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Tuesday, March 26, 2024

होली विशेषांक-छंदबद्ध कविता



 होली विशेषांक-छंदबद्ध कविता

 बरवै-छंद 🌹🌹


🙏गाँव-गाँव मा होली 🙏

 

गाँव-गाँव मा होली,गाथें फाग।

पावन फागुन महिना,छेंड़य राग।।


डहकी मांदर झुमका, बाजे झाँझ।

उड़त बुड़त ले खेलयँ, होगे साँझ।।


बने-बने मन दिखथें, कबरा चोर ।

गली सड़क सब भितिहा,रंगे खोर।।


देख बेवड़ा कतको, रेंगत झूम।

कइझन माते खुरचत,नइ दँय हूम।।


देखत लइका बाई, आँसू ढार।

जेन शराबी वो घर, बंठाधार।।


बरा सुहाँरी भजिया, कसके खाय।

कतको झन उछरत हें,जी पटियाय।।


धरे गुलाली पिंवरा, हरियर लाल।

नाक मुंँहू अउ मुन्डी, रचगे गाल।।


झूठ लबारी बारव, होले धाक।

पाप द्वेष अउ इरषा,होवय खाक।।


बढ़िया खावव गावव,सुघ्घर फाग।

छेड़ बसंती "बाबू", फगुवा राग ।।


कमलेश प्रसाद शर्माबाबू

 कटंगी गंडई

जिला केसीजी 

9977533375

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 कोन्हों पीये मंद हें, कोन्हों खाये भंग।

चाल ढाल मस्ती भरे, सम्हलत नइ हे अंग।।

 

दिखै चेहरा बेंदरा, पोताये हे रंग।

नाचत गावत फाग सब, माते हे हुड़दंग।।


हमर बुराई हा सबो ,जरै होलिका संग ।

ऊँच नीच के भेद बिन, लगै सबो ला रंग।।


जाति पाँति ला त्याग के, सुघ्घर परब मनाव।

बँधै प्रेम के डोर हा, अइसन रंग लगाव।।


 प्रेम रंग बरसै सदा,जिनगी रहै अँजोर।

देत बधाई भागवत, बिनती हे कर जोर।।


भागवत प्रसाद

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: कुण्डलिया छंद- 

होली खेलव मिल सबो


होली खेलव मिल सबो, रंग मया के घोर।

द्वेष भावना छोड़ दौ, बाँधव सुमता डोर।।

बाँधव सुमता डोर, रहव रख भाईचारा।

जाति-धर्म के नाम, करौ झन तुम बँटवारा।।

राहव मिल जुल मीत, कहौ नित मीठा बोली।

भरौ मया के रंग, सबो मिल खेलव होली।।


होवय झन बदनाम जी, दया मया के रीत।

होली के त्योहार मा, भर लौ मन मा मीत।।

भर लौ मन मा मीत, इही ये असल खजाना।

परंपरा के मान, सबो ला हवय निभाना।।

पुरखा के संस्कार, कभू झन संस्कृति खोवय।

गजानंद ये पर्व, हमर मनभावन होवय।।


इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"

बिलासपुर (छत्तीसगढ़)

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         (हाइकू घनाक्षरी)


पिंवरा फुले आरसी मुनगा ग  हय सफेद।

 होली ठिठोली म संगवारी संग   होंगे ग भेंट।।

डोंगरगढ़ म हो गे अइसे गजब   मयारू होली।

होंगे सफेद कमीज लाल जैसे चले ग गोली।।

कहत बीबी  निकलत न रंग  न छोड़ें लाली।

कोन अतका हिम्मत वाली दुहू  कस के गाली

                                       - बेदराम पटेल

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 शक्ति छंद------ फाग


मजा देख लेवत, हवै फाग के ।

जुड़े पोठ हमरो, मया ताग के ।।

लगे फूल मउहा, सबो डार मा ।

बने देख झूमत, हवय खार मा ।।


गली खोर माते, सबो के मजा ।

बने आज कसके, नँगारा बजा ।।

लगादे बने रंग,  ला गाल मा ।

चले फाग के गीत, अब ताल मा ।।


मुकेश उइके "मयारू"

ग्राम- चेपा, पाली कोरबा(छ.ग.)

