा टर जाथे जी

नारी होवय बलशाली।।


बिना बाप के अपन अकेल्ला

पालय पोषय बड भारी।

वन मा छोडिस रामचन्द्र ह 

लव कुश के पालनहारी।।


शक्ति स्वरूपा गढ़े विधाता, 

सृष्टि के सिरजन हारी।

अतका महिमा गुण ला गाथे,

शान हवे भारत नारी।।

डाॅ मीता अग्रवाल मधुर रायपुर छत्तीसगढ़

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कुण्डलिया- अजय अमृतांशु


नारी तँय नारायणी, तँय ममता के रूप।

देवी तँय सौंदर्य के, सहस छाँव अउ धूप।।

सहस छाँव अउ धूप,जगत जननी कहलाथस।

बेटी बहिनी मातु, अबड़ तँय रुप मा आथस।

कहिथें जग के लोग, तहीं हर पालनहारी।

घर हा सरग कहाय,रहय जब घर मा नारी।।


अजय अमृतांशु

भाटापारा (छत्तीसगढ़ )

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विश्व महिला दिवस के गाड़ा गाड़ा बधाई

 मनहरण घनाक्षरी

*महतारी*

कतका सहिथे भार, मया दहरा अपार, 

महतारी के करजा, छूट सकें कोन हे। 

गढ़थे वो हा संस्कार, कभू नइ मानै हार, 

कतका हे उपकार, बात सिरतोन हे।। 

छाती बहै दूध धार, कोनों नइ पावै पार, 

कोरा मा हे सुखधाम, चारों धाम गोन हे। 

उँकर ले पहिचान, पाथन जी वरदान, 

कभू मुरचाय नहीं, खरा खरा सोन हे।। 

विजेंद्र वर्मा

नगरगाँव  (धरसीवाँ)

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शोभमोहन श्रीवास्तव: *नारीशक्ति बर घनाक्षरी*


*परबतिया ला देखौ शंभू मेर चेंध चेंध*

*जग सुख सेती सब पोथी सिरजाय हे।*

*सीता सत डटे रहि पति पत राखे बर,*

*फूल भार अगन ले नहक देखाय हे।*

*रत्नारानी ला देखौ माया परे तुलसी ला,*

*राम में रमाये मन लहर लगाय हे।*

*जब जब देखहू लहुट के रे मनखे हो,* 

*पग पग तिरिया हा जग ला रेंगाय हे।*


*शोभामोहन श्रीवास्तव*

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दोहा छंद-संगीता वर्मा

नारी के तो होत हे, युग युग सुघर बखान।

पार नहीं पावय कहूँ, नारी हवै महान।।


गावव महिमा गान सब, नारी रूप हजार।

दया मया के छाँव हे, करथे घर उजियार।।


नारी बिन ये जग नहीं, नारी जग आधार।

बिन नारी के जान लौ, होथे घर अँधियार।।


नारी ले नर होत हे,रख लौ एखर ज्ञान।

देवव झन अब ताड़ना,छोड़व अब अभिमान।।


नारी बिन सुन्ना लगे, घर मा जी परिवार।

नारी ले बरकत हवै,करथे वो विस्तार।।


संगीता वर्मा

भिलाई छत्तीसगढ़

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अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस

कुंडलिया छंद

(नारी महिमा)


नारी महिमा जान लौ, जिनगी के आधार।

इँखरे ले परिवार हे, इँखरे ले संसार।।

इँखरे ले संसार, चलय जी महिमा भारी।

बेटी बहिनी प्यार, पुरो वँय बन महतारी।।

लक्ष्मी देवी रूप, सबो देवी अँवतारी।

हवय अधुरा जान, मान लव नर ,बिन नारी।।


बनके जननी जीव के, करथे वो उपकार।

माँ धरनी के रूप मा, हावय पालन हार।।

हावय पालन हार, हवय जग सिरजनकारी।

नर के हे जी संग, देख लव हर पल नारी ।।

सबो हवँय संतान , जान लौ ऊंकर मनके।

देथे जिनगी तार, जगत मा जननी बनके ।।


नारी गुण के खान हे, कुल के इज्जत मान।

दया मया के छाँव हे, घर अँगना के शान।।

घर अँगना के शान, थामे चूलहा चौका।

करे राज अउ पाठ, जब जब मिले हे मौका।।

महल सजाथे प्राण,  बन राजा के दुलारी।

बेटी गीता रूप, खुशी के फुलवा नारी।।


छंदकार-अश्वनी कोसरे

रहँगी पोंड़ी

कवर्धा

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हरिगीतिका छंद


नारी दिवस मा मोर भाव



तोरे चरण मा हे सरग ,अउ कोख मा ब्रम्हांड हे।

तन मा रखे अमरित कुआँ, मन शक्ति मा कुष्मांड हे।

नारी बखानौं मँय कतिक ,महिमा अगम हे तोर वो।

सुख दुख मया ममता सबो, गंठियाय अँचरा छोर वो।



आँखी तरी सागर बसे,अउ हाथ मा सब स्वाद हे।

धुन साज लोरी मा बसे,सब ग्रंथ के अनुवाद हे।

माटी कहाँ ले लाय हे,नारी ल विधना जब गढ़े।

गीता करम पोथी धरम, तँय पाय नारी बिन पढ़े।



आशा देशमुख


झन बिगाड़ होली मा बोली- गीत(चौपाई छंद)

