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Saturday, February 27, 2021

बसंत ऋतु विशेष, छंदबद्ध कवितायें


 बसंत ऋतु विशेष, छंदबद्ध कवितायें

गोपी छंद- बसंत ऋतु


बसंती गीत पवन गाये।

बाग घर बन बड़ मन भाये।

कोयली आमा मा कुँहके।

फूल के रस तितली चुँहके।


करे भिनभिन भौरा करिया।

कलेचुप हे नदिया तरिया।।

घाम अरझे  अमरइया मा।

भरे गाना पुरवइया मा।।


पपीहा शोर मचावत हे।

कोयली गीत सुनावत हे।

मगन मन मैना हा गावै।

परेवा पड़की मन भावै।।


फरे हे बोइर लटलट ले।

आम हे मउरे मटमट ले।

गिराये बर पीपर पाना।

फूल परसा मारे ताना।।


फुले धनिया सादा सादा।

टमाटर लाल दिखे जादा।

लाल भाजी पालक मेथी।

घुमा देवय सबके चेथी।


मसुर अरहर मुसमुस हाँसे।

बाग बन खेत जिया फाँसे।

चना गेहूँ अरसी सरसो।

याद आवै बरसो बरसो।


सरग कस लागत हे डोली।

कहे तीतुर गुरतुर बोली।

फूल लाली हे सेम्हर के।

बलावै बिरवा डूमर के।।


बबा सँग नाचत हे नाती।

खुशी के आये हे पाती।

नँगाड़ा झाँझ मँजीरा धर।

फाग ले जावै पीरा हर।।


सुनावै हो हल्ला भारी।

मगन मन झूमै नर नारी।

प्रकृति सज धज के हे ठाढ़े।

मया मनखे मा हे बाढ़े।।


मटक के रेंगें मुटियारी।

पार खोपा पाटी भारी।

नयन मा काजर ला आँजे।

मया ममता खरही गाँजे।।


राग फगुवा के रस घोरे।

चले सखि मन बँइहा जोरे।

दबाये बाखा मा गगरी।

नहाये खोरे बर सगरी।


पंच मन बइठे बर खाल्हे।

मगन गावै कर्मा साल्हे।

ढुलावय मिलजुल के पासा।

धरे अन्तस् मा सुख आसा।।


हदर के खावत हे टूरा।

चाँट अँगरी थारी पूरा।।

चुरे हे सेमी अउ गोभी।

पेट तन जावै बन लोभी।


टमाटर चटनी नइ बाँचे।

मटर गाजर मूली नाँचे।

पपीता पिंवरा पिंवरा हे।

ललावत सबके जिवरा हे।।


हाट हटरी मड़ई मेला।

जिंहा होवय पेलिक पेला।

ढेलुवा सरकस अउ खाजी।

मजा लेवय दादी आजी।।


जनावत नइहे जड़काला।

प्रकृति लागत हावै लाला।

खुशी सुख मन भर बाँटत हे।

मया के डोरी  आँटत हे।


सबे ऋतुवन के ये राजा।

बजावै आ सुख के बाजा।

खुशी हबरे चोरो कोती।

बरे  नित दया मया जोती।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)


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बोधन निषादराज: *त्रिभंगी छंद - बसंत ऋतु* (1) रुखवा हरियागे,फागुन आगे,परसा लाली,फूल झरै। आगी कस दहकै,डोंगर महकै,सेम्हर देखव,झूल परै।। मधुबन कस सोहै,मन ला मोहै,ये अमरइया,छाँव इहाँ। कोयल के गाना,मारै ताना,बिरहिन मन के,नाँव इहाँ।। (2) सुग्घर निक लागै,आशा जागै,बाग बगइचा,ठउर इहाँ। सरसो हा माते,अरसी हाँसे,झूलै आमा,मउर इहाँ।। होरी के सुरता,पहिरे कुरता,रंग मया के,खेल इहाँ। अउ सब नर नारी,धर पिचकारी,करै सबो ले,मेल इहाँ।। छंद साधक - 5 बोधन राम निषादराज 💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐

