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Monday, May 30, 2022

हसदेव अरण्य बचावव-कुंडलियाँ छंद

 हसदेव अरण्य बचावव-कुंडलियाँ छंद


बन देथे फल फूल सँग, हवा दवा भरमार।

नदी बहे झरना झरे, चहके चिरई डार।

चहके चिरई डार, दहाड़े बघवा चितवा।

हाथी भालू साँप, सबे के बन ए हितवा।

हरियाली ला देख, नीर बरसावै नित घन।

सबके राखयँ लाज, पवन अउ पानी दे बन।


जल जंगल हसदेव के, हम सबके ए जान।

उजड़ जही येहर कहूँ, होही मरे बिहान।।

होही मरे बिहान, मात जाही करलाई।

हाथी भालू शेर, सबे मर जाही भाई।

बिन पानी बिन पेड़, आज होवय अउ ना कल।

होही हाँहाकार, उजड़ही यदि जल जंगल।


जंगल के जंगल लुटा, बने हवस रखवार।

पेड़ हरे जिनगी कथस, धरे एक ठन डार।

धरे एक ठन डार, दिखावा करथस भारी।

ठगठस रे सरकार, रोज तैं मार लबारी।

जेला कथस विकास, उही हा सुख लिही निगल।

जुलुम करत हस कार, बेच के जल अउ जंगल।


लोहा सोना कोयला, खोजत हस बन काट।

जीव जंतु सब मर जही, नदी नहर झन पाट।

नदी नहर झन पाट, दूरिहा भाग अडानी।

जंगल जिनगी आय, मोह तज जाग अडानी।

लगही सबके हाय, पाप के गघरी ढो ना।

माटी के तन आय, जोर झन लोहा सोना।


जीतेंन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

जंगल बचाओ-सरसी छन्द

 जंगल बचाओ-सरसी छन्द


पेड़ लगावव पेड़ लगावव, रटत रथव दिन रात।

जंगल के जंगल उजड़त हे, काय कहँव अब बात।


हवा दवा फर फूल सिराही, मरही शेर सियार।

हाथी भलवा चिरई चिरगुन, सबके होही हार।

खुद के खाय कसम ला काबर, भुला जथव लघिनात।

जंगल के जंगल उजड़त हे, काय कहँव अब बात।


जंगल हे तब जुड़े हवय ये, धरती अउ आगास।

जल जंगल हे तब तक हावै,ये जिनगी के आस।

आवय नइ का लाज थोरको, पर्यावरण मतात।

जंगल के जंगल उजड़त हे, काय कहँव अब बात।


सड़क खदान शहर के खातिर, बन होगे नीलाम।

उद्योगी बैपारी फुदकय, तड़पय मनखे आम।

लानत हे लानत हव घर मा, आफत ला परघात।

जंगल के जंगल उजड़त हे, काय कहँव अब बात।


जीतेंन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

पर उपदेस (सार छंद)

 पर उपदेस (सार छंद)


देख जउन ला तउन आज बस, देवत हे उपदेस।

स्वारथ मा सन काम करत हे, दया मया सत लेस।


धरम करम के बात करै नित, कहै झूठ झन बोलौ।

सुख सुम्मत मा जिनगी जीयौ, जहर कभू झन घोलौ।

बात मया मरहम के बोलय, बाँटय उही कलेस।

देख जउन ला तउन आज बस, देवत हे उपदेस।


नशापान के हानि बतावय, रोजे भाषण पेले।

उहू भुलागे बात बचन ला, अध्धी पाव ढकेले।

बिहना लागे संत गियानी, संझा बदले भेस।

देख जउन ला तउन आज बस, देवत हे उपदेस।


मनखे मनखे एके आवन, छोड़ौ कहै लड़ाई।

तिही बड़े छोटे नइ मानै, दाई ददा न भाई।

आन छोड़ दे अपने मन ला, पहुँचावत हे ठेस।

देख जउन ला तउन आज बस, देवत हे उपदेस।


कहिस तउन करके दिखलाइस, तुलसी बुद्ध कबीरा।

तज दिस धन दौलत वैभव ला, किसन पाय बर मीरा।

आज मनुष तज सही गलत ला, मारत हावय टेस।

देख जउन ला तउन आज बस, देवत हे उपदेस।


जीतेंद्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

सार छंद-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया" छँइहा

 सार छंद-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"


छँइहा


किम्मत कतका हवै छाँव के,तभे समझ मा आथे।

घाम घरी जब सुरुज देव हा,आगी असन जनाथे।


गरम तवा कस धरती लगथे,सुरुज आग के गोला।

जीव जंतु अउ मनखे तनखे,जरथे सबके चोला।।

तरतर तरतर चुँहे पछीना,रहिरहि गला सुखाथे।

घाम घरी जब सुरुज देव हा,आगी असन जनाथे।


गरमे गरम हवा हा चलथे,जलथे भुइयाँ भारी।

घाम घरी बड़ जरे चटाचट, टघले महल अटारी।

पेड़ तरी के जुड़ छँइहाँ मा,अंतस घलो हिताथे।

घाम घरी जब सुरुज देव हा,आगी असन जनाथे।


मनखे मन बर ठिहा ठउर हे,जीव जंतु बर का हे।

तरिया नदिया पेड़ पात हा,उँखर एक थेभा हे।

ठाढ़ घाम मा टघलत काया, छाँव देख हरियाथे।

घाम घरी जब सुरुज देव हा,आगी असन जनाथे।


पेड़ तरी के घर जुड़ रहिथे,पेड़ तरी सुरतालौ।

हरे पेड़ पवधा हा जिनगी,सबझन पेड़ लगालौ।

पानी पवन हवै पवधा ले,खुशी इही बरसाथे।

घाम घरी जब सुरुज देव हा,आगी असन जनाथे।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा

रेलगाड़ी- कुंडलियाँ छंद

 रेलगाड़ी- कुंडलियाँ छंद


कतको गाड़ी रद्द हे, कतको मा बड़ झोल।

सफर रेल के जेल ले, का कमती हे बोल।

का कमती हे बोल, रेलवे के सुविधा मा।

देख मगज भन्नाय, पड़े यात्री दुविधा मा।

सिस्टम होगे फेल, उतरगे पागा पटको।

ढोवत हावै कोल, भटकगे मनखे कतको।


ना तो कुहरा धुंध हे, ना गर्रा ना बाढ़।

तभो ट्रेन सब लेट हे, लाहो लेवय ठाढ़।

लाहो लेवय ठाढ़, रेलवे अड़बड़ भारी।

चलत ट्रेन थम जाय, मचे बड़ मारा मारी।

टीटी छिड़के नून, कहै आ टिकट दिखा तो।

यात्री हें हलकान, होय सुनवाई ना तो।


जीतेंन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

विश्व चाय दिवस म,, सरसी छंद(गीत)-जीतेंन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

 विश्व चाय दिवस म,,


सरसी छंद(गीत)-जीतेंन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"