 झन बिगाड़ होली मा बोली- गीत(चौपाई छंद)


चिल्लाथस बड़ होली होली, लोक लाज के फाटक खोली।

झन बिगाड़ होली मा बोली, झन बिगाड़ होली मा बोली।।


मया पिरित के ये तिहार मा, द्वेष रहे झन तीर तार मा।

बार बुराई होली रचके, चल गिनहा रद्दा ले बचके।।

उठे कभू झन सत के डोली, पथ चतवार असत ला छोली।

झन बिगाड़ होली मा बोली, झन बिगाड़ होली मा बोली।।


बजा नँगाड़ा झाँझ मँजीरा, नाच नाच दुरिहा दुख पीरा।

समा जिया मा सब मनखे के, दया मया नित ले अउ दे के।

छीच मया के रँग ला घोली, बना बने मनखे के टोली।

झन बिगाड़ होली मा बोली, झन बिगाड़ होली मा बोली।।


एखर ओखर खाथस गारी, अबड़ मताथस मारा मारी।

भाय नही कोनो हर तोला, लानत हे अइसन रे चोला।।

दारू पानी गाँजा गोली, गटक कभू झन मिल हमजोली।।

झन बिगाड़ होली मा बोली, झन बिगाड़ होली मा बोली।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

Saturday, March 5, 2022

छत्तीसगढ़ के गिरधरकविराय जनकवि कोदूराम दलित जी ला उंखर 113 जन्म जयंती के बेरा मा सादर शत शत नमन




 छत्तीसगढ़ के गिरधरकविराय जनकवि कोदूराम दलित जी ला उंखर 113 जन्म जयंती के बेरा मा सादर शत शत नमन

*आज कोदूराम दलित के जन्म दिन के शुभ अवसर मा श्रद्धा के फूल चघावत कुछ पंक्ति*


आल्हा 


कोदूराम दलित के कविता, छत्तिसगढ़ मा अलख जगाय ।

शोषित पिड़ित गरिबहा मन मा, जिनगी सुघरे राह बताय।।


दुरुग शहर मा गुरुजी होगे, धर के ध्यान पढ़ावय खूब।

कवि सम्मेलन मंच रेडियो,कुंडलिया गीत गावय खूब।।


 जनम धरिस अर्जुंदा टिकरी, साल सैकड़ा पहिली ताय।

गांधीवादी मनुस सुराजी, आजादी बर सुर लमियाय।।


पढ़ई-लिखई मा चर्चित होगे, बगरिस आजादी के भोर।

नवभारत मा नवा डगर बर, कागज कलम उठाइस जोर।।


सुग्घर परिभाषा हर ओकर, जग मा सुन लौ अमर कहाय।

जस मुसुआ हर निकले बिल ले ,तस कविता दिल निकले जाय।


परमारथ बर पढ़ै पढ़ावय, कवि गोष्ठी धूम मचाय।

चारों कोती चर्चा गुरु के, छत्तिसगढ़ के शान बढ़ाय।।


 पाँच मार्च ये जन्मदिवस मा, नमन् करत हन सब झन आज ।

अमर नाँव हे जग मा उनकर, नवे सीस छत्तिसगढ़ राज।।


आल्हा:बलराम चंद्राकर भिलाई

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जनकवि कोदूराम-मनहरण घनाक्षरी


साहित्य मा हवै नाम,जनकवि कोदूराम,

जन पीरा देख के वो,रचना रचिन हे।

लिखे छंद आनी-बानी,रहिन वोहा सुजानी,

गाँधीवादी विचार ला,मन मा भरिन हे।।

साहित्य मा दिस बल,गाँधी के मारग चल,

निडर हो के उँकर,कलम चलिन हे।

अमर रहै गा नाम, जनकवि कोदूराम,

साहित्य ला पोठ कर,उज्जर करिन हे।।


विजेन्द्र वर्मा

नगरगाँव (धरसीवां)

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*रोला छंद* 


एकांकी के ज्ञान, समझ के बाँटे सबला।

गीत पहेली जान, सुधरगे साहित तब ला।।


हमर देश के तान, रचे हें टारत अलहन।

सुग्घर बपरित भाव, धान के भाई दलहन।।


देश प्रेम के मान,  राज के बनिस बनउँका।

कनवा समधी शान, लिखे हें सुग्घर ठउँका।।

 

