मजदूर अउ बासी दिवस विशेष-छंदबद्ध सृजन
नारायण वर्मा बेमेतरा: *छंद कुंडलियाँ-बासी*
रथिया बाँचे भात ला,पानी संग मिलाय।
करके चानी गोंदली,माईपिल्ला खायँ।।
माईपिल्ला खायँ,नहा धो करै मुखारी।
होगे कहूँ अथान,मजा तब आथे भारी।।
पेट रहे दलगीर,ससन भर पीयव पसिया।
राखै देह निरोग, बिहनिया मँझनी रथिया।।01।।
खावौ बासी तान के,सुरपुट सैंया रोज।
ना चुटकी भर नून ला,साग पान झन खोज।।
साग पान झन खोज,आजकल बड़ महँगाई।
हे गरीब पकवान, मान तैं आय मिठाई।।
राँध एक घँव भात,मजा दू बेर उड़ावौ।
ईंधन घलो बचाव,तात अउ ठंडा खावौ।।02।।
बाढ़े भाव अनाज के,होय नहीं बरबाद।
अड़बड़ होथे पुष्टई,सेहत संग सुवाद।।
सेहत संग सुवाद,ताकथे दिन भर हड़िया।
खनिज तत्व भरपूर, देह ला राखे बढ़िया।।
गरमी नही जनाय,भागथे लू हर ठाढ़े।
काटै सबो बियाद, कब्ज हर जेखर बाढ़े।।03।।
छत्तीसगढ़ी शान हे,आय कलेवा जान।
राखै सदा जवान तन,बासी गुन के खान।।
बासी गुन के खान,खवैया खुश हो जाथे।
जानै जेन सुवाद,परोसा ले ले खाथे।।
बाढ़े आँखी जोत,खाय बासी संग कढ़ी।
रचे बसे मन प्राण, मयारू छत्तीसगढ़ी।।04।।
बासी खा पुरखा हमर,करिन सदा दिन काज।
परम्परा फैशन बने, लोगन मन बर आज।।
लोगन मन बर आज,लेत हें सेल्फी भारी।
छाये फोटूबाज,दिखावा हरै बिमारी।।
बात कोन पतियाय,केउ झन खाय तियासी।
*चंदन* बिना बताय,खात हे कतको बासी।।05।।
नारायण प्रसाद वर्मा *चंदन*
ढ़ाबा-भिंभौरी, बेमेतरा (छ.ग.)
7354958844
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ज्ञानू मजदूर
भूख प्यास मजदूर, करथे बूता रातदिन।
जीये बर मजबूर, तंगहाल मा देखलौ।।
स्वारथ मा हे लोग, कोन समझथे दुख इँखर।
लगे हवै का रोग, चूसत दुनिया खून हे।।
सपना लगे अँजोर, अँधियारी घपटे हवै।
नवा सुरुज सुख भोर, कब उगही जिनगी इँखर ।।
सिर मा नइये छाँव, हाल बुरा मजदूर के।
उँखरा हावय पाँव, कपड़ा तन मा हे कहाँ।।
काम इँमन चुपचाप, भूख प्यास रहिथे करत।
जिनगी ले संताप, कइसे होही दूर अब।।
ज्ञानु
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*त्रिभंगी छंद - मजदूर*
हो हलाकान ये,दे परान ये,अपने दम मा,काम करै।
भोजन पाये बर,सुख लाये बर,जिनगी दुख के,नाम करै।।
दुनिया सिरजइया,इही कमइया,गाँव शहर मा,शोर हवै।
करथे मजदूरी,हो मजबूरी,महिनत इँखरे,जोर हवै।।
रचना-
बोधन राम निषादराज
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ज्ञानू : बासी
का गुण गावँव बासी के
टॉनिक हमर थकासी के
दूर करै ताप बदन के
दुश्मन आय उँघासी के
बीपी सुगर करै कंट्रोल
का मालिक का दासी के
हम गरीब के भोजन ए
रोये के नइ हाँसी के
दर्शन एमा हो जाथे
मथुरा, काबा, काशी के
चटनी बासी खाऔ रोज
नाम जपौ अविनाशी के
मान हमर पहिचान हमर
छत्तीसगढ़ के वासी के
ज्ञानु
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राज निषाद: *छप्पय छंद-बासी*
खावौ बासी रोज, दूर होही बिमारी।
पोषक हे प्रोटीन, देत हे ताकत भारी।।
बोरे बासी आज, पेट भर तँय हा खा ले।
आमा चटनी संग, स्वाद जी मन भर पा ले।।
नून बने जी डार के, दही संग मा खाव गा।
लान गोंदली चान के, सुग्घर मजा उड़ाव गा।।
*राज*