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: होरी गीत

दुर्गा शंकर इजारदार के मनहरण घनाक्षरी छंद

शीर्षक 

(1) ब्रज म होरी

गोरी गोरी राधा रानी, रंग धरे आनी बानी ,

कन्हैया ला खोजत हे ,गोपी सखी संग हे ।

करिया ला करिया मा , अउ रंग फरिया मा ,

पोते बर करिया ला ,मन मा उमंग हे।

कदम के रुख तरी , खोजे गली खोल धरी ,

कन्हैया तो मिले नहीं ,राधा रानी तंग हे ।

कहत हे हाथ जोड़ ,आजा राधे जिद छोड़ ,

तोर बिना होरी के ये ,जीवन बेरंग हे ।।

(2)होरी के मउसम

परसा हा फूले हावै, आमा हर मौरे हावै ,

गुन गुन भौंरा करे, पीये जैसे भंग हे ।

कोयली हा गात हावै ,जिया हरसात हावै,

सरसों हा फूल के तो , झूमत मतंग हे ।

फागुन के रंग में तो ,सबो झन मात गे हे ,

सबो रंग मिल के तो ,होगे एक रंग हे ।

चार तेन्दू लोरी डारे ,मन ला तो मोही डारे,

मया अउ पिरित मा , भीगे अंग अंग हे ।


(3)अइसन होली खेलव

दया मया के तो डोरी ,बाँध खेलौ सब होरी ,

जात पाँत बैर भाव ,मन से निकालव गा ।

हरा पीला नीला लाल ,पोत डारौ मुँह गाल ,

छोटे बड़े सब संग ,मिल के मनालव गा ।

झन करौ हुड़दंग,छोड़ देवा दारू भंग ,

दूरिहा के काल झन, तीर मा बुलावव गा ।

कहत हँ हाथ जोड़ ,परत हँ पाँव तोर ,

सबो से तो नाता ला जी ,बने निभावव गा ।


(4) गजब होगे


गोरी के तो लाल गाल ,जब मैं रंगे गुलाल,

गुल गुल भजिया तो ,दिखत कमाल हे ,

गोरी के तो गाल देख ,सब होगे साव चेत ,

आरा पारा सबो अंग ,मचत बवाल हे ,

होली के बहाना कर ,गोरी के तो छूए गाल ,

पूछत हावय टूरा ,आगू का खयाल हे ,

गोरी मुसकात भारी ,मन मन देत गारी ,

मारे चटकन गोरी ,आगू टुरा गाल हे ।।

दुर्गाशंकर

********

 होरी परब - लावणी छंद 


हवय आज जब फागुन महिना, खुशी मनावँन मन मा।

मया रंग ले रंगभरन जी, घोरन मदरस तन मा।।1


सबला मीत बनावन भइया, जीयन ए जिनगानी ला ।

बरजन उधम मचइया मनला, टारन दुख के घानी ला ।।2


भाँग खाय कस अब जिनगी हे, चस्का छोड़न गोली के|

मया दया ले सबला सींचन, रंग रचावत होली के  ।।3


दारू गाँजा मा फदके ले, सना जथे 

सुग्घर तन हा|

नशा पान मा अब का उलझन, पना जथे समरत मन हा ||4


चेतन मन ला काबर कोनो, अवचेतन कर डारत हन| 

अपने मद मा झुमरत काबर, कइसन फेशन पारत हन||5

छंदकार-

अश्वनी कोसरे रहँगिया

कवर्धा कबीरधाम

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: *होली रंग बहार*


पहिली रतिहा होलिका, पाथे जलके काल।

फिर फागुन के पूर्णिमा, होथे पर्व विशाल।।

दिखथें सबके चेहरा, रंगे रंग गुलाल।

मिलथें जम्मों रंग हा, हाथ माथ अउ गाल।1।


पीला नीला अउ हरा, किसिम किसिम के अंग।

रंगव फगुआ रंग मा, मनखे मनखे संग।।

होली के त्यौहार हा, सुग्घर संस्कृति अंग।

दुख पीरा ला टार के, मन मा भरय उमंग।2।


आनी बानी रंग के, सबो डहर भरमार।

गाँव शहर मा छाय हे, होली रंग बहार।।

बैर भाव बिसराय के, होली हरे तिहार।

दया मया के रंग ला, सबके उप्पर डार।3।


रचना :- कमलेश वर्मा

छंद के छ, सत्र -09

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: सरसी छंद


रंग धरे हे परसा लाली, जस मँदार के फूल|

दुलहिन लागत हावय फागुन, जिवँरा  मारत हूल||


गली गली मा रंग उड़त हे, मिलके गावँय फाग|

रंग भंग मा रंग नँदागे, साजँय सुग्घर राग||


मया पिरित के छुटगे बँधना, झिनियागे सुख डोर|

मँदरस बोली तरसय चोला, करुहा के हे सोर||


सरपटप चाल सड़क हर भागे, उसनिदहा हे खोर।

रास रचइया कहाँ रचावय, कहाँ हें माखन चोर।।


कोन करय जग के रखवारी, काखर होवय सोर।

पपिहा कोयल तोता मैना, उड़गें छइहाँ छोर।।


छंदकार-

अश्वनी कोसरे रहँगिया

पोंड़ी कवर्धा कबीरधाम