बड़का साहित कार, रहिन उन छत्तीसगढ़िया।

बनिन छंद आधार, लिखँय उन कविता बढ़िया।।


कविता कहिनी गीत, लिखे हें गोठ सियानी।

राज करत गुण गान, लिखँय उन आनी बानी।।


बीड़ा लेवत हाथ, करिन उन कारज भारी।

आनी बानी गोठ,पोठ भाखा महतारी।।


दोहा रोला छंद, लिखे हें अउ कुण्डलिया।

बाल गीत भरमार, खास हे सिरजन पलिया।।


हास व्यंग्य के सोर, उड़े हे दलित बबा के।

आजादी के नाद, रचे हें कलम दबा के ।।


मानवता के गान, करे बर धरके बाना।

शोषित के उधियार, लिखे अउ पारे हाना।।


मार्च महीना आय, पाँच तारिक हे अवसर।

जनम जयंती आज, जान हरषित हें घर घर ।


छंदकार-अश्वनी कोसरे 

रहँगी पोंड़ी

कवर्धा

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आज जन्म दिवस हे छत्तीसगढ़ के गिरधर कविराय श्रद्धेय कोदूराम दलित जी के उँखर जन्म जयंती के पावन अवसर म उनला शत शत नमन प्रणाम जोहार हे 💐🙏


जनकवि कोदूराम (दोहा छंद)


अलख जगाइन साँच के, जनकवि कोदू राम।

जन्म जयंती हे उँकर, शत शत नमन प्रणाम।


सन उन्नीस् सौ दस बछर, जड़काला के बाद।

पाँच मार्च के जन्म तिथि, हवय मुअखरा याद।


राम भरोसा ए ददा, जाई माँ के नाँव।

जन्मभूमि टिकरी हरै, दुरुग जिला के गाँव।


पेशा से शिक्षक रहिन, ज्ञान बँटई काम।

जन्म जयंती हे उँकर, शत शत नमन प्रणाम।


राज रहिस ॲंगरेज के, देश रहिस परतंत्र।

का बड़का का आम जन, सब चाहिन गणतंत्र।


आजादी तो पा घलिन, दे के जीव परान।

शोषित दलित गरीब मन, नइ पाइन सम्मान।


जन-मन के आवाज बन, हाथ कलम लिन थाम।

जन्म जयंती हे उँकर, शत शत नमन प्रणाम।


जन भाखा मा भाव ला, पहुँचावँय जन तीर।

समझय मनखे आखरी, बहय नयन ले नीर।


दोहा रोला कुंडली, कुकुभ सवैया सार।

किसिम किसिम के छंद मा, गीत लिखिन भरमार।


बड़ ज्ञानी उन छंद के, दया मया के धाम।

जन्म जयंती हे उँकर, शत शत नमन प्रणाम।


-सुखदेव सिंह "अहिलेश्वर "

गोरखपुर कबीरधाम छत्तीसगढ़

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आल्हा छंद-#सुरता_पुरखा_मन_के


करके सुरता पुरखा मन के, चरन नवावँव मँय हा माथ।

समझ धरोहर मान रखव जी, मिलय कृपा के हर पल साथ।।


इही कड़ी मा जिला दुर्ग के, अर्जुन्दा टिकरी हे गाँव।

जनम लिये साहित्य पुरोधा, कोदूराम दलित हे नाँव।।


पाँच मार्च उन्निस सौ दस के, दिन पावन राहय शनिवार।

माता जाई के गोदी मा, कोदूराम लिये अवतार।।


रामभरोसा पिता कृषक के, जग मा बढ़हाये बर नाँव।

कलम सिपाही जनम लिये जी, बगराये साहित के छाँव।।


बचपन राहय सरल सादगी, धरे गाँव  सुख-दुख परिवेश।

खेत बाग बलखावत नदिया, भरिस काव्य मन रंग विशेष।।


होनहार बिरवान सहीं ये, बनके जग मा चिकना पात।

अलख जगाये ज्ञान दीप बन, नीति धरम के बोलय बात।।


छंद विधा के पहला कवि जे, कुण्डलिया रचना रस खास।

रखे बानगी छत्तीसगढ़ी, चल के राह कबीरा दास।।


गाँधीवादी विचार धारा, देश प्रेम प्रति मन मा भाव।

देश समाज सुधारक कवि जे, खादी वस्त्र रखे पहिनाव।।


ढ़ोंग रूढ़िवादी के ऊपर, काव्य डंड के करे प्रहार।

तर्कशील विज्ञानिकवादी, शोधपरक निज नेक विचार।।


गोठ सियानी ऊँखर रचना, जग-जन ला रस्ता दिखलाय।

मातृ बोल छत्तीसगढ़ी के, भावी पीढ़ी लाज बचाय।।


आज जन्मतिथि गिरधर कवि के, गजानंद जी करे बखान।

जतका लिखहूँ कम पड़ जाही, कोदूराम दलित गुनगान।।


✍🏻इंजी. गजानंद पात्रे 'सत्यबोध'

बिलासपुर (छत्तीसगढ़ी)

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(उनकर प्रिय छंद कुण्डलिया मा शब्दांजलि)