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विजेन्द्र: मजदूर दिवस पर दुर्मिल सवैया।
मजदूर
सरदी गरमी बरसात रहै,सबके अउ काम उही करथे।
नद नाल सरोवर बाँध बना,सबके दुख पीर उही हरथे।
मजदूर कहावय गा जग मा,श्रम के बलिदान करे मरथे।
निरमान करे नव भारत के,तब पेट घलो उकरे जरथे।
कतका बलवान हवै भइया,सबके अउ बोझ उठाय चले।
अबड़े उपकार करे उन हा,जिनगी अँधियार बिताय चले।
सुविधा सुख ले अउ दूर रहै,पर के सुख ला सिरजाय चले।
मरहा जरहा कचरू बुधिया,जकला अउ नाँव धराय चले।
खुद के दुख हा खुद ला दिखथे,पर के दुख ला अब कोन सुने।
पहिरे फटहा चिथरा कुरता, इकरे कुरता अब कोन तुने।
अउ घाव दिखे कतका गहरा,पर पीर कहाँ अब कोन गुने।
दुख सौंप इहाँ तँय हा प्रभु ला,तकलीफ उहीच निमार फुने।
विजेंद्र कुमार वर्मा
नगरगाँव (धरसीवाँ)
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बासी दिवस अउ मजदूर दिवस के सादर बधाई
बासी खावै रोज के, दँदर दँदर ते रोय।
फोटू खिंचवा एक दिन, खरतरिहा हे होय।।
गीत--बासी बासी बासी के हल्ला
साग दार कमती पड़ जाथे, पुरे न राशन राशि।
तब खाथौं मैं चटनी सँग मा, नून डार के बासी।।
काम बूता बर होत बिहनया, पड़थे जल्दी जाना।
जुड़े जुड़ मा काम सिधोथँव, खाके बासी खाना।
बिन गुण जाने पेट भरे बर, खाथँव बारा मासी।
साग दार कमती पड़ जाथे, पुरे न राशन राशि।
तब खाथौं मैं चटनी सँग मा, नून डार के बासी।।
बड़ही कहिके बँचे भात ला, बोर देथौं मैं रतिहा।
सीथा खाथौं चारेच कौंरा, पेट भर पीथौं पसिया।
पर के हाड़ी के गंध सुंघ के, लगथे गजब ललासी।
साग दार कमती पड़ जाथे, पुरे न राशन राशि।
तब खाथौं मैं चटनी सँग मा, नून डार के बासी।।
छोट कुड़ेड़ा के बासी तक, घर भर ला पुर जाथे।
सीथा अउ पसिया हा मिलके, भूख पियास दुरिहाथे।
महल अटारी बाँध बाँधथँव, करथौं बाँवत बियासी।
साग दार कमती पड़ जाथे, पुरे न राशन राशि।
तब खाथौं मैं चटनी सँग मा, नून डार के बासी।।
बासी खावत उमर गुजरगे, होगे जर्जर काया।
नाँगर पुरतिन जाँगर मिलथे, राम मिले ना माया।
बासी खवइया बासी होगे, हो गे जग मा हाँसी।
साग दार कमती पड़ जाथे, पुरे न राशन राशि।
तब खाथौं मैं चटनी सँग मा, नून डार के बासी।।
मोर दरद देखिस नइ कोनो, देख डरिस बासी ला।
महल भीतरी बासी खाइस, बूता जोंग दासी ला।
भूख बैरी ला बासी चढ़ाथौं, मान के मथुरा काँसी।
साग दार कमती पड़ जाथे, पुरे न राशन राशि।
तब खाथौं मैं चटनी सँग मा, नून डार के बासी।।
जीतेंन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को,कोरबा(छग)
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रोला छंद
मजबूर मैं मजदूर
करहूँ का धन जोड़, मोर तो धन जाँगर ए।
रापा गैंती संग, मोर साथी नाँगर ए।
मोर गढ़े मीनार, देख लौ अमरे बादर।
मोर धरे ए नेंव, पूछ लौ जाके घर घर।
भुँइया ला मैं कोड़, ओगराथौं नित पानी।
जाँगर रोजे पेर, धरा ला करथौं धानी।
बाँधे हवौं समुंद, कुँआ नदिया अउ नाला।
बूता ले दिन रात, हाथ मा उबके छाला।
घाम जाड़ आषाढ़, कभू नइ सुरतावौं मैं।
करथौं अड़बड़ काम, तभो फल नइ पावौं मैं।
हावय तन मा जान, छोड़ दौं महिनत कइसे।
धरम करम ए काम, पूजथौं देवी जइसे।
चिरहा ओन्हा ओढ़, ढाँकथौं करिया तन ला।
