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Friday, August 22, 2025

छंदबद्ध कविता-अशिक्षा

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 घनाक्षरी छंद 

अशिक्षा 


अपढ़ गंवार मन,सोचे न कोनो जतन,

पिछवाय सबों काज, घुन कस कीरा हे।

भीतर-भीतर खाय, बुधि ल घलो घुमाय,

अशिक्षा विकास बर 

जिनगी के पीरा हे।

शिक्षा लाथें ज्ञान जोत,मान देत नता गोत,

परिवार के अधार,मुंह पान बीरा हे।

परिवार आघु बढ़े, समाज बिकास गढ़े,

पढ़ें लिखे मनखे ह,चमकत हीरा हे।।


अशिक्षा हे अंधियार,रोके सब बढ़वार,

रोग बढ़ महामारी, बड़का अभिशाप।

दुनियादारी ब्यौहार,हवे अशिक्षा  विकार,

आघु बढ़ो बंद द्वार, चिंता भूख के ताप।

बाढही समझदारी, शिक्षा बर अधिकारी,

तोल मोल बोल बोले, 

नीयत लेथें भांप।

बड़े बड़े काम करें, कखरों ले नहीं डरें,

भेदभाव दूर करें, कठिन रद्दा नाप।।


अशिक्षा ले मति मरे,बैल कस काम करें,

आघु,पाछु सदा घूमें,सोच न विचार हे।

सबों दुख के हे जड़, अशिक्षा ला दूर कर,

होही सब खुशहाल, विकास  के द्वार हे।

नर नारी पढ़ गढ़, गुरु के चरण धर,

अंतस हो उजियार, ज्ञान के आधार हे। 

अशिक्षा के अंत करौ,जुरमिल काम करों,

शिक्षा मंदिर गढ़व,जिनगी के सार हे।।

डॉ मीता अग्रवाल मधुर

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अमृतदास साहू  विषय - अशिक्षा

       सार छंद 


गुनौ अशिक्षा वश लोगन मा,का का रहिथे खामी।

शिक्षा ले संस्कार झलकथे,होय सोंच दुरगामी।


छाय अशिक्षा के सेती बड़,देखव घोर गरीबी।

नइ चिन्हँय जी पइसा वाले, रिश्तेदार क़रीबी। 

उबरन नइ दे येहर संगी,देथे बस नाकामी। 

गुणौ अशिक्षा वश लोगन मा,का का रहिथे खामी।


अनपढ़ता मा सही गलत के,निर्णय नइ हो पावै। 

पर बुध मा आ जाके कतको,घर बेघर हो जावै।

हँसी उड़ाथे लोगन कतरो, होथे बड़ बदनामी।

गुनौ अशिक्षा वश लोगन मा,का का रहिथे खामी।


रहिथें अनपढ़ मन भी अड़बड़, बड़े बड़े व्यापारी।

तभो राखथें कमिया काबर, उच्च योग्यता धारी।

शिक्षा के दम मा ही बनथें,बड़े बड़े आसामी।

गुनौ अशिक्षा वश लोगन मा,का का रहिथे खामी।


पढ़े लिखे नइ राहय तेला,भोंदू लोग बनाथें। 

कतको मन नानुक कारज बर,घेरी घाँव घुमाथे।

बिन शिक्षा जिनगी मा लगथे,आगे कहूँ सुनामी।

गुनौ अशिक्षा वश लोगन मा,का का रहिथे खामी।


बढ़े अशिक्षा ले जग मा जी,घोर अंधविश्वासी।

फँसा डारथें ढोंगी बाबा,बनके ठग सन्यासी।

शिक्षा ही हे जग आधारा,शिक्षा अंतर यामी।

गुनौ अशिक्षा वश लोगन मा,का का रहिथे खामी।

शिक्षा ले संस्कार झलकथे, होय सोंच दुरगामी।


अमृत दास साहू 

  राजनांदगांव

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अशिक्षा-सार छंद


अनपढ़ रहिबे ता दुख भारी, झेले पड़थे भैया।

इती उती भागे बर लगथे, जैसे कुकुर बिलैया।।


काम करे नइ मति बेरा मा, फुटे घलो नइ बानी।

अपढ़ जान के दुनिया वाले, करथें नित मनमानी।।

देय सहारा कोनों हा नइ, मिलथें टाँग खिंचैया।

अनपढ़ रहिबे ता दुख भारी, झेले पड़थे भैया।।


 कोई हा नइ करे पुछारी, मारे रहिरहि ताना।

आज जुटा पाना नोहर हे, दुनों टेम के खाना।।

हाव भाव नइ देखे कोई, सब हें घाव करैया।

अनपढ़ रहिबे ता दुख भारी, झेले पड़थे भैया।।


अलगा देथें अड़हा कहिके,अउ सब जाथें जुरिया।

आये अभिशाप अशिक्षा हा, हले नेव घर कुरिया।।

हक माँगे हकलासी लगथे, डूबे लगथे नैया।

अनपढ़ रहिबे ता दुख भारी, झेले पड़थे भैया।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

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प्रदीप छंद- अशिक्षा


जोत जलालव शिक्षा के जी, मन मंदिर के द्वार मा।

धरे अशिक्षा के दुख ला तुम, झन रोवव अँधियार मा।।


शिक्षा शिक्षित करथे सब ला, कहिथे ग्रंथ कुरान हा।

शिक्षा ले ही मिलथे जग मा, आदर अउ सम्मान हा।।

पढ़े-लिखे शिक्षित होये ले, आथे सुख परिवार मा।

जोत जलालव शिक्षा के जी, मन मंदिर के द्वार मा।।


बेटी-बेटा मा शिक्षा बर, झन तो होवय भेद हा।

सार्थक तभे हवय शिक्षा हा, कहिथे गीता वेद हा।

नर- नारी ला शिक्षा पाना, हे मौलिक अधिकार मा।

जोत जलालव शिक्षा के जी, मन मंदिर के द्वार मा।।


शिक्षा के बलबूते गढ़ही, भारत देश विकास ला।

रोजगार के अवसर देही, हरही जग-जन त्रास ला।।

नाम देश के ऊँचा होही, सुन लौ तब संसार मा।

जोत जलालव शिक्षा के जी, मन मंदिर के द्वार मा।।


✍🏻इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"

बिलासपुर (छत्तीसगढ़) 

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अशिक्षा के कीरा

            ( कुकुभ छन्द )


जिनगी के पाती ला खाथे, घुना अशिक्षा के कीरा।

मनखे ला अज्ञान बना के, देथे  अब्बड़ ये  पीरा।।


श्राप अशिक्षा ला जानव सब, जिनगी के फुलवारी मा।

ये धकेलथे  मनखे  मन  ला, बेगारी  अँधियारी  मा।।

इही  बढ़ाथे  झूठ  गरीबी,  अर्थ  विषमता  के  चीरा।

जिनगी के  पाती  ला खाथे, घुना अशिक्षा के कीरा।।


बनै  अशिक्षा हा समाज  बर, ऊँचा-नीचा  के  खाई।

करिया अक्षर भैंस बरोबर, अनपढ़ बर जी दुखदाई।।

पढ़ौ-लिखौ  अउ टोरव संगी, अनपढ़ता के जंजीरा।।

जिनगी के पाती ला खाथे, घुना  अशिक्षा  के कीरा।।


शिक्षा बिना कहाँ मिटथे जी, जीवन के घुप अँधियारी।

धरव कलम अउ कॉपी पुस्तक, अब करव ज्ञान उजियारी।।

आवव शिक्षा अलख जगावन, मिलही ज्ञान रतन हीरा।

जिनगी के पाती ला तब नइ, खाय अशिक्षा के कीरा।।


               रचनाकार

  डॉ. पद्‌मा साहू पर्वणी खैरागढ़


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,   ओम प्रकाश अंकुर अशिक्षा 


     (सरसी छंद)


जिनगी शिक्षा बिना अधूरा, जग लागय अँधियार।

होवत हे अवरुध विकास हा, दिया ज्ञान के बार।।


होय अशिक्षा के सेती जी, तन मन सब बरबाद।

बइगा -गुनिया के बाढ़े के, इही हरे जी खाद।।

पढ़व -बढ़व सुघ्घर जिनगी मा, झन मानव तुम हार।

जिनगी शिक्षा बिना अधूरा, जग लागय अँधियार।


शिक्षित अउ रहव संगठित सब, लिखव बने इतिहास।

लड़व जोंम देके हक खातिर, जिनगी रहय उजास।।

बेटा -बेटी एक बरोबर, मानव येला सार।

जिनगी शिक्षा बिना अधूरा, जग लागय अंँधियार ।।


जिनगी मा झन करव दिखावा, हावस तॅंय जब साँच।

खोल ज्ञान के सब कपाट ला, नइ आवय जी आँच।

सबो समस्या होय अशिक्षा, जुरमिल करव सुधार।

जिनगी शिक्षा बिना अधूरा, जग लागय अंँधियार।

                  

     ओमप्रकाश साहू "अंकुर "'

                       सुरगी, राजनांदगांव।

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,   नारायण वर्मा बेमेतरा कुंडलियाँ-शिक्षा


बाढ़य विनय विवेक अउ, विद्या ले संस्कार।

घटय झूठ पाखंड हा, तब शिक्षा हे सार।।

तब शिक्षा हे सार, बाढ़गे पर अभिमानी।

लम्पट लोभी चोर, घूमथें बनके ज्ञानी।।

उड़थें देख अगास, पाँव भुइँया नइ माढ़य।

काय काम के ज्ञान, घोर घमंड जब बाढ़य।।


डिगरी बाढ़त खूब हे,घटत फेर संस्कार।

खुले स्कूल कालेज बड़, तब ले हन लाचार।।

तब ले हन लाचार, नीति मैकाले पढ़के।

अहंकार घनघोर, बोलथे मुड़ मा चढ़के।।

चलथे झूठ फरेब, यार बनगे ये जिगरी।

खिरत आत्म विश्वास, काम कब आही डिगरी।।


शिक्षा ले बाढ़े बने, सुख सुविधा भरमार।

फेर बनादिस आलसी, लागत जग अँधियार।।

लागत जग अँधियार, कोढ़िहा मनखे होगे।

साधन बनगे श्राप, पाप ला दुनिया भोगे।।

होथे करम महान, जिंदगी बने परीक्षा।

करमवीर गढ़ देत, उही हर असली शिक्षा।।

नारायण प्रसाद वर्मा चंदन

ढाबा-भिंभौरी, बेमेतरा

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   शिक्षा के अलख रोला छंद


बीनय कूड़ा ढेर, वहू ला देवव शिक्षा।

उज्ज्वल होय भविष्य, कभू झन माॅंगय भिक्षा।।

बइठे रहिथे राह, कटोरा धरे निहारै।

कभू भूख कलपाय, नयन हा ऑंसू ढारै।।


हावय उन मजबूर, अशिक्षा मा दुख पाथें ।

हाय गरीबी झेल, रात दिन ठोकर खाथें।।

खुलगे हावय स्कूल, मुफ्त बढ़िया सरकारी।

पुस्तक कॉपी पेन, रोज जाही धर थारी।।


देवव थोरिक ध्यान, मदद बर हाथ लमावव ।

बनौ प्रेरणा दूत, जनम भर पुण्य कमावव।।

कर दौ दाखिल आज, ज्ञान ले नाम कमाहीं।।

मिलही बढ़िया काम, खुशी जिनगी भर पाहीं।।


सुनव प्रियू के बात, सबो शिक्षित जब होहीं।

लाहीं नवा बिहान, सुमत के बीजा बोहीं।।

मानवता के पाठ, समझहीं जब नर नारी।

अइसन दीन गरीब, तभे बनहीं संस्कारी।।


प्रिया देवांगन प्रियू


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अशिक्षा  "" आल्हा छंद 

 

नोनी बाबू बने पढ़व जी, शिक्षा हावय बहुत महान ।

दूर अशिक्षा करके बढ़िया, बन जव ज्ञानी संत सुजान ।।


ॲंधियारी ला दूर भगावव, करलव जिनगी मा उजियार ।

शिक्षा पाना ऐ जिनगी मा, हावय हम सबके अधिकार ।।

शिक्षा ले संस्कार मिलय जी, अउ मिलथे जग ला आधार ।

शिक्षा ले सत् बुद्धि बढ़य जी, उन्नत होवय सब बैपार ।।

रद्दा सुघर बना जिनगी के, होही जग मा अड़बड़ मान ।

दूर अशिक्षा करके बढ़िया, बन जव ज्ञानी संत सुजान ।।


हरे अशिक्षा बड़ बीमारी, झटकन करलव ऐला दूर ।

किस्मत के तारा चमकावव, खिल जाहि चेहरा के नूर ।‌।

बेरा रहिते चेत लगा ले, ,नइते हो जाबे मजबूर ।

बिन शिक्षा के जिनगी के सब, हो जाथे सपना हर चूर ।।

गाॅंठ बाॅंध के रख लव संगी, दुनो खोल के अपनें कान ।

दूर अशिक्षा करके बढ़िया, बन जव ज्ञानी संत सुजान।।


   

संजय देवांगन सिमगा 

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  कुण्डलिया छंद  -  अशिक्षा 


शिक्षा ले संस्कार सजे, हवय अशिक्षा रोग ।

रहव आज शिक्षित सबो, तज के सारे भोग ।।

तज के सारे भोग, बने तय रहिले भाई। 

सुग्घर संत समाज, कहे तोला अउ दाई ।।

बात बाप के मान, समय हा लेय परीक्षा।

आही जग मा काम, जरूरी हे बड़ शिक्षा।।


संजय देवांगन सिमगा 

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   मुकेश  आल्हा छंद-- अशिक्षा   


हवै अशिक्षा हा जिनगी बर, देखव बड़का ये अभिशाप।

बिपत आय मा लोगन मन ला, करना पड़थे पश्चाताप।।


सहीं गलत मा अंतर काहे, शिक्षा बिना समझ नइ पाँय।

रोजगार बर भटकँय मनखे, दर दर के गा ठोकर खाँय।।


अनपढ़ मन के ऊपर होवत, अब्बड़ शोषण अत्याचार।

जोत जलाके सत शिक्षा के, जिनगी सबके करव सुधार।।


हवय जरूरी शिक्षा सब बर, समय रहत ले लेलव ज्ञान।

शिक्षित होके बन जावव गा, ज्ञानी ध्यानी संत सुजान।।


मिटे अशिक्षा अँधियारी हा, लइका मन ला बने पढ़ाव।

नेता डॉक्टर फौजी बनहीं, घर-घर शिक्षा अलख जगाव।।


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कुंडलिया छंद-- अशिक्षा  


बाढ़े हे अपराध हा, दुनियाभर मा आज।

शिक्षा बिन देखव कहाँ, बनही सभ्य समाज।।

बनही सभ्य समाज, लोग लइका जब पढ़हीं।

मिटा अशिक्षा रोग, अपन जिनगी ला गढ़हीं।।

बुद्धि करै नइ काम, बिपत हा आघू ठाढ़े।

रोवत बड़ पछताँय, समस्या जब-जब बाढ़े।।



मुकेश उइके "मयारू"

ग्राम- चेपा, पाली, कोरबा(छ.ग.)