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: कुण्डलिया - छंद


धरती अंबर छा गइस, चारो ओर गुलाल। 

बैर भाव ला छोड़ के, रँगव सबो के गाल।। 

रँगव सबो के गाल, देख अब आगे होरी। 

रंग मया के डार, बधाई देवव कोरी।। 

कहे शिशिर सच बात, फाग हर नोहय सस्ती। 

महँगी रख मनुहार, रँगव जी अंबर धरती।। 


पावन भुइँया देश मा, होली रंग तिहार। 

भेद भाव हा दूर हो, नीक रखव व्यवहार।। 

नीक रखव व्यवहार, रहय मनखे के बँधना। 

डार मया के हार, महक ही सबके अँगना।। 

कहे शिशिर सच बात, सबो घर आवन जावन। 

उड़ही रंग गुलाल, तभे भुइँया हो पावन।। 


सुमित्रा शिशिर

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: *कुंडलिया छंद*

*विषय-होली*


होली मन भर खेल ले, मया रंग ला बाँट।

मन के खटखट छोड़के, मनखे ला    तँय साँट।।

मनखे ला तँय साँट, मया के बाँटा करले।

दया-मया के रंग, हाथ मा संगी धरले।।

जिनगी हे दिन चार, गोठिया हँसी-ठिठोली।

भर पिचकारी मार, खेल तँय मन भर होली।।


*अनुज छत्तीसगढ़िया*

*पाली जिला कोरबा*

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छन्न पकैया छंद- होरी


छन्न पकैया छन्न पकैया, मनभानव हे होली|

ड॓डा नाचँय माँदर बाजय, निकरे घर ले टोली||


छन्न पकैया छन्न पकैया, फागुन सोर उड़ागे|

गली खोर पुर चक चौंरा मा, मया रंग बरसागे||


छन्न पकैया छन्न पकैया, चुरगे डुबकी कड़ही|

छंद राग मनभावन लागे, दिनभर होरी उड़ही||


छन्न पकैया छन्न पकैया, गुझिया पाग धरागे |

छंद गीत ले होरी खेलत, आँसो फगुवा जागे ||


छन्न पकैया छन्न पकैया, बाजत हवय नँगारा|

गावत बैठे राग फगुनवा ,झोकँय झारा झारा||


छंदकार-

अश्वनी कोसरे रहँगिया

कवर्धा कबीरधाम

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: छन्न पकैया छन्द 

16-12


छन्न पकैया- छन्न पकैया,आजा राधा गोरी।

बृंदाबन में धूम मचे हे,सँगे खेलबो होरी।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया,हरियर पिँवरा लाली।

रंग ल धरके आहूँ मँय हा,आ जाबे तँय काली।।


छन्न पकैया- छन्न पकैया,नइ आवँव मँय बिलवा।

रंग म मोला तँय नहवाबे,सँग हे ग्वाला मितवा।।


छन्न पकैया- छन्न पकैया,झन कर आना कानी।

आथे साल गये मा होली,आजा राधा रानी।।


छन्न पकैया- छन्न पकैया,करथस तँय बरजोरी।

भर पिचकारी मारत जाथस,कही सरारा होरी।।


छन्न पकैया- छन्न पकैया, ले आ सखियाँ टोली ।

मया रंग ला आज लगाके, करबो हॅंसी ठिठोली ।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया,आगे सखियाँ सारी।

देखे मोहन खुश होके तब,मारत हे पिचकारी।।


छन्न पकैया- छन्न पकैया, देखत हे नर नारी ।

बरजोरी झन करबे कान्हा,खाबे नइतो गारी।।


छन्न पकैया- छन्न पकैया,  भींगे चुनरी चोली ।

नाचे राधा कान्हा के सँग,खूब मनावत होली ।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया,बाजे ढोल नँगारा।

ग्वाल बाल मन नाचन लागे,बनके गा हुरियारा।।


केवरा यदु"मीरा"राजिम

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.     *वसन्ती वर्मा के सरसी छंद* 


                       *होरी* 

                        ---

लाली लाली परसा फूले,आगे फागुन मास।

धर पिचकारी होरी खेलें,देख बहुरिया सास।1।


मया पिरीत ला बाँटे होरी,मन मइलाये धोय।

जुन्ना झगरा अइसन टोरे,झगरा फेर न होय।2।


बाजे माँदर ढोल नंगाड़ा,गाँव म चौकी आँट।

गुजिहा भजिया बरा बनाबो,खाबो मिल सब बाँट।3।


रंग धरे हँव लाली पिंवरा,होरी- आज तिहार।

हाँसव खेलँव होरी मैं जी,जोही- संग हमार।4।



            *अमरइया के छाँव* 

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रंग धरे आइस वासन्ती,मउरे आमा फूल।