                  चाय


लौंग लायची दूध डार के, बने बना दे चाय।

अदरक तुलसी पात मिलादे, पियत मजा आ जाय।


चले चाय हा सरी जगत मा, का बिहना का शाम।

छोटे बड़े सबे झन रटथे, चाय चाय नित नाम।

सुस्ती भागे चाय पिये ले, फुर्ती तुरते आय।

अदरक तुलसी पात मिलादे, पियत मजा आ जाय।


साहब बाबू सगा बबा के, चाय बढ़ाये मान।

चाय पुछे के हवै जमाना, चाय लाय मुस्कान।

रथे चाय के कतको आदी, नइ बिन चाय हिताय।

अदरक तुलसी पात मिलादे, पियत मजा आ जाय।


छठ्ठी बरही मँगनी झँगनी, बिना चाय नइ होय।

चले चाय के सँग मा चरचा, मीत मया मन बोय।

घर दुवार का होटल ढाबा, सबके मान बढ़ाय।

अदरक तुलसी पात मिलादे, पियत मजा आ जाय।


चाहा पानी बर दे खर्चा, कहै कई घुसखोर।

करे चापलूसी कतको मन, चाहा कहिके लोर।

संझा बिहना चाय पियइया, चाय चाय चिल्लाय।

अदरक तुलसी पात मिलादे, पियत मजा आ जाय।


जीतेंन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बालको,कोरबा

घनाक्षरी छंद...*

 *घनाक्षरी छंद...*

(१)

सुनो जी बहिन-भाई, अपनावव सफाई,

इही मा हवै भलाई, सत हरै जान लौ। 


स्वच्छ रहै आसपास, गाँव ला बनाव खास,

करौ मिलके प्रयास, गोठ मोर मान लौ। 


छोड़व अब नखरा, बीन लेवव कचरा,

रहिबो साफ सुथरा, मन मा ये ठान लौ। 


छोड़व लापरवाही, रोग ला ये बुलाही,

स्वच्छता के मनोहारी, चढ़ सोपान लौ। 


(२)

पानी नइ रुकत हे, नदी ताल सूखत हें,

काबर ये होवत हे, येकर संज्ञान लौ। 


बचाव जल नल के, चिंता करव कल के,

हरेक बूँद जल के, मोल पहिचान लौ। 


हो गे रंग बदरंगा, मइला गे हे गंगा,

रेहे बर अब चंगा, पानी बने छान लौ। 


मुसकुल ले बचय, जिनगी बने चलय,

पानी सब ला मिलय, खोज वो निदान लौ। 


(३)

रुखराई मन बिना, मुसकुल होही जीना,

घात झरही पछीना, देख वर्तमान लौ। 


पेड़ नइ काटना हे, नदी नइ पाटना हे,

भूमि हरा राखना हे, चला अभियान लौ। 


भुइयाँ जाये सँवर, दिखय बड़ सुग्घर,

हरियाली के उज्जर, छाता फेर तान लौ। 


बने काम करना हे, भू के दुख हरना हे,

रिता झोली भरना हे, कर अनुष्ठान लौ। 


*श्लेष चन्द्राकर,*

महासमुंद (छत्तीसगढ़)

वसन्ती* *वर्मा* *के* *चौपाई* *छंद* ~~*भाजी*~~

 .          *वसन्ती* *वर्मा* *के* *चौपाई* *छंद*


              ~~*भाजी*~~


लाली भाजी गजब मिठाथे,बासी संग बबा हर खाथे।

मेथी भाजी बढ़िया लगथे,बहुत बिटामिन एमा रइथे।1।


भाजी राँधव चेंच ग लरबट,बासी एमा खाँवय गटगट।

भाटा संग मिठाथे नुनिया,मही दही मा राँधे बढ़िया।2।


काँदा भाजी अबड़ मिठाथे,दाई एला जभे बनाथे।

अनपनहा पहुना जब आथें,ओला भाजी गुमी खवाथें।3।


रोपा भाजी खोंच लगावा,खोंट खोंट के खाते जावा।

कोंवर मुनगा भाजी राँधव,ताते तात भात मा खावव।4।


भाजी बोहार दही भांटा,बने राँध के एला बाँटा।

बड़का पाना भाजी मँखना,राँधव कराही तोप ढँकना।5।


गोभी भाजी बने मिठाथे,सुखरी सुखो के घलो खाथें।

गँहू खेत मा येहर जामे,भथुवा भाजी एकर नामे।6।


बारों मास होय चौलाई,चना दार मा राँधे दाई।

भाजी लई पान हे बड़का,ननकी बरी म राँधव फदका।7।


बारी बखरी कोला जामे,पटवा भाजी एकर नामे।

तरिया मा सुनसुनिया होथे,ओखद भाजी बने  मिठाथे ।8।


            ~~~■~~~

Sunday, May 29, 2022

गुरतुर बोली हे मैना कस*

 *गुरतुर बोली हे मैना कस*


गुरतुर बोली हे मैना कस,भाखा छत्तीसगढ़ी।

बने गोठियालौ सब संगी,एखर ले मन बढ़ही।।

हो हो हो........


सुआ ददरिया गीत राग मा,ये मिठास गुरतुर हे।

बोल कोयली मैना कस अउ,पड़की करे गुटुर हे।।

बने जरन दे जरवइया ला,ओखर  छाती जरही।

गुरतुर बोली हे मैना कस.......हो हो हो....


करमा मा झूमय  सब संगी,बने ताल हा माढ़े।

पागा मा कलगी खोंचे अउ,थिरकत कउनो ठाढ़े।।

बने झमाझम माँदर बाजत,नवा साज ला गढ़ही।

गुरतुर बोली हे मैना कस.......हो हो हो....


छत्तीसगढ़ी भाई बहिनी,अउ किसान भुइयाँ के ।

संगी हितवा बनके पूजय,पाँव इही मइयाँ के।।

जाँगर के पेरइया सँग मा,कोन इहाँ जी  लड़ही।

गुरतुर बोली हे मैना कस......हो हो हो....


छंदकार  :--

बोधन राम निषादराज"विनायक"

सहसपुर लोहार,कबीरधाम(छ.ग.)

घाम- दोहा चौपाई

 घाम- दोहा चौपाई

दोहा छंद ... 


नवटप्पा आगे हवय, बनके रहव सुजान।

लू के झोंका ले बचव, खुद के राखव ध्यान।। 


चौपाई छंद ...


नवटप्पा आये हे जब ले। चैन गँवागे हावय तब ले।।

का गलती के सजा मिलत हे। तावा जइसे धरा तिपत हे।। 


गजब कहर लू हा बरपावत। सुरुज घलो आगी बरसावत।।

बोहावत दिन रात पछीना। अबड़ पड़त हें पानी पीना।। 


हाथ अपन पंखा जोड़त हे। कूलर तक हा दम तोड़त हे।।

चिटको कन नइ राहत पावत। लोगन मन हावँय उसनावत।। 


कुछु खाये के मन नइ लागे। भोजन ले हे स्वाद रिसागे।।

कमती खाना खावत हें सब। गरमी ले डर्रावत हें सब।। 


आतप के तिरपाल तने हे। घर हा कारावास बने हे।।

गरमी मा तड़पत हें लोगन। कृपा करव हे! संकटमोचन।। 


दोहा छंद ...