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,विष्णुपद छन्द गीत- अशिक्षा 


रूढ़िवादिता लाय अशिक्षा, दूर भगावव जी ।

पढ़े-लिखे बर जग के मनखे, आगू आवव जी ।।


पढ़-लिख के कतको झन डॉक्टर, अउ मास्टर बनथें ।

जज साहब अधिकारी कतको, सीना हा तनथे ।।


मातु-पिता के सुग्घर सपना, मंजिल पावव जी ।

पढ़े-लिखे बर जग के मनखे, आगू आवव जी ।।


बिन शिक्षा के ये जिनगी हा, नरक बरोबर हे ।

सोंच समझ मन मा नइ राहय, कोन डहर घर हे ।।

 

ॲंधियारी भटकाथे निसदिन, जोत जलावव जी ।

पढ़े-लिखे बर जग के मनखे, आगू आवव जी ।।


वैज्ञानिक जुग आगे हावय, देखव ये जग मा ।

घर ऑंगन मा सुख अउ सुविधा, हे उमंग रग मा ।।


जुरमिल के भावी पीढ़ी बर, राह बनावव जी ।

पढ़े-लिखे बर जग के मनखे, आगू आवव जी ।।


छन्दकार व गीतकार 

ओम प्रकाश पात्रे 'ओम'

ग्राम- बोरिया, जिला- बेमेतरा (छत्तीसगढ़)


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चौपई (जयकारी) छन्द - अशिक्षा (१८०८२०२५)


बिन शिक्षा जिनगी बेकार ।

नइया कइसे होही पार ।।

बात बतावत हावॅंव सार ।

मन मा लेवव सोंच विचार ।।


कतको राहॅंय गा धनवान ।

नइ मिल पावॅंय इज्जत मान ।।

खो जाथे खुद के पहिचान ।

जानव समझव चतुर सुजान ।।


आमदनी घर के घट जाय ।

खाना बर लइका लुलवाय ।।

दुख भारी हो जाथे हाय ।

कोन इहाॅं जग ला समझाय ।।


ये जग हा लागय ॲंधियार ।

सिर मा भारी भरकम भार ।।

जीत कहाॅं हो जाथे हार ।

ऑंखी ले ऑंसू के धार ।।


पढ़े-लिखे मा मिलथे काम ।

काम तहाॅं मनचाहा दाम ।।

छइहाॅं मा नइ लागय घाम ।

खूब मिलय तन ला आराम ।।


शिक्षा बर सब देवव जोर ।

जादा नइ तो कमती थोर ।।

ये जिनगी मा लाही भोर ।

गाॅंव-गाॅंव मा उड़ही शोर ।।


छन्दकार

ओम प्रकाश पात्रे 'ओम '

ग्राम - बोरिया, जिला - बेमेतरा (छत्तीसगढ़)

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,   विजेन्द्र अशिक्षा- कुण्डलिया


शिक्षा के बढ़वार ले, जग मा होय उजासI 

मनखे मन संबल बनैं, होय गरीबी नासI 

होय गरीबी नास, जभे मनखे मन पढ़थेंI 

हरे प्रगति के मूल, सदा शिक्षित मन बढ़थेंI

हवय अशिक्षित जेन, माँगथें उन हर भिक्षाI

बचना हे ते आज, सुघर सब लेवव शिक्षाII


विजेन्द्र कुमार वर्मा 

नगरगाँव धरसीवांँ

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  कमलेश प्रसाद  शरमाबाबू कुंडलियाँ-छंद 


अशिक्षा 


शिक्षा बिना समाज हा, हो जाथे जी सून।

जइसे मनखे देह मा, चार ग्राम हो खून।।

चार ग्राम हो खून, कहाँ ले वो फुन्नाही।

बनके जिंदा लाश, एक दिन वो मर जाही।।

अनपढ़ रहे गुलाम, कोन गुरु देवय दीक्षा।

पढ़हीं बढ़ही देश, बगरही घर-घर शिक्षा।।।।


अप्पड़ बर फेंके रथें, चतुरा  मन हा जाल।

आँख मूँद वो फँस जथे, नइ जानय कुछु चाल।।

नइ जानय कुछु चाल, पढ़े मन सब कुछ लूटँय।

उल्टा अउर फँसाय, दास रख कसके कूटँय।।

अनपढ़ जान गुलाम, सबो बरसावँय थप्पड़।

चतुरा चोखा माल, रसा मा खुश हे अप्पड़।।।।


लूटथे जी अनपढ़ इहाँ, चतुरा मन भोगाँय।

बाबू भइया ताकथें, जल्दी अनपढ़ आँय।

जल्दी अनपढ़ आँय, तहाँ लें सौदा करहीं।

चाय-वाय बर माँग, नँगत के दोंदर भरहीं।।

पा मजदूर किसान, देख लड्डू मन फूटथे।

सौ के जघा हजार, माँग के साहब लूटथे।।।।


कमलेश प्रसाद शर्माबाबू 

 कटंगी-गंडई 

जिला केसीजी छत्तीसगढ़

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,   कमलेश प्रसाद  शरमाबाबू विषय - अशिक्षा 


हरिगीतिका -छंद 

(तर्ज- श्रीराम चंद्र कृपालु)


शिक्षा बिना अँधियार हे,तब सभ्यता मिलही कहाँ ।

जइसे बिना पानी कमल, तालाब मा खिलही कहाँ।

भाषा कराथे ज्ञान सब,अउ ये बताथे राह ला।

ज्ञानी कहाथें मान पाथें,पा जथें हर थाह ला।।


हावै अशिक्षा जब तलक, पशु जान जिनगी तोर जी।

खाये पिये के ढंग ना,बनथें उचक्का चोर जी।।

वो सोंच ले खाली रिथे, खाली रिथे दीमाग हा।

जइसे हवै सुघ्घर सजे, बिन फूल कोनो बाग हा।।


शिक्षा बिना मनखे इहाँ, पिछड़े हवै हर दौर मा।

करिया हवै जिनगी सबो, घुट-घुट मरै हर ठौर मा।

लुटलिन महाजन कोचिया, हर काम मा ठग जाँय जी।

"बाबू" कहाँ रस्ता मिलै, मंजिल कहूँ नइ पाँय जी।।


कमलेश प्रसाद शर्मा"बाबू"

कटंगी-गंडई 

 जिला केसीजी 

 छत्तीसगढ़

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 पंचचामर छन्द 


पढ़े चलौ बढ़े चलौ सुधार दौ समाज ला।

गली गली उतार दौ इहाँ नवा सुराज ला।।

सबो डहर बिखेर तेन ज्ञान के उजास ला।

उठौ चलौ गढ़े चलौ समाज के विकास ला।।


अपढ़ बहुत पड़े हवैं दशा इही समाज के।

न चेत हे न ध्यान हे न ज्ञान राज काज के।

धरौ कलम किताब आज राज ला सँवार दौ।।

चलौ उठौ पढौ लिखौ ग देश ला सुधार दौ।।


डी.पी.लहरे'मौज'

कवर्धा छत्तीसगढ़

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,   डी पी लहरे सार छन्द गीत


पढ़ा-लिखा नोनी बाबू ला, भेज स्कूल सँगवारी।

हवय अशिक्षा के सेती गा, जिनगी मा अँधियारी।


नरक बरोबर होथे संगी, बिन शिक्षा जिनगानी।

अनपढ़ कहलाथे मनखे हा, रहि जाथे अज्ञानी।।

लइका मन पढ़हीं तब बनहीं, नेता अउ अधिकारी।

पढ़ा-लिखा नोनी बाबू ला, भेज स्कूल सँगवारी।


ढ़ोंग रूढ़ि पाखंड बढ़ाथे, इही अशिक्षा भाई।

जान अशिक्षा के सेती गा, होथे बड़ करलाई।।

शिक्षा से आ पाही भैया, जिनगी मा उजियारी।

पढ़ा-लिखा नोनी बाबू ला, भेज स्कूल सँगवारी।।


सोचे समझे के क्षमता हा, शिक्षा ले ही बढ़थे।

ज्ञानवान बनके मनखे हा, सरग निशैनी चढ़थे।।

शिक्षा जिनगी पार लगाथे, शिक्षा तारनहारी।

पढ़ा-लिखा नोनी बाबू ला, भेज स्कूल सँगवारी।।


डी.पी.लहरे'मौज'

कवर्धा छत्तीसगढ़

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,   डी पी लहरे सरसी गीत


वर्तमान मा शिक्षा हावय, जिनगी के आधार।

बिन शिक्षा के मनखे भैया, रोवय आँसू ढ़ार।।


देश खोखला करे अशिक्षा, ये बड़का अभिशाप।

शासन सत्ता बइठे-बइठे, देखय बस चुपचाप।।

अनपढ़ ऊपर जादा होवय, शोषण-अत्याचार।

वर्तमान मा शिक्षा हावय, जिनगी के आधार।।


पढ़ना-लिखना बहुत जरूरी, सोंचव अपने आप।

नइ ते पाछू चलके होही, अब्बड़ पश्चाताप।

शिक्षा ही डोंगा जिनगी के, शिक्षा ही पतवार।

वर्तमान मा शिक्षा हावय, जिनगी के आधार।।


डी.पी.लहरे'मौज'

कवर्धा छत्तीसगढ़

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विषय - अशिक्षा

छंद - हरिगीतिका


शिक्षा अशिक्षा दू बहिन, हें पंख अउ बिन पंख के।

का ठौर घोंघी ला मिले,सम्मान का हे शंख के।।

बस तन दिखे मनखे सहीं, जिनगी जनावर भैंस कस।

मन बुद्धि  खूँटा मा बँधे ,कोंदी अशिक्षा खाय बस।।


सुनलव अशिक्षा मेर ना तो तर्क हे ना शक्ति हे।

भेड़ी सरीखे चाल हे, अज्ञानता के भक्ति हे।

रद्दा दिखे हे बस गुलामी गोड़ काँटा मा धँसे।

फेंकत मछंदर जाल तब , ये मूढ़ मछरी कस फँसे।।



आशा देशमुख

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,   Dropdi साहू  Sahu शक्ति छंद -"अशिक्षा"

                 

अशिक्षा भरे गा जिहाँ हे रथे।

उहाँ बिन सुवादी रहे मन मथे।। 


अशिक्षा अनाड़ी बढ़ावा करे।

बिना बात जाने हवाई डरे।।


ठगा जाय अप्पढ़ गुलामी करे।

पढ़े तेन ला जी सलामी भरे।।


पढ़े आदमी नाम रोशन करे।

कमाई करे नीति रद्दा धरे।।


अशिक्षा समाए जिहाँ गा हवै।

उहाँ माथ ज्ञानी कहाँ ले नवै।।


जगावव जगत ज्ञान के जोत ले।

भगावव अशिक्षा बिदा होत ले।


समाही सबो के हृदय ज्ञान हा।

नहाही नवा सोच ले ध्यान हा।।


तरक्की तभे देश मा हो जही।

अशिक्षा मिटाए चलौ जी सही।।

             

द्रोपती साहू "सरसिज"

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,   नंदकिशोर साव  साव सरसी छंद - अशिक्षा


पढ़ लिख साक्षर बनव सबो जी, अनपढ़ झनी कहाव ।

शिक्षा के महत्व ला समझव, जग में नाँव कमाव ।।


जौन पढ़े नइ वोला कहिथे, अनपढ़ बोदा जान।

घर समाज मा अपजस मिलथे, घटथे ओखर मान।।

पढ़ना लिखना हर मानुस के, राहय नेक सुभाव।

शिक्षा के महत्व ला समझव, जग में नाँव कमाव।।


ननपन ले बेटी बेटा ला, शिक्षा के दे ज्ञान।

करिया अक्षर भैंस बराबर, दे वोला पहिचान।।

स्कूल जाय बर उदिम करव जी, लइका जागे भाव।

शिक्षा के महत्व ला समझव, जग में नाँव कमाव।।


होथे अंगूठा छाप जौन, जन उपहास उड़ाय।

पइसा कौड़ी हिसाब जोखा, पक्का धोखा खाय।।

पढ़ई के बिन बिरथा मनखे, कइसे होय हियाव।

शिक्षा के महत्व ला समझव, जग में नाँव कमाव।।


पढ़े लिखे मनखे समाज में, अलगे पाथें मान।

डॉक्टर मास्टर इंजिनियर अउ, बाबू बनथे जान।।

टारव अभिशाप अशिक्षा के , विद्या अलख जगाव।

शिक्षा के महत्व ला समझव, जग में नाँव कमाव।।


नंदकिशोर साव "नीरव"

राजनांदगाँव (छ. ग.)


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 अश्वनी कोसरे  चौपाई छंद - अशिक्षा


शिक्षा ले बैपार खनकथे|जिनगी बर व्यवहार पनपथे|

शिक्षा रोजी रोटी देथे|भूँख गरीबी ला हर लेथे||


डहर बने शिक्षा ले मिलथे|कोंवर पाना सुख के खिलथे|

काबर रोकत हें शिक्षा ला|पढ़े लिखे के मन इच्छा ला||


शिक्षा लेलन सद ज्ञानी ले|दीक्षा लेवन गुरुवाणी ले|

मोल कहाँ बिन शिक्षा पाबे|हीरा जोनी ला बिसराबे||


शिक्षा हर तकनीक बढ़ाथे|कठिन डहर ला सरल बनाथे|

पढ़ लिख के विद्वान कहाथें|अइसन मान अपढ़ का पाथें||


इही अशिक्षा बड़ लड़वाथे|मंदिर मठ दीवार ढहाथे|

शिक्षित होतिन काबर लड़तिन|मस्जिद गिरजाघर का अड़तिन||


अश्वनी कोसरे 'रहँगिया' कवर्धा कबीरधाम (छ. ग.)

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,   नारायण वर्मा बेमेतरा सरसी छंद-हरै अशिक्षा रोग


ज्ञान आय मनखे के गहना, कहिथें पोठ सियान।

शिक्षा अउ संस्कार बनाथे, एक अलग पहिचान।।

सबो जीव मा चेतन हम ला, गढ़े प्रकृति भगवान।

हाड़-माँस के पुतरा बनथे, पा के चतुर सुजान।।

कहे ज्ञान बिन होथे मानव, भटके देव समान।

ज्ञान आय मनखे के गहना, कहिथें पोठ सियान।।


काय उचित का अनुचित कतका, कर पाथन निरवार।

कदम-कदम मा बिपत सताथे, देथे पल मा टार।।

राह दिखय ना कोनो लगथे, चारो खुँट अँधियार।

हर मुश्किल आसान बनाथे, तब बनके हथियार।।

सरी समस्या के जड़ जानव, शिक्षा एक निदान।।


सदाचार संयम मर्यादा,सब शिक्षा के अंग।

बइला बोदा बनव कभू झन, पढ़व करव सत्संग।।

अंगूठा छाप कहे जग हा, मन ले होय अपंग।

पढ़े लिखे ले बदले जिनगी, अउ जीये के ढंग।।

लोहा हर सोना बन जाथे, पारस पथरा जान।

ज्ञान आय मनखे के गहना, कहिथें पोठ सियान।।


यज्ञ दान बिन सगा मान बिन, हरियाली बिन बाग।

तइसे शिक्षा बिन जिनगानी, जस चंदा मा दाग।।

घोर निराशा मा जलथे मन, बनके आस चिराग।

कारी अक्षर हा कर देथे, उज्जर सबके भाग।।

अपन लोक परलोक सुधारव, करव आत्म कल्यान।

ज्ञान आय मनखे के गहना, कहिथें पोठ सियान।।


मनुज योनि उत्तम हे सबले, लख चौरासी पाय।

विद्या विनय विवेक जगाथे, जिनगी सुखद बनाय।।

फेर आजकल देख इहू हर, बनगे बस व्यवसाय।

केवल पेट भरे के होगे, शिक्षा हर पर्याय।।

अधजल गगरी छलके जादा, होवत मरे बिहान।

ज्ञान आय मनखे के गहना, कहिथें पोठ सियान।।

शिक्षा अउ संस्कार बनाथे, एक अलग पहिचान।।



🙏🙏🙏🙏

नारायण प्रसाद वर्मा चंदन

ढ़ाबा-भिंभौरी, बेमेतरा छ.ग.

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कुंडलियाँ-शिक्षा


बाढ़य विनय विवेक अउ, विद्या ले संस्कार।

घटय झूठ पाखंड हा, तब शिक्षा हे सार।।

तब शिक्षा हे सार, बाढ़गे पर अभिमानी।

लम्पट लोभी चोर, घूमथें बनके ज्ञानी।।

उड़थें देख अगास, पाँव भुइँया नइ माढ़य।

काय काम के ज्ञान, घोर घमंड जब बाढ़य।।


डिगरी बाढ़त खूब हे,घटत फेर संस्कार।

खुले स्कूल कालेज बड़, तब ले हन लाचार।।

तब ले हन लाचार, नीति मैकाले पढ़के।

अहंकार घनघोर, बोलथे मुड़ मा चढ़के।।

चलथे झूठ फरेब, यार बनगे ये जिगरी।

खिरत आत्म विश्वास, काम कब आही डिगरी।।


शिक्षा ले बाढ़े बने, सुख सुविधा भरमार।

फेर बनादिस आलसी, लागत जग अँधियार।।

लागत जग अँधियार, कोढ़िहा मनखे होगे।

साधन बनगे श्राप, पाप ला दुनिया भोगे।।

होथे करम महान, जिंदगी बने परीक्षा।

करमवीर गढ़ देत, उही हर असली शिक्षा।।

नारायण प्रसाद वर्मा चंदन

ढाबा-भिंभौरी, बेमेतरा

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अशिक्षा 

चौपईजयकारीजयकरी - पदांत


हवै अशिक्षा हा अभिशाप।

एकर जइसे नइ हे पाप॥

होथे अँड़हा बड़ परशान

सपना शिक्षा बिन शमशान॥


शिक्षित अँड़हा मा हे भेद। 

नइ पढ़ पावय करथे खेद॥

पढ़े लिखे सुख के फल पाय ।

अँड़हा तो दुख रौरव पाय॥


लाय अशिक्षा हा हिनमान।

शिक्षा बिन सब बैल समान ॥

जानव कुछ तो होथे खास।

शिक्षा ले जगथे जी आस॥ 


खावव रोटी कम मन मार।

दव लइका ला शिक्षा सार॥

अब तो लेवव अतका जान।

होथे शिक्षा ले पहिचान॥


दीया शिक्षा के दव बार ।

आही सुख हा तब तो द्वार॥

पढ़े लिखे हा पूजे जाय।

नइ तो जुगेश भटका खाय।

जय गंगान 


 जुगेश कुमार बंजारे

नवागाँव कला छिरहा बेमेतरा

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,   संगीता वर्मा, भिलाई अशिक्षा-कुंडलिया 


ज्ञानी ध्यानी मन कहँय, शिक्षा बिन अँधियारI  

अनपढ़ रहई आज तो, जिनगी बर बेकारI 

जिनगी बर बेकार, दुःख पाथें बड़ भारीI 

शिक्षा ले सम्मान, होय किस्मत उजियारीI 

शिक्षा ला हथियार, बना के गढ़व कहानीI 

पढ़के बनव सुजान, इहाँ सब मनखे ज्ञानीII


संगीता वर्मा 

भिलाई

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 गुमान साहू सरसी छन्द 

।।अशिक्षा के मार।।


हवै अशिक्षा आज बुराई, जानव सकल समाज।

लइका मन ला अपन पढ़ावव, हरय जरूरी काज।।


अँधियारी घर लाय अशिक्षा, बदहाली बड़ छाय।

पशु जस मनखे के जिनगी हा, येकर ले हो जाय।।

तोड़ अशिक्षा के बेड़ी ला, लेवव जिनगी साज।

लइका मन ला अपन पढ़ावव, हरय जरूरी काज।।


मान घटै अउ बढ़य गरीबी, बढ़ जावय परिवार।

भला बुरा नइ जानय मनखे, सहै अशिक्षा मार।।

जिनगी करथे नरक अशिक्षा, सबो विचारव आज।

लइका मन ला अपन पढ़ावव, हरय जरूरी काज।।


- गुमान प्रसाद साहू 

- समोदा (महानदी)