कभू जागही भाग, मनावत रहिथौं मन ला।
रिहिस कटोरा हाथ, देख वोमा सोना हे।
भूख मरौं दिन रात, भाग मोरे रोना हे।
आँखी सागर मोर, पछीना यमुना गंगा।
झरथे झरझर रोज, तभे रहिथौं मैं चंगा।
मोर पार परिवार, तिरिथ जइसन सुख देथे।
फेर जमाना कार, अबड़ मोला दुख देथे।
थोर थोर मा रोष, करैं मालिक मुंसी मन।
काटत रहिथौं रोज, दरद दुख डर मा जीवन।
मिहीं बढ़ाथौं भीड़, मिहीं चपकाथौं पग मा।
अपने घर ला बार, उजाला करथौं जग मा।
पाले बर परिवार, नाँचथौं बने बेंदरा।
मोला दे अलगाय, बदन के फटे चेंदरा।
कहौं मनुष ला काय, हवा पानी नइ छोड़े।
ताप बाढ़ भूकंप, हौसला निसदिन तोड़े।।
सच मा हौं मजबूर, रोज महिनत कर करके।
बिगड़े हे तकदीर, ठिकाना नइहे घर के।
थोरिक सुख आ जाय, विधाता मोरो आँगन।
महूँ पेट भर खाँव, रहौं झन सबदिन लाँघन।।
मोर मिटाथे भूख, रात के बोरे बासी।
करत रथौं नित काम, जाँव नइ मथुरा कासी।
देखावा ले दूर, बिताथौं जिनगी सादा।
चीज चाहथौं थोर, मेहनत करथौं जादा।
आँधी कहुँती आय, उड़ावै घर हा मोरे।
छीने सुख अउ चैन, बढ़े डर जर हा मोरे।
बइठ कभू नइ खाँव, काम मैं मांगौं सबदिन।
करके बूता काम, घलो काँटौं दिन गिनगिन।
जीतेंद्र वर्मा"खैरझिटिया"
बालको(कोरबा)
9981441795
मजदूर दिवस अमर रहे,,,,
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गीतिका छंद-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
हे गजब मजबूर ये,मजदूर मन हर आज रे।
पेट बर दाना नहीं,गिरगे मुड़ी मा गाज रे।।
रोज रहि रहि के जले,पर के लगाये आग मा।
देख लौ इतिहास इंखर,सुख कहाँ हे भाग मा।।
खोद के पाताल ला,पानी निकालिस जौन हा।
प्यास मा छाती ठठावत,आज तड़पे तौन हा।
चार आना पाय बर, जाँगर खपावय रोज के।
सुख अपन बर ला सकिस नइ,आज तक वो खोज के।
खुद बढ़े कइसे भला,अउ का बढ़े परिवार हा।
सुख बहा ले जाय छिन मा,दुःख के बौछार हा।
नेंव मा पथरा दबे,तेखर कहाँ होथे जिकर।
सब मगन अपनेच मा हे,का करे कोनो फिकर।
नइ चले ये जग सहीं,महिनत बिना मजदूर के।
जाड़ बरसा हा डराये, घाम देखे घूर के।
हाथ फोड़ा चाम चेम्मर,पीठ उबके लोर हे।
आज तो मजदूर के,बूता रहत बस शोर हे।।
ताज के मीनार के,मंदिर महल घर बाँध के।
जे बनैया तौन हा,कुछु खा सके नइ राँध के।
भाग फुटहा हे तभो,भागे कभू नइ काम ले।
भाग परके हे बने,मजदूर मनके नाम ले।।
दू बिता के पेट बर,दिन भर पछीना गारथे।
काम करथे रात दिन,तभ्भो कहाँ वो हारथे।
जान के बाजी लगा के,पालथे परिवार ला।
पर ठिहा उजियार करथे,छोड़ के घर द्वार ला।
आस आफत मा जरे,रेती असन सुख धन झरे।
साँस रहिथे धन बने बस,तन तिजोरी मा भरे।
काठ कस होगे हवै अब,देंह हाड़ा माँस के।
जर जखम ला धाँस के,जिनगी जिये नित हाँस के।
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को,कोरबा(छग)
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आल्हा छन्द - जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया
गरमी घरी मजदूर किसान
सिर मा ललहूँ पागा बाँधे,करे काम मजदूर किसान।
हाथ मले बैसाख जेठ हा,कोन रतन के ओखर जान।
जरे घाम आगी कस तबले,करे काम नइ माने हार।
भले पछीना तरतर चूँहय,तन ले बनके गंगा धार।