गरमी के मारे इहाँ, लोगन हें हलकान।

मानसून ला भेज के, दव राहत भगवान।। 


छंदकार:- श्लेष चन्द्राकर,

महासमुंद (छत्तीसगढ़)

रेलगाड़ी(रूपमाला)

 रेलगाड़ी(रूपमाला)


रेलगाड़ी    रेलगाड़ी   रेलगाड़ी   रेल।

नित सवारी के लहू पीये समझ के तेल।

टेम  म  आये  नही न टेम मा पहुँचाय।

दू मिनट लाँघे डहर घंटो खड़े रहि जाय।


कोट करिया ओढ़ के कइथे टिकिट देखाव।

वो सवारी के भला कइसे ग देखय घाव।

हे ठसाठस भीड़ तभ्भो ले चढ़े सब पेल।

रेलगाड़ी रेलगाड़ी रेलगाड़ी रेल---------।


रेल के रद्दा ल जोहव रोज माछी मार।

अउ कहूँ जब लेट होबे होय तब वो पार।

माल गाड़ी मार सीटी सँग हवा बतियाय।

नाम के गाड़ी सवारी रोज के रोवाय।


झन करव एखर भरोसा थाम बूता काम।

का ठिकाना रेल के होही सुबे ले शाम।

जोर जे जग लेगथे जादा जनावै जेल।

रेलगाड़ी रेलगाड़ी रेलगाड़ी रेल-------।


कोहरा का घाम पानी होय सब दिन लेट।

अउ नवा ला काय करबों काय मेट्रो जेट।

रेलवे तरसाय तेमा चोर अउ चंडाल।

हाल हे बेहाल भारी काल मा अउ काल।


यातरी के यातना ला देखही अब कोन।

काखरो बेरा गँवाये काखरो धन सोन।

कब समे मा दौड़ही आवय समझ ना खेल।

रेलगाड़ी रेलगाड़ी रेलगाड़ी रेल-----------।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को(कोरबा)

सरसी छन्द गीत : *फोकट खाये के चक्कर मा*

 सरसी छन्द गीत : *फोकट खाये के चक्कर मा*


फोकट खाये के चक्कर मा, होगे बारा हाल।

लालच मा पर के जनता हा, होवत हवे अलाल।


मिहनत के अब खून पछीना, नइ पावत हे मान।

बइठाँगुर मन अटियावत हें, महल अटारी तान।

ठलहा बइठे जीभ चलइया, ऊंचा  पीढ़ा पाय।

मिहनत के देवता ह रोवय, बइठे मुड़ ठठाय।


रोजी रोटी नोहर होगे, सिरिफ चलत हे गाल।

फोकट खाये के चक्कर मा, होगे बारा हाल।


कर्जा ले ले घीव पियत हे, सुख भोगे भरपूर।

भावी पीढ़ी के सपना हर, होही चकनाचूर।

राजनीति सौखी मारत हे, फेंक कोंड़हा  देख।

मछरी मन के भाग म मरना, लिखय विधाता लेख।


आँखी राहत अँधरा हो के, देखत नइ हन जाल।

फोकट खाये के चक्कर मा, होगे बारा हाल।


कागज मा छम छम नाचत हे, सबो योजना खूब।

गाँव गली बस पहुँचे नारा,  धन हर जाथे डूब।

भ्रष्टाचार ह सड़क बनाथे, बइमानी हर पूल।

वादा के का मरजादा हे, पल मा जाथे भूल।


तभे कोलिहा सत्ता पाथे, रेंग टेड़गा चाल।

फोकट खाये के चक्कर मा, होगे बारा हाल।


🙏🏻मथुरा प्रसाद वर्मा

कोलिहा, बलौदाबाजार (छ.ग.)

Sunday, May 8, 2022

जेठ बैसाख जे गर्मी- छंदबद्ध कविता संग्रह

 

जेठ बैसाख जे गर्मी

 बइसाख के घाम

(रूपमाला छंद)


कोन घर ले तो निकलही,छूट जाही प्रान।

चरचरावत घाम हावय, जीवरा हलकान।

भोंभरा जरथे चटाचट,लू तको लग जाय।

लाल आँखी ला गुड़ेरय, हे सुरुज गुसियाय।


तात भारी झाँझ झोला, देंह हा जरिजाय।

जीभ चटकय मुँह सुखावय,प्यास बड़ तड़फाय।

का असो अब मार डरही,काल बन बइसाख।

लेसही आगी लगाके, कर दिही का राख।


चोवा राम 'बादल'

हथबंद, छत्तीसगढ़


💐💐💐💐💐💐💐💐💐

: हरिगीतिका छंद


आज के हालात


नदिया पटय जंगल कटय, कतका प्रदूषण बाढ़गे।

पथरा बिछत हे खेत मा, मिहनत तरी कुन माढ़गे।।

तरसे बटोही मन घलो, मिलही कहाँ जी छाँव अब।

शहरीकरण के लोभ मा ,करथें नकल सब गाँव अब।।


आगी सहीं बैशाख मा , सूरुज जराये चाम ला।

मनखे खुदे करनी करे, दोषी बनायें राम ला।।

थोकिन गुनँव  कइसे दिखे ,धरती बिना सिंगार के।

कइसे लगय घर द्वार हा ,मनखे बिना परिवार के।।


आशा देशमुख

एनटीपीसी कोरबा

💐💐💐💐💐💐💐💐💐

घनाक्षरी 


जेठ के महीना संगी, कपड़ा न रहे तंगी, 

कभू उघरा जे रहे, उहू मूँड़ ढाँकथे। 

घर मा खुसर रहे, बजार ल कोन कहे, 

गली पाँव राखे बर, दुवारी ले झाँकथे।  

काम ह अकाम होय, सब गरमी ल रोय, 

फटे नानकन रहे, कोन भला टाँकथे। 

जेठ के महीना घाम, कहाँ अब होय काम, 

लगे ब्रेक जिनगी मा, माढ़े धूल फाँकथे।


दिलीप कुमार वर्मा 

बलौदाबाजार

Tuesday, May 3, 2022

छन्द के छ के स्थापना दिवस के सादर बधाई के साथ अक्ती तिहार विशेष विशेष छंदबद्ध कविता..




 






अक्ती तिहार विशेष छंदबद्ध कविता.. 

जीतेन्द्र वर्मा खैरझिटिया: हरिगीतिका छंद-अक्ती

मिलजुल मनाबों चल चली अक्ती अँजोरी पाख में।
करसा सजा दीया जला तिथि तीज के बैसाख में।।
खेती किसानी के नवा बच्छर हरे अक्ती परब।
छाहुर बँधाये बर चले मिल गाँव भर तज के गरब।।

ठाकुरदिया में सब जुरे दोना म धरके धान ला।
सब देंवता धामी मना बइगा बढ़ावय मान ला।।
खेती किसानी के उँहे बूता सबे बइगा करे।
फल देय देवी देंवता अन धन किसानी ले भरे।।

जाँगर खपाये के कसम खाये कमइयाँ मन जुरे।
खुशहाल राहय देश हा धन धान सुख सबला पुरे।।
मुहतुर किसानी के करे सब पाल खातू खेत में।
चीला चढ़ावय बीज बोवय फूल फूलय बेत में।।

ये दिन लिये अवतार हे भगवान परसू राम हा।
द्वापर खतम होइस हवै कलयुग बनिस धर धाम हा।
श्री हरि कथा काटे व्यथा सुमिरण करे ले सब मिले।
धन धान बाढ़े दान में दुख में घलो मन नइ हिले।

सब काज बर घर राज बर ये दिन रथे मंगल घड़ी।
बाजा बजे भाँवर परे ये दिन झरे सुख के झड़ी।।
जाये महीना चैत आये झाँझ  झोला के समय।
मउहा झरे अमली झरे आमा चखे बर मन लमय।

करसी घरोघर लाय सब ठंडा रही पानी कही।
जुड़ चीज मन ला भाय बड़ शरबत मही मट्ठा दही।
ककड़ी कलिंदर काट के खाये म आये बड़ मजा।
जुड़ नीम बर के छाँव भाये,घाम हे सब बर सजा।

लइकन जुरे पुतरा धरे पुतरी बिहाये बर चले।
नाँचे गजब हाँसे गजब मन में मया ममता पले।
अक्ती जगावै प्रीत ला सब गाँव गलियन घर शहर।
पर प्रीत बाँटे छोड़के उगलत हवै मनखे जहर।।

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को,कोरबा(छग)
9981441795
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अकती के बिहाव*
चौपाई छन्द - बोधन राम निषाद राज