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 अशिक्षा (आल्हा छंद-


पढ़व लिखव नोनी बाबू मन,शिक्षा मा ही देवव ध्यान।

दूर गरीबी हा टर जाही,बने सहीं जब मिलही ज्ञान।।


सुग्घर बंगला गाडी रइही,सब्जी भाजी खाहव भात।

नइ पावव एको दाना दुख, दिन हो चाहे कोनो रात।।

गोठ गोठियाहव अंग्रेजी,जाके सात समुंदर पार।

बड़े नौकरी के पद पाहू, नइ लागय जिनगी हा भार।।


डॉक्टर इंजीनियर पढ़ाई,अफसर बनके करिहव काम।

बड़े शहर मा सेवा करके,खूब कमाहू जग मा नाम।।

टार अशिक्षा जल्दी भाई, झन पाना जी तैंहर दण्ड।

शिक्षा ले उजियारी आही, नइ ठहरय घर मा पाखण्ड।।


पढ़व लिखव नोनी बाबू मन,शिक्षा मा ही देवव ध्यान।

दूर गरीबी हा टर जाही,बने सहीं जब मिलही ज्ञान।।

राजकिशोर धिरही

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अशिक्षा के अँधियार

विधा- गीतिका छंद

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ज्ञान के उजियार करके तारबो संसार ला।

दूरिहा करबो अशिक्षा के सबो अँधियार ला।।


आदमी बर ये अशिक्षा हा हवय बड़ श्राप जी।

नाश करथे बुध इही हा अउ कराथे पाप जी।

आज येकर ले बचाबो हम अपन परिवार ला।

दूरिहा करबो अशिक्षा के सबो अँधियार ला।।


ज्ञान बिन हे सून जिनगी सच इही हे मान लव।

पार नइया नइ लगय शिक्षा बिना ये जान लव।

नइ भुला मनखे सकय शुभ ज्ञान के उपकार ला।

दूरिहा करबो अशिक्षा के सबो अँधियार ला।।


काम हे बड़ पुन्य के ये बाँटना सद्ज्ञान जी।

पाय के शिक्षा अमोलक खूब मिलथे मान जी।

टोरबो अज्ञानता के जंग लगहा तार ला।।

दूरिहा करबो अशिक्षा के सबो अँधियार ला।।


हो जही उजियार अंतस जोत बरही ज्ञान के।

बुद्धि के खुलही दुवारी झूठ सच पहिचान के।

गुरु शरण मा जाय सुनबो ज्ञान के उद्गार ला।

दूरिहा करबो अशिक्षा के सबो अँधियार ला।।


     डॉ. इन्द्राणी साहू "साँची"

        भाटापारा (छत्तीसगढ़)

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,   +  अशिक्षा होथे दुखदाई

विधा- मुक्तामणि छंद गीत

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बीमारी अज्ञानता, होथे बड़ दुखदाई।।

अंत अशिक्षा के करव, जुरमिल के अब भाई।।


संग अशिक्षा हा अपन, लाथे अलहन भारी।

येकर चंगुल मा फँसे, पाथें दुख नर-नारी।

पढ़े-लिखे बिन हो जथे, जिनगी मा हलकानी।

जाग जवव बेरा रहत, पढ़के बनव सुजानी।

पढ़ सियान लइका जवव, बहिनी दाई-माई।

अंत अशिक्षा के करव, जुरमिल के अब भाई।।


शिक्षा के हथियार ले, सब बिपदा कट जाथे।

बुध के आँखी खोल ये, सही गलत समझाथे।

पढ़-लिख के मूरख घलो, बनथे ज्ञानी-ध्यानी।

भरे हवय इतिहास मा, येकर अमर कहानी।

उत्तम शिक्षा लानथे, जिनगी मा सुघराई।

अंत अशिक्षा के करव, जुरमिल के अब भाई।।


मनखे सज्जन बन जथे, उत्तम शिक्षा पाके।

सुधर जथे जिनगी घलो, गुरू शरन मा आके।

चारो मुड़ा बिकास के, होथे शुभ उजियारी।

सुख के ऊ जाथे सुरुज, भागे रतिहा कारी।

शिक्षा के मंदिर गढ़व, पाट अशिक्षा खाई।

अंत अशिक्षा के करव, जुरमिल के अब भाई।।


     डॉ. इन्द्राणी साहू "साँची"

        भाटापारा (छत्तीसगढ़)

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 दोहा

विषय,,,,,अशिक्षा


ज्ञान बिना सब सून हे, होय तिहाँ बरबाद।

जागव मनखे आज ही, आलस मन झन लाद।।


शिक्षा हर हथियार हे, बनै सबों के काम।

मेंटय सब अँधियार ला, चमक जथे तव नाम।।


अनपढ़ रहिबे झन तहीं,शिक्षा बिन बेकार।

ठग बैठे सब्बो ठउर, करत हवय व्यापार।।


अबड़ अशिक्षा हे भरे,मन भीतर भंडार।

शरणागत गुरु के रहौं,पावव ज्ञान अपार।।


धनेश्वरी सोनी 'गुल' 

बिलासपुर

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 ज्ञानू कवि विषय - अशिक्षा 

छंद - विष्णुपद 


शिक्षा बिन जिनगी मा सिरतों, भारी ताप हवै|

आज अशिक्षा हा मनखे बर, बड़ अभिशाप हवै||


शिक्षा बिन दुनिया मा कइसे, बगरै ज्ञान बता|

अउ शिक्षा बिन तोर मनुज रे, का पहिचान बता||


काबर कइसे हे शिक्षा ले, कतको वंचित जी|

कोन चाहथे रहना संगी, इहाँ अशिक्षित जी||


फइलत नार अशिक्षा के हे, पुदकव टोरव गा|

बँधे अशिक्षा के बँधना ला, मिलके छोड़व गा||


आज अशिक्षा के सेती हक, दूसर छीनत हे|

हमर खेत के घलो फ़सल ला, कतको बीनत हे||


मोला लगथे फेर गरीबी, बड़का कारण हे|

मौनी बाबा बने प्रशासन, दुच्छा भाषण हे||


बड़े- बड़े वादा जुमला के, बस भरमार हवै| 

पद पइसा वाले बर शिक्षा, आज व्यपार हवै||


घेरे वोला रोग अशिक्षा, जेन गरीब हवै|

काखर कइसन कोन जानथे, फेर नसीब हवै||


ज्ञानु

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रोला छंद

हवै अशिक्षा रात, अमावश अस बड़ करिया।

जस पानी बिन ताल, नदी अउ सुक्खा तरिया।।

शिक्षा बिन ॲंधियार, दिखे सम खचवा खाई।

बिन शिक्षा का मोल, हवै जिनगी बिन पाई।।


हवै अशिक्षा साॅंप, जहर बिक्खर जे बोथे।

बिन शिक्षा के लोग, अपन जिनगी ला खोथे।।

शिक्षा हे तलवार, अशिक्षा काटे हर बर।

पढ़ लिख बन बुधमान,जोर धन अपने घर‌ बर।।


हवै अशिक्षा तोप, उगलथे धधकत गोला।

लगथे मन मा दाग, अशिक्षा मारे चोला।।

शिक्षा मोती खोज, ज्ञान सागर मा जाके।

बन जाबे धनवान,‌ज्ञान मोती ला पाके।।


कहे ठेठ कविराय, अशिक्षा जग ॲंधियारी।

शिक्षा दीप जलाव, अपन अंतस मन बारी।।

पावव शिक्षा नेक, नाम मिलही सुन संगी।

पाके शिक्षा राज, करव नइ होवय तंगी।।


       पुरुषोत्तम ठेठवार

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,  डी पी लहरे दोहा गीत..अशिक्षा


समझ अशिक्षा ले सखा, जिनगी हे बेकार।

पढ़े नहीं जे आदमी, तेखर जग अँधियार।।


होय अशिक्षा ले कहाँ, असल-नकल पहिचान।

बिन शिक्षा के आदमी, होथे बड़ परशान।

संविधान ले हे मिले, शिक्षा के अधिकार।

समझ अशिक्षा ले सखा, जिनगी हे बेकार।।


सोच अशिक्षा ले कभू, मिले नहीं सम्मान।

शिक्षा ले तँय हो जबे, ज्ञानवान गुणवान।।

शिक्षा मा संस्कार हे, शिक्षा मा उद्धार।

समझ अशिक्षा ले सखा, जिनगी हे बेकार।।


हवय अशिक्षित जेन हा, अब्बड़ के पछताय।

एक्को अक्षर ला कभू, वो तो नइ पढ़ पाय।

बिन शिक्षा के आदमी, अनपढ़ बंठाधार।

समझ अशिक्षा ले सखा, जिनगी हे बेकार।।


डी.पी.लहरे'मौज'

कवर्धा छत्तीसगढ़

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रोला छंद---अशिक्षा 

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जब तक हे अज्ञान,अशिक्षा जिनगानी मा।

पेरावय  इंसान,मुसीबत के घानी मा।।

बने मिलय नइ बाट,कभू आघू जाये बर।

बिन शिक्षा बेकार,अकारथ होय उदिम हर।।


अंतस ला उजियार ,करय शिक्षा हा सरलग।

दियना असन अँजोर, करय जिनगी मा पग-पग।।

बाढ़य ज्ञान-विवेक, करे मा बने पढ़ाई।

सुलझयँ सबो सवाल, कटयँ दुख अउ करलाई।।


शिक्षा ले संस्कार,घलो मनखे मा आवय।

समझ होय मजबूत ,बने-गिनहा ल जनावय।।

शिक्षा हा हथियार, सहीं काटय हर मुश्किल।

शिक्षा के जलधार ,परे मन-सुमन जाय खिल।।


दीपक निषाद--लाटा (बेमेतरा)

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,   नीलम जायसवाल छन्न पकैया छंद

- अशिक्षा -


छन्न पकैया-छन्न पकैया, जहर हवै ग अशिक्षा।

जिनगी कूड़ेदान बरोबर, माँगे मिलै न भिक्षा।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, अशिक्षित ह घबराए।

कई किसिम के डर ल दिखा के, चतुरा मन ठग जाए।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, बुद्धि घलौ नइ बाढ़ै।

हर क्षण हा मुश्किल मा पाहै, विकट समस्या ठाढ़ै।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, संकट रोटी रोजी।

कइसे घर खर्चा ल चलावौं, कामा पेट व बोजी।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, रोग अशिक्षा होथे।

अनपढ़ मनखे अपन राह मा, अपने कांँटा बोथे।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, कालीदास कहाए।

जेन डार मा बइठे राहय, उही ल काटे जाए।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, नाग अशिक्षा मारौ।

विषधर ये अज्ञान हरै जी, ज्ञान दीप ला बारौ।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, शिक्षा बहुत जरूरी।

शिक्षा ले सब गुण हा आथे, करै जरूरत पूरी।।


-- नीलम जायसवाल --



Sunday, August 17, 2025

खेती के बारा हाल

 दादुर रोवत रात भर, बने नहीं पर बात।

विधना निष्ठुर होय हे, करे नहीं बरसात।1। 


खेत खार सब फाट गे, धान होय सब लाल। 

मुड़ धर रोय किसान मन, खेती बारा हाल।2। 


भूखन मर गे केकरा, घोंघी तक पछताय। 

रोवत हावय कोकड़ा, मुसवा उधम मचाय।3। 


दगा बाज बादर हवय, लेत परीक्षा रोज। 

हमला टूहूँ  दिखाय के, चल देवत हे सोज।4। 


पहली जस बरसात अब, निच्चट सपना होय। 

झड़ी नदागे आज कल, ढेरा ऑटय कोय।5। 


दिलीप कुमार वर्मा

बलौदा बाजार

खमर्छठ

 अमृतध्वनि छंद 


महतारी मन आज तो, रहिथे सुघर उपास।

बेटा बेटी खुश रहय, माँगय वर जी खास।

माँगय वर जी,खास सबो के,उम्मर बाढ़य।

पोती मारय,मुड़ मा विपदा, झन तो माढ़य।

एक ठउर मा,अउ जुरियाके,जम्मो नारी।

महादेव के,पूजा करथे,सब महतारी।।


घर के बाहिर कोड़ के, सगरी ला दय साज।

गिन गिन पानी डार के, करथे पूजा आज।

करथे पूजा,आज नेंग जी,करथे भारी।

लइका मन के,रक्षा बर तो,हे तैयारी।

हूम धूप अउ,फूल पान ला,सुग्घर धरके।

सुमिरन करथे, महतारी मन,जम्मो घरके।।


पतरी महुआ पान के, भाजी के छै जात।

चुरथे घर-घर मा इहाँ, पसहर के अउ भात।

पसहर के अउ,भात संग मा,दूध दही ला।

महतारी मन,खाय थोरकिन,डार मही ला।

गहूँ चना अउ,महुआ के सन,लाई-लुतरी।

सुघर चघावै,नरियर काँशी,दोना पतरी।।


विजेन्द्र वर्मा

नगरगाँव(धरसीवाँ)

15 अगस्त राष्ट्रीय परब विशेष छंद----------

 15 अगस्त राष्ट्रीय परब विशेष छंद----------


लाल लहू तन सीँचिन हे तब,

          आज धरा हरियाय हवे।

टोरिन हे बँधना बिपदा तब,

      आँगन मा सुख आय हवे।

भारत भूमि अजाद करे बर,

        लाख नरी ह कटाय हवे।

बीर बहादुर पूतन के बल,

         देश ध्वजा लहराय हवे।


जात न पंथ समाज रहे सब,

            भारत के सन्तान रहे।

 ज्योति जरे सुनता सुख के अउ

            प्रेम दया पहिचान रहे।

पाय सुराज म राज सिहासन, 

           मान रहे अभियान रहे।

आवव जी लहराव ध्वजा सब, 

          हीमगिरी कस शान रहे।


राजकुमार चौधरी"रौना"

टेड़ेसरा राजनांदगांव।

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जब जब आय परब आजादी, सुरता आथे बलिदानी।

येला पाये खातिर संगी, होंगे कतको कुर्बानी।।


हमर देश के  शान तिरंगा, लहर लहर ये लहराये।

भेदभाव ला छोड़ छाड़ के, हँसी खुसी सब फहराये।।


केसरिया सादा अउ हरियर, तीन रंग झंडा प्यारा।

सदा उड़य नित ये अगास मा, दुनियाँ ले सुग्घर न्यारा।।


ऊँच नीच अउ जाँत पाँत के, पाँटन हम सब मिल खाई।

एक संग सब मिलजुल रहिबो, छोड़न हम अपन ढिठाई।।


छोड़ लोभ लालच स्वारथ ला, सुग्घर अब रोज कमाबो।

प्रान देश हित बर अरपन कर, भुइयाँ के लाज बचाबो।।


 ज्ञानु

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 कुकुभ छंद गीत- *आज परब आजादी के*


आज परब आजादी के हे, चलव तिरंगा फहराबो।

वन्देमातरम संग जनगणमन गीत सबो मिल गाबो।।


हम सब बर उपकार बड़े हे, स्वंत्रता सेनानी के।

रखना हावय मान सदा दिन, उँखर दिये बलिदानी के।।

वीर शहीद अमर हो जुग-जुग, चरनन मा माथ झुकाबो।

आज परब आजादी के हे, चलव तिरंगा फहराबो।।1


सोन चिरइया दींन बना जी, ये भारत के माटी ला।

अनेकता मा बसे एकता, देइन शुभ परिपाटी ला।।

हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई, हम सब भाई कहलाबो।

आज परब आजादी के हे, चलव तिरंगा फहराबो।।2


संविधान शुभ ग्रन्थ इँहे हे, सब ला हक सुविधा देथे।

न्याय मिले निष्पक्ष जिहाँ तो, हर सबके दुविधा लेथे।।

गजानंद भारत भुइँया कस, देश कहाँ हम तो पाबो।

आज परब आजादी के हे, चलव तिरंगा फहराबो।।3


✍🏻इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"

बिलासपुर (छत्तीसगढ़) 15/08/2025

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: वीर सैनिक---- मदन छंद


देश बर जी जान देथे छोड़ घर परिवार।

मार बइरी ला गिराथे लाँघ सीमा पार।।

रोज पहरा देत रहिथे नइ करय आराम।

वीर सैनिक के लहू आथे वतन के काम।।


तान सीना ला खड़े वो जब करै ललकार।

शेर कस सँउहे दहाड़े कोन पावय पार।।

वीर सैनिक जब लड़े गा सब करैं अभिमान।

देश के रक्षा करे बर दे सदा बलिदान।।



मुकेश उइके "मयारू"

ग्राम- चेपा, पाली, कोरबा(छ.ग.)