करिया काया कठवा कस हे,खपे खूब जी कहाँ खियाय।
धन धन हे वो महतारी ला,जेन कमइया पूत बियाय।
धूका गर्रा डर के भागे , का आगी पानी का घाम।
जब्बर छाती रहै जोश मा,कवच करण कस हावै चाम।
का मँझनी का बिहना रतिहा,एके सुर मा बाजय काम।
नेंव तरी के पथरा जइसे, माँगे मान न माँगे नाम।
धरे कुदारी रापा गैतीं, चले काम बर सीना तान।
गढ़े महल पुल नँदिया नरवा,खेती कर उपजाये धान।
हाथ परे हे फोरा भारी,तन मा उबके हावय लोर।
जाँगर कभू खियाय नही जी,मारे कोनो कतको जोर।
देव दनुज जेखर ले हारे,हारे धरती अउ आकास।
कमर कँसे हे करम करे बर,महिनत हावै ओखर आस।
उड़े बँरोड़ा जरे भोंभरा,भागे तब मनखे सुखियार।
तौन बेर मा छाती ताने,करे काम बूता बनिहार।
माटी महतारी के खातिर,खड़े पूत मजदूर किसान।
महल अटारी दुनिया दारी,सबे चीज मा फूँकय जान।
मरे रूख राई अइलाके,मरे घाम मा कतको जान।
तभो करे माटी के सेवा,माटी ला महतारी मान।
जगत चले जाँगर ले जेखर,जले सेठ अउ साहूकार।
बनके बइरी चले पैतरा,मानिस नहीं तभो वो हार।
धरती मा जीवन जबतक हे,तबतक चलही ओखर नाँव।
अइसन कमियाँ बेटा मनके, परे खैरझिटिया हा पाँव।
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को(कोरबा)
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जयकारी छन्द- बासी
जरे घाम मा चटचट चाम, लगे थकासी रूकय काम।
खेवन खेवन गला सुखाय, बदन पछीना मा थर्राय।
चले हवा जब ताते तात, भाय नही मन ला जब भात।
चक्कर घेरी बेरी आय, तन के ताप घलो बढ़ जाय।
घाम झाँझ मा पेट पिराय, चैन चिटिक तन मन नइ पाय।
तब खा बासी दुनो जुवार, खाके दुरिहा जर बोखार।
बासी खाके बन जा वीर, खेत जोत अउ लकड़ी चीर।
हकन हकन के खंती कोड़, धार नदी नरवा के मोड़।
गार पछीना बिहना साँझ, सोन उगलही धरती बाँझ।
सड़क महल घर बाँध बना, ताकत तन के अपन जना।
खुद के अउ दुनिया के काम, अपन बाँह मा ले चल थाम।
करके बूता पाबे मान, बन जाबे भुइयाँ के शान।
सुनके बासी मूँदय कान, उहू खात हे लान अथान।
खावै बासी पेज गरीब, कहे तहू मन आय करीब।
खावत हें सब थारी चाँट, लइका लोग सबे सँग बाँट।
बासी कहिके हाँसे जौन, हाँस हाँस के खावै तौन।
बासी चटनी के गुण जान, खाय अमीर गरीब किसान।
पिज़्ज़ा बर्गर चउमिन छोड़, खावै सबझन माड़ी मोड़।
बदलत हे ये जुग हा फेर, लहुटत हे बासी के बेर।
बड़े लगे ना छोटे आज, बासी खाये नइहे लाज।
बासी बासी के हे शोर, खावै नून मही सब घोर।
भाजी चटनी आम अथान, कच्चा मिरी गोंदली चान।
बरी बिजौरी कड़ही साग, मिले संग मा जागे भाग।
बासी खाके पसिया ढोंक, जर कमजोरी के लू फोंक।
करे हकन के बूता काम, खा बासी मजदूर किसान।
गर्मी सर्दी अउ आसाढ़, एको दिन नइ होवै आड़।।
जीतेंन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को,कोरबा(छग)
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शोभन छंद
चान चानी गोंदली के, नून संग अथान।
जुड़ हवै बासी झडक ले, भाग जाय थकान।
बड़ मिठाथे मन हिताथे, खाय तौन बताय।
झाँझ झोला नइ धरे गा, जर बुखार भगाय।
जीतेंन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को,कोरबा(छग)
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दुर्मिल सवैया-मजदूर