डी पी लहरे: बसंत रितु सरसी छंद गीत रितु बसंत दे बर आये हे,जन जन ला उपहार। हँसी खुशी मा दिन कटही अब,सुख पाही संसार।। मन भावन मौसम लाये हे,रितु बसंत हा आज। धरती लागय दुलहिन जइसे,बिकट करे हे साज।। रंग बिरंगा फूल फुले हे,महकय खेती खार। रितु बसंत दे बर आये हे,जन जन ला उपहार।। देख कोइली कुहक कुहक के,गावय सुघ्घर गीत। मन हर्षावय गुत्तुर बोली,मन ला लेवय जीत।। पिंवरा पिंवरा आमा मउरे,लहकय झूमय डार। रितु बसंत दे बर आये हे,जन जन ला उपहार।। रितु बसंत राजा हा भरथे,तन मन मा उल्लास। सदा बनाथे जीव जंतु बर,दिन बादर ला खास।। फागुन हा आये बर अब तो,खड़े हवय तइयार। रितु बसंत दे बर आये हे,जन जन ला उपहार।। छंदकार- द्वारिका प्रसाद लहरे"मौज" कवर्धा छत्तीसगढ़

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मनोज वर्मा: सुमुखी सवैया नवा पतिया फर फूल लगे रुखवा बड़ गा ममहावत हे। सजे धरती जस नेवरनीन सही सरसो ह लजावत हे। मनात खुशी बइठे अमुवा नित डार म कोयल गावत हे। बसंत बहार धरे सुन रंग म शारद ला परिघावत हे। सजे सॅंवरे धरती परसा अउ सेम्हर फूल सुहावत हे। दिखे सब रंग बिरंग मया रुखवा फर पान लुटावत हे। सनौ बइठे अमुवा अब डार म कोयल गीत सुनावत हे। हॅंसे अमली अउ ये मउरे अमुवा मन ला बिजरावत हे। लगे मन भावन पोठ सुहावन देख धरा ह श्रृॅंगार करे। सुहावय रंग बिरंग सजे फर फूल ह खेत ग खार भरे। हवा जल मौसम पेड़ सबो अब मात घले ग बहार धरे। गियान ग देवय शारद मॉं अगियान सबो नित टार हरे। भरे रस फूल पिये तितली भॅंवरा मन मस्त मतात हवै। सुगंध धरे अब मौसम फेर लहूट सखी सुन आत हवै। करे सुरता सजनी हर साजन मौसम हा मन भात हवै। मने मन खोजय वो सइयाॅं चुप हाथ सुना जब पात हवै। मनोज कुमार वर्मा बरदा लवन बलौदा बाजार छंद साधक 11 💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐


छन्न पकैया छंद

छन्नपकैया छन्नपकैया,देखव सरसों फूले। मनखे मन के मन हा भैया, बासंती बन झूले।। छन्नपकैया छन्नपकैया, ममहाये फुलवारी। नोनी, दाई, छुटका, बड़का, घूमय क्यारी क्यारी।। छन्नपकैया छन्नपकैया, झूमत फागुन आगे। दुलहिन जइसन भुइँया सजगे, भाग कली के जागे।। शुचि 'भवि' भिलाई, छत्तीसगढ़

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आजा अमरैया मा जोही* सार छंद आजा अमरैया मा जोही,जुड़ -जुड़ बइहर डोले। राग -बसंती सुनावत हवे,कारी मधु रस घोले।। 1--' मउसम हावे धरे मँजीरा,हिरदे ला लोभावय। पीहु -पीहु के सुर धुनि बगरे, रहि- रहि हिय तरसावय। फूल- फूल मा झूमत भँवरा ,हिरदे कपाट खोले। राग बसंती----। 2--' मनवा होवत उड़न- पखेरू,आजा मोर मयारू। मन के पीरा ल गोठिया ले,होवय उमर उतारू। चारे दिन ए जिनगी संगी,सुधि हिरदे के ले ले। राग बसंती-- 3--' आमा -रुखवा के खाल्हे मा,गीत मया के गाबो। कण ,कण मँजरी साखी बनही,सपना नवा सजाबो। महर- महर अमरैया महके गंध मया रस बोरे। राग----- 4--' देखँव जोही परसा रुखवा,आगी चोला म भरे। बैरी पुरवा अगन लगावत,विरही काया बरे। परसा फूले कस मोरो मन,अगन आस में हो ले। राग--- सुधा शर्मा राजिम छत्तीसगढ़ 27-2-21

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अरविंद सवैया- विजेन्द्र वर्मा अब गावत गीत बसंत इहाँ,अउ नाचत हे मउहा मतवार। सब झूमत हे सुन गीत बने,खुशियाँ बरसावत हे ग अपार। खनके सरसों अरसी तिँवरा,मउँरे अमुवा दिखथे मनुहार। पिँवरा पिँवरा तब पात झरे,पुरवा झकझोर करे ललकार। विजेन्द्र वर्मा नगरगाँव(धरसीवाँ)