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 विजेन्द्र: 

भारत मा सन  संतावन ले, होइस शुरू लड़ाई हाI  

आजादी बर फाँसी चढ़हिन, उँखरे होय बड़ाई हाII


कतका दाम चुकाइन वीरन, ऊँच रखिन खुद्दारी लाI

मातृभूमि के रक्षा खातिर, छोड़िन महल अटारी लाII 


रानी लक्ष्मी झाँसी के हा, खूब लड़िन बन मरदानीI 

बाँध पीठ मा लइका छुटका, रचदिन गा नवा कहानीII 


प्रान अपन हाथे मा लेके, लहू बहाइन बलिदानीI 

हालत खसता बइरी मन के, देखिन जब रूप भवानीII 


तात्या टोपे वीर शिवा जी, दिन हावय कुरबानी लाI 

देश धर्म के रक्षा खातिर, रखिन करेजा चानी लाII 


बिगुल बजाइन आजादी के, रिहिन बड़ा गा बलधारीI 

देख अँग्रेजन काँपय थर-थर, भारत माँ के  हितकारीII 


सत्य अहिंसा के बल बूते, अलख जगाइन गाँधी हाI 

बिस्मिल भगत राजगुरु के तब, चलिस बड़ोरा आँधी हाII 


देश प्रेम मा शेखर झुलगे, गर मा फंदा फाँसी लाI  

दूर करिन हे बोस खुदी हा, सबके इहाँ उदासी लाII  


महिमा गावँव मँय हा कतका, चन्दन जइसे माटी केI 

भारत भुइयाँ सोन चिरइया, सुग्घर पर्वत घाटी केII 


लाल बाल अउ पाल बनव जी, भीम राव जस गा ज्ञानीI

ऊँच-नीच के खाई पाटव, बोलव सब गुरतुर बानीII 


हिंदू मुस्लिम सिक्ख इसाई, लड़िन सबो भाई-भाईI 

तीन रंग के लाज रखे बर, कतको झन प्रान गँवाईII 


कतका शोसन ला सहिके उन, लाइस हे आजादी लाI 

धजा तिरंगा ऊँचा राखव, पहिरे हव गर खादी लाII


विजेद्र कुमार वर्मा 

नगरगाँव धरसीवांँ

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: आजादी के परब : सार छंद


                            - वसन्ती वर्मा


आजादी के परब आज हे,झंडा जी फहराबो ।

भारत माता के सेवा कर,जिनगी सफल बनाबो।


तीन रंग ले बने तिरंगा,सुघ्घर हे चिन्हारी।

देस प्रेम कर रक्षा करबो,भुइयाँ हे महतारी।


पुरखा मन जी लड़िन लड़ाई, मिलिस तभे आजादी।

नारा लगा स्वदेशी के जी,पहिरँय सब झन खादी।


सुरता हमन करत हन सब ला, होय जेन बलिदानी।

आजादी बर फाँसी चढ़के,लिख दिन अमर कहानी।


छंदकार:     वसन्ती वर्मा

            नेहरूनगर, बिलासपुर

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आठे परब विशेष


 : *मत्तगयंद सवैया-माखनचोर*


माखनचोर कहे जग हा,मँय तो कहिथौं चितचोर लला तैं।

हे करिया छलिया कहिथे,कउनो बिलवा रणछोर लला तैं।।

खावत माखन दूध दही,मटका धर देथस फोर लला तैं।

लूट डरे मन माखन ला,हरि बाँध मया कर डोर लला तैं।।


खेलत गेंद गिरे जमुना जल,नाथ डरे कलिया फुसनाये।

बाल पना बधके पुतना, रकसा मनला प्रभु मार भगाये।।

चाणुर मुष्टिक कंस बधे,धरती तँय दुष्ट विहीन कराये।

रास रचा मुरली धुन मा बृज, गोप गुवालिन के मन भाये।


काम नहीं कउनो छुटका प्रभु गाय चरा जग ला समझाये।

दूत बने पँडवा दल के तँय,कौरव के अभिमान गलाये।।

धर्म धुरा बनके रण मा,मनखे मनला खुद राह दिखाये।

मोह मया सब हे बिरथा, निसकाम करौ कहि ज्ञान बताये।।


देख नहावत वस्त्र बिना, लुगरा झट ले तँय नाथ लुकाये।

खींचत चीर अधीर दुशासन, हाँ विनती सुन दौंड़त आये।।

आय गरीब खड़े दर मा,मितवा बनके जग रीत निभाये।

खा छिलका प्रभु मान रखे अउ तैं भगती कर मान बढ़ाये।।


आस तहीं विसवास तहीं,मन प्रान तहीं अउ साँस तहीं हा।

सूरज चाँद अगास तहीं,बरखा गरमी मधुमास तहीं हा।।

मात पिता परिवार तहीं,प्रभु पूत सखा सब आस तहीं हा।

मोर नहीं कउनो जग मा,अब हे रिसता सब खास तहीं हा।।

नारायण प्रसाद वर्मा *चंदन*

ढ़ाबा-भिंभौरी,बेमेतरा छ.ग.

7354958844

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: कान्हा-- जयकारी छंद


मार काट माते हे आज।

लूटत हें दुरपति के लाज।।

विनती सुनले अब तो मोर।

दरसन दे दे माखनचोर।।


सुख के सुग्घर बोहय धार।

कृपा करव हे पालनहार।।

पाँव सुदामा जइसन मीत।

गूँजे सब गलियन में गीत।।


कंस भरे हें ये जग जान।

आ के हर ले तुरते प्रान।।

भाई-भाई मा होवत रार।

राग-द्वेष ला मन ले टार।।


दीन दुखी के तँय करतार।

आज लगादे बेड़ापार।।

बिपत हरव हे दया निधान।

फेर सुनाके गीता ज्ञान।।


बाढ़े अब्बड़ अत्याचार।

पापी मन ला आ के मार।।

कर दे कान्हा जग कल्यान।

तभ्भे आही नवा बिहान।।


मुकेश उइके "मयारू"

ग्राम- चेपा, पाली, कोरबा(छ.ग.)

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आठे कन्हैया


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चलौ तिहार मनाबो भइया।

जनम धरे हे कृष्ण कन्हैया।।


कृष्ण पक्ष भादो के आठे ।

रतिहा घुप अँधियारी डाँटे।

जेल कंस के हे दुख दइया।

जनम धरे हे कृष्ण-कन्हैया।


देइस जनम  देवकी माता।

गोदी आगे सुख के दाता।

वासुदेव गोकुल पँहुचइया।

जनम धरे हे कृष्ण-कन्हैया।


बाल कृष्ण के बात निराला।

संगी-साथी गोपी ग्वाला।

करै दुलार यशोमति मइया।

जनम धरे हे कृष्ण-कन्हैया।


जमुना तट मा धेनु चरावय।

 खेलै कूदै रास रचावय।

मोहन मुरली मधुर बजइया।

जनम धरे हे कृष्ण-कन्हैया।


छुटपन मा दुष्टन ला मारिस।

मार बकासुर पुतना तारिस।

मथुरा जाके कंस बधइया।

जनम धरे हे कृष्ण-कन्हैया।


धरम धजा वोहा फहराइस।

महभारत के युद्ध कराइस।

द्रुपद सुता के लाज बँचइया।

जनम धरे हे कृष्ण-कन्हैया।


वोकर अदभुत हावै लिल्ला।

माथ नँवाबो माई पिल्ला।

आय उही भवपार लगइया।

जनम धरे हे कृष्ण-कन्हैया।


चोवा राम वर्मा 'बादल '

हथबंद, छत्तीसगढ़

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 विजेन्द्र: *मुरली धारी (कृष्ण)- कुण्डलिया*


गिरधारी मनमोहना, कतका रास रचाय

पापी मन के नाश कर, जग ले पाप मिटाय।

जग ले पाप मिटाय, मनोहर मुरली धारी।

सबके बिपत भगाय, रात कारी अँधियारी।

यशोमती के लाल, अगम महिमा हे भारी।

भक्तन जपथें नाँव, सदा जय हो गिरधारी।।


*दुर्मिल सवैया*

*ललना जनमे ब्रज मा*


ललना जनमे ब्रज मा भइया,सब देवन फूल बरसाय भला I

हय रूप मनोहर मोहन के,सब देखय गा ललचाय भला I 

अउ नंद यशोमति के ललना,मुचले  कतका मुसकाय भला I

सुनके सब गोपिन ग्वालिन हा,घर नंद इहाँ सकलाय भला I



*रसिया रस माधव*


प्रभु रूप हरे मन भावन गा,जग मोहन मोह निकंदन हे। 

अउ भक्तन के सुख धाम उही,मनमोहन मोहक चन्दन हे। 

रसिया रस माधव रंग उही,प्रभु लाल यशोमती नन्दन हे।  

सब पीर बिसार करे तन के,तब लोग करैं बड़ वन्दन हे‌।



*पनिहारिन के घट फोड़ रहै*


मुरलीधर माधव मोहन हा,पनिहारिन के घट फोड़ रहै।

अउ गोप गुवालिन के कइसे,चुटिया धर रोज मरोड़ रहै।

हरि श्याम सुदर्शन केशव हा,सब ला अपने सन जोड़ रहै।

मन हर्षित होवय ग्वालिन के,चढ़के घट माखन तोड़ रहै।



 *छबि श्याम के*


अउ पाँव मिले करले प्रभु के,घुम तीरथ दर्शन धाम भला।    

अउ हाथ हवै धन दान करौ,कर लौ पुन के तब काम भला।

अउ कान मिले गुढ़ बात सुनौ,नइ लागय गा सुन दाम भला।

अउ आँख हवै झन हो अँधरा,मन मा रखले छबि श्याम भला।



*भक्तन के तुम पीर हरौ*


मनमोहन श्रीधर श्याम सखा,मन मंदिर मा नित वास करौ।

अनया अजया रविलोचन हौ,सब भक्तन के तुम पीर हरौ।

वसुदेव सुमेध सुदर्शन हौ,नित ज्ञान सुना ग कुठार भरौ।

मुरली अपराजित श्याम जना,नित पंकज के सब पाँव परौ।


विजेन्द्र कुमार वर्मा 

नगरगाँव (धरसीवाँ)

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दहेज- छंदबद्ध कविता

 दहेज- छंदबद्ध कविता


दहेज-हरिगीतिका छंद


छत्तीसगढ़ मा नइ रिहिस दाइज असन कुछु कुप्रथा।

बेटी रहे सोला अना नइ आय ताहन दुख व्यथा।।

धन अन्न कुछु बेटी मया मा बाप माई जोरथे।

दाइज हरे अभिशाप भारी जे मया मत टोड़थे।।


कतको गिराथे मान गुण शादी ला सौदा बोलके।

देबे फलाना चीज बस कहि माँगथें मुँह खोलके।।

ढाए जुलुम वर पक्ष हा बन लालची कतको डहर।

शादी असन शुभ काम मा ताहन हबर जाथे जहर।।


सब घर रथे बेटी तभो काबर मनुष सोचे नही।

जोरे मया ला लालची बनके मता देथे दही।।

विश्वास मा रहिथे टिके तौने नता हा नइ घुरे।

पुरथे मया माँगे नँगाये धन रतन हा नइ पुरे।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

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मुकेश : कुंडलिया छंद-- दाहिज/दहेज 


बइरी दाहिज आज गा, बनगे हे अभिशाप।

मनखे सबो समाज के, देखत हें चुपचाप।।

देखत हें चुपचाप, घरो-घर के करलाई।

बेचत खेती खार, हवय गा बड़ दुखदाई।।

धन दौलत के लोभ, मतावत घर मा गइरी।

होवत हे जंजाल, बहू बर दाहिज बइरी।।


माँगत मनमाने सबो, धन दौलत भरमार।

दाहिज ले के नाँव मा, होवत हे बैपार।।

होवत हे बैपार, चलावत गर मा आरी।

झेलत हावँय रोज, बहू मन विपदा भारी।।

शिक्षित होत समाज, तभो फाँसी मा टाँगत।

दाहिज डोली आज, लोग मनमाने माँगत।।


मुकेश उइके "मयारू"

ग्राम- चेपा, पाली, कोरबा(छ.ग.)


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 Dropdi साहू  Sahu: अमृतध्वनि छंद -"दहेज"

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लेथे  चलन  दहेज  के,  बनगे  हे  जंजाल।

बाप हवय कर्जा बुड़े, खस्ता होगे हाल।।

खस्ता होगे, हाल बाप धन, कतक सकेले।

पाई पाई, जोड़ जोड़ के, दुख खुद झेले।। 

खोजे नोख्ता, ताना अड़बड़, तब ले देथे।

बहू बने हे, सहे तभो बड़, दुख ला देथे।।


खोले मुँह रक्सा सहीं, कर दव येकर नास।

अइसन कुरीत रोक लव, भटकय झन ये पास।।

भटकय झन ये, पास तभे ये, सरबस जाही।

बेटी सब के, बिन  दहेज के, तब  जीं  पाही।।

जब मर जाही, लालच मन के, कुछु नइ बोले।

मिटही  दहेज, लेवइ  देवइ, नइ  मुँह  खोले।।

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द्रोपती साहू "सरसिज"

महासमुंद छत्तीसगढ़


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 नारायण वर्मा बेमेतरा: *सरसी छंद-दाइज डोल के बीमारी*


सुसकत हाबय आज दुलौरिन, कुलकत हें बइमान।

दाइज डोल बने नोनी बर,जइसे मरी मसान।।

चान करेजा के चानी ला, करथें कन्यादान।

पाल पोष ससुरार पठोथे, दाई ददा महान।।

तभो देख बेटी दहेज बर, होवत हे बलिदान। 

सुसकत हाबय आज दुलौरिन, कुलकत हे बइमान।।


सोना चांदी मोटर गाड़ी, रुपिया धन सामान।

लालच लोहा अउ कठवा के, लेवत हाबय प्रान।।

लेन देन हर बनगे अब तो, बड़हर मन बर शान।

फेर पिसागे घुना बरोबर, मोर गरीब किसान।।

शिक्षित होत समाज तभो ले, होगें सब नादान।

सुसकत हाबय आज दुलौरिन, कुलकत हें बइमान।।


नवाँ गृहस्थी चलय खुशी मा, देत रिहिन उपहार।

फेर काल बनगे एहर तो, लोग करत बैपार।।

लालच बाढ़त जात दिनोंदिन, माँगत हे मुँहफार।

प्रेम कहाँ पनहावय दुख मा, टूटत घर परिवार।।

दर्शन आज प्रदर्शन बनगे, मरना हे भगवान।

सुसकत हाबय आज दुलौरिन, कुलकत हें बइमान।।


बंद दहेज करव कहिथें अउ, लेवत हें दिल खोल।

नारी के सम्मान करव कहि, पीटत भर हे ढोल।।

अपने घर मा बँधुआ कस हे, सुन सुन कड़वा बोल।

कखरो आँखी के तारा अब,सींचत तन पिटरोल।।

घर के लक्ष्मी ढ़ारत आँसू, कुरिया मा सुनसान।

सुसकत हाबय आज दुलौरिन, कुलकत हें बइमान।।


मोल तोल बेटा के करथें, आवत नइहे लाज।

बहिष्कार कर अइसन मन के, देवय दंड समाज।।

दुरुपयोग कानून घलो के, होवत जमके आज।

कतको बपरा मन बर एहा, गिरथे बनके गाज।।

दू दिल के पावन संगम हा, बनगे रेगिस्तान।

सुसकत हाबय आज दुलौरिन, कुलकत हें बइमान।।

दाइज डोल बने नोनी बर, जइसे मरी मसान।।

नारायण प्रसाद वर्मा *चंदन*

ढ़ाबा-भिंभौरी, बेमेतरा छ.ग.


