बसंत ऋतु विशेष, छंदबद्ध कवितायें
गोपी छंद- बसंत ऋतु
बसंती गीत पवन गाये।
बाग घर बन बड़ मन भाये।
कोयली आमा मा कुँहके।
फूल के रस तितली चुँहके।
करे भिनभिन भौरा करिया।
कलेचुप हे नदिया तरिया।।
घाम अरझे अमरइया मा।
भरे गाना पुरवइया मा।।
पपीहा शोर मचावत हे।
कोयली गीत सुनावत हे।
मगन मन मैना हा गावै।
परेवा पड़की मन भावै।।
फरे हे बोइर लटलट ले।
आम हे मउरे मटमट ले।
गिराये बर पीपर पाना।
फूल परसा मारे ताना।।
फुले धनिया सादा सादा।
टमाटर लाल दिखे जादा।
लाल भाजी पालक मेथी।
घुमा देवय सबके चेथी।
मसुर अरहर मुसमुस हाँसे।
बाग बन खेत जिया फाँसे।
चना गेहूँ अरसी सरसो।
याद आवै बरसो बरसो।
सरग कस लागत हे डोली।
कहे तीतुर गुरतुर बोली।
फूल लाली हे सेम्हर के।
बलावै बिरवा डूमर के।।
बबा सँग नाचत हे नाती।
खुशी के आये हे पाती।
नँगाड़ा झाँझ मँजीरा धर।
फाग ले जावै पीरा हर।।
सुनावै हो हल्ला भारी।
मगन मन झूमै नर नारी।
प्रकृति सज धज के हे ठाढ़े।
मया मनखे मा हे बाढ़े।।
मटक के रेंगें मुटियारी।
पार खोपा पाटी भारी।
नयन मा काजर ला आँजे।
मया ममता खरही गाँजे।।
राग फगुवा के रस घोरे।
चले सखि मन बँइहा जोरे।
दबाये बाखा मा गगरी।
नहाये खोरे बर सगरी।
पंच मन बइठे बर खाल्हे।
मगन गावै कर्मा साल्हे।
ढुलावय मिलजुल के पासा।
धरे अन्तस् मा सुख आसा।।
हदर के खावत हे टूरा।
चाँट अँगरी थारी पूरा।।
चुरे हे सेमी अउ गोभी।
पेट तन जावै बन लोभी।
टमाटर चटनी नइ बाँचे।
मटर गाजर मूली नाँचे।
पपीता पिंवरा पिंवरा हे।
ललावत सबके जिवरा हे।।
हाट हटरी मड़ई मेला।
जिंहा होवय पेलिक पेला।
ढेलुवा सरकस अउ खाजी।
मजा लेवय दादी आजी।।
जनावत नइहे जड़काला।
प्रकृति लागत हावै लाला।
खुशी सुख मन भर बाँटत हे।
मया के डोरी आँटत हे।
सबे ऋतुवन के ये राजा।
बजावै आ सुख के बाजा।
खुशी हबरे चोरो कोती।
बरे नित दया मया जोती।
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को, कोरबा(छग)
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बोधन निषादराज: *त्रिभंगी छंद - बसंत ऋतु* (1) रुखवा हरियागे,फागुन आगे,परसा लाली,फूल झरै। आगी कस दहकै,डोंगर महकै,सेम्हर देखव,झूल परै।। मधुबन कस सोहै,मन ला मोहै,ये अमरइया,छाँव इहाँ। कोयल के गाना,मारै ताना,बिरहिन मन के,नाँव इहाँ।। (2) सुग्घर निक लागै,आशा जागै,बाग बगइचा,ठउर इहाँ। सरसो हा माते,अरसी हाँसे,झूलै आमा,मउर इहाँ।। होरी के सुरता,पहिरे कुरता,रंग मया के,खेल इहाँ। अउ सब नर नारी,धर पिचकारी,करै सबो ले,मेल इहाँ।। छंद साधक - 5 बोधन राम निषादराज 💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐
डी पी लहरे: बसंत रितु सरसी छंद गीत
रितु बसंत दे बर आये हे,जन जन ला उपहार।
हँसी खुशी मा दिन कटही अब,सुख पाही संसार।।
मन भावन मौसम लाये हे,रितु बसंत हा आज।
धरती लागय दुलहिन जइसे,बिकट करे हे साज।।
रंग बिरंगा फूल फुले हे,महकय खेती खार।
रितु बसंत दे बर आये हे,जन जन ला उपहार।।