पुरखा जनकवि के हवय, पुण्य जयंती आज।

श्रीमन कोदू राम जी,करिन नेक जे काज।

करिन नेक जे काज,छंद मा रचना रचके।

सुग्घर के सुरताल, भाव मनभावन लचके।

गाँधी सहीं विचार, रहिंन उन उज्जर छवि के।

अमर रही गा नाम, सदा पुरखा जनकवि के।


आइस बालक ले जनम,पावन टिकरी गाँव।

मातु पिता जेकर धरिन,  कोदू राम जी नाँव।

कोदू राम जी नाँव, पिता श्री राम भरोसा।

घोर गरीबी झेल, करिन उन पालन पोसा।

अर्जुन्दा के स्कूल, ज्ञान के गठरी पाइस।

गुरुजी बनके दुर्ग, शहर मा वो हा आइस।


बड़का रचनाकार वो,गद्य-पद्य सिरजाय।

हास्य व्यंग्य के धार मा, श्रोता ला नँहवाय।

श्रोता ला नँहवाय, गोठ वो लिखिन सियानी।

माटी महक समाय, गठिन बड़ कथा कहानी। 

अलहन के जी बात,व्यंग्य के डारे तड़का।

दू मितान के गोठ, करिन वो कविवर बड़का।


श्रद्धावनत

चोवा राम 'बादल'

हथबंद, छत्तीसगढ़

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आल्हा छंद

(05/03/1910 से 28/09/1968)

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आज सुनावौं एक कहानी,सुग्घर जनकवि कोदूराम।