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 ओम प्रकाश अंकुर: कुंडलिया छंद 


           दाहिज दानव


दानव कस दाहिज हरे, जस समाज बर श्राप।

मारपीट झेलय बहू, कलपत हे मां-बाप।

कलपत हे मां-बाप, मुॅहू सुरसा कस तानय।

हावय ये अभिशाप, बने सब झन हा जानय।

धन -दौलत के स्वार्थ, पड़े अज्ञानी मानव।

'अंकुर' बात बताय, हरे दाहिज हा दानव।।


                ओमप्रकाश साहू अंकुर 

                  सुरगी, राजनांदगांव


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 कमलेश प्रसाद  शरमाबाबू: विषय - दहेज 


रोला -छंद 


देख खड़े हे आज, दहेज ह दानव बनके ।

जतके पढ़लिन लोग, लोभ अउ चढ़गे धन के।।

पढ़े-लिखे के खर्च, बहू के घर ले माँगत।

बेटा लगगे मोल, वसूली करथें लागत।।।।


बहिनी बेटी आज, झूल गे फाँसी चढ़ के।

कतको मन हा देख, मूक बन गें लिख-पढ़ के।।

पति दहेज बर रोज, सतावत पीटत मारत।

सहत बहू चुपचाप, खून के आँसू ढारत।।।।


कमलेश प्रसाद शर्माबाबू 

कटंगी-गंडई जिला केसीजी छत्तीसगढ़

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 नंदकिशोर साव  साव: चौपाई छंद - दहेज - दाहिज 


बहू घलो ला बेटी मानौ।

अपन कोख के लइका जानौ।।

झन मारव दाहिज के खातिर।

पापी मत कहलावव शातिर।।


कतको बेटी भुंजावत हे।

कतको फाँसी लटकावत हे।।

जहर खवा के कोन्हो मारय।

नरी चपक कोन्हो हा डारय।।


अब दहेज हा बनगे दानव।

लालच मा पड़गे हे मानव।।

सोना चाँदी रुपिया गाड़ी।

माँगत हे खेती अउ बाड़ी।।


हाँड़ी के सीथा कस कैना।

पर घर जाय बिहा के मैना।।

दे दहेज बाबा हर कतको।

कम पड़थे लोभी बर वतको।।


झन दहेज ला कोन्हो माँगव।

सुग्घर बहू बिहा के लानव।।

हँसी खुशी में समय पहावव।

अउ समाज मा नाँव कमावव।।


नंदकिशोर साव, राजनांदगाँव

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 दहेज। आल्हा छंद


ऊपर ले सब सिधवा सिधवा, भरें भीतरी मा सब राज ।

लीलत हाॅंवय जग ला देखव, दहेज दानव बनके आज।।


कतको बहिनी बेटी मरगे, मरगे जिनगी के सत्कार ।

पढ़ें लिखे सब हाॅंवय मनखे, फिर भी करथे अत्याचार ।।

सब ला जिनगी दिये विधाता, जिनगी मा सबके अधिकार ।

थोकिन पइसा खातिर काबर, काबर करथव घर मा रार।। 

सोच समझ ला राखव बढ़िया, बनही सुग्घर नवा समाज।

लीलत हाॅंवय जग ला देखव, दहेज दानव बनके आज।।


फोकट नोहय कखरो जिनगी, जला भूंज के मारे जान ।

 लेख करम के इहे भुगतबे, जाही तोरो असने प्राण ।।

पाई पाई हिसाब करही, ऊपर बइठे हे भगवान ।

देख करम अउ बने सुधर जा, बन जा तय बढ़िया इंसान ।।

दुनिया मा तय नाॅंव कमाबे, सुन ले मन के तय आवाज। 

लीलत हाॅ़ंवय जग ला देखव, दहेज दानव बनके आज ।।


ऊपर ले सब सिधवा सिधवा, भितरी भरे हवय सब राज।

लीलत हावय जग ला देखव, दहेज दानव बनके आज।।


दान लेत कन्या के देखव, शेर सही कइसे गुर्राय ।

देने वाला होथे बड़का, काबर बात समझ नइ आय ।।

महादान कन्या के होथे, फिर भी दानी माथ नवाय ।

स्वारथ खातिर देखव मनखे, , कइसे कइसे नियम बनाय ।।

चर्चा करलव जीव जगत में,  होही बढ़िया सुग्घर काज।

लीलत हाॅंवय जग ला देखव, दहेज दानव बनके आज।।


सार जान ले पोथी पढ़के, पोथी मा जग सार समाय ।

लक्ष्मी होथे  घर के नारी, नारी ही जग ला सिरजाय।।

नाशवान हे दहेज दानव, दहेज बर तय बहू जलाय ।

सार समझ ले लोभी मनखे , लोभ सही मनखे ला खाय ।।

गाॅंठ बाॅंध जिनगी मा अब तो , छोड़व कल के गलत रिवाज।

लीलत हाॅंवय जग ला देखव, दहेज दानव बनके आज।।

 संजय देवांगन सिमगा

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 रमेश मंडावी,राजनांदगांव: कुंडलिया छंद (दहेज)


डारिस माटी तेल ला,आज अपन वो अंग।

सास ससुर ससुरार ले,बहू रिहिस हे तंग।

बहू रिहिस हे तंग,सुने सब झन के ताना।

गोस‌इयाँ के रोज,मार अउ गारी खाना।

लगा देह मा आग,बहू जिनगी ले हारिस।

न‌इ दे सकिस दहेज,मार अब वोला डारिस।।


रमेश कुमार मंडावी (राजनांदगांव )

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 Om Prakash Patre: लावणी छन्द गीत - दहेज 


कतको झन मन बिलख-बिलख के, देखव ऑंसू ढारत हें ।

ये दहेज हा दानव बनके, बेटी मन ला मारत हे ।।


मातु-पिता के राज दुलौरिन, सपना देखिस सुग्घर के ।

राज कुॅंवर सॅंग जीहूॅं मरहूॅं, मोर सजन जिनगी भर के ।।


चूर-चूर करके सपना ला, बइरी हा पुचकारत हे ।

ये दहेज हा दानव बनके, बेटी मन ला मारत हे ।।


सौदा बाजी होगे शादी, धन दौलत के चक्कर मा । 

जिनगी अउ घर के बर्बादी, आपस के ये टक्कर मा ।। 


सास बहू बेटी के झगरा, आगी तन मा बारत हे । 

ये दहेज हा दानव बनके, बेटी मन ला मारत हे ।।


लालच मा पड़के लोभी मन, रिश्ता नाता तोड़त हें । 

खुद बोजावत हें गड्ढा मा, गड्ढा काबर कोड़त हें ।।


दया-मया नइ जानॅंय पापी, जुआ बरोबर हारत हें ।

ये दहेज हा दानव बनके, बेटी मन ला मारत हे ।।



छन्दकार व गीतकार

ओम प्रकाश पात्रे 'ओम'

ग्राम - बोरिया, जिला - बेमेतरा (छ.ग.)

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 Jugesh: दहेज

सरसी छंद-



अबड़ मया मा पलथे बेटी,होथे जीव अधार।

रहिथे वो आँखी के तारा,देथे खुशी अपार॥


करजा करके खूब ददा हा,अबड़ जिनिस ला लेय।

अपन मयारू बेटी संगे,गहना गुरिया देय॥


हँसी-खुशी ले जोरन जोरै,मन मा बाँधे आस।

 मन मा कुलकत सोचै देवँव,बेटी ला कुछ खास॥


करे ददा हा रोवत मन ले, बेटी के जी दान ।

चूहत आँसू पथरा होके, सौपे अपन परान ॥


पर दहेज के लाची मन के,लालच बाढ़त जाय।

मार पीट के करैं प्रताड़ित,आगी बार ' जलाय॥


जहर महूरा तको पियावै,  टोटा देवैं सार ।

उदिम बारहों करके लोभी,दैं बहूरिया मार॥


हे दहेज हा दानव जइसे,लेवय कतको जान।

ये कलंक जस हवै हमर बर,लेववअतका मान॥


घातक हे जेहा सब जन बर ,मानौ झइन रिवाज।

समय कहत हे,छोड़ चलौ अब,ये दहेज ला आज॥

जुगेश कुमार बंजारे "धीरज "

नवागाँव कला छिरहा दाढ़ी बेमेतरा

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 तातुराम धीवर : ।। दहेज।।

        ।। छन्न पकैया छ्न्द ।।

छन्न पकैया छन्न पकैया, घर परिवार उजरगे।

हे दहेज के आगी बम्बर, बेटी जरके मरगे।।


छन्न पकैया छन्न पकैया , भारी अत्याचारी।

ये सुरसा ला मार भगावव, हे समाज बर भारी।।


छन्न पकैया छन्न पकैया, पूत जनम जब लेथे।

मार खुशी के उन्ना दून्ना, दान पुण्य कर देथे।।


छन्न पकैया छन्न पकैया, बेटी जनम होय जब।

होगय जस घर मा हे मरनी, रोवय बिलख बिलख सब।।


छन्न पकैया छन्न पकैया, शिक्षित समाज होगे।

देख तभो ले लोभी मनखे, दहेज प्रथा मा खोगे।।


छन्न पकैया छन्न पकैया, बीज पाप के बोंथे।

हे समाज के ठेकेदारन, कुम्भकरन जस सोथें।।


छन्न पकैया छन्न पकैया, बेटी गोरी-नारी।

मातु पिता कर धन अभाव मा, बइठे हवय कुँवारी।।


छन्न पकैया छन्न पकैया, रोवय बड़ दुखियारी। 

सास ससुर पति हा नइ भावय, दुख सहिथे बड़ भारी।।


छन्न पकैया छन्न पकैया, छोड़व जी मनमानी।

हे दहेज लेना अउ देना, मूरख जान निशानी।।


छन्न पकैया छन्न पकैया, सद्बुद्धि सबो हरगे।

लोभी अउ लालची मनुज ले, ये दुनिया हा भरगे।।


छन्न पकैया छन्न पकैया, छोड़व बहू सताना।

परही नइते मार पुलिस के, जाना परही थाना।।


    तातु राम धीवर 

भैसबोड़ जिला धमतरी


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 प्रिया: *दहेज*  *सुमुखी सवैया*


दहेज समाज बिगाड़त हे जिनगी सुरसा कस लील डरै।

बिदा नइ होय दहेज बिना वर हा रुपिया बर माँग करै।।

अमीर रथे तब ले मनखे बिन लालच के नइ धीर धरै।

विरोध करे बिटिया मन ता कतको ससुरार परान हरै।।


प्रिया देवांगन *प्रियू*


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 जगन्नाथ सिंह ध्रुव : कुंडलिया छन्द    - दहेज 


जतके शिक्षित होत हे, मनखे मन हा आज।

माँगे नँगत दहेज ला, नइ आवय जी लाज।।

नइ आवय जी लाज, बाप कर्जा मा बुड़थे।

धन दौलत कतकोन, राख के जइसे उड़थे।।

देथे बाप दहेज, शक्ति ओखर हे वतके।

 अउ बाढ़त हे रोग, होत हे शिक्षित जतके।।


जगन्नाथ ध्रुव घुँचापाली

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 अश्वनी कोसरे : दहेज

छंद-मनहरण घनाक्षरी 


जब न लगिन माढ़ै, बेटी के उमर बाढै, कतकों मइके मा जी, दिने ला पहात हें|

जोरे जोरा दाई बाबू, महँगाई हे बेकाबू, लेहे देके घरभर, पँचहर बिसात हें|

होवत हे करलाई, रोवत हे छोटे भाई, बहिनी के हाँथ मा,  पिँयरी रचात हे|

टीका बर अँड़ गे हे, दुलहा मकड़ गे हे, हरियर मड़वा हा, नोनी ल रोवात हे||


अश्वनी कोसरे 'रहँगिया' कवर्धा कबीरधाम

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 विजेन्द्र: दहेज- दोहा छंद 


बेटी मन ला खात हें, रकसा आय दहेजI

मात-पिता मन हा कहँय, जलगे कइसे सेजII 


बइठे माथा ला धरे, का होगे भगवानI 

कोन जनम के पाप ये, कइसे गढ़े विधानII 


होगे सब बीमार का, फइले कइसे रोगI 

सुख सुविधा के आड़ मा, ललचा गेहे लोगII 


दानव आय दहेज हा, करके रखदिन राखI 

दुरगुण ला चतवार लव, तभे बाचहीं साखII 


बेटी मन रइहीं तभे, हरियर दिखही बागI 

गढ़ही सुघर समाज ला, झोंकव झन गा आगII


कैंसर येला जान लव, अजब दिखावत रंगI 

नींद चैन सब छीन के, घाव करत हे अंगII 


बड़का गा अपराध ये, माँगय जेन दहेजI 

अइसन ला धुत्कार के, करव सदा परहेजII 


मात-पिता मन सोचथें, जिनगी सुघर बितायI 

बेटी लक्ष्मी रूप ये, घर ला सरग बनायII 


अँधरागे मनखे इहाँ, होगे का बुध नाशI

बेटी मन ला मार के, दफनावत हें लाशII 


रकसा आय दहेज हा, लेन-देन हर पापI 

अइसन मनखे ला कहव, दुरिहा रसता नापII 



दहेज-कुंडलिया 


पाई-पाई जोड़ के, देथे ददा दहेजI 

अलवा-जलवा खुद रहय, पीके पसिया पेजI 

पीके पसिया पेज, पिता दिन रात कमाथेI

दाई गहना जोर, भाग  सुग्घर सिरजाथेI

धन के लोभी देख, करत हावय छिछड़ाईI 

बेटी सन मा राख, पिता के पाई-पाईII 



दुर्मिल सवैया 


बिटिया मन ले घर हा महके,हर मौसम देख सुहावन गा।

लछमी रमणी सुचिता शुभता,इकरे पँवरी बड़ पावन गा। 

रजनी रस गंध बहे सरसी, सब आवव मान बढ़ावन गा।

सुन आय दहेज विषाद बड़े,बनथौ अब काबर रावन गा।


विजेन्द्र कुमार वर्मा 

नगरगाँव धरसीवांँ


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 श्लेष चन्द्राकर : कुण्डलिया छंद 

विषय - दहेज


दानव हरय दहेज हा, लेवत कतको जान।

छोड़व येकर मोह ला, देखत हे भगवान।।

देखत हे भगवान, सजा के बनहू भागी।

दुलहिन बेटी आय, लगाहू झन गा आगी।।

लालच ला दव छोड़, बने बनजावव मानव।

हवय जिहाँ संतोष, उहाँ नइ पनपय दानव।।


लेवत लोग दहेज अउ, बेटा बेचत आज।

देखत ये सब खेल ला, चुप हें तभो समाज।।

चुप हें तभो समाज, दिनों-दिन बढ़त बुराई।

अलकरहा ये दौर, बहू मन बर करलाई।।

बेचत हवय जमीन, ददा तब दहेज देवत।

मेछरात बड़ आज, जेन हा येला लेवत।।


ले बर मरत दहेज बड़, लोभी मनखे जात।

बेटी के परिवार ला, पहुँचावत आघात।।

पहुँचावत आघात, माँग के गाड़ी-मोटर।

धरके पइसा लाख, भरत नइ हे मन ओकर।।

का-का करे उदिम, ददा हा दहेज दे बर।

तभो हवय धमकात, सोन के गहना ले बर।।


श्लेष चन्द्राकर,

महासमुंद

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 पात्रे जी: कुण्डलिया छन्द- *दहेज*


लीलत हवय समाज ला, दानव बने दहेज।

बेटी हे अनमोल धन, राखव सदा सहेज।।

राखव सदा सहेज, बना घर के फुलवारी।

तभे डेहरी रोज, मारही सुख किलकारी।।

धन के लोभी ताँय, हवँय अंतस ला छीलत।

दानव बने दहेज, शांति सुख ला हे लीलत।।


शादी बनगे आजकल, धंधा लूट खसोट। 

ले के दहेज रूप ये, दुख के मारत चोट।।

दुख के मारत चोट, भरत हे लालच मन मा।

नइ राखय संतोष, मनुज ला खुद के धन मा।।

धरे दिखावा लोग, करँय धन सुख बरबादी।

धंधा लूट खसोट, आजकल बनगे शादी।।


आँखी मूँद समाज हा, बइठे हे चुपचाप।

बाढ़े तभे दहेज के, जग मा बड़ संताप।।

जग मा बड़ संताप, लालची लोग बढ़ाये।

करजा धरे गरीब, रात दिन माथ ठठाये।।

आगी बने दहेज, जलावत हे सुख पाँखी।

जावव जाग समाज, खोल के देखव आँखी।।


दुख के काँटा ले भरे, हवय बिछाये सेज

बेटी के लीलत खुशी, दानव बने दहेज।।

दानव बने दहेज, अपन मुँह ला हे फारे।

रोवत हे माँ बाप, आँख ले आँसू ढारे।।

माथा धरे गरीब, फिकर मा बेटी सुख के।

शादी बनगे काल, आज जी सुन लौ दुख के।।


पाई-पाई जोर के, करय गरीब विवाह।

पर दहेज के लोभ हा, जिनगी करे तबाह।।

जिनगी करे तबाह, जलावत हें बेटी ला।

निर्लज लोभी लोग, रपोटे धन पेटी ला।।

सोचव गुनव समाज, सबो बर हे करलाई।

देवय बाप दहेज, सकेले पाई-पाई।।


✍🏻इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"

बिलासपुर (छत्तीसगढ़)

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ज्ञानू कवि: विषय - दहेज /दाहिज 

छंद - विष्णुपद 


सुरसा असन अपन मुँह खोलत, बड़ विकराल हवै|

आज बहू- बेटी बर बनगे, दाहिज कॉल हवै||


देखे रिहिस ददा- दाई हा, का- का गा सपना|

डोला उठगे बेटी के तब, सुन्ना घर - अँगना||


का- का जोरा- जोरी करथे, बड़ दिनरात ददा|

ले दे मुश्किल मा बिहाव के, करथे बात ददा||


सोच ददा बेटी वाले अव, रहिथे मूड़ नँवा|

पुतरी बेटी दाहिज सेती, देथे प्राण गँवा||


पढ़े- लिखे जतके मनखे मन, लोभ भरे मन मा|

चरदिनिया जिनगी मा मूरख, का राखे धन मा||


अँधरा- भैरा बनगे मनखे, रोवय रोज बहू|

मारपीट मा हाड़ा होगे, देख सुखात लहू||


ललचाहा, लम्पट लालच मा, फोकट तंग करें|

पीके दारू दाहिज बर बड़, अब्बड़ जंग करें||


कोंदी- बउली बन बपुरी हा, बस चुपचाप सहै|

मुँह मा फरिया अउ आँखी मा, पट्टी बाँध रहै||


बचन ददा के सुरता राखे, दुख- पीरा सहिबे|

कोनो काही कहै कभू ता, कुछु तँय झन कहिबे||


दानव दाहिज के सेती वो, फाँसी का जलगे|

यक्ष प्रश्न हे ये समाज बर, का रिवाज चलगे||


ज्ञानु

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 डी पी लहरे: मुक्तामणि छन्द गीत

दहेज


दानव जइसे जान लौ, ए दहेज हे भाई।

बेटी-बहु के होत हे ,दौलत मा तौलाई।।


मरना होथे बाप के, ए दहेज के सेती।

कर्जा-बोड़ी बाढथे, बिक जाथे जी खेती।

कमर टूटथे बाप के, ऊपर ले मँहगाई।

दानव जइसे जान लौ, ए दहेज हे भाई।।


लालच करे दहेज के, बेटा वाले भारी।

बेटी वाले के सदा, गर मा चलथे आरी।

ए कइसन के रीत हे, देथे बस करलाई।।

दानव जइसे जान लौ, ए दहेज हे भाई।।


दुल्हन असल दहेज हे, मानय कहाँ जमाना।

जलथे बेटी आग मा, मिलथे निशदिन ताना।

इही कलंक समाज के, मेटे हे सुघराई।

दानव जइसे जान लौ, ए दहेज हे भाई।।


बाढ़े अत्याचार हा, ये दहेज के कारन।

आवव अइसन रीत के, मिलके भुर्री बारन।

बिन दहेज के हम सबो, कन्या करिन बिदाई।

दानव जइसे जान लौ, ए दहेज हे भाई।।


डी.पी.लहरे'मौज'

कवर्धा छत्तीसगढ़

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 संगीता वर्मा, भिलाई: दहेज- कुंडलिया                                           

दानव बने दहेज हा, बइठे मुँह ला फारI                                         बेटी मन के बलि चढे, पड़े अकारन मारI                                     पड़े अकारन मार, बेचावय गूठा गहनाI                                   बेटी मन ला रोज, पड़त हे दुख ला सहनाI                                     सहीं गलत पहचान, कोन हे सिधवा मानवI                                   खुश रइही परिवार, भगावव अइसन दानवII


संगीता वर्मा, भिलाई


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 कौशल साहू: कुंडलिया छंद 


विषय - दहेज


मसकत हे कोनो नरी, फाँसी मा लटकाय।

बिन दहेज आये बहू, कहिके रोज सताय।।

कहिके रोज सताय, जहर जिनगी मा घोरय।

सास ननद नइ भाय, पटा पट अँगरी फोरय।।

कोंदा बने समाज, देख मुखिया खसकत हे।

बनके मरी मसान, नरी धर के मसकत हे।।


माँगत हे मुँह खोल के, लोभी मनुज दहेज।

लेन देन सत्कार कस, करत नहीं परहेज।।

करत नहीं परहेज, दिनों दिन बाढ़त आगर।

बूझय नहीं पियास, देख ले देके सागर।।

लेन देन अपराध, सबों मनखे जाँनत हे।

बर बिहाव मा फेर,नोट बंडल माँगत हे।।


कौशल कुमार साहू

जिला - बलौदाबाजार ( छ.ग.)