बइठे हावय कोयल कारी,गावय झुलना झूल।1।


आमा डारा मउरे घम- घम,हरियर- हरियर पान।

लागय लुगरा पिंवरा पहिरे,दुलहिन जइसन जान।2।


महर- महर महकय अमरइया,सुनें चिरइयाँ चाँव।

गीत सुनें कोयल कारी के,बइठे आमा छाँव।3।


आमा के डारा मा बइठे,देख सुवा इतराय।

हमर दुनों के जोड़ी संगी,सब्बो झन सहराँय।4।


देखें झट ले संझा होगे,संझा ले अब रात।

मन मा आशा धर के राखौं,भूलौं दुख के बात।5।


            *वसन्ती वर्मा* 

                बिलासपुर

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/फागुन के होरी/ सार छंद

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फागुन महिना सुग्घर होरी,

                        रंग गुलाल उड़ाबो।

भेद भाव ला छोड़ सबोझन,

                   मिलके खुशी मनाबो।।


आय बसन्ती पुरवाई मा,

                       डारा   पाना   झूले।

देख-देख मन भौंरा नाचे,

                        लाली परसा फूले।।

रास रंग मा डूब चलौ जी,

                       गीत फाग के गाबो।

फागुन महिना सुग्घर होरी...........


धर पिचकारी छरा ररा जी,

                        इक दूसर ला मारौ।

बैरी दुश्मन अपन बनाके,

                         रंग मया के डारौ।।

आवौ जम्मों मिल जुर संगी,

                        ढोल मृदंग बजाबो।

फागुन महिना सुग्घर होरी...........


कउनो लाली, पींयर, हरियर,

                         रंग गुलाल सनाये।

होरी खेलत दुःख भुलावत,

                         नर नारी बइहाये।।

नशा भाँग के चढ़गे भैया,

                      अब कइसे उतराबो।

फागुन महिना सुग्घर होरी............

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रचनाकार:-

बोधन राम निषादराज"विनायक"

सहसपुर लोहारा,जिला-कबीरधाम(छ.ग.)

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: बरवै छन्द-

होली


जलगे संगी होली, बइठव आव।

बाजत हवय नँगारा, फगुआ गाव।


मिल गाबो जी घर-घर, पीरित राग।

दया-मया के मन मा, बाँधन ताग।


इरखा, दोखी, छल अउ, तज अभिमान।

हवन बरोबर सब झन, एकै जान।


भेदभाव छोड़न हे, सबो समान।   

ऊँचा ना नीचा सब, मनखे आन।


चलही अब पिचकारी, भर-भर रंग।

लइका-पिचका गाहीं, संगी संग।


रंग-रंग मा भीजन, लगै गुलाल।

झूम नाचबो चल ना, दे दे ताल।


चोरो-बोरो होहीं, बारा हाल।

जमके खेलन होरी, ऐसो साल।


हेमलाल सहारे

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: छन्न पकैया छन्न पकैया, देखव फागुन आगे।

बाढ़े लागे दिन हा तिल तिल,जाडा़ कसके भागे।।

छन्न पकैया छन्न पकैया, खेलव मिलजुल होली।

बाँधव बँधना मन ले मन के,बोलव सुग्घर बोली।।

छन्न पकैया छन्न पकैया,हरियर पींयर लाली।

चीन्हे  सकथे कोनो ना ही,दिखथे मुख हा काली।

छन्न पकैया छन्न पकैया, मारे हे  पिचकारी।

भीजें हावय तन मन देखव,अउ भींजे हे सारी।।

छन्न पकैया छन्न पकैया ,ढोल नगारा बाजे।

झूमत नाचत गावत हावय,नवा साज ला  साजे।



चित्रा श्रीवास

सीपत बिलासपुर

छत्तीसगढ़

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 *होली के हार्दिक बधाई एवं शुभकामना*

*मोद सवैया*


रंग लगा अउ अंग सजा मन मैल हटा जी ले सँगवारी |

पींवर लाल गुलाल धरे जन निच्चट कोनो हावय कारी ||

छोड़ गुमान सबो झन ले रख तीर   पटा ले जी तँय तारी |

भेद मिटा हिरदे भर रंग मया रस होली के पिचकारी ||


अशोक कुमार जायसवाल

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 *होली* (सार छंद)