जन-जन के वो हितवा राहय,उड़ै अगासा जेखर नाम।।


छत्तीसगढ़ी संस्कृति ज्ञाता,कोदूराम "दलित" हे नाम।

अमर काव्य रचना कर डारिन,जन मानस बर करके काम।।


गोरे अउ छरहरे रंग के,सुग्घर कद सुग्घर व्यवहार।

जन-जन के हिरदय मा बसगे,सादा जिनगी उच्च विचार।।


छत्तीसगढ़ी जिला-दुर्ग मा,अर्जुन्दा टिकरी के गाँव।

जिहाँ जनम होइस हे भइया,दाई ददा मया के छाँव।।


पाँच मार्च उन्नीस शतक दस, "रामभरोसा" के परिवार।

अँगना मा किलकारी गूँजिस, कोदूराम "दलित"अवतार।।


दाई "जायी" के कोरा मा,खेलिस लइका "कोदूराम"।

"रामभरोसा" ददा भुलागे,अपने तन के दुःख तमाम।।


ददा एक किसनहा राहय,खेती बारी बदे मितान।

कोदूराम"दलित" हा देखिन,सबो गरीबी साँझ बिहान।।


अर्जुन्दा के ग्राम आशु कवि,चिनौरिया श्री पीलालाल।

इँखर प्रेरणा पा के सुग्घर,गीत कहानी लिखिन कमाल।।


शुरू करिन हे कविता लिखना,बछर रहिस हे सन् छब्बीस।

जिनगी भर साहित्य साधना,करत रहिन नइ कभ्भू रीस।।


मनखे मन हा सबो उमर के,हिलमिल के राहय जी संग।

जाति-पाँति के नइ चिनहारी,हँसमुख सुग्घर ओखर अंग।।


जन-जन के पीरा देखइया,मानवता के वो चिनहार।

गुरुजी एक रहिन अइसन वो,कलम बनिस जेखर हथियार।।


गाँधी जी के राह चलइया,मनखे मन ले करिस गुहार।

गाना कविता लिख-लिख के वो,बगराइन हे अपन विचार।।


गाँधी टोपी पहिन पजामा,छाता धरै हाथ मा एक।

मिलनसार सब ला वो चाहय,काम करय वो जन बर नेक।।


कोदूराम समाज सुधारक,मानवता के बनिस मिशाल।

संस्कृत निष्ठ व्यक्ति अवतारी,भारत भुइयाँ के ये लाल।।


कोदूराम"दलित" बड़ मनखे,रहिन जुझारू नेता एक।

सन् सैंतालिस मा शिक्षक के,करिन संघ बर काम अनेक।।


पन्द्रह दिन पतिराम साव सँग,कोदूराम "दलित" फिर जेल।

गइस प्रधानापाठक पद हा,अब साहित्य साधना खेल।।


लइका मन मा देश-प्रेम बर,स्वतन्त्रता के अलख जगाय।

देश-भक्ति के पबरित गंगा,कोदूराम "दलित" बोहाय।।


"गोठ सियानी" लिख कुण्डलिया,आडम्बर ला दूर भगाय।

छत्तीसगढ़ी "दलित" कहाये,ये गुरुजी गिरधर कविराय।।


गोठ कबीरा जइसन फक्कड़,बिना झिझक के बात बताय।

ढोंगी मन के ढोंग हटइया,हरिजन मन के दुख बिसराय।।


लेखन कौशल हा बड़ सुग्घर,देशी बोली हिंदी भाय।

कोदूराम मंच मा चढ़ के,कविता संगे गीत सुनाय।।


कविता के बारे मा काहय,गुरुजी कोदूराम सुजान।

जइसे मुसुवा बिला निकलथे,वइसे कविता दिल से जान।।


"दलित" पचास दशक के लगभग,मंच व्यवस्था करिन प्रचार।

संग द्वारिका "विप्र" रहिन हे,दुन्नों के जोड़ी दमदार।।


रचना रचिस आठ सौ जादा,पद्य-गद्य गंगा बोहाय।

हवै धरोहर ये किताब मन,जन मन मा अमरित बरसाय।।


"हमर देश","कनवा समधी" अउ,"दू मितान" के सुग्घर गीत।

"बालक कविता" बड़ मनभावन,रचिन "प्रकृति वर्णन" सुन मीत।।


"अलहन","कथा-कहानी",प्रहसन,सुग्घर-सुग्घर रचिन सुजान।

ये समाज ला राह दिखाथे,कतका मँय हा करौं बखान।।


प्रबल पक्षधर साक्षरता के,गिरे परे के कर उत्थान।

मास सितम्बर अट्ठाइस के,सन् सड़सठ मा देहवसान।।


फेर अपन रचना माध्यम ले,आज घलो जिन्दा कस जान।

अइसन कोदूराम"दलित"जी,जन-जन ले पावत सम्मान।।


जेखर बेटा "अरुण निगम" के,होवत हावय अड़बड़ सोर।

छत्तीसगढ़ी छंद ज्ञान के, बगरावत हे छंद अँजोर।।


अपन ददा के पद चिनहा मा,चल के अरुण निगम जी आज।

साहित लिखना धरम बना के,करत पूण्य के हावै काज।।


छंद ऑनलाइन कक्षा मा,अरुण निगम गुरु छंद सुजान।

छत्तीसगढ़ी छंद सिखावत,पोठ व्याकरण के जी ज्ञान।।

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बोधन राम निषादराज"विनायक"

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रोला-छन्द 

!!!!!!!!!!!!!!!


बाबूजी कोदू राम दलित जी ला 

समर्पित श्रद्धा सुमन 

🙏🏻🙏🏻🙏🏻🌹🌹🌹

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1-

छन्द लिखे के ग्यान, सहज मा वोखर अइसे |

चढ़के घोड़ सवार, धरे हे अंकुश जइसे ||

बाबू कोदू राम, छन्द ला बांधे राखयँ |

सुघ्घर होय विधान, जेन ला पढ़ सब भाखयँ ||


2-

कृपा शारदा मात, कंठ मा धारे जेखर |

बाबू कोदू राम, नाम हे पावन तेखर ||

भाषा के बड़ ग्यान, छन्द हा अँगरी नाँचे |

कठिन साधना पास, जेन सब पाठक बाँचे ||


कमलेश प्रसाद शरमाबाबू 👏

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छत्तीसगढ़ के गिरधर कविराय , छंद शास्त्री,जनकवि कोदू राम दलित जी के 113 वीं जयंती के अवसर म, उन ल कोटिशः नमन,,,


करिस छंद के जौन हा,हमर इँहा शुरवात।

श्रद्धा सुमन चढाँव मैं, माथा अपन नँवात।


साहित के वो देंवता,जनकवि वो कहिलाय।

बगरे  बाँढ़य  छंद  बड़,आस  ओखरे आय।


नाँव मिटाये नइ मिटै,करनी जेखर पोठ।

साहित के आगास मा,बरे सियानी गोठ।


पैरी जब जब बाजही,मुख मा आही गीत।

बैरी पढ़ पढ़ काँपही,फुलही फलही मीत।


रचना रिगबिग हे बरत,भले बछर के बीत।

डहर नवा गढ़ते रही,जनकवि जी के गीत।


नाँव अमर जुगजुग रही,जइसे  गंगा धार।

जनकवि कोदू राम जी,छंद मरम आधार।


सपना उही सँजोय हे,अरुण निगम जी आज।

पालत  पोंसत  छंद ला,करत हवे निक काज।


साधक बन सीखत हवै,कतको कवि मन छंद।

महूँ  करत  हँव साधना,लइका  अँव  मतिमंद।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को (कोरबा)


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Tuesday, March 1, 2022

महाशिवरात्रि विशेष छंदबद्ध कविता


 