देख कोइली कुहक कुहक के,गावय सुघ्घर गीत।
मन हर्षावय गुत्तुर बोली,मन ला लेवय जीत।।
पिंवरा पिंवरा आमा मउरे,लहकय झूमय डार।
रितु बसंत दे बर आये हे,जन जन ला उपहार।।
रितु बसंत राजा हा भरथे,तन मन मा उल्लास।
सदा बनाथे जीव जंतु बर,दिन बादर ला खास।।
फागुन हा आये बर अब तो,खड़े हवय तइयार।
रितु बसंत दे बर आये हे,जन जन ला उपहार।।
छंदकार-
द्वारिका प्रसाद लहरे"मौज"
कवर्धा छत्तीसगढ़
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मनोज वर्मा: सुमुखी सवैया नवा पतिया फर फूल लगे रुखवा बड़ गा ममहावत हे। सजे धरती जस नेवरनीन सही सरसो ह लजावत हे। मनात खुशी बइठे अमुवा नित डार म कोयल गावत हे। बसंत बहार धरे सुन रंग म शारद ला परिघावत हे। सजे सॅंवरे धरती परसा अउ सेम्हर फूल सुहावत हे। दिखे सब रंग बिरंग मया रुखवा फर पान लुटावत हे। सनौ बइठे अमुवा अब डार म कोयल गीत सुनावत हे। हॅंसे अमली अउ ये मउरे अमुवा मन ला बिजरावत हे। लगे मन भावन पोठ सुहावन देख धरा ह श्रृॅंगार करे। सुहावय रंग बिरंग सजे फर फूल ह खेत ग खार भरे। हवा जल मौसम पेड़ सबो अब मात घले ग बहार धरे। गियान ग देवय शारद मॉं अगियान सबो नित टार हरे। भरे रस फूल पिये तितली भॅंवरा मन मस्त मतात हवै। सुगंध धरे अब मौसम फेर लहूट सखी सुन आत हवै। करे सुरता सजनी हर साजन मौसम हा मन भात हवै। मने मन खोजय वो सइयाॅं चुप हाथ सुना जब पात हवै। मनोज कुमार वर्मा बरदा लवन बलौदा बाजार छंद साधक 11 💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐
छन्न पकैया छंद
छन्नपकैया छन्नपकैया,देखव सरसों फूले।
मनखे मन के मन हा भैया, बासंती बन झूले।।
छन्नपकैया छन्नपकैया, ममहाये फुलवारी।
नोनी, दाई, छुटका, बड़का, घूमय क्यारी क्यारी।।
छन्नपकैया छन्नपकैया, झूमत फागुन आगे।
दुलहिन जइसन भुइँया सजगे, भाग कली के जागे।।
शुचि 'भवि'
भिलाई, छत्तीसगढ़
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आजा अमरैया मा जोही* सार छंद आजा अमरैया मा जोही,जुड़ -जुड़ बइहर डोले। राग -बसंती सुनावत हवे,कारी मधु रस घोले।। 1--' मउसम हावे धरे मँजीरा,हिरदे ला लोभावय। पीहु -पीहु के सुर धुनि बगरे, रहि- रहि हिय तरसावय। फूल- फूल मा झूमत भँवरा ,हिरदे कपाट खोले। राग बसंती----। 2--' मनवा होवत उड़न- पखेरू,आजा मोर मयारू। मन के पीरा ल गोठिया ले,होवय उमर उतारू। चारे दिन ए जिनगी संगी,सुधि हिरदे के ले ले। राग बसंती-- 3--' आमा -रुखवा के खाल्हे मा,गीत मया के गाबो। कण ,कण मँजरी साखी बनही,सपना नवा सजाबो। महर- महर अमरैया महके गंध मया रस बोरे। राग----- 4--' देखँव जोही परसा रुखवा,आगी चोला म भरे। बैरी पुरवा अगन लगावत,विरही काया बरे। परसा फूले कस मोरो मन,अगन आस में हो ले। राग--- सुधा शर्मा राजिम छत्तीसगढ़ 27-2-21