मजदूर रथे मजबूर तभो दुख दर्द जिया के उभारय ना।
पर के अँगना उजियार करे खुद के घर दीपक बारय ना।
चटनी अउ नून म भूख मिटावय जाँगर के जर झारय ना।
सिधवा कमियाँ तनिया तनिया नित काज करे छिन हारय ना।
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को,कोरबा(छग)
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बासी(जयकारी छंद)
सबो विटामिन हवय भराय। बासी सब ला गजब मिठाय।।
खाबे तब तन तको जुड़ाय। कतको बीमारी दुरियाय।।
मही दही सन झोझो झोर। नून चिटिक गा देवव घोर।।
जरी अमारी के अउ साग।खाबे तब सँवरे गा भाग।।
का मँझनी का बिहना रोज। बासी खावव रेंगव सोज।।
कहाँ जनाथे कतको घाम।चमक जथे गा सुग्घर चाम।।
बासी खाके सब मजदूर। काम बुता करथे भरपूर।।
ठंडा रहिथे तभे शरीर। भगा जथे कतको गा पीर।।
सेहत बर जानव वरदान। बासी दूर भगाय थकान।।
गरमी झोला झक्कर घाम। इही लगाथे बने लगाम।।
विजेंद्र कुमार वर्मा
नगरगाँव (धरसीवाँ)
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बासी (मजदूर दिवस)
इॅंकर कमाई के परसादे, उनकर महल अटारी हे।
कहाॅं भाग मा घीव पराठा, बासी हा फरहारी हे।
बासी सुनके नाक सिकोड़े, वो चम्मच मा झड़कत हे।
बहिरुपिया के दिल हा कैसे, आज लफालफ धड़कत हे।
बोरे बासी मा कतको मन ,चमकावतहें ताज अपन।
एसी मा बैठे चतुरा मन, तोपत ढाकत राज अपन।।
बिलमें रहि जा भकुवाये कस, आगू के तैयारी हे।
इॅंकर भाग मा कहाॅं पराठा, बासी हा फरहारी हे।
दू रोटी बर गार-पसीना, सुबे-शाम जे टघलत हें।
इॅंकर भरोसा धनीमनी मन, चाब-चाब के चघलत हें।।
बइठाॅंगुर मन कहाॅं जानही, घाम-झाॅंझ के ऑंच कतिक।
गीत-गजल के टोर-भाॅंज मा,कलम हर्फ के साॅंच कतिक।।
जाॅंगर-टोरत खटथे तबले, ये उन्ना पेट उधारी हे।
इॅंकर भाग मा कहाॅं पराठा, बासी हा फरहारी हे।
घरवाले के सिधवापन मा ,बाहिर वाले जामत हें।
नगर-शहर पाई-परिया मा, अमरबेल कस लामत हें।
ठग्गू-जग्गू परदेशी मन,भोगत हाॅंवय राज इहाॅं।
लोटा वाले यायावर के, चउॅंक-चउॅंक मा लाज इहाॅं।।
पुरखा के छइहाॅं-भुइयाॅं मा,उनकर ठेकेदारी हे।
इॅंकर भाग म कहाॅं पराठा, बासी हा फरहारी हे।
महेंद्र बघेल
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कमिया,( मजदूर ) दिवस एवम बासी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।
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(जयकारी छन्द)
कमिया जांगर टोर कमाय
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कमिया जांगर टोर कमाय।लेकिन बढ़िया दाम न पाय।
जावय बेरा उगते ख़ार।बाँधय ओहर मूँही पार।
चटनी बासी बिकट सुहाय।जेला धर बनिहारिन लाय।
दिनभर करथे अड़बड़ काम।जेखर पड़गे कमिया नाम।
करके मिहनत ओ दुख पाय।कइसे घर मे राशन लाय।
कइसे लइका अपन पढ़ाय ।ओ पइसा मुसकिल म कमाय।
पेट बिकाली भटकत जाय।कोनो कोती ठउर न पाय।
लाँघन भूखन सूतत जाय।कइसे ओ खुशहाली लाय।
कमिया जांगर टोर कमाय। लेकिन बढ़िया दाम न पाय।
जावय बेरा उगते ख़ार ।बाँधय ओहर मूँही पार।
रचनाकार-डॉ तुलेश्वरी धुरंधर अर्जुनी ,बलौदाबाजार,छत्तीसगढ़
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