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 गुमान साहू: रूप घनाक्षरी 

।।दाहिज के साध।।


दाहिज के साध करै, लोग अपराध करै, फोकट के पूरै नही, तभो काहे ललचाय।

दाहिज के आगी जरै, बहिनी बेटी हा मरै, घर खेत जायदाद, सबो हर बिक जाय।

दाहिज हा होथे काय, कइसे ये सकलाय, अपन ऊपर आथे, तभे लोग जान पाय।

जमाना बदल गे हे, चाँद मा भी चल दे हे, तभो ये कुरीति लोग, बदल नही हे पाय(काबर हे अपनाय)।।

 

सरसी छन्द 

।।दहेज दानव।।

अब दहेज ला लेना देना, हावय बड़ अपराध।

तभो लोग मन प्रथा आड़ मा, करथे काबर साध।।


पढ़ लिख होगे आज जागरुक, लालच तभो समाय।

फोकट के धन नइ पूरय जी, लोग समझ नइ पाय।।


बर बिहाव मा पहिली देवय, खुश होके उपहार।

मात पिता हर पचहर रूपी, टीकँय मया दुलार।।


आज लालची होगे कतको, समझत हे अधिकार।

बेटी संग दहेज माँग के, करथे अत्याचार।। 


बात-बात मा मारय ताना, बहू पराई जान।

बहू कलेचुप सहे यातना, रखै बाप के मान।।


करै कमाई जिनगी भर जी, दे बर बाप दहेज।

थोर कमी ससुराल बहू ला, देवय मइके भेज।।


दानव आज दहेज बने हे, तोड़य घर परिवार।

कतको के ये छीनै जिनगी, लूटै घर संसार।।


कतको बेटी जबरन उल्टा, देवत हे लड़वाय।

ले दहेज कानून सहारा, झूठा केस फँसाय।।


हे दहेज वो कैंसर जेकर, नइहे कुछ उपचार।

सब समाज ला करना पड़ही, येकर अब संहार।।


- गुमान प्रसाद साहू 

- समोदा (महानदी)


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 +  : *दहेज*

*विधा- कुकुभ छंद*

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हे समाज बर ये दहेज हा, कोढ़ बरोबर दुखदाई।

येकर पीरा ला तइहा ले, भोगत हें बहिनी माई।।


बूड़ जथे जी ददा फिकर मा, देखत बाढ़त बेटी ला।

छिन-छिन मा देखय जा-जा के, पइसा वाला पेटी ला।

जोड़य ओ दिनरात-कमा के, धिरलगहा पाई-पाई।

येकर पीरा ला तइहा ले, भोगत हें बहिनी माई।।


हे दहेज ठाढ़े आगू मा, सुरसा जइसे मुँह फारे।

लालच के राक्षस निर्मोही, स्वाभिमान ला नित मारे।

येकर सेती होगे हावय, बेटी मन के करलाई।

येकर पीरा ला तइहा ले, भोगत हें बहिनी माई।।


हो जाथे कंगाल ददा हा, जस हीरा  बेटी देके।

पीर बढ़ावव अउ मत ओकर, धन दहेज रुपया लेके।

सबले बड़े खजाना बेटी, करव ओकरे पहुनाई।

येकर पीरा ला तइहा ले, भोगत हें बहिनी माई।।


      *डॉ. इन्द्राणी साहू "साँची"*

        भाटापारा (छत्तीसगढ़)


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 अमृतदास साहू : विषय - *दहेज*

सार छंद 


बाढ़य दानव कस दहेज नित, संग लोभ धर लाथे।

ये दहेज के मारे कतको,बेटी जर मर जाथे।


जनम धरे बेटी हा तब ले,चिंता लगे सतावै।

जिनगी भर गा ये दहेज बर,दाई ददा कमावै ।

सरी कमाई लगा देत हें,तभो कमी पड़ जाथे।

ये दहेज के मारे,कतको बेटी जर मर जाथे।

 

मनुज रूप मा आज घलो हें,कतको अत्याचारी।

बेबस होके झेलत हावयँ,दुख पीरा बड़ नारी।

नइ चिन्ह्ँय ये बेटी माई,सब ला ग्रास बनाथे।

ये दहेज के मारे कतको ,बेटी जर मर जाथे।


बर बिहाव नइ होवय संगी,अब बिन करजा बोड़ी।

लड़की वाले के पइसा मा, चढ़थे दूल्हा घोड़ी।

बिन दहेज अब समधी मन हा,भाँवर कहाँ पराथे।

ये दहेज के मारे कतको, बेटी जर मर जाथे।


दू ठन कुल के मान रखे बर,सहिथें चुप दुख पीरा। 

मर-मर जीथें हमर दुलौरिन,सोना बेटी हीरा।

दू पाटन के बीच भँवर मा,एमन जबर पिसाथे।

ये दहेज के मारे कतको, बेटी जर मर जाथे।


खतम करव अब जड़ ले नइते,होही बड़ करलाई। 

होही अइसन क्षति के संगी,हो नि  सकय भरपाई।

समे रहत अब जागव नइते,मलत रहि जबो हाँथे।

ये दहेज के मारे कतको, बेटी जर मर जाथे।


अमृत दास साहू

  राजनांदगांव

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 पद्मा साहू, खैरागढ़ : मुक्तामणि छंद


             *दहेज प्रथा के कानून*


लेथें-देथें  जेन  मन, रुपया पइसा भाई।

दंडनीय अपराध हे, ये  दहेज के खाई।।


सात बछर के भीतरी, पति सास लड़े  दोनों। 

अउ दहेज बर मारथें, पत्नी ला पति कोनों।।

तभे  तीन  सौ  चार  बी, लगथे  हत्या  धारा।

अपराधी मन भोगथें, तब सजा बिकट सारा।।

हे  दहेज  हा  कुप्रथा,  सबले  बड़े  बुराई।

दंडनीय  अपराध  हे, ये  दहेज  के  खाई।।


जेकर पति परिवार हा, पत्नी ला तड़पाथे।

तीन बछर के कैद वो, रुपया दंड चुकाथे।।

अउ चतु सौ अन्ठानबे, ए धारा लग जाथे।

महिला मन के न्याय बर, तब जज सजा सुनाथे।।

झन दहेज के माँग हो, झन हो पाप कमाई।

दंडनीय  अपराध  हे, ये  दहेज  के  खाई।।


बेटी करे बिहाव बर, बाप  जोड़थे  धन  ला।

झनी जलाव दहेज मा, बेटी मन के तन ला।।

हरे कलंक समाज बर, ये  फाँसी  के  फंदा।

करके पाप दहेज बर, झन करौ काम गंदा।।

येकर ले नइ होय हे, कखरो  कभू  भलाई।

दंडनीय  अपराध  हे, ये  दहेज  के  खाई।।

            रचनाकार

  डॉ पद्‌मा साहू *पर्वणी* खैरागढ़

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 रविबाला ठाकुर  


दोहा

विषय-दहेज


दानव बन दाहेज हा, लिल लिस बेटी देख।

मुड़ धर रोवत बाप हे, कोसत किसमत लेख।।


दान रूप दाहेज हा, होगे अब बैपार।

बलि चढ़त बिटिया ल देख, उजरत घर संसार।।


खतम करव ये रीत सब, रोकव अइसन खेल।

नइ मानय जे बात ला, ओखर कसव नकेल।।


रविबाला ठाकुर

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Friday, August 8, 2025

अस्पृश्यता- छंदबद्ध काव्य

 

 कुंडलियाँ

जाति-पाति के भेद 


मिलके झगरा आज जी, हवै मताये कौन।

जाति-पाति के भेद कर, नेता साधिन मौन।

नेता साधिन मौन, वोट उन पाहीं कइसे।

जब-जब होय चुनाव, निकालत जिन्न ल जइसे।।

राहव सब मिल आज, कमल तरिया कस खिलके।

'बाबू' मेटव भेद, आज जी सबझन मिलके।।।।


फेंकत हे शकुनी ममा, कपटी पासा चाल।

सत्ता स्वारथ बर इहाँ, बुनत बइठके जाल।।

बुनत बइठके जाल, फँसावत हें उन कसके।

जाति-पाति के भेद, डरावत हें उन डटके।।

गिरगिट जइसे रंग, विरोधी मन ला छेंकत।

कोन मिटाही भेद, जाल जब शकुनी फेंकत।।


कमलेश प्रसाद शर्माबाबू 

 कटंगी-गंडई 

जिला केसीजी छत्तीसगढ़

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   गुमान साहू वाम सवैया 

।।करौं झन भेद।।

करौ झन भेद कभू मनखे सब एक बरोबर राम बनाये।

हवै सबके रग एक लहू मनखे अलगे बस नाम धराये।

बने जन छोट बड़़े कर कर्म इहाँ तकदीर सबो सम पाये।

रखौ मन मा सब प्रेम सदा मन के सब देवव बैर मिटाये।।


- गुमान प्रसाद साहू 

- समोदा (महानदी)



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 शंकर छन्द 

।। जात पात अउ छुआ-छूत तज।।

जात पात मा हवन बँटाये, मनखे हमन आज।

ऊँच नीच अउ छोट बड़े मा, करै भेद समाज।

पढ़ लिख बनगे शिक्षित मनखे, तभो करथें भेद।

छुआ-छूत कर हिरदे भीतर, करैं कतको छेद।।


एके माटी ले गढ़े हवै, सबो ला भगवान।

छोट बड़े जी बने कर्म ले, इहाँ सब इन्सान।

लाल लहू रग हावय सबके, चाम हाड़ा एक।

एक धरा मा रखै पाँव सब, धरम जाति अनेक।।


कभू भेद नइ करै हवा हर, प्राण सबो बचाय।

एके पानी पीयैं सबझन, घाम एक सुखाय।

कोन खनिन हे छुआ-छूत के, खाई हमर बीच।

जात पात अउ ऊँच नीच के,

दियें रेखा खींच।।


करव मितानी आज सबो ले, छोड़व जात पात।

रंग भेद अउ छुआ-छूत तज, बनही तभे बात।

छोट बड़े अउ ऊँच नीच के, छोड़व सबो क्लेश।

मानवता के धरम सिखाथे, हमर भारत देश।।


- गुमान प्रसाद साहू 

- समोदा (महानदी)



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(सरसी छंद)

छाय हवय मानव समाज मा, भेदभाव के भूत।

एक बरोबर हे सब मनखे, झन मान ‌छुआछूत।।

जात -पात झन पूछव ककरो, जानॅंव बड़का ज्ञान।

ज्ञान हवय जेकर कर अब्बड़, देवव वोला मान।।

भगवान बनाइस हे मनखे, लहू सबो के एक।

स्वार्थ खातिर मनुज बनाइस ,जग मा जाति अनेक।।

रामचंद्र हा खाइस बोइर, धन सबरी के भाग।

भेदभाव  प्रभु  राम मिटाइस, फैलाइस अनुराग।।

 गला लगाइस केंवट ला हरि, बहिस नयन ले धार।

 दशरथ सुत हा डोंगहार के,नाव लगाइस पार।। 


                ओमप्रकाश साहू अंकुर 

                     सुरगी, राजनांदगांव।


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   सार छंद 


कतको पढ़ लिख ले हन तब ले,अनपढ़ता नइ जावै।

तभे मैल हा जात पात के,धोवे नइ धोवावै।


जस जस लोगन शिक्षित होवत,ये कुरीति अउ बाढ़ै।

जइसे लागय दुरिहाये कस,अउ आगू मा ठाढ़ै।

पाय पलौंदी राजनीति के,मुसवा कस भोगावै।

तभे मैल हा जात पात के, धोवे नइ धोवावै।


छुआ छूत अउ ऊँच नीच के,आज घलो हे खाई।

झेलत हावय कतको लोगन,कष्ट गजब दुखदाई।

लगथे नइ चाहय कुछ लोगन, भेदभाव दुरिहावै।

तभे मैल हा जात पात के, धोवे नइ धोवावै।


जात धरम के कारज बर सब,बिन सोंचे अगुवाथे।

देश धरम के आथे बारी,पाछू मुहूंँ लुकाथे।

बँटे हवयँ खुद जात पात मा,काला कोन बतावै।

तभे मैल हा जात पात के, धोवे नइ धोवावै।


छुआ छूत दुरिहावे खातिर,आइन ऋषि मुनि ज्ञानी।

तभो समझ नइ पाइन संगी,मूड़ी मूर्ख परानी।

लड़त‌ हवयँ इन आज घलो बड़,माने नइ समझावै।

तभे मैल हा जात पात के,धोवे नइ धोवावै।


रहव सदा बड़ जुरमिल के जी,सब हन भाई भाई।

भले कहाथन हिन्दू मुस्लिम,धरम सिक्ख ईसाई। 

धरम निभावौ मानवता के,इही सबे ला भावै।

तभे मैल हा जात पात के,चिटकुन अब धोवावै।


अमृत दास साहू 

  राजनांदगांव


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आवव मिलके पाटी संगी, ऊँच-नीच के खाई।

हिन्दू-मुस्लिम सिख-ईसाई, हम सब भाई-भाई।।


जाति-प्रथा से चारो कोती,बाढ़ँय अत्याचारी।

भारत माँ ला घायल करथे, बड़का ये बीमारी।।

भारत माँ अब रोवत  हावय, माते हे करलाई।

आवव मिलके पाटी संगी, ऊँच-नीच के खाई।


छुआछूत के भरम भूत ला, आवव मन ले झारी।

राक्षस जइसे डाहत हावय, मुख ला एखर टारी।।

मानवता के पाठ पढ़ा के, सुमता समता लाई।

आवव मिलके पाटी संगी, ऊँच-नीच के खाई।।


कोन बना पाही संगवारी ,भारत माँ ला पावन।

भाई-चारा ला खावत हे, जात-पात के रावन।

मानवता के नाश होत हे, कोन करय भरपाई।

आवव मिलके पाटी संगी, ऊँच-नीच के खाई।।


जात-पात के ए बंधन ला, मिलके आवव टोरी।

मनखे- मनखे एक बरोबर, सबले नाता जोरी।

भेद-भाव ला तज के जम्मो, नवा सुरुज परघाई।

आवव मिलके पाटी संगी, ऊँच-नीच के खाई।।



डी.पी.लहरे'मौज'

कवर्धा छत्तीसगढ़


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   गीतिका छन्द 

विषय-जात-पात


जात के ही नाँव ले नित होत अत्याचार हे।

का दलित का शुद्र मन के रोज हाहाकार हे।।


आदमी हन आदमी सब रूप एके रंग के।

जात के ताना कसौ झन आज ले बेढंग के।।

जेन कोती देखहू ता जात के बाजार हे।

जात के ही नाँव ले नित होत अत्याचार हे।।


देख लव माँ भारती के हम सबो संतान गा।

भारती हन भारती हे एक बस पहिचान गा।

आदमी मा भेद करथे तेन हा गद्दार हे।

जात के ही नाँव ले नित होत अत्याचार हे।।


बंधना ला जात के मिलके चलौ हम टोरबो।

एकता राहय बने नाता सबो ले जोरबो।

ऊँच के अउ नीच के गा भावना बेकार हे।

जात के ही नाँव ले नित होत अत्याचार हे।।


डी.पी.लहरे'मौज'