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अरविंद सवैया- विजेन्द्र वर्मा अब गावत गीत बसंत इहाँ,अउ नाचत हे मउहा मतवार। सब झूमत हे सुन गीत बने,खुशियाँ बरसावत हे ग अपार। खनके सरसों अरसी तिँवरा,मउँरे अमुवा दिखथे मनुहार। पिँवरा पिँवरा तब पात झरे,पुरवा झकझोर करे ललकार। विजेन्द्र वर्मा नगरगाँव(धरसीवाँ)
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सार छंद-धनेश्वरी सोनी
बसंत आगे ऋतु बसंत आगे देखव जी, धरती सुंदर लागे। मोर मयूरी झूमे नाचे, मया मोह हा जागे।। बौर महक थे अमुवा डारा,भुइयाँ हा ममहावै। रंग बिरंगी फूल खिले हे, मन ला अति ललचावै।। कुहुक कहुक के कोयल बोले, याद मयारू आगे। मोर मयूरी झूमे नाचे, मया मोह हा जागे।। हरियर हरियर लुगरा लागे,भुइयाँ ओढे़ धानी। चंपा गोंदा जूही देखव, फूले राजा रानी।। पींयर पींयर सरसों फूले,परसा सेम्हर छागे। मोर मयूरी झूमे नाचे, मया मोह हा जागे। खेत खार मा भरे सोनहा,भुइयाँ के श्रृंगारी। आमा अमली फरगे कैथा, जन ला दे उपहारी।। पेड़ प्रकृति के सुंदरता गा, आँखी सुंदर लागे। मोर मयूरी झूमे नाचे, मया मोह हा जागे। तितली भौरामन मँडरावय,मन अब्बड़ हरषाथे। कोयल मैना मीठा गावे,मन मा आस जगाथे। छन छन छम छम पैरी बाजे,धुन मँदरस मा पागे। मोर मयूरी झूमे नाचे, मया मोह हा जागे। ************************************** धनेश्वरी सोनी गुल
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मीता अग्रवाल: सार छंद मधुमास लहरिया मारे मधुमास लहरिया मारे,जुडकाला घल भागे। दुमुड दुमुड दुम बाज नगाड़ा,मस्त महीना आगें। आमा मउरें बइठ कोयली, पंचम राग सुनाए। नेह मया के देत नेवता,झूमत फागुन आए। मैना बोली सुग्घर लागे,भुइयाँ नींद म जागे। दुमुड दुमुड दुम बाज नगाड़ा,मस्त महीना आगें। महुवा महके मन टेसू अस,काया बाण चलाए। चना तींवरा सरसों झूमय,संगी रंग मताए। गेंदा फूले महके बारी,धानी पिवरी लागे। दुमुड दुमुड दुम बाज नगाड़ा,मस्त महीना आगें। ऐसों अइसन फागुन लागय,बोलय किशन कन्हाई। फेंक पाश पीरित बँधना,बंसी मधुर बजाई। मन मजूर मुस्काये दउड़े,जिनगी बसंत छागे। दुमुड दुमुड दुम बाज नगाड़ा,मस्त महीना आगें। रचनाकार-मीता अग्रवाल मधुर रायपुर छत्तीसगढ़
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कुंडलियाँ छंद- इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध बसंत ऋतु- धरके नवा उमंग अब, आये हवय बसंत। सबके मन मा छाय हे, खुशियाँ रंग अनंत।। खुशियाँ रंग अनंत, धरे हे रुखवा राई। गाँव गली सब ओर, बहत हे सुख पुरवाई।। लगे सुहावन खार, फूलवा अँगना घर के। गजानंद बउराय, रंग फागुन के धरके।। सरसो पिंवरा हे दिखत, आमा मउरे डार। लाल लाल परसा खिले, करे प्रकृति सिंगार।। करे प्रकृति सिंगार, सबो के मन ललचाये। पिया मिलन के आस, जिया मा आग लगाये।। गजानंद सुख छाँव, मिले हे तोला बरसो। लौट चले आ गाँव, कहत हे पिंवरा सरसो।। इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध" बिलासपुर ( छत्तीसगढ़ )
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