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सार छंद-धनेश्वरी सोनी

बसंत आगे ऋतु बसंत आगे देखव जी, धरती सुंदर लागे। मोर मयूरी झूमे नाचे, मया मोह हा जागे।। बौर महक थे अमुवा डारा,भुइयाँ हा ममहावै। रंग बिरंगी फूल खिले हे, मन ला अति ललचावै।। कुहुक कहुक के कोयल बोले, याद मयारू आगे। मोर मयूरी झूमे नाचे, मया मोह हा जागे।। हरियर हरियर लुगरा लागे,भुइयाँ ओढे़ धानी। चंपा गोंदा जूही देखव, फूले राजा रानी।। पींयर पींयर सरसों फूले,परसा सेम्हर छागे। मोर मयूरी झूमे नाचे, मया मोह हा जागे। खेत खार मा भरे सोनहा,भुइयाँ के श्रृंगारी। आमा अमली फरगे कैथा, जन ला दे उपहारी।। पेड़ प्रकृति के सुंदरता गा, आँखी सुंदर लागे। मोर मयूरी झूमे नाचे, मया मोह हा जागे। तितली भौरामन मँडरावय,मन अब्बड़ हरषाथे। कोयल मैना मीठा गावे,मन मा आस जगाथे। छन छन छम छम पैरी बाजे,धुन मँदरस मा पागे। मोर मयूरी झूमे नाचे, मया मोह हा जागे। ************************************** धनेश्वरी सोनी गुल


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मीता अग्रवाल: सार छंद मधुमास लहरिया मारे मधुमास लहरिया मारे,जुडकाला घल भागे। दुमुड दुमुड दुम बाज नगाड़ा,मस्त महीना आगें। आमा मउरें बइठ कोयली, पंचम राग सुनाए। नेह मया के देत नेवता,झूमत फागुन आए। मैना बोली सुग्घर लागे,भुइयाँ नींद म जागे। दुमुड दुमुड दुम बाज नगाड़ा,मस्त महीना आगें। महुवा महके मन टेसू अस,काया बाण चलाए। चना तींवरा सरसों झूमय,संगी रंग मताए। गेंदा फूले महके बारी,धानी पिवरी लागे। दुमुड दुमुड दुम बाज नगाड़ा,मस्त महीना आगें। ऐसों अइसन फागुन लागय,बोलय किशन कन्हाई। फेंक पाश पीरित बँधना,बंसी मधुर बजाई। मन मजूर मुस्काये दउड़े,जिनगी बसंत छागे। दुमुड दुमुड दुम बाज नगाड़ा,मस्त महीना आगें। रचनाकार-मीता अग्रवाल मधुर रायपुर छत्तीसगढ़

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कुंडलियाँ छंद- इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध बसंत ऋतु- धरके नवा उमंग अब, आये हवय बसंत। सबके मन मा छाय हे, खुशियाँ रंग अनंत।। खुशियाँ रंग अनंत, धरे हे रुखवा राई। गाँव गली सब ओर, बहत हे सुख पुरवाई।। लगे सुहावन खार, फूलवा अँगना घर के। गजानंद बउराय, रंग फागुन के धरके।। सरसो पिंवरा हे दिखत, आमा मउरे डार। लाल लाल परसा खिले, करे प्रकृति सिंगार।। करे प्रकृति सिंगार, सबो के मन ललचाये। पिया मिलन के आस, जिया मा आग लगाये।। गजानंद सुख छाँव, मिले हे तोला बरसो। लौट चले आ गाँव, कहत हे पिंवरा सरसो।। इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध" बिलासपुर ( छत्तीसगढ़ )

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Tuesday, February 16, 2021

बसंत पंचमी विशेषांक-छंद के छ परिवार

बसंत पंचमी विशेषांक-छंद के छ परिवार


*अरसात सवैया*

थाल म फूल गुलाल सजा मँय पाँव ल तोर परौं नित शारदा।
आन बिराजव माँ मंदिर ध्यान ल तोर धरौं नित शारदा।
मोह मया भभके तन भीतर फोकट रोज जरौं नित शारदा।
मोर छुड़ावव राग दुवेश इही विनती ल करौं नित शारदा।

खैरझिटिया
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बसंत रितु सरसी छंद गीत