अकती के बेरा हा आगे।
मनखे मन मा खुशियाँ छागे।।
जुरमिल मड़वा सब गड़ियाही।
पुतरी पुतरा बिहा रचाही।।

दूनों सँग मा भाँवर होही।
जनम-जनम के बनही जोही।।
अँगना मा मड़वा गड़ियाबो।
आमा डारा  ओमा छाबो।।

गहूँ पिसानी चउँक पुराबो।
करसा पोरा बने सजाबो।।
कँडरा  घर के पर्रा बिजना।
छिंदी पाना मउँरे फुँदना।।

डूमर के मँगरोहन बनही।
तील तेल सँग हरदी चढ़ही।।
बइला गाड़ी जाय बराती ।
पुतरा के सँग जाय घराती।।

बड़े बिहनिया समधी पाबो।
पुतरी  गौना घलो कराबो।।
जम्मों  सँगवारी हा आही।
खुशी-खुशी सब जेवन खाही।।

बारा महिना मा ये आथे।
गंगा जइसे सबो नहाथे।।
हँसी खुशी मा जाथे डेरा।
बड़े मजा मा बीते बेरा।।

रचनाकार:-
बोधन राम निषादराज "विनायक'
सहसपुर लोहारा,कबीरधाम (छ.ग.)
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: अकती परब के महत्व - दोहा छंद
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(1)
माँ गंगा के अवतरण,इहि भुइयाँ मा आज।
महातपी भागीरथी,करिन पुण्य के काज।।
(2)
परशुरामा अवतरण,जप तप करिन अनेक।
जलत रहिन बड़ क्रोध मा,हरि गुण गाइन नेक।।
(3)
मातु अन्नपूर्णा घलो, होय अवतरण आज।
सबो चराचर जीव ला,अन्न दिए अउ राज।।
(4)
चीरहरण माँ द्रोपती,होइस इहि दिन काल।
हरिहर श्री भगवान हा,ओला लिन संभाल।।
(5)
कृष्ण सुदामा बन सखा,होइस इक संजोग।
अमर प्रेम गुणगान के,आइस हे दिन योग।
(6)
धन के देव कुबेर ला,मिलिस खजाना आज।
अधिपति राजा स्वर्ग बन,करिन अचल वो राज।।
(7)
सतयुग  त्रेतायुग बनिस,इहि दिन ले संसार।
ब्रम्ह पुत्र के अवतरण,अक्षय वीर  कुमार।।
(8)
सुग्घर    बद्रीनाथ  के, नारायण शुभ  धाम।
खुलथे मंदिर द्वार हा,इहि दिन ले अविराम।।
(9)
वृंदावन  के  धाम मा, कृष्ण  बिहारी  लाल।
दर्शन श्री विग्रह चरण, इहि दिन केवल साल।
(10)
अंत महाभारत घलो, कौरव  पांडव  युद्ध।
शांत चित्त मनखे सबो,मिटिस ह्रदय के क्रुद्ध।।
(11)
खेत किसानी काम ला,करथे शुरू किसान।
इहि दिन नाँगर जोतथे,पाँच मुठा ले धान।।
(12)
सुग्घर सिद्ध  मुहूर्त हे,अकती तीज  तिहार।
गौरी लाल  गणेश सब,हरथे विघ्न अपार।।
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रचनाकार:-
बोधन राम निषादराज "विनायक"
सहसपुर लोहारा,जिला-कबीरधाम (छ.ग.)
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आगे अक्ती (सरसी गीत)
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आगे अक्ती अब तो देखत, लगगे नावा साल।
धरले राँपा झउँहा भाई, खातू देबो पाल।

हूम-धूप अउ नरियर धरले, धान एक सौ आठ।
बने सुमर के महादेव ला, करबो पूजा-पाठ।
पहिली पुजबो बिघन हरइया, स्वामी गिरिजा लाल।
धरले राँपा झउँहा भाई, खातू देबो पाल।

काँटा खूँटी ला बिन देबो, हमन बाहरा खार।
मुँही-पार ला घलो सजाबो, उहिती परथे नार।
काँद दुबी ला छोल मड़ाबो, करथें बड़ बेहाल।
धरले राँपा झउँहा भाई, खातू देबो पाल।

करबो मुहतुर धर बिजबोनी, जाबो टिकरा खार।
कुत देथे बड़ भाठा-सरना, सुग्घर ओकर डार।
धान हरहुना बों देबो गा, परथे अबड़ दुकाल।
धरले राँपा झउँहा भाई, खातू देबो पाल।

चउमासा मा पेड़ जगाबो, देबो गड्ढा कोड़।
भर देबो गा हमन लेग के, गोबर खातू थोड़।
होथे पेड़ 'मितान' असन गा, परदूसन के काल।
धरले राँपा झउँहा भाई, खातू देबो पाल।

आप सब ला अक्ती तिहार के नँगत नँगत बधाई।

मनीराम साहू मितान
कचलोन(सिमगा) जिला- बलौदाबाजार-भाटापारा
छत्तीसगढ़, मो.९८२६१५४६०८
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अक्ती तिहार(दोहा चौपाई)

उल्लाला-
*बेरा मा बइसाख के,तीज अँजोरी पाख के।*
*सबे तीर मड़वा गड़े,अक्ती भाँवर बड़ पड़े।*

हरियर मड़वा तोरन तारा,सजे आम डूमर के डारा।
लइका लोग सियान जुरें हे,लीप पोत के चौक पुरें हे।

पुतरी पुतरा के बिहाव बर,सकलाये हें सबे गाँव भर।
बाजे बाजा आय बराती,मगन फिरय सब सगा घराती

खीर बरा लाड़ू सोंहारी,खाये जुरमिल ओरी पारी।
अक्ती के दिन पावन बेरा,पुतरी पुतरा लेवव फेरा।  

सइमो सइमो करे गली घर,सबे मगन हें मया पिरित धर।
अचहर पचहर परे टिकावन,अक्ती बड़ लागे मनभावन।

दोहा-
*परसु राम भगवान के,गूँजय जय जय कार।*
*ये दिन भगवन अवतरे,छाये खुसी अपार।।*

शुभ कारज के मुहतुर होवय,ये दिन खेती बाड़ी बोवय।
बाढ़य धन बल यस जस भारी,आस नवा बाँधे नर नारी।

माँगै पानी बादर बढ़िया,जुरमिल के सब छत्तीसगढ़िया।
दोना दोना धान चढ़ावय,दाइ शीतला ला गोहरावय।

सोना चाँदी कोनो लेवय,दान दक्षिणा कोनो देवय।
पुतरी पुतरा के बिहाव सँग,पिंवरावै कतको झन के अँग।

दोहा-
*देवी देवन ला मना,शुरू करे  सब  काज।*
*पानी बादर के परख,करे किसनहा आज।*

*करसी मा पानी मढ़ा,बारह चना डुबाय।*
*भींगय जतकेकन चना,ततके पानी आय।*

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को(कोरबा)
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अक्ती तिहार
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(बरवै छंद)

हवै तृतीया के तिथि, शुभ दिन खास।
सबो डहर बगरे हे, पुण्य उजास।।

अबड़ दुलरवा हरि के, हे बइसाख।
अउ अंजोरी तेकर, पावन पाख।।

अक्ती छत्तिसगढ़ के,बड़े तिहार।
नेंग जोग सँग एमा, नेक विचार।।

गाँव शहर मा माते, बहुत बिहाव।
ये अबूझ मुहरत के, करे हियाव।।

पुतरा पुतरी भाँवर, ये दिन होय।
सद गृहस्थ के सुंदर, पाठ सिखोय।।

पूजा कर धरती के, धान जगाय।
खेती बर हलधरिया, लगन लगाय।।

अक्ती के गुन गाथें, वेद पुरान।
अक्षय फल मिलथे जी, करलव दान।।

राहगीर मन बर तो , खोलव प्याउ।
'चोवा राम' के बिनती, सुनलव दाउ।।
टाँगौ जल चिरगुनिया, प्यास बुझाय।
पेंड़ लगादव कोनो, बइठ थिराय।।