नाचत गावत धूम मचावत,आवत हे हमजोली।

रंग गुलाल लगाके जुरमिल ,खेलत हें सब होली।


कोनो पिंवरा कपड़ा पहिरे, कोनो पहिरे सादा।

कोनो मारे लिटिल पैक अउ, कोनो मारे जादा।

मजा उड़ावत हावय अड़बड़,देखव इंकर टोली।

रंग गुलाल लगाके जुरमिल,खेलत हें सब होली।


फाग गीत के धुन मा सबझन,नाचत हावय भारी।

नन्द लाल के रूप धरे हे ,मारत हें पिचकारी।

लइका बुढ़वा जम्मो झन सब,अड़बड़ करत ठिठोली।

रंग गुलाल लगाके जुरमिल,खेलत हें सब होली।


माते हावय सबझन संगी, पीके अड़बड़ दारू।

घर के आगू के नाली मा, गिरगे हवय समारू।

डगमग डगमग रेंगत हावय,खाय भांग के गोली।

रंग गुलाल लगाके जुरमिल,खेलत हें सब होली। 


मन ले इर्ष्या द्वेष भुलाके, रंग लगावत लाली।

जात पात तज गला मिलत हे, मानवता के माली।

मीठ मीठ बोलत हावय सब,अड़बड़ गुरतुर बोली।

रंग गुलाल लगाके जुरमिल, खेलत हें सब होली।


रचनाकार 

अमृत दास साहू 

ग्राम - कलकसा, डोंगरगढ़

जिला - राजनांदगांव (छ.ग.)

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: उत्सव परब तिहार 


उत्सव परब तिहार जुरे हे, हम सबके जिनगानी ले।

जिनगानी के तार जुरे हे, खेत किसान किसानी ले।


मन के हे संबंध पेट ले, पेट भरत भर जाथे मन।

सुख के सोत अनाज अन्न ए, पुरुप गवाही हे जीवन।


मनखे ले मनखे के नाता, जुरे सुमत के डोरी मा।

सुख के रंग खुशी बड़ देथे, परगट दिखथे होरी मा।


भलमनशुभा असीस दुआ हर, मिलथे मीत-मितानी ले।

उत्सव परब तिहार जुरे हे, हम सबके जिनगानी ले।


पतझर देख लगाम लगाथे, जेहर तीन-परोसा मा।

ऋतु बसंत उल्होथे पाना, भरथे रंग भरोसा मा।


पाख अँजोरी फागुन पुन्नी, ओन्हारी के होरा हे।

रंग परब बर रंग-रंग के, तुक-तुक तोरा-जोरा हे। 


परय रंग मा भंग न कखरो, बिपदा बादर-पानी ले।

उत्सव परब तिहार जुरे हे, हम सबके जिनगानी ले।


रचना-सुखदेव सिंह 'अहिलेश्वर'

गोरखपुर कबीरधाम छत्तीसगढ़

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दुर्मिल सवैया(पुरवा)


सररावत  हे  मन  भावत  हे  रँग फागुन राग धरे पुरवा।

घर खोर गली बन बाग कली म उछाह उमंग भरे पुरवा।

बिहना मन भावय साँझ सुहावय दोपहरी म जरे पुरवा।

हँसवाय कभू त रुलाय कभू सब जीव के जान हरे पुरवा।

खैरझिटिया

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झन बिगाड़ होली मा बोली- गीत(चौपाई छंद)


चिल्लाथस बड़ होली होली, लोक लाज के फाटक खोली।

झन बिगाड़ होली मा बोली, झन बिगाड़ होली मा बोली।।


मया पिरित के ये तिहार मा, द्वेष रहे झन तीर तार मा।

बार बुराई होली रचके, चल गिनहा रद्दा ले बचके।।

उठे कभू झन सत के डोली, पथ चतवार असत ला छोली।

झन बिगाड़ होली मा बोली, झन बिगाड़ होली मा बोली।।


बजा नँगाड़ा झाँझ मँजीरा, नाच नाच दुरिहा दुख पीरा।

समा जिया मा सब मनखे के, दया मया नित ले अउ दे के।

छीच मया के रँग ला घोली, बना बने मनखे के टोली।

झन बिगाड़ होली मा बोली, झन बिगाड़ होली मा बोली।।


एखर ओखर खाथस गारी, अबड़ मताथस मारा मारी।

भाय नही कोनो हर तोला, लानत हे अइसन रे चोला।।

दारू पानी गाँजा गोली, गटक कभू झन मिल हमजोली।।

झन बिगाड़ होली मा बोली, झन बिगाड़ होली मा बोली।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

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