द्वारिका प्रसाद लहरे


रितु बसंत दे बर आये हे,जन जन ला उपहार।

हँसी खुशी मा दिन कटही अब,सुख पाही संसार।।


मन भावन मौसम लाये हे,रितु बसंत हा आज।

धरती लागय दुलहिन जइसे,बिकट करे हे साज।।

रंग बिरंगा फूल फुले हे,महकय खेती खार।

रितु बसंत दे बर आये हे,जन जन ला उपहार।।


देख कोइली कुहक कुहक के,गावय सुघ्घर गीत।

मन हर्षावय गुत्तुर बोली,तन मन लेवय जीत।।

पिंवरा पिंवरा आमा मउरे,लहकय झूमय डार।

रितु बसंत दे बर आये हे,जन जन ला उपहार।।


रितु बसंत राजा हा भरथे,तन मन मा उल्लास।

सदा बनाथे जीव जंतु बर,दिन बादर ला खास।।

फागुन हा आये बर अब तो,खड़े हवय तइयार।

रितु बसंत दे बर आये हे,जन जन ला उपहार।।


छंदकार-

द्वारिका प्रसाद लहरे

कवर्धा छत्तीसगढ़

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: बसंत ऋतु - बोधन राम निषादराज


रोला छंद -


देखौ छाय  बहार, आय  हे  गावत  गाना।

मन होगे खुश आज,देख के परसा पाना।।

फूले परसा  लाल, कोयली  बोलय  बानी।

गुरतुर लागे बोल,करौं का मँय अब रानी।।


त्रिभंगी छंद -


परसा हा फुलगे,सेम्हर झुलगे,पवन बसंती,आय हवै।

आमा मउरागे,मन हरियागे,सरसो पिँवरी,छाय हवै।।

भुइयाँ बड़ सुग्घर,लागै उज्जर,खींचत मन के,डोर हवै।

करिया कस बादर,आँखी काजर,बाँध मया के,लोर हवै।।


ऋतु बड़ मनभावन,सुघर सुहावन,मन हर्षित चहुँ,ओर लगै।

पाना हरियावत,खार लुभावत,सबो डोंगरी,छोर लगै।।

परसा के लाली,गेहूँ बाली,अरसी सरसो,फूल फभे।

अमुआ के डारा,लहसे झारा,मउर आम के,झूल फभे।।


कोयल के बोली,हँसी ठिठोली,गुरतुर सुग्घर,बास करै।

भँवरा मँडरावय,तितली गावय,फूल-फूल मा,रास करै।।

नदिया के पानी,कहै कहानी,कल-कल-कल-कल,धार बहै।

भुइयाँ हरियाली,मन खुशहाली,मया पिरित के,लार बहै।।


अमृतध्वनि छंद -


हरियाली  चारों  डहर, आथे  माघ बसंत।

सुघर मनाथे पंचमी, होय  जूड़ के अंत।।

होय जूड़  के , अंत तहाँ ले, घाम जनाथे।

मातु शारदा,जनम परब ला,सबो मनाथे।।

लइका होली, डाँड़ गड़ा के, बड़ खुशहाली।

दिखथे भुइयाँ,सरग बरोबर,औ हरियाली।।


छप्पय छंद -


देखौ  आमा  डार, लोर  गे  हरियर  पाना। 

झूम-झूम के देख, कोयली  गावय  गाना।।

आमा मउरे भाय, सबो के  मन  ललचावै।

देखत जिवरा मोर,खुशी मा  नाचय  गावै।।

लदलद ले हे मउर हा,भँवरा झूलय डार मा।

आय बसंती देख तो,नाचत हावय खार मा। 

 

कुण्डलिया छंद -


मन हा नाचय झूम के,बढ़िया चलय बयार।

डारा  लहसे  जात हे,देखौ  छाय  बहार।।

देखव छाय बहार, आय  हे गावत गाना।

मन होगे खुश आज,देख के परसा पाना।।

मैना मारय जोर, कोयली कुहु कुहु बाचय।

महर महर ममहाय,झूम के मन हा नाचय।।


छंदकार:-

बोधन राम निषादराज

सहसपुर लोहारा,जिला-कबीरधाम(छ.ग.)