कवर्धा छत्तीसगढ़


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   +   दोहा छंद  


विषय  जात पात ऊॅंच नीच भेद भाव 


मनखे मनखे एक हे, एक लहू के रंग ‌।

भेद भाव के आड़ मा, काबर होथे जंग ।।  


मानवता के राह धर, मिलके कर लव काम ।

छुआ छूत सब छोड़ के, भज लव जय श्री राम ।।  


गला लगा ले दीन ला, ऊॅंच नीच सब पाट।

नींद फेर आही बने, बिन चद्दर बिन खाट।।  


राम राज के कल्पना, करत हवय सब लोग।

ऊॅंच नीच बड़ भेद हे, बनही कइसे योग।।  


शबरी के घर राम जी, खाथे जूठा बेर।

भेद मिटाये बर कभू, करय नहीं गा देर।।  


जग में देखव आज कल, ऊॅंच नीच बड़ खास।

पइसा वाला बात से, करथे बहुत निराश।।  


मर्यादा गहना हरे, सुख दुख दोनों पाॅंव।

नाॅंव कमा ले भेद के, जात पात के ठाॅंव।।  


राह नवा पीढ़ी नवा, सोचव सबझन काज ।

भेद भाव ला टार के, गढ़ लव नवा समाज।।



संजय देवांगन सिमगा


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   राजेश निषाद ।।चौपाई छंद।।

 जात पात, ऊँच नीच, भेद भाव 

सुनलव बहिनी सुनलव भाई। 

ऊँच नीच के करव बिदाई।।

रहव बनाके भाई चारा।

छुआ-छूत ला करव किनारा।।


हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई।

जैन बौद्ध बन होत लड़ाई।।

लाल लहू रग सबके हावै।

लोग धरम काबर अलगावै।।


जात पात के पाटव खाई।

मनखे सब हे भाई-भाई।।

रंग भेद सब करना छोड़व।

सुग्घर सबले नाता जोड़व।।


सुख दुख जिनगी मा तो आथे

मया मोह मा सबो भुलाथे।।

दीन दुखी सब ला अपना के।

राहव सबले प्रेम बनाके।।


होही तब तो नवा सबेरा।

भेद रुपी जब मिटे अँधेरा।।

मानवता के अलख जगावौ।

रंग भेद ला दूर भगावौ।


राजेश कुमार निषाद ग्राम चपरीद रायपुर

   प्रिया *समता* *चौपई*


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कइसे कलयुग आगे आज।

नइ लागय का तुम ला लाज।।

जात–पात के करथौ बात।

मन मा रखथौ इरखा घात।।


शिक्षा हो जाथे बेकार।

भेद–भाव के बहिथे धार।।

ऊँच–नीच के छोड़व भेद।

होथे सब के हिय मा छेद।।


छुआ–छूत ला दूर भगाव।

मनखे मन समता अपनाव।।

करथे जेमन अइसन भेद।

ओला मिलके तुरते खेद।।


ईश्वर के गढ़ना ला देख।

मनखे मन मा अपन सरेख।।

एक लहू अउ एके रंग।

हवै बराबर सब के अंग।।


मया पिरित के चढ़थे नार।

मिलथे सब ला खुशी अपार।।

कर लो संगी तुम सम्मान।

आही तभ्भे नवा बिहान।।



प्रिया देवांगन *प्रियू*


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*सोरठा छंद*

*यति-,*


 कोनो आज बताव, मिटही कब ये रोग हा।

महूँ समझ नइ पाँव, जाति- पाति के भेद ला।।


गिरजाघर गुरुद्वार, मंदिर मस्जिद  मा घलो।

 भेद-भाव हे यार, जाति धर्म के आज भी।।


गड्ढा पाटव आज, ऊँच- नीच के भेद के।

जागव सबो समाज, बना रखौ संजोग ला।


दिल मा रख के हाथ, पूछव अपने आप ले।

रहिथन का सब साथ, हिंदू मुस्लिम संग मा।।


फोकट झन दौ ज्ञान, खुद पहिली सुधरौ तहाँ।

पाछू बनौ सुजान, थोपौ झन जी बात ला।।


अपने भर ला छोड़, घर-घर मा तक भेद हे।

मुँह ला लेथें मोड़, सब मितान हें खात के।।


रंग रूप अरु देह, सिरजन हे भगवान के।

सबले राखव नेह, हाड़-माँस पुतला सबो।।


भेद करौ सब लोग, लबरा बेईमान ले।

आज मिटावव रोग, फैलत भ्रष्टाचार के।।


मानव-मानव एक, कब होही संसार मा।

मिटही कब मिन मेक, या अइसन चलते रही।।


भागवत प्रसाद चन्द्राकर

डमरू बलौदाबाजार


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कुण्डलिया छंद-


भेद करिस हे कोंन जी, रंग लहू मा फर्क।

सबके तन तो एक हे, मनखे कर लौ तर्क।।

मनखे कर लौ तर्क, बहे सब बर पुरवाई।

ऊँच-नीच ला छोड़, जाति के पाटव खाई।।

छुआछूत विकराल, धरा मा पाँव धरिस हे।

कपटी शातिर कोंन, मनुज मा भेद करिस हे।।


बनही कइसे विश्व गुरु, बोलव भारत देश।

जाति-धर्म के हे जिहाँ, मनखे मन मा द्वेष।।

मनखे मन मा द्वेष, धरे हें जहर बरोबर।

भेदभाव के खूब, भरे माथा मा गोबर।।

रखे श्रेष्ठता भाव, भेद के खाई खनही।

गजानंद तब देश, विश्व गुरु कइसे बनही।।


बाढ़त बनके हे जहर, जाति-धर्म हा रोज।

जावत नइहे जाति हा, हल येखर लौ खोज।।

हल येखर लौ खोज, तभे सुख सुमता आही।

नइ तो भारत देश, गर्त मा गिरते जाही।।

गजानंद जी जाति, साँप कस फन हे काढ़त।

बनके अछूत रोग, दिनोदिन हावय बाढ़त।।


इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"

बिलासपुर (छत्तीसगढ़)



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आल्हा छंद- *जाति-प्रथा*


जाति-धरम ले ऊपर उठके, गढ़ लौ संगी नेक समाज।

काबर देख छुवावत हावय, मनखे ले मनखे हा आज।।


जात जाति के जावत नइहे, उल्टा रूप धरे विकराल।

साध सुवारथ कपटी मनखे, शकुनी जइसे खेलत चाल।।


तार-तार कर मानवता ला, चींथत हें बन कउँवा बाज।

जाति-धरम ले ऊपर उठके, गढ़ लौ संगी नेक समाज।।


श्रेष्ठ जनम ले कोनों नइहे, करम करे ले बने महान।

संत कबीर कहे गुरु घासी, मनखे-मनखे एक समान।।


जाति-पाति अउ छुआछूत हा, फइले हावय बनके खाज।

जाति-धरम ले ऊपर उठके, गढ़ लौ संगी नेक समाज।।


एक कोख ले जनम धरे सब, एक सबो के तन अउ चाम।

रंग लहू तन एक समाये, मिले जगत मा मनखे नाम।।


मुक्ति जाति ले नइ हो पावत, नइ तो आवत हावय लाज।

जाति-धरम ले ऊपर उठके, गढ़ लौ संगी नेक समाज।।


सुमता के डँगनी मा बइठे, पड़की मैना अउ मंजूर।

एक घाट मा पानी पीयत, हावय चीता अउ लंगूर।।


एक खेत मा बाँध डरिन जी, सुमता ला सफरी दुबराज।

जाति-धरम ले ऊपर उठके, गढ़ लौ संगी नेक समाज।।


पर अबूझ मनखे नइ समझत, जाति-धरम ले जग नुकसान।

जाति श्रेष्ठ के ठप्पा ले के, बाँटत हें ज्ञानी बन ज्ञान।।


जाग जगा ले गजानंद तँय, भावी पीढ़ी करही नाज।

जाति-धरम ले ऊपर उठके, गढ़ लौ संगी नेक समाज।।


इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"

बिलासपुर (छत्तीसगढ़)



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ताटंक छंद- *जात-पात*


कोंन खनिस हे जात-पात के, मानव समाज मा खाई।

कोई होगे हिन्दू मुस्लिम, कोई हा सिख ईसाई।।


कोंन बनाइस वर्ण व्यवस्था, कर्म अधार बता के जी।

छोट-बड़े मनखे ला कर दिस, छत्तिस जात बना के जी।।

ब्राम्हन क्षत्रिय वैश्य शूद्र मा, तब बँटगे भाई-भाई।।

कोंन खनिस हे जात-पात के, मानव समाज मा खाई।।


चार वर्ण पहिचान बताइस, पैर पेट भुज माथा ला।

जहर विषमता के घोलिन हें, गावत झूठा गाथा ला।।

चतुराई कर चतुर मनुज हा, ऊँच सिंहासन हे पाई।

कोंन खनिस हे जात-पात के, मानव समाज मा खाई।।


बाँटिन मरघट घाट घठौंदा, गाँव गुड़ी अउ पारा ला।

नींव हिला दिंन सुमता के जी, भेदभाव भर गारा ला।।

चाल चलिन हें झन पावय कहि, छोट जात हा ऊँचाई।।

कोंन खनिस हे जात-पात के, मानव समाज मा खाई।।


इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"

बिलासपुर (छत्तीसगढ़)


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ताटंक छन्द गीत - खाई ला पाटव सॅंगवारी 


ऊॅंच-नीच अउ भेदभाव के, बाढ़त हावय खाई गा ।

खाई ला पाटव सॅंगवारी, होवत हे करलाई गा ।। 


जाति धरम मा बॅंटगे मनखे,  छुआछूत हा छाये हे । 

ब्राम्हण क्षत्रिय वैश्य शूद्र मा, ये दुनिया लपटाये हे ।।


कोन बतावय मनखे मन ला, मनखे भाई-भाई गा । 

खाई ला पाटव सॅंगवारी, होवत हे करलाई गा ।।


जनम धरे ले ऊॅंच-नीच के, कहाॅं पता चल पाथे गा ।

अपन करम ले मनखे मन हा, ऊॅंच-नीच बन जाथे गा ।।


कतको झन बर ये जिनगी हा, होगे हे दुखदाई गा ।

खाई ला पाटव सॅंगवारी, होवत हे करलाई गा ।।


बाबा साहब भीम राव हा, संविधान निर्माता हे । 

शोषित अउ पिछड़ा समाज के, वो तो भाग्य विधाता हे ।। 


जुरमिल के राहव सब हिन्दू, मुस्लिम सिख ईसाई गा ।

खाई ला पाटव सॅंगवारी, होवत हे करलाई गा ।।


छन्दकार व गीतकार

ओम प्रकाश पात्रे 'ओम '

बोरिया (बेमेतरा)


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विधा - सरसी छ्न्द  , 


भेद भाव ले भरगे मनखे, करथें दुहरी बात।

बात बात मा बात बढ़ा के, दिखा जथें अवकात।।


करे कोन बइरी मन हावय, जात पात के भेद।

टँगिया परय मुँड़ी मा ओखर, हिरदय होवय छेद।।


हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई,  एक सबों हे भ्रात।

बात बात मा बात बढ़ा के, दिखा जथें अवकात।।


जात धरम के नाम होत हे, बाँट बँटउला खेल।

इक दूसर हा लड़त मरत हे, नहीं कहूँ सन मेल।।


लड़ा लड़ा के मार डरिन हे, कर दिन हिरदय घात।

बात बात मा बात बढ़ा के, दिखा जथें अवकात।।


जातिवाद के खाई गहरा, कोन सकिन हे पाट।

पाटत पाटत खुदे पटागे, नइ बाँचिन हे ठाट।।


कर नइ पावत हे मनखे हर, एक सबों हे जात।

बात बात मा बात बढ़ा के, दिखा जथें अवकात।।


कुकुर बिलाई चूमे चाँटे, डोर मया के डार।

छुवा जथे मनखे मनखे ले, कहिथे येला टार।।


मुँड़ भसरा गिरथे मनखे जब, जम के खाथे मात।

बात बात मा बात बढ़ा के, दिखा जथें अवकात।।


वेद शास्त्र के लेख बताथे, पिता सबों के एक।

स्वारथ मा हावय कर डारिन, मनखे जाति अनेक।।


भेद करिन नइ हवा देवता, दिये सबों सौगात।

बात बात मा बात बढ़ा के, दिखा जथें अवकात।।


भेद करिन नइ सुरुज देवता, दिये बरोबर घाम।

खाय बेर जूठा शबरी के, जगत पिता श्री राम।।


भेद करिन नइ अगिन देवता, रहे सबों बर तात।

बात बात मा बात बढ़ा के, दिखा जथें अवकात।।


भेद भाव ला दूर करे श्री, राम लिये अवतार।

नर नारी मा भेद करव झन, ये जग के आधार।।


कहिथे भूत बात नइ मानय, परे न जब तक लात।

बात बात मा बात बढ़ा के, दिखा जथें अवकात।।


     तातु राम धीवर 

भैंसबोड़ जिला धमतरी



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छंद - विष्णुपद 


चिल्लावत हन मनखे- मनखे, एक समान हवै|

जाँति- पाँति अउ ऊँच- नीच के, फेर गठान हवै||


एक अंग अउ एक चाम हे, हाड़ा एक लहू|

फेर अलग कइसे मनखे हे, सिरतों सोच तहू||


कतको आगी रोज लगावत, भाषण झाड़त हे|

भेदभाव के जहर दिनोदिन, जग मा बाढ़त हे||


छुआछूत के गाँव- शहर मा, फइले रोग हवै|

मानवता के आज पाठ ला, भूले लोग हवै||


जाँति- धरम के नाम रोज के, दंगा होवत हे|

राजनीति के संरक्षण मा, नफरत बोवत हे||


बम बन के स्वारथ मा अपने, मनखे फूटत हे|

तोरी- मोरी मा कतको अउ, रिश्ता टूटत हे||


जन सेवा ही हरि सेवा हे, झाड़त भाषण हे|

मिलें कहाँ अउ हक गरीब ला, कइसन शासन हे||


समय रहत ले चेत जाँव अब, दूर भगावव जी|

ऊँच- नीच अउ जाँति- पाँति के, खाई पाटव जी||


ज्ञानु


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    *चौपाई छन्द*

*छुआछूत*

छुआछूत तुम का ला कहिथौ।

गलत सोच मा काबर रहिथौ।।

छुआ कन्हो मनखे मा नइ हे।

सही अर्थ तो भेद करइ हे।।


मनखे प्रभु के हे सिरजाए।

जात-पात प्राणी अपनाए।।

ये समाज ला हवै सिखाना।

छोड़ौ कखरो हॅंसी उड़ाना।।


मनखे-मनखे सबो बरोबर।

राखव सुमता बने घरो-घर।।

एक-दुसर ला देख चिढ़ौ झन।

गलत धारणा कभू गढ़ौ झन।।


छुतहा मनखे वो कहलावय।

गिनहा जेकर करनी हावय।।

जेन दलिद्दर कस जीयत हें।

माॅंस खात मउहा पीयत हें।।


निंदा-चारी जे अपनाथें।

पर-नारी बर लार चुहाथें।।

झूठ बोल के पइसा लूटैं।

दुब्बर पशु ला मारैं कूटैं।।


दुरिहा राहव अइसन मन ले।

सीख पाय हॅंव मॅंय संतन ले।।

कहिथे गुरु घासी के बानी।

छुतहा मन के इही निशानी।।


असली परिभाषा ला जानौ।

छूत सदा करनी ला मानौ।।

छुआ जात मा नइ हे सुन लौ।

ये नादान कहे सब गुन लौ।।

*तुषार शर्मा "नादान"*


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*दोहा छंद*


पहली तीनों लोक मा, वर्ण रहिस हे चार।

ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य अरु, शुद्र जगत आधार।।


कइसे बँटगे जाति मा, जानव जम्मो मर्म।

जिनगी पालन बर करैं, जेहर जइसन कर्म।


रक्षा खातिर जेन मन, बाँह उठाइन भार।

क्षत्रिय पागे नाम ला, जानिन सब संसार।।


रोजी रोटी पाय बर, जेन करिन बयपार।

 वैश्य धरागे नाम हा, बनिया   साहूकार।।


राज महल अउ राज मा, बाचँय वेद पुरान।

पूजन लागिन लोग सब, ब्राह्मण  बने महान।।


धर्म निभावत दुख सहै,, बनके सेवादार।

नाम धरागे शुद्र के, तन- मन- धन लाचार।।


ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य मिल, खूब चलिन हें चाल।

तीन भाग मा शुद्र ला,  बाँट करिन बेहाल।।


कहैं आदिवासी दलित, अउ पिछड़े हे लोग।

शोषण तीनों के करैं, नइ लागय जी सोग।।


 तब ले देखव आज तक, फैले हे ए रोग।

ऊँच-नीच के भेद ला, कब बिसराहीं लोग।।


कतको चिल्लाथें भले,  मत करहव नर भेद।

राजनीति चमकाय बर, नेता करथे छेद।।


 देखव पानी घाम ला, सब ला समझै एक।

हवा घलो बिन भेद के, सबबर करथे नेक।।


जाति-धर्म के भेद ला, लानिन जग मा कौन।

पूछत हावय भागवत,  काबर हावव मौन।।


भागवत प्रसाद चन्द्राकर

डमरू बलौदाबाजार


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   विजेन्द्र जयकारी छंद 


ऊँच-नीच मा फरक मिटाव।

मानवता के राह दिखाव II

अपने भीतर दीप जलाव।

अँधियारी ला दूर भगाव।।


करव कुरुति मा जबर प्रहार।

रखव बात बानी व्यवहार।। 

सही गलत के करव विचार I 

जिनगी होही तब उजियार II


छुवाछूत के फइले रोग।

भोगत हावय कतको लोग।। 

ऊँच-नीच ला मन ले झार I

तभे लामही सुमता नार  II


मनखे-मनखे एक समान I 

भेद-भाव कर मरथव जान II

अइठन अंतस मा झन पाल I

जाति-पाति हा भ्रम के जाल।।


रंग लहू के सबके एक।

मनखे करलव कारज नेक।।

गिनहा मन के बाते छोड़। 

जुड़त हवय तेला तँय जोड़।।


संग तोर काहीं नइ जाय। 

पुण्य करम हा भाग बनाय।।

मनखे हावय उही महान। 

छोट बड़े नइ जानय जान।।


विजेन्द्र कुमार वर्मा 

नगरगाँव (धरसीवांँ)