महाशिवरात्रि विशेष छंदबद्ध कविता


शिव महिमा(शिव छंद)-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया


डमडमी डमक डमक। शूल बड़ चमक चमक।

शिव शिवाय गात हे। आस जग जगात हे।


चाँद चाकरी करे। सुरसरी जटा झरे।

अटपटा फँसे जटा। शुभ दिखे तभो छटा।


बड़ बरे बुगुर बुगुर। सिर बिराज सोम सुर।

भूत प्रेत कस दिखे। शिव जगत उमर लिखे।


कोप क्लेश हेरथे। भक्त भाग फेरथे।

स्वर्ग आय शिव चरण। नाम जाप कर वरण।


हिमशिखर निवास हे। भीम वास खास हे।

पाँव सुर असुर परे। भाव देख दुख हरे।


भूत भस्म हे बदन। मरघटी शिवा सदन।

बाघ छाल साँप फन। घुरघुराय देख तन।


नग्न नील कंठ तन। भेस भूत भय भुवन।

लोभ मोह भागथे। भक्त भाग जागथे।


शिव हरे क्लेश जर। शिव हरे अजर अमर।

बेल पान जल चढ़ा। भूत नाथ मन मढ़ा।


दूध दूब पान धर। शिव शिवा जुबान भर।

सोमवार नित सुमर। बाढ़ही खुशी उमर।


खंड खंड चर अचर। शिव बने सबेच बर।

तोर मोर ला भुला। दे अशीष मुँह उला।


नाग सुर असुर के। तीर तार दूर के।

कीट खग पतंग के। पस्त अउ मतंग के।


काल के कराल के। भूत  बैयताल के।

नभ धरा पताल के। हल सबे सवाल के।


शिव जगत पिता हरे। लेय नाम ते तरे।

शिव समय गति हरे। सोच शुभ मति हरे।


शिव उजड़ बसंत ए। आदि इति अनंत ए।

शिव लघु विशाल ए। रवि तिमिर मशाल ए।


शिव धरा अनल हवा। शिव गरल सरल दवा।

मृत सजीव शिव सबे। शिव उड़ाय शिव दबे।


शिव समाय सब डहर। शिव उमंग सुख लहर।

शिव सती गणेश के। विष्णु विधि खगेश के।


नाम जप महेश के। लोभ मोह लेश के।

शान्ति सुख सदा रही। नाव भव बुलक जही।


शिव चरित अपार हे। ओमकार सार हे।

का कहै कथा कलम। जीभ मा घलो न दम।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"


बाल्को, कोरबा(छग)


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शिव ल सुमर- शिव छंद


रोग डर भगा जही। काल ठग ठगा जही।

पार भव लगा जही। भाग जगमगा जही।


काम झट निपट जही। दुक्ख द्वेष कट जही।

मान शान बाढ़ही। गुण गियान बाढ़ही।।


क्रोध काल जर जही। बैर भाव मर जही।

खेत खार घर रही। सुख सुकुन डहर रही।


आस अउ उमंग बर। जिंदगी म रंग बर।

भक्ति कर महेश के। लोभ मोह लेश के।


सत मया दया जगा। चार चांद नित लगा।

जिंदगी सँवारही। भव भुवन ले तारही।।


देव मा बड़े हवै। भक्त बर खड़े हवै।

रोज शाम अउ सुबे। भक्ति भाव मा डुबे।


नीलकंठ ला सुमर। बाढ़ही सुमत उमर।

तन रही बने बने। रेंगबे तने तने।।


सोमवार नित सुमर। नाच के झुमर झुमर।

हूम धूप दे जला। देव काटही बला।।


दूध बेल पान ले। पूज शिव विधान ले।

तंत्र मंत्र बोल के। भक्ति भाव घोल के।


फूल ले मुठा मुठा। सोय भाग ला उठा।

भक्ति तीर मा रही।शक्ति तीर मा रही।।


फूल फल दुबी चढ़ा। नारियल चँउर मढ़ा।

आरती उतार ले।धूप दीप बार ले।।


शिव पुकार रोज के। भक्ति भाव खोज के।

ओम ओम जाप कर।भूल के न पाप कर।।


भूत भस्म भाल मा। दे चुपर कपाल मा।

ओमकार जागही। भाग तोर भागही।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को (कोरबा)

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सागर मंथन कस मन मथदे(कुकुभ छंद)


सागर मंथन कस मन मथके,मद महुरा पी जा बाबा।

दुःख द्वेस जर जलन जराके,सत के बो बीजा बाबा।


मन मा भरे जहर ले जादा,नइहे कुछु अउ जहरीला।

येला पीये बर शिव भोला, देखादे  तैं कुछु लीला।

सात समुंदर घलो मथे मा, विष अतका नइ तो होही।

जतका मनखे मन मा हावय,जान तोर अन्तस रोही।

बड़े  छोट  ला घूरत  हावय, साली  ला जीजा बाबा।

सागर मंथन कस मन मथके,मद महुरा पी जा बाबा।


बोली भाँखा करू करू हे,मार काट होगे ठट्ठा।

अहंकार के आघू बइठे,धरम करम सत के भट्ठा।

धन बल मा अटियावत घूमय,पीटे मनमर्जी बाजा।

जीव जिनावर मन ला मारे,बनके मनखे यमराजा।

दीन  दुखी  मन  घाव  धरे  हे,आके  तैं सी जा बाबा।

सागर मंथन कस मन मथके,मद महुरा पी जा बाबा।


धरम करम हा बाढ़े निसदिन,कम होवै अत्याचारी।

डरे  राक्षसी  मनखे  मन हा,कर  तांडव हे त्रिपुरारी।

भगतन मनके भाग बनादे,फेंक असुर मन बर भाला।

दया मया के बरसा करदे,झार भरम भुतवा जाला।

रहि  उपास  मैं  सुमरँव तोला ,सम्मारी  तीजा  बाबा।

सागर मंथन कस मन मथके,मद महुरा पी जा बाबा।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को(कोरबा)