परशुराम हा ये दिन, लिस अवतार।
मारिस पापी मन ला, हे उपकार।।

जुलुम करौ झन अउ मत,साहव मित्र।
दया मया के छापव, सुंदर चित्र।।

संस्कारी हे हमरो,रीत रिवाज।
चलौ बँचाके राखन, ऊँकर, लाज।।

चोवा राम 'बादल'
हथबंद, 
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*अक्ती तिहार*
*सरसी छंद*

अक्ती के हे अब्बड़ महिमा , करलव सुघ्घर दान।
क्षय नइ होवय कभू पुण्य हा, कहिथे वेद पुराण।।

शुभ तिथि सिध्द मुहूरत आये,अक्ती तीज तिहार।
तन मन धन से सब शुभ कारज, करथे ये संसार।।

अबड़ अकन हे कथा कहानी, किसम किसम संजोग।
गंगा के अवतरण दिवस हे, बने मुक्ति के योग।।

अमर विप्र कुल तारक जनमे, हरि अंश परशुराम।
शूरवीर अउ परमप्रतापी, धर्म ज्ञान के धाम।।

छैमासा बर खुलथे ये दिन, बद्रीनाथ कपाट।
ये दिन के सब दुनिया वाले ,जोहत रहिथे बाट।।

छतीसगढ़ के बात करय तो, जावय खेत किसान।
बीज बोंय बर शुरू करत हें , धर टुकनी में धान।।

अक्ती के दिन करसा रखके , सुघ्घर परछो पाय।
चार दिशा के माटी कुढ़ही, वोमा घड़ा मढ़ाय।।

यक्षराज ला मिलिस खजाना, धनपति बनिस कुबेर।
पूजा करथें जगत भगत सब, रोज लगावँय टेर।।

अनपूर्णा दाई ये जग मा, अवतारे हे आज।
जेखर वासा घर घर में हे, चलथे वोखर राज।।

कतिक बखानँव अक्ती महिमा, हावय कथा अनंत।
दान पुण्य के गुण गाथा ,होय कभू नइ अंत।।


आशा देशमुख
एनटीपीसी जमनीपाली कोरबा
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अक्ती (अक्षय तृतिया)
(अमृतध्वनि छंद)

आथे अक्ती के परब,महिना जब बैसाख।
पुतरी - पुतरा साजथे,तीज अँजोरी पाख।।
तीज अँजोरी,पाख मनाथे,शुभ फल पाथे।
बेटी - बेटा, बर बिहाव के, लगन लगाथे।।
घर-घर करसा, पूजा  करथे, बड़ सुघराथे।
काम किसानी,शुरु होथे जब,अक्ती आथे।।

रचना:-
बोधन राम निषादराज
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आशा देशमुख: *अक्ती तिहार*
*सरसी छंद*

अक्ती के हे अब्बड़ महिमा , करलव सुघ्घर दान।
क्षय नइ होवय कभू पुण्य हा, कहिथे वेद पुराण।।

शुभ तिथि सिध्द मुहूरत आये,अक्ती तीज तिहार।
तन मन धन से सब शुभ कारज, करथे ये संसार।।

अबड़ अकन हे कथा कहानी, किसम किसम संजोग।
गंगा के अवतरण दिवस हे, बने मुक्ति के योग।।

अमर विप्र कुल तारक जनमे, हरि अंश परशुराम।
शूरवीर अउ परमप्रतापी, धर्म ज्ञान के धाम।।

छैमासा बर खुलथे ये दिन, बद्रीनाथ कपाट।
ये दिन के सब दुनिया वाले ,जोहत रहिथे बाट।।

छतीसगढ़ के बात करय तो, जावय खेत किसान।
बीज बोंय बर शुरू करत हें , धर टुकनी में धान।।

अक्ती के दिन करसा रखके , सुघ्घर परछो पाय।
चार दिशा के माटी कुढ़ही, वोमा घड़ा मढ़ाय।।

यक्षराज ला मिलिस खजाना, धनपति बनिस कुबेर।
पूजा करथें जगत भगत सब, रोज लगावँय टेर।।

अनपूर्णा दाई ये जग मा, अवतारे हे आज।
जेखर वासा घर घर में हे, चलथे वोखर राज।।

कतिक बखानँव अक्ती महिमा, हावय कथा अनंत।
दान पुण्य के गुण गाथा  के ,होय कभू नइ अंत।।


आशा देशमुख
एनटीपीसी जमनीपाली कोरबा
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 बृजलाल दावना, धमतरी: *मड़वा हा सजही ( विष्णु पद छंद )*

एसो के अक्ती मा  मोरो , मड़वा हा सजही।
जम्मो पहुना मन सकलाही ,बाजा हा बजही।।

हरदी तेल चढ़ाही सुग्घर, देही जी अँचरा।
दीदी भाँटो के सँग आही, अउ भाँची भँचरा।।

मोतीचूर खवाही लाड़ू , माँदी मा मन के।
खीर बरा अउ पापड़ देही , सथरा सब झन के 

 मउर सजाके मँयहा जाहूँ ,मोटर मा चढ़के।
जाही सँग मा मोर बरतिया ,  एक सेक बढ़के।।

बाजा -गाजा मा परघाही, मान गौन करही।
दुल्हिन हा मुस्कावत आही , पाँव मोर परही।।

विधि विधान ले पंडित पढ़ही , साखोचार हमर।
देही शुभ आशीष सबो झन , रइहव सदा अमर।।

सुग्घर दुल्हनिया के सँग मा,सब सुख हा मिलही।
घर आही धरके खुशहाली,मया कमल खिलही।।

                          
                     बृजलाल दावना
                         भैंसबोड़ 
                  6260473556
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Sunday, May 1, 2022

बासी दिवस विशेष छंदबद्ध कविता- प्रस्तुति(छंद के छ परिवार


 

बासी दिवस विशेष छंदबद्ध कविता- प्रस्तुति(छंद के छ परिवार)

बोरे बासी

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रोला छंद

पानी डारे भात, कहाथे बोरे बासी।

ये सुग्घर जुड़वास, आय गर्मी के नासी।

पसिया प्यास बुझाय, दूरिहाके लू रहिथे।

 जे हा एला खाय, झाँझ ला हाँसत सहिथे।


बासी अबड़ सुहाय, गोंदली सँग मा खाले।

 थोकुन डारे नून,चाब मिरचा सुसवाले।

 मिलगे कहूँ अथान, स्वाद का कहिबे भाई।

 ये हर दवा समान, भगाथे टेंशन हाई।


धरे शुगर के रोग, खाय बासी मिट जाथे।

होथे कायाकल्प, झड़क बुढ़ुवा फुन्नाथे।

बासी के गुन खास, सफाई करथे नस के।

खा मजदूर किसान, मेहनत करथें कसके।


बोरे बासी खाय, कलेक्टर आफिस जाही।

ठंडा रखे दिमाग, योजना बने बनाही।

बटकी भरे दहेल, एस० पी० धरही डंडा। 

नइ होही अपराध,  न्याय के गड़ही झंडा।


का गरीब धनवान, भोग ये छप्पन सब बर ।

संस्कृति अउ संस्कार,इही हे हमर धरोहर।

बासी गुन के खान,जेन हा एला खाथे।

छत्तीसगढ़ के मान, सरी दुनिया बगराथे।


चोवा राम ' बादल '