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   विजेन्द्र कुण्डलिया छंद 


समता के हो भाव तब, गढ़थे देश विकास।

जात-पात के फाँश मा, होथे सदा विनाश।

होथे सदा विनाश, पड़े पाछू पछताना।

छुआछूत के रोग, इहाँ ले हवै  भगाना।

जात-पात के छोड़, मोह माया अउ ममता।

ऊँच-नीच ला पाट, तभे आही गा समता।।


विजेन्द्र कुमार वर्मा 

नगरगाँव (धरसीवांँ)



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   बलराम चन्द्राकर जी रोग आवौ मिटाबो-

(सवैया बागीस्वरी) 


गरीबी अशिक्षा बने श्राप हे, बाल-बच्चा पढ़ाना जरूरी कका।

मिलै हाथ ला काम रोटी मिलै, जेब मा आय रोजी मजूरी कका।

रहै आदमी आदमी एक हो, ना चलै काकरो घेंच छूरी कका।

छुआछूत के रोग आवौ मिटाबो, रही एक संसार जूरी कका।।


बलराम चंद्राकर भिलाई


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   बलराम चन्द्राकर जी भेद-

(सवैया गंगोदक) 


पंथ के भेद हे वर्ग के भेद हे, जात के भेद हे धर्म के भेद हे।

विश्व के देश मा बोल के भेद हे, रूप के रंग के चर्म के भेद हे।

देश मा भेद हे वेश मा भेद हे, आदमी आदमी कर्म के भेद हे।

ऊंच के नीच के पुण्य के पाप के, लागथे लोग मा मर्म के भेद हे।।


बलराम चंद्राकर भिलाई


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   बलराम चन्द्राकर  *आवौ जुरमिल के रबो*

(छंदप्रदीपबइगा) 


जात-पाँत अउ ऊँच-नीच मा, होवत बंटाधार हे।

देश-प्रेम हा पाछू होगे, स्वारथ आगू यार हे।। 


राजनीति के भेंट चढ़े हे, असली मुद्दा देश के। 

होत लड़ाई आपस मा बस, दृश्य दिखत हे क्लेश के।। 


एहा वोला वोहा एला, जम्मो हुदरत कोचकत।

जिम्मेदारी कोन निभाही, हवैं कलेचुप बोचकत।। 


नेता-अफसर चट्टा-बट्टा, लेन-देन के जोर हे। 

ककरो तैं सरकार बना ले,आसन बइठे चोर हे।। 


आफिस-आफिस चक्रव्यूह हे, कहाँ- कहाँ तैं बाँचबे। 

ए फारम ला वो फारम ला, बार-बार तैं नाँचबे।। 


जात-धरम के अगुवा बन के, बिगड़ी कोन बनात हे।

सब ला पंच विधायक बनना, पद ला ढाल बनात हे।। 


दिखा एक-दूसर ला नीचा, मन ला बड़ सहलात हें।

ये सोशल मीडिया रात दिन, मनखे ला भरमात हे।। 


कहाँ चिन्हारी झूठ-साँच के, अपन-अपन जम्मो मगन।

मउका खोजत हे संसारी, कब कइसे हम हा ठगन।। 


मानवता अब नाश दिखत हे, बुड़े ढोंग मा आदमी।

सत मारग रेंगैया मन के, काबर होवत हे कमी।। 


सब अपने ला ऊंचा समझत, होत दिखावा घात हे।

अंदर खाना जिनगी बेढब, बिरबिट कारी रात हे।। 


 सुमता-समता रहना होही, तभे भलाई गाँठ लौ। 

जन-मन देश समाज सुधारे, मन मा निर्णय टाँठ लौ।। 


मनखे-मनखे एक-समाना, खींच-तान का फायदा। 

घासीदास बबा के सुग्घर, अंतस राखौ कायदा।। 


संत कबीर कहे हे जग मा, मनखे रहना चार दिन। 

फेर लड़ाई झगरा काबर, मया बाँट लौ थोर किन।। 


राम बुद्ध के देश हरे ये, रहना सब ला साथ हे। 

भूल सुधारत बाबा साहब, संविधान अब नाथ हे।। 


इही देश मा शहर गाँव मा, इहें जनम-माटी सबो।

दया-धरम ले अंतस सींचत, आवौ जुरमिल के रबो।। 


छंदकार 

बलराम चंद्राकर भिलाई



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   मुकेश  कुंडलिया छंद-- भेदभाव


आवव मिलके काट दव, ऊँच-नीच के जाल।

आज घलो छाए हवय, भेदभाव विकराल।।

भेदभाव विकराल, होत हे देखव कइसे।

देवव सब ला मान, बरोबर अपने जइसे।।

ऊँच-नीच के भेद, कभू झन मन मा लावव।

सुमता के परिवार, बनाबो मिलके आवव।।


मुकेश उइके "मयारू"

ग्राम- चेपा, पाली, कोरबा(छ.ग.)



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     माहिया छंद 


भेद-भाव लटका थे, 

ना समझी मनखे,

रद्दा ला भटका थे ।


ऊंच नींच भाग जही,

मया पिरित राखव, 

सूते हा जाग जही। ।


सब एक बरोबर हें, 

मनखे-मनखे बर, 

मनुहार सरोवर हे।


राजा ना रानी हे,

धरती कोरा मा,

सब झन बर पानी हे। ।


सूरज कब भेद करै, 

घाम छाँव सब बर, 

मनखे मन छेद करै।।


जे प्रेम कमाही जी, 

सबके हिरदे मा, 

घर एक बनाही जी। 


हम जात बनाए हन, 

टोर घलो देबो, 

अब हाथ बढ़ाए हन।।


दुनिया हर मेला ये, 

मेल डरे सब ला, 

मुँड़ पेलिक पेला ये। ।



सुमित्रा शिशिर भिलाई


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 सरसी छंद

विषय- सुमता, एकता


मिलके सुमता ले सब राहव ,सबके राखव ध्यान। 

देके सबला मीठा बोली,  बाँटव  घर ग्यान।। 

बोझा भारी हे संसो के, घर मा रखव उतार। 

रहिथे सुमता जेकर घर मा, सुखी उही परिवार।। 


पूछव सबके काम धाम ला, रद्दा सही देखाव ।

सब झिन मिलके कर लो मिहनत,मन चाहा फल पाव।। 

लागा बोड़ी ला नइ जाने, जाने नहीं उधार । 

रहिथे सुमता जेकर घर मा, सुखी उही परिवार।। 


माथ निहारे बिपदा लहुटे , अपन मान के हार । 

बाहिर खोजे मा नइ पाबे, घूम जबे संसार।।

येकर ले सब उपजे बाढे, ये ही हमर अधार। 

रहिथे सुमता जेकर घर मा, सुखी उही परिवार।। 


दुरिहा छोड़व भेदभाव ला, सुमता हावय  सार  । 

सबके सुनके मन मा गुन के, लगा ले मया नार।।

बोबे तेला लूबे तैं हा, मन के मधुरस झार।। 

रहिथे सुमता जेकर घर मा, सुखी उही परिवार।।


मोहन लाल साहू " कबीरपंथी"

छंद साधक, सत्र 

ग्राम दानीकोकडी(धमधा) दुर्ग



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दोहा छंद


*छुआ - छूत, भेदभाव ,ऊंच - नीच*


छुआ - छूत का चीज हे , कोन बनाये जात।

दरद होय तन ला तभो,मुक्का हो या लात।।


मनखे मन के सोच ला, देखत रोय कबीर।

कोनो भी बरतन रहय ,दूध बनाही खीर।।


पानी हवा अगास मा, नइहे कोनो भेद।

मनखे मा अंतर भरे, सोच घड़ा मा छेद।।


सबके घर पानी गिरे, सब घर आये घाम।

सब ला ईश्वर दे हवय,रंग रूप अउ चाम।।


कोन करे घपला इहाँ, कोन रचत हे स्वाँग।

नाम लेत भगवान के ,मनखे पीये भाँग।।


समय - समय के बात हे, समय-समय के सोच।

समय बदलगे हे सखा,मिटही मन के मोच।।


एक सरीखे सब हवंय, फेंकव छूत विकार।

 मिले हवय हर वर्ग ला,स्वतंत्रता अधिकार।।


जस - जस होवत हे इहाँ,शिक्षा के विस्तार।

भेद मिटत हे जाति के, सुधरत हे व्यवहार।।


सुनलव आही एक दिन, रहही मनखे नाम।

जाति - धरम सब मिट जही, बच जाही बस काम।।



आशा देशमुख


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   जगन्नाथ सिंह ध्रुव  दोहा छंद

 

 भेद -भाव 


भेद भाव ला छोड़ दौ, मनखे हे सब एक।

जाति धर्म अउ रंग हा, हावै भले अनेक।।


जुरमिल राहव एक मा, बनही बिगड़े काज।

जन -जन के मन मा तभे, करहू निशदिन राज।।


एक मातु के पूत हौ, एक लहू के रंग।

पीरा होथे एक जस, कटे काखरो अंग।।


कतका रोज बताय हे, सज्जन संत सियान।

मन के भेद मिटाय बर, सब ले बदौ मितान।।


आदिकाल ले एक हे, शिक्षा अउ संस्कार।

चलव सदा सद मार्ग मा, इही जगत आधार।।


भेद भाव ला पाल के, राखव झन बेकार।

जिनगानी के दिन इहाँ, हावय गिनवा चार।।


खाँई गड्ढा पाट दौ, भेदभाव के आज।

मानुष तन ला पाय के, रख लौ जग मा लाज।। 


पर हित अउ सम्मान के, रखव सबर दिन ध्यान।

ये जग मा सुग्घर तभे, होही नवा बिहान।।


जगन्नाथ ध्रुव

घुँचापाली बागबाहरा



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   अश्वनी कोसरे  दोहा छंद


अस्पृश्यता उन्मूलन  जाति-प्रथा  ऊँच-नीच  भेद-भाव


भाईचारा ले बने, दुनिया के माहोल|

मानवता के रूप मा, विश्व गुरु के बोल||


सबो जीव के मोल हे, संरक्षण अधिकार|

जात पात ले हे बड़े, मनखे सब परिवार||


देव पहर आजो हवय, हे मानुष मा ज्ञान|

मानवता आजो रहय ,कहिथें संत सुजान||


तन मन बने सँवार के, पबरित सुमता भाव|

भेद कहाँ रहि जाय जी, समता फिर सिरजाव||


भेद भाव मा का मिलै, जिनगी हे अनमोल|

 वाणी गुरुजन के गुनन, बोले हे बड़ तोल||


अश्वनी कोसरे 'रहँगिया' कवर्धा कबीरधाम


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   अश्वनी कोसरे  वीर छंद


भेद - भाव


सुरुज नरायन भेद करिन का, जात रंग मनखे के देख |

बादर पानी छाँटे गिरथे, का बड़हर के घर हे लेख||


डर कुलीन पुरवाही चलथे, का कुलवंता हावँय शेर|

काबर घलो जरोथे आगी, राजा जर के हावँय ढेर||


अपन विकासे राज धरम के, जाति पाति के हावय शोर|

लोकतंत्र मजबूत करे ले, मिल पाही समता सुखभोर||


जाति देख के सत्ता झुकथे, काबर मन मा रखथें भेद|

छुआ छूत हे भवना दहरा, मानवता बर बड़का छेद||


उजियारा शिक्षा ले आही, समता - सुमता के सुर देख|

ऊँच - नीच के पटही खाई, जात धरम के मूल सरेख||


अश्वनी कोसरे 'रहँगिया' कवर्धा कबीरधाम

   कौशल साहू कुंडलिया छंद


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विषय -ऊँच-नीच  भेद-भाव  छुआछूत


बाँटव झन मुँह रंग मा, ईश्वर के सब अंश।

कोनों ला अब झन डहय, छुआछूत के दंश।।

छुआछूत के दंश, सहे पीरा दुखदाई।

भेद-भाव बिसराव, बरोबर पाटव खाई।।

जनमन उपजन एक, गौर करिया झन छाँटव।

बनके सूरज चाँद, अँजोरी रतिहा बाँटव।।


सबके तन मा हे लहू, लाली लाली रंग।

परम पिता जी एक हे, सिरजाये सम अंग।।

सिरजाये सम अंग, भेद काबर फिर करथव।

जात धरम मा रार, जहर ये मन मा भरथव।।

ऊँच-नीच ला पाट, रहव झन कोनों दबके।

मनखे एक समान, लहू हे लाली सबके।।



कौशल कुमार साहू

जिला - बलौदाबाजार ( छ.ग.)


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    *अस्पृश्यता जाति-प्रथा भेद-भाव ऊँच-नीच*

*विधा- आल्हा छंद गीत*

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जनम धरे हें सबो परानी, जब भुइयाँ के एके ठाँव।

मनखे-मनखे ला मत बाँटव, जाति-धरम के लेके नाँव।।


बाम्हन क्षत्री वैश्य शुद्र ये, चार वर्ण के हे उल्लेख।

काम अधार बने ये सबके, पोथी पुरखा पढ़ लव देख।

बाँधत हव अब काबर संगी, जाति-पाँति के बेड़ी पाँव।

मनखे-मनखे ला मत बाँटव, जाति-धरम के लेके नाँव।।


जइसे करनी वइसे भरनी, हवय कहावत जग मा जान।

जाति चिन्हारी नोहय ककरो, करम बनाथे जी पहिचान।

भाईचारा ला अपना के, सरग बरोबर बनथे गाँव।

मनखे-मनखे ला मत बाँटव, जाति-धरम के लेके नाँव।।


ऊँच-नीच कोनो नइ होवय, जाति सबो हे एक समान।

एके अन्न सबो झन खाथें, तब काबर हे भेद सुजान।

मनखे होके मनखे मन बर, छूत समझ के करव न खाँव।

मनखे-मनखे ला मत बाँटव, जाति-धरम के लेके नाँव।।


जुरमिल के सब काम करव अउ, गावव मिल सुमता के गीत।

शिक्षा अउ संस्कार जगावव, आपस मा राहव बन मीत।

भेदभाव के पाटव खाई, तब मिलही खुशहाली छाँव।।

मनखे-मनखे ला मत बाँटव, जाति-धरम के लेके नाँव।।


      *डॉ. इन्द्राणी साहू "साँची"*

        भाटापारा (छत्तीसगढ़)



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   कुंडलिया छंद -"अलगाव"

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मनखे जम्मों एक हे, एक हाड़ अउ माँस।

दुनिया मा बहिथे हवा, सरी जगत के साँस।।

सरी जगत के साँस, सबो बर एके पानी।

नइ कोनों हें खास, एक सब के जिनगानी।।

ऊँच-नीच के भेद, छोड़ सब जाचे परखे।

झन देवव हिनमान, एक हे जम्मों मनखे।।


घिनही होगे रोग कस, जाति धरम के भेद।

जब ले आइस आर्य मन, करदिन हिरदे छेद।।

करदिन हिरदे छेद, लाद के वर्ण व्यवस्था।

वर्ण बने गा जात, बदल गे सब के आस्था।।

पूरा बँटे समाज, जाति ले सब ला चिनही।

ऊँच-नीच के भेद, घाव जस होगे घिनही।।


कहिथे  जेला  नीच  हे, हिरदे  करथे  घाव।

जाति भेद ले हो जथे, मनखे मा अलगाव।।

मनखे मा अलगाव, कहाँ मन हा मिल पाथे।

छुआ-छूत बढ़ जाय, बैर  हा   गड़हा   जाथे।।

होवय  कइसे  एक, सबो  छरियाहा  रहिथे।

मेटावव   जंजाल, नीच  जेला   हे   कहिथे।।

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द्रोपती साहू "सरसिज"

महासमुंद छत्तीसगढ़



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   संगीता वर्मा, भिलाई सर्वगामी सवैया 


सेवा करे ले सदा पुण्य पाथे इही बात के तो सुनौ जी कहानी।

छोड़ौ हमेशा दुआ भेद संगी चलौ बोल बोलौ बने