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किरीत सवैया-- *शिव शंकर*



शंकर रूद्र महेश्वर हे शितिकण्ठ उमापति ईश त्रिलोचन।

ऊॅं त्रिपुरान्तक त्र्यंबक जै त्रिभुनेश्वर जी हर हे भव मोचन।

शम्भु महेश हरे शिव जै विरुपाक्ष कटे दुख औ सुख हो मन।

भक्ति धरे दिन रात जपै मन श्रीकण्ठ नाम निरोग रखै तन।


होवय पूजय छाय खुशी सब लोगन नाचत गावत आवय।

द्वार सजे प्रभु देव महा शिव शंकर के किरपा जब आवय।

चंदन बंदन धूप धरे जल दूध ग चॉंउर पान चढ़ावय।

पाय महाशिवरात्रि कृपा भक्त हा तब माॅंग मनौरथ पावय।


मनोज कुमार वर्मा

बरदा लवन बलौदा बाजार

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शिव महिमा,शिवरात्रि विशेष-


चौपाई छंद - बोधन राम निषादराज

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जय  हो  भोला  मरघट   वासी।

शिव शंकर तँय हस अविनासी।।

भूत    नाथ    कैलाश   बिराजे।

मृग  छाला  मा  चोला   साजे।।


नन्दी    बइला    तोर    सवारी।

भुतहा  मन  के तँय  सँगवारी।।

पारबती     के    प्रान    पियारे।

धरमी   छोड़   अधरमी   मारे।।


जय   हो    बाबा   औघड़दानी।

जटा    बिराजे    गंगा    रानी।।

राख   भभूती   तन  मा   धारे।।

गर मा  बिखहर   साँप  सँवारे।।


पापी    भस्मासुर    ला     मारे।

अपन  लोक  मा  ओला   तारे।।

पारबती    के    लाज    बचाए।

ऋषि मुनि  योगी  गुन ला गाए।।


भाँग    धतूरा    मन   ला   भाए।

सिया  राम   के  ध्यान   लगाए।।

बइठे     परबत  मा      कैलाशी।

अंतर्यामी        हे     अविनासी।।


महाकाल    हे    डमरू     वाला।

जय  शिव  शंकर  भोला भाला।।

मंदिर     तोर      दुवारी    आवौं।

मनवांछित  फल  ला मँय पावौं।।

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बोधन राम निषादराज"विनायक"

सहसपुर लोहारा,जिला-कबीरधाम(छ.ग.)

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भोले बाबा-मनहरण घनाक्षरी


भोले बाबा ला सुमर,बाढ़ही तोर उमर,

दूध बेल पान चढ़ा,भज शिव नाम ला।

जिनगी सँवर जही,दुख क्लेश मिट जही,

भाग जगा के बनाही,बिगड़त काम ला।।

ओम ओम के जाप ले,मुक्त होबे जी पाप ले,

बसा अपने मन मा,तैं अक्षरधाम ला।

करबे बने गा भक्ति,बाढ़ही तभे तो शक्ति, 

भव पार करके तैं,पाबे गा मुकाम ला।।


विजेन्द्र वर्मा

नगरगाँव (धरसीवाँ)

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चौपाई छन्द ।।शिव शंभू डमरू वाला।।


शिव शंभू प्रभु डमरू वाला। हावै तोरे रूप निराला।।

कहिथे सब भोला भंडारी। नंदी के तै करे सवारी।।1


कनिहा पहिरे बघवा छाला। गला साँप के पहिरे माला।।

माथ दूज के चंदा साजे। गंगा धारा जटा बिराजे।।2


जहर गला मा तहीं उतारे। नीलकंठ सब नाम पुकारे।।

भूतनाथ प्रभु हस अविनासी। पशुपति तैं कैलाश निवासी।।3

 

कहिथे तोला औघड़ दानी। वाम अंग मा बसे भवानी।।

हाथ त्रिशूल अउ डमरू धारी। भांग सुहाथे तोला भारी।।4


-गुमान प्रसाद साहू ,समोदा (महानदी)

जिला-रायपुर छत्तीसगढ़

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*दोहा छंंद*

*भोले नाथ*


चुपरे राख शरीर मा, बइठे धुनी रमाय।

महादेव डमरू धरे, एला भांग सुहाय।। 


नंदी मा बइठे चले, शंकर उमा बिहाय।

नाचय भूत-परेत हा, देव फूल बरसाय।। 


आगे हवय बरात हा, दक्ष राज के द्वार।

राजा परघावय बने, भोला पहिरे हार।। 


वरमाला पहिरावे उमा, दक्ष पाँव ला धोय।

सबो टिकावन अब टिके, पहुना मन खुश होय।।


*अनुज छत्तीसगढ़िया*

 *पाली जिला कोरबा*

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"शिव शंकर " (चौपाई छंद)