हथबंद, छत्तीसगढ़

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 आशा देशमुख: बोरे बासी


कुण्डलिया छंद


राजा के आव्हान हे ,बोरे बासी खाव।

संस्कृति रीति रिवाज ला, सब झन बने निभाव।

सब झन बने निभाव, सुघर पहिचान बनावौ।

अपन गीत अउ राग, सबो मिल जुल के  गावौ।

हमर कलेवा शान, ठेठरी खुरमी खाजा।

बासी नून अथान, आज खावत हे राजा।।1



छत्तीसगढ़ के आज तो, जागिस संगी भाग।

राजा तक खावत हवय ,बोरे बासी साग।।

बोरे बासी साग, संग मा आमा चटनी।

अपन भाग सँहरात, पठौहाँ बटकी पटनी।।

बासी गुण के खान, कहत हें साक्षर अनपढ़।

बासी के अध्याय, लिखत हे हमर छतीसगढ़।।2


बोरे बासी हा हमर, रचत हवय इतिहास।

का राजा अउ का प्रजा, सब बर बनगे खास।।

सब बर बनगे खास, दूर भागे बीमारी।

नून गोंदली साग, देह बर हे हितकारी।।

ममता मया सुवाद, लगय अमरित कस घोरे।

राजा के आव्हान,  खाव सब बासी बोरे।।3


आशा देशमुख

एनटीपीसी जमनीपाली कोरबा

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तेजराम नायक, रायगढ़: *बासी*


★दोहा छंद★


खा के बासी नून ला, चलय खेत खलिहान।

भुइँया के सेवा करय, माटी मीत किसान ।।


बासी ले ताकत मिले, स्वाद घलो भरपूर।

बासी के में का कहँव, होय थकावट दूर।।


★रूपमाला छन्द★


खाय बासी पीस चटनी, स्वाद भारी आय।

देय ताकत भूख भागे, प्यास हा तिरयाय।।

बात चटनी संग बासी, बड़ मजा हे आय।

खाय नोनी रोज चटनी, ये बने पतियाय।।

तेजराम नायक

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रोला छंद- विजेंद्र वर्मा

बासी

रतिहा बोरे भात, सुबे बासी बन जाथे। 

येला सब झन खाव, दवा टानिक कहलाथे। 

होगे बासी संग, चेंच के सुग्घर भाजी। 

झड़व पालथी मोड़, मजा लेवत सब राजी।। 


  विजेंद्र वर्मा

नगरगाँव धरसीवाँ

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 सुखदेव: #बोरे बासी (लावणी छन्द)


एक मई मजदूर दिवस ला, सँहुराही बोरे बासी।

नून गोंदली सो बतियावत, मुस्काही बोरे बासी।


कय प्रकार के होथे बासी, प्रश्न परीक्षा मा आही।

काला कथें तियासी बासी, लइकन सो पूछे जाही।


रतिहाकन के बँचे भात मा, पानी डार रखे जाथे।

होत बिहनहा नून डार के, बासी रूप भखे जाथे।


नौ दस बज्जी भात राँध के, जल मा जुड़वाये जाथे।

बोरे बासी कहत मँझनिया, अउ संझा खाये जाथे।


बोरे बासी बाँच कहूँ गय, दूसर दिवस बिहनहा बर।

उही तियासी बासी आवय, गाँव गरीब किसनहा बर।


बिन सब्जी के दुनो जुहर ला, नहकाही बोरे बासी।

नून गोंदली सो बतियावत, मुस्काही बोरे बासी।


छत्तीसगढ़ सरकार दिखावत, हावय छत्तीसगढ़िया पन।

अच्छा हे सबके तन मन ला, भावय छत्तीसगढ़िया पन।


बात चलत हे गोबर आँगन, खेत खार घर बारी के।

नरवा गरुवा घुरुवा मनके, संरक्षण रखवारी के।


बड़ गुणकारी होथे बासी, घर बन सबो बतावत हें।

नवा खवइया मन भलते, बासी खा के जम्हावत हें।


एक सइकमा बोरे बासी, कय रुपिया मा आही जी।

होटल मन मा बहुते जल्दी, मेनू कार्ड बताही जी।


जिलाधीश नेता मंत्री खुश हो खाहीं बोरे बासी।

नून गोंदली सो बतियावत, मुस्काही बोरे बासी।


छप्पन भोग सुने हन सबझन, रहन कहूंँ के रहवासी।

भोग कहाही सन्तावनवा, अब छत्तीसगढ़ के बासी।


देवालय मनमा अब जाही, बासी हर पकवान सहीं।

जे बासी के भोग लगाही, उही हमर भगवान सहीं।


छठ्ठी-बरही बर-बिहाव मा, बासी हर आदर पाही।

पूजा करके हमर पुजेरी, खुश हो के बासी खाही।


मँहगाई हर मुँह उथराही, बासी बर जलमरही बड़।

'अहिलेश्वर' सिरतो काहत हे, निंदा चारी करही बड़।


बफे भोज मा जगह बड़ाई, भर पाही बोरे बासी।

नून गोंदली सो बतियावत, मुस्काही बोरे बासी।


रचना-सुखदेव सिंह"अहिलेश्वर"

गोरखपुर कबीरधाम छत्तीसगढ़

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"*बोरे बासी*"( सार छंद)


रतिहा बाँचय भात जतक कन,ओमा डारव पानी।

बिहना बोरे बासी बनगे,एखर इही कहानी।


बड़े बिहनिया उठके जेहर, खेत खार मा जावय।

जाँगर टोरय देह खपावय, ओहा बासी खावय।


कुरसी के बइठइया मनखे,जबरन बासी खाही।

नइ पचही ता अलहन होही,ओखर पेट पिराही।


बोरे बासी मिहनत माँगे,एला थोकिन जानव।

भड़कउनी मा आके कखरो,उदे बात झन मानव।


पुरखा हमरो बताय हावय,गुन अड़बड़ हे एमा।

गजब सुहाथे बासी ओहा, मही डराथे जेमा।


लिमऊ नइते आमा अथान,नून गोंदली मिरचा।

साग अमारी भाजी तहले,बासी के हे चरचा।


पिज्जा बरगर ब्रेड खवइया बोरे,बासी खाही।

असली छतीसगढ़िया आवँव,छाती अपन फुलाही। 


हमर कका गोहार करिस हे,बासी सबझन खावव।

छतीसगढ़ के परम्परा ला, भारत मा बगरावव।


पुष्टइ होथय बोरे बासी,ज्ञानी गुनी बताथे।

अड़बड़ ताकत पाथे ओहा, बटकी भर जे खाथे।


सुसायटी मा मिलही बासी, जब सरकारी होही।

 लइकामन हा इस्कूल जाके, तब बासी बर रोही।


हीरालाल गुरुजी "समय"

छुरा, जिला- गरियाबंद

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 कुण्डलिया छंद -बोरे बासी


बोरे  बासी  नून मा, बटकी  भर-भर  खाव।

चटनी पीस पताल के,छप्पन भोग ल पाव।।

छप्पन भोग ल पाव,सबो के मन भर जाही।

अइसन सुख ला छोड़,कहाँ ले दुनिया पाही।

इही हमर बर  खीर, इही मा खुश बनवासी।

अब तो खा  के  देख, नून मा  बोरे  बासी।।


बोधन राम निषादराज

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 डी पी लहरे: चौपाई छन्द


*शीर्षक-बासी*


बासी के गुण अब्बड़ भारी।

तन बर हायव ये हितकारी।

अंतस मा लावय जी नरमी।

बासी टारय तन के गरमी।।(१)