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: बसंत

अरविंद सवैया- विजेन्द्र वर्मा


अब गावत गीत बसंत इहाँ,अउ नाचत हे मँउहा मतवार।

सब झूमत हे सुन गीत बने,खुशियाँ बरसावत रोज अपार।

खनके सरसों अरसी तिँवरा,मउँरे अमुवा दिखथे मनहार।

पिँवरा पिँवरा तब पात झरे,पुरवा झकझोर करे ललकार।


विजेन्द्र वर्मा

नगरगाँव(धरसीवाँ)

जिला- रायपुर

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: बसंत (रोला छ्न्द) - अजय अमृतांशु


आ गे हवय बसंत, देख झूमत हे पाना।

कोयल मारै कूक, मगन हो गावय गाना।।

पींयर सरसो फूल,सबो के मन ला भावय। 

अमली ला इतरात, देख आमा बउरावय।।


बेंदरा करय कमाल, कूद के डारा डारा।

भौंरा गीत सुनाय,  घूम के आरा-पारा।।

मुच् मुच् मुच् मुस्काय,गहूँ के सुग्घर बाली।

परसा आग लगाय,दिखत हे लाली लाली।।


आवत देख बसंत, फूल सेम्हर के फ़ूलय।

कपसा हा बिजराय,डार मा मुनगा झूलय।।

तिंवरा बटर मसूर, हाँस के करयँ ठिठोली।

झमकत हे राहेर,चना के खन खन बोली।।


अजय अमृतांशु 

भाटापारा  ( छत्तीसगढ़ )

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वर दे माँ शारदे (सरसी छन्द)


दे अइसन वरदान शारदा, दे अइसन वरदान।

गुण गियान यश जश बढ़ जावय,बाढ़ै झन अभिमान।


तोर कृपा नित होवत राहय, होय कलम अउ धार।

बने बात ला पढ़ लिख के मैं, बढ़ा सकौं संस्कार।

मरहम बने कलम हा मोरे, बने कभू झन बान।

दे अइसन वरदान शारदा, दे अइसन वरदान।।।


जेन बुराई ला लिख देवँव, ते हो जावय दूर।

नाम निशान रहे झन दुख के, सुख छाये भरपूर।

आशा अउ विस्वास जगावँव, छेड़ँव गुरतुर तान।

दे अइसन वरदान शारदा, दे अइसन वरदान।।।


मोर लेखनी मया बढ़ावै, पीरा के गल रेत।

झगड़ा झंझट अधम करइया, पढ़के होय सचेत।

कलम चले निर्माण करे बर, लाये नवा बिहान।

दे अइसन वरदान शारदा, दे अइसन वरदान।।।


अपन लेखनी के दम मा मैं, जोड़ सकौं संसार।

इरखा द्वेष दरद दुरिहाके, टार सकौं अँधियार।

जिया लमाके पढ़ै सबो झन, सुनै लगाके कान।

दे अइसन वरदान शारदा, दे अइसन वरदान।।।


जीतेंन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

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      *बसंत ऋतू हा आगे (घनाक्षरी छंद)*