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शिव शंकर ला भजले प्रानी। शिव शंभू हे औघड़ दानी।

शिवे दुलारय शिव संघारय। हर हर हा हर संकट टारय।


जेखर नाँव हवय त्रिपुरारी। जस कीरति महिमा हे भारी।

जय शिव शंकर बम बम भोले। हर हर महादेव जग बोले।


बिख ला अपन कण्ठ मा धारे। नीलकण्ठ कहि जगत पुकारे।

डम डम डम डम डमरू बाजे। बिखहर के गहना तन साजे।


अंग वस्त्र मिरगा के छाला। साँप बिछी माला अउ बाला।

भूतनाथ भोला मतवाला। सकल चराचर के रखवाला।


तन मा अपन राख चुपरे हस। डमरू अउ तिरछूल धरे हस।

नन्दी बइला तोर सवारी। भूतनाथ भोले भंडारी।


शिव शंभू कैलाश निवासी। सुने हवन रहिथव तुम कासी।

हम अन तुँहर चरण के दासी। तुम हमरो हिरदे के वासी।


महादेव प्रभु मातु सती के। शंकर भोला पारबती के।

करुण निवेदन सुने रती के। दण्ड सुधारे मदन मती के।


एक बार के बात हरय जी। पारबती हा अरज करय जी। 

अमर अमर सब कहिथें प्रानी। समझावव प्रभु अमर कहानी।


एक दिवस शुभ अवसर पा के। बइठिन अमर गुफा मा जा के। 

डमरू अपन बजाइस शंकर। भाग गइस जम्मो जी-जन्तर।


गूढ़ ज्ञान ला अमर कथा के। गावय कभु बोलय अलखा के।

शिव मुँह ले सत अविरल वानी। सुनय गुनय गौरी महरानी।


शिव जी अमर नाम अलखावय। अमर नाम सतनाम बतावय।

कथें मातु ला निंदिया आगे। घोल्हा अण्डा जीवन पागे।


भक्तन के कल्याण करे बर। अंतस के दुख ताप हरे बर।

मनुज मनोरथ के शुभ काजे। बारह ज्योतिर्लिंग बिराजे।


मँय छत्तीसगढ़ के रहवइया। चटनी बासी पेज खवइया।

नकमरजी झन हो जै हाँसी। कइसे भोग लगावँव बासी।


फुड़हर फूल बेल के पाना। लाये हँव कनकी के दाना।

दूध नही लोटा भर पानी। ग्रहण करव प्रभु औघड़ दानी।


माथ दूज के चंदा सोहय। अनुपम रूप हृदय ला मोहय।

जे प्रभु दर्शन के पथ जोहय। तेखर हृदय भक्ति रस पोहय।


छंदकार-सुखदेव सिंह अहिलेश्वर

गोरखपुर,कबीरधाम छत्तीसगढ़

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ऊँ नमःशिवाय।

जम्मों झन ला महाशिवरात्रि परब के हार्दिक बधाई।


बिनती

(कुकुभ छंदाधिरत)


किरपा करके जोत जला दे,हर दे मन के अँधियारी।

हे शिव भोले औघड़दानी, ठाढ़े हौं तोर दुवारी।।


मरम जोग के कुछु नइ जानौं,लोभ भोग मा सुर जाथे।

दुनियादारी के चक्कर मा,घड़ी घड़ी धोखा पाथे।

मुख ले हरि किर्तन नइ निकलय, करत रथे चुगरी चारी।

किरपा करके जोत जलादे, हर दे मन के अँधियारी।


जिनगी होगे जेल बरोबर, राह मुक्ति के नइ जानौं।

अता पता सुख के तो नइये, खोज कहाँ ले मैं लानौं।

भाव भजन चिटको नइ भावै, माया बर ममता भारी।

किरपा करके जोत जलादे, हर दे मन के अँधियारी।


फेर सुने हौं तोर चरन ला, जेन जीव हा धर लेथे।

गउरी मँइया बड़ खुश होके, दुच्छा झोली भर देथे।

शुभ शुभ के बरसा कर देथे, प्रभु गणेश संकट हारी।

किरपा करके जोत जलादे, हर दे मन के अँधियारी।


अरपन काय करे मैं सकहूँ, लोटा भर जल स्वीकारौ।

बेल पत्र धोवा चाँउर हे, ये गरीब ला भव तारौ।

तोर भगति के चिनहा दे दे, नइ माँगौं  महल अटारी।

किरपा करके जोत जलादे, हर दे मन के अँधियारी।


चोवा राम  ' बादल '

हथबंद, छत्तीसगढ़

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