नून डार के खाले बासी।

करथे ए गरमी के नासी।

पसिया प्यास बुझाही भइया।

लू ले जान बचाही भइया।।(२)


जे मनखे हा बासी खाथे।

अब्बड़ ओ हा ताकत पाथे।

बोरे बासी हे गुणकारी।

खावव जी जम्मो नर-नारी।।(३)


सबो बिटामिन एमा मिलथे।

जेखर ले काया हा खिलथे।

तन के जम्मो रोग भगाथे।

गैस  पेट  के  दूर  हटाथे।।(४)


कहाँ खोजबे जी तरकारी।

महँगाई  बाढे  हे  भारी।

खाले भइया बोरे बासी।

छिन मा टरही तोर उदासी।।(५)


द्वारिका प्रसाद लहरे"मौज"

कवर्धा छत्तीसगढ़

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प्रिया: *बोरे बासी* (रोला छन्द)


बोरे बासी आज, सबो के मन ला भागे।

खावव बिहना रोज, अबड़ गरमी हर आगे।।

रतिहा बेरा भात, बोर के राखव भाई।

लेवव थोरिक स्वाद, बइठ सँग मा भौजाई।।


काटव मिरचा प्याज, चाब के सबझन खावौ।

दुरियाही सब रोग, देह ला स्वस्थ बनावौ।।

जाथे कमिया रोज, खेत मा धर के बासी।

जाँगर टोर कमाय, नहीं लागय ग उँघासी।।


लाज शरम ला छोड़, हाँस के खावव बासी।

सुग्घर दिखही देह, भागही सबो उदासी।।

छत्तीसगढ़ी रीत, आज येला अपनावौ।

बासी के गुणगान, अपन लइका ल सुनावौ।।


प्रिया देवांगन *प्रियू*

राजिम

छत्तीसगढ़

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*चौपई छंद*

*बासी*


बासी खा ले मिरचा संग । झन करबे तै मोला तंग ।।

बढ़ जाही रे तोर उमंग । करबे झन *काँही* उतलंग ।।


खा ले बासी बिहना बोर । मुनगा संग बरी के झोर ।।

राँधे हावय दाई तोर । फोकट के झन दाँत निपोर ।।


बिहना ले उठथे मजदूर । खा के बासी जाथे दूर ।

चटनी अउ आमा के कूर । मेहनत करय तब भरपूर ।।


अब्बड़ परत हवय जी  घाम । चट चट *जरही* सबके चाम ।।

खा के बासी करबे काम। सिरतो मा मिलही आराम।


खावय जे बासी अमचूर । पाय विटामिन वो भरपूर ।।

बीमारी सब होवय दूर । *होवय* नहीं कभू मजबूर ।।


बासी खावय हमर सियान । बाँटय वोहर सबला ज्ञान ।।

लइका मन बर देवय ध्यान । सबझन के करथे कल्यान ।।


खावय चैतू *चाँटय* हाथ । भोंदू देवय वोकर साथ ।।

पकलू देखय *पीटय* माथ । अक्कल दे दे भोलेनाथ ।।


बासी *खावत* "माटी "आज । डारे हावय मिरचा प्याज ।।

खाये *मा हे काबर* लाज । चटनी बासी सबके ताज ।।


महेंद्र देवांगन *माटी*

राजिम

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*बोरे बासी*(त्रिभंगी छंद)


नइ लगे उदासी,खा ले बासी ,साग हवै जी ,चना जरी।

चटनी मन भावय,खीरा हावय,मीठ गोंदली,संग बरी ।।

सब रोग भगावय,प्यास बुझावय,

बासी पाचन,खूब करे।

खा ले जी हॅसके,निसदिन डटके,भर के बटकी ,ध्यान धरे।


लिलेश्वर देवांगन

   बेरला

छंद साधक (१०)

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*दोहे*


गरमी दिन-दिन बढ़त हे, तात-भात नइ भाय।

बासी खाले बोर के,'प्यारे' गजब सुहाय।।


बासी मा गुण बहुत हे, कहिथें हमर सियान।

खाले बासी पेट भर, सुत जा फेर उतान।।


भाजी चटनी संग मा, बासी गजब सुहाय।

दही मही अउ गोंदली, मजा कहे नइ जाय।।


रोज बिहिनिया खाय ले, जर-बुखार नइ आय।

जे बासी सेवन करे,  डॉक्टर घर नइ जाय।।


चाहा पीके लोग सब, बासी गइन भुलाय।

बासी खाये के मजा, 'प्यारे' कह नइ जाय।।


*प्यारेलाल साहू मरौद छत्तीसगढ़*

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बोरे बासी - आल्हा छन्द


गुरु गणपति ला माथ नवाके, मात शारदा चरण मनाँव।

बोरे बासी के महिमा ला, सब संगी ला आज सुनाँव।।


भात बचे बिहना के एमा, बूड़त ले पानी तँय डार।

बन जाथे जी एहा बोरे, खाव साँझ के पाल्थी मार।।


रतिहा के बाँचे जेवन ला, रखौ रात भर पानी बोर।

बासी कहिथे जानौ येला, खाव पेट भर भैया मोर।।


काट गोंदली सइघो मिरचा, नून डार के मही मिलाय।

कहूँ पाय आमा के चटनी, एक कौर उपराहा खाय।।


भरे विटामिन कतको एमा, हमर सबो पुरखा मन खाय।

सूजी-पानी नइ लागय गा, काम करय सब ताकत पाय।।


बोरे बासी रोज खाय मा, ताकत देथे ये भरमार।

बस एके दिन एला खाय म, नइ होवय ककरो उद्धार।।


देखावा बर खाहव झन जी, पड़ जाहू तुरते बीमार।।

बोरे बासी दोष लगाहव, छत्तीसगढ़िया होही खार।।


खावव बासी पीयव पसिया, जीयव साल एक सौ बीस।

साथ दिही जिनगी भर तन हा, ताल ठोंक बोलय जगदीश।।


जगदीश "हीरा" साहू (व्याख्याता)

कड़ार (भाटापारा)

01.05.22

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       *बासी*( सरसी छंद)


गँजिया मा बोरे बासी अउ, पताल  चटनी संग।

खेड़हा झोरहा मा सब झन, बासी खाँय मतंग।।


लोहा करछुल मा घी डारव, फोरन देव बघार।

आमा के चटनी पिस लव जी, बने पुदीना डार।


छत्तीसगढ़िया किसान बेटा, धान तोर पहिचान।

बनिहारी जाये के आघू, बासी खाय किसान।।


आज दिवस हे बोरे बासी, कहत हवै सरकार।

बासी खाय बर नेवता हे, छंद के छ परिवार।


                 🌹🙏🏻🌹


              - वसन्ती वर्मा 

                  बिलासपुर

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: बासी (कुण्डलिया ) - अजय अमृतांशु


खा ले बेटा चाव से, बासी संग अथान।

बड़ गुणकारी ये हवय, सिरतो येला मान।।

सिरतों येला मान, विटामिन येमा हावय।

होय उदासी दूर, रोज येला जे खावय।

पाचन रहिथे ठीक, बने तँय मजा उड़ा ले।

टेंशन जाही भाग, चाव से बासी खा ले ।


अजय अमृतांशु

भाटापारा( छत्तीसगढ़)

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महेंद्र बघेल: *बासी*


हमर कमाई के परसादे, उनकर महल अटारी हे।

कहाॅं भाग मा घीव पराठा, बासी हा फरहारी हे।

बासी सुनके नाक सिकोड़े, वो चम्मच मा झड़कत हे।

बहिरुपिया के दिल हा कैसे, आज लफालफ धड़कत हे।

बोरे बासी मा कतको मन ,चमकावतहें ताज अपन।

ए सी मा बैठे चतुरा मन, तोपत ढाकत राज अपन।।


बिलमें रहिजा भकुवाये कस, आगू के तैयारी हे।

हमर भाग मा कहाॅं पराठा, बासी हा फरहारी हे।


महेंद्र बघेल

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: *कुण्डलिया छंद--- बोरे बासी*


माते अड़बड़ पोठ के, बोरे बासी आज।

करे दिखावा बड़ सबो, होत खाय के काज।।

होत खाय के काज, फोटु मा सजके भारी।

नून गोंदली संग, पाय हे मान अचारी।।

नेता अफसर खीच,फोटु मा चटनी चाटें।

करलाई बड़ भूख, गरीबी घर घर माते।।


बोरे बासी के दिवस, बड़हड़ हवै मनाय।

घर गरीब के भूख हर, बइठे नता बनाय।।

बइठे नता बनाय, बने पहुना महॅंगाई।

रोज ठगावय भाग, भात बासी बर भाई।।

मिहनत कनिहा टोर, लिखे बड़ किस्मत मोरे।

हड़िया दुच्छा रोय, काय के बासी बोरे।।


मनोज कुमार वर्मा

बरदा लवन बलौदा बाजार

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 बासी- दिलीप कुमार वर्मा 


आज कहय सब बासी खावव, हमतो बचपन ले खावत हन। 

कइसन स्वाद भरे बासी मा, हमतो बचपन ले जानत हन। 


पुरखा मन बासी खावयँ ता, झन समझव कोनो लाचारी। 

भात बना के बासी बोरयँ, जानय कतका हे गुणकारी।   


गरमी मा जब नरी सुखाथे, पानी प्यास बुझा नइ पावय।  

बासी सँग पसिया ला पीयव, पेट भरय अउ प्यास बुझावय। 


पेट साफ सुग्घर कर देथे, नींद तको हर जम के आथे। 

तन के दुख पीरा हर लेथे, जब कोनो बासी ला खाथे।


साग दार के नइ हे चिंता, बस आमा चटनी मा खावव। 

उहू नही ता नून मिरच मा, खाके बासी मजा उड़ावव।


सुन सुधुवा बुधुवा मनटोरा, बासी अब बासी नइ रहिगे। 

वाटर राइस नाम धराये, बड़े बड़े होटल मा बहिगे।  


आज हमर मुखिया हर सब ले, कहिथें बोरे बासी खावव। 

अपन संस्कृति रखव सुरक्षित, अपन राज के मान बढावव।


रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा 

बलौदाबाजार

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     "*बोरे बासी*"( सार छंद)



रतिहा बाँचय भात जतक कन,ओमा डारव पानी।

बिहना बोरे बासी बनगे,एखर इही कहानी।


बड़े बिहनिया उठके जेहर, खेत खार मा जावय।

जाँगर टोरय देह खपावय, ओहा बासी खावय।


कुरसी के बइठइया मनखे,जबरन बासी खाही।

नइ पचही ता अलहन होही,ओखर पेट पिराही।


बोरे बासी मिहनत माँगे,एला थोकिन जानव।

भड़कउनी मा आके कखरो,उदे बात झन मानव।


पुरखा हमरो बताय हावय,गुन अड़बड़ हे एमा।

गजब सुहाथे बासी ओहा, मही डराथे जेमा।


लिमऊ नइते आमा अथान,नून गोंदली मिरचा।

साग अमारी भाजी तहले,बासी के हे चरचा।


पिज्जा बरगर ब्रेड खवइया बोरे,बासी खाही।

असली छतीसगढ़िया आवँव,छाती अपन फुलाही। 


हमर कका गोहार करिस हे,बासी सबझन खावव।

छतीसगढ़ के परम्परा ला, भारत मा बगरावव।


पुष्टइ होथय बोरे बासी,ज्ञानी गुनी बताथे।

अड़बड़ ताकत पाथे ओहा, बटकी भर जे खाथे।


सुसायटी मा मिलही बासी, जब सरकारी होही।

 लइकामन हा इस्कूल जाके, तब बासी बर रोही।


हीरालाल गुरुजी "समय"

छुरा, जिला- गरियाबंद

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.        *बासी*( सरसी छंद)


गँजिया मा बोरे बासी अउ, पताल  चटनी संग।

खेड़हा झोरहा मा सब झन, बासी खाँय मतंग।।


लोहा करछुल मा घी डारव, फोरन देव बघार।

आमा के चटनी पिस लव जी, बने पुदीना डार।


छत्तीसगढ़िया किसान बेटा, धान तोर पहिचान।

बनिहारी जाये के आघू, बासी खाय किसान।।


आज दिवस हे बोरे बासी, कहत हवै सरकार।

बासी खाय बर नेवता हे, छंद के छ परिवार।

              - वसन्ती वर्मा 

                  बिलासपुर

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जयकारी छन्द- बासी


जरे घाम मा चटचट चाम, लगे थकासी रूकय काम।

खेवन खेवन गला सुखाय, बदन पछीना मा थर्राय।


चले हवा जब ताते तात, भाय नही मन ला जब भात।

चक्कर घेरी बेरी आय, तन के ताप घलो बढ़ जाय।


घाम झाँझ मा पेट पिराय, चैन चिटिक तन मन नइ पाय।

तब खा बासी दुनो जुवार, खाके दुरिहा जर बोखार।


बासी खाके बन जा वीर, खेत जोत अउ लकड़ी चीर।

हकन हकन के खंती कोड़, धार नदी नरवा के मोड़।


गार पछीना बिहना साँझ, सोन उगलही धरती बाँझ।

सड़क महल घर बाँध बना, ताकत तन के अपन जना।


खुद के अउ दुनिया के काम, अपन बाँह मा ले चल थाम।

करके बूता पाबे मान, बन जाबे भुइयाँ के शान।


सुनके बासी मूँदय कान, उहू खात हे लान अथान।

खावै बासी पेज गरीब, कहे तहू मन आय करीब।


खावत हें सब थारी चाँट, लइका लोग सबे सँग बाँट।

बासी कहिके हाँसे जौन, हाँस हाँस के खावै तौन।


बासी चटनी के गुण जान, खाय अमीर गरीब किसान।

पिज़्ज़ा बर्गर चउमिन छोड़, खावै सबझन माड़ी मोड़।


बदलत हे ये जुग हा फेर, लहुटत हे बासी के बेर।

बड़े लगे ना छोटे आज, बासी खाये नइहे लाज।


बासी बासी के हे शोर, खावै नून मही सब घोर।

भाजी चटनी आम अथान, कच्चा मिरी गोंदली चान।


बरी बिजौरी कड़ही साग, मिले संग मा जागे भाग।

बासी खाके पसिया ढोंक, जर कमजोरी के लू फोंक।


करे हकन के बूता काम, खा बासी मजदूर किसान।

गर्मी सर्दी अउ आसाढ़, एको दिन नइ होवै आड़।।


जीतेंन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

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शोभन छंद

चान चानी गोंदली के, नून संग अथान।

जुड़ हवै बासी झडक ले, भाग जाय थकान।

बड़ मिठाथे मन हिताथे, खाय तौन बताय।

झाँझ झोला नइ धरे गा, जर बुखार भगाय।

जीतेंन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)