हरियर खेती खार , छाये हावै जी बहार ।

देख तो बसंत राजा , आज मुसकात हे ।।


आमा हा मउँर धरे , सरसो उमंग भरे ।

फूल मन फुले भारी , बड़ ममहात हे ।।


परसा हा पोठ फुले , देख आँखी आँखी झूले ।

कोयली  के संग  आज  , भौरा  परघात  हे ।।


कुहूँ कुहूँ कुहकत , कोयली हा डारा डारा ।

बसंत हा आगे कहि , सबला बतात हे ।।


बसंत बहार आगे , धरती हा हरियागे ।

धान गहूँ सरसो हा , पोठ लहरात हे ।।


हरियर  रुखराई , नवा  नवा  पाना धरे ।

धरती दाई के देख , शोभा ला बढ़ात हे ।। 


मनके मंजूर नाचे , आज संगी झूम झूम ।

बसंत ऋतू हा आगे , सबो ला सुहात  हे ।।


राजा रानी बन आज , परसा आमा हा माते ।

देख देख शोभा ला जी , बड़  मन भात हे ।।


                 *मयारू मोहन कुमार निषाद* 

                  *गाँव - लमती , भाटापारा ,*

                *जिला - बलौदाबाजार (छ.ग.)*

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बसन्त ऋतु-घनाक्षरी


अमरइया मा जाबों,कोयली के संग गाबो

चले सर सर सर,पुरवइया राग मा।।

अरसी हे घमाघम,चना गहूँ चमाचम

सरसो मँसूर धरे,मया ताग ताग मा।

अमली झूलत हवै,अमुवा फुलत हवै,

अरझ जावत हवै,जिवरा ह बाग मा।

रौंनिया म माड़ी मोड़,पापड़ चना ल फोड़

खाबों तीन परोसा गा,सेमी गोभी साग मा।


जब ले बसंत लगे,बगुला ह संत लगे

मछरी ल बिनत हे, कलेचुप धार मा।।

कोयली के कूक भाये, पुरवा जिया लुभाये

लाली रंग रंगत हे, परसा ह खार मा।।

खेत खार घर बन,लागे जैसे मधुबन

तरिया मा मुँह देखे,बर खड़े पार मा।।

बसंत सिंगार करे,खुशी दू ले चार करे

लइका कस धरती ह,हाँसे जीत हार मा।।


दोहा-


परसा सेम्हर फूल हा,अँगरा कस हे लाल।

आमा बाँधे मौर ला,माते मउहा डाल।1।


पुर्वाही सरसर चले,डोले पीपर पात।

बर पाना बर्रात हे,रोजे दिन अउ रात।2।


खिनवा पहिरे सोनहा,लुगरा हरियर पान।

चाँदी के पइरी सजा,बम्हरी छेड़े तान।3।


चना गहूँ माते हवै,नाचे सरसो खेत।

अरसी राहर लाखड़ी,हर लेथे सुध चेत।4।


नाचत गावत माँघ मा,आथे देख बसन्त।

दुल्हिन कस लगथे धरा,छाथे खुशी अनन्त।5।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को(कोरबा)

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छंदकार-शोभामोहन श्रीवास्तव

छंद-हरिगीतिका


सरस्वती दाई के सुमरनी 

१/

बीना धरे हस हाथ मा,साजे मुकुट अउ माथ मा ।

गनपति बिराजत छेंव कर,अउ माँझ लक्ष्मी साथ मा ।

तैं हाथ मा पुस्तक धरे,बइठे कमल के फूल मा,

करधन सजे पैजन बजे, मोती जड़े हे झूल मा ।

२/

नथली फभत हे सोनहा, मुंँदरी सुघर अँगरी लगत,

गर हार दुलरी तीलरी, चूरी रगड़र कंगन बजत ।


अँधियार मनके टारथस,गुन ग्यान दियना बारथस।

संसार के दुख मेट के, मन कुंदरा ला झारथस।

३/

सुर ला सजा धुन ला बजा, संगीत सिरजाथस तहीं,

भव पार बर पतवार बन,जग नाच नचवाथस तहीं।

मन नाद अनहत ला बजा,साधक सुजन ला तारथस,

बस मध्यमा अउ वैखरी, दुख ताप संकट टारथस ।।


शोभामोहन श्रीवास्तव

१६/०२/२०१९

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*बागेश्वरी सवैया*


*शारदा माई*


फभे रंग सादा धरे हाथ वीणा विराजे सदा श्वेत हंसा रहे।

सजे राग छेड़े हवे तार झंकार संसार मा ज्ञान गंगा बहे।

बने मूढ़ ज्ञानी भरे ज्ञान भंडार जेहा दुवारी म आके गहे।

दिये कंठ कोंदा उबारे तही शारदा माँ इही वेद ज्ञानी कहे।


चित्रा श्रीवास 

बिलासपुर छत्तीसगढ़

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छबि छन्द - सुखदेव सिंह'अहिलेश्वर'


"आ गे बसंत"


आ गे बसंत।

छा गे बसंत।

कहिदिन तुरंत।

कवि साधु संत।


ऋतुराज यार।

तैं सुख दुवार।

रस के फुहार।

मन के तिहार।


रसराज मोर।

तैं अस निपोर।

चोला ल मोर।

रस मा चिभोर।


गमकाय मोर।

सुनसान खोर।

डोंगर पहार।

घर खेत खार।


जम्मो जुगाड़।

भइगिस कबाड़।

सुनके दहाड़।

बिलमिस न जाड़।


स्वागत म तोर।

ऋतुराज मोर।

नाचय सनान।

सरसों जवान।


हे आस मोर।

परियास मोर।

झूलॅंव ग तोर। 

बइहॉं म लोर।


सुनलव हुजूर।

आहव जरूर।

बटकर मसूर।

होही ग चूर।


अब गॉंव गॉंव। 

होही बिहाव।

आही बरात।

दिन सॉंझ रात।


पगरइत मोठ।

ओसात गोठ।

धरही सहेज। 

पचहर दहेज।


माथा म काल।

परसा गुलाल।

देही ग सार।

होगे तिहार।


-सुखदेव सिंह'अहिलेश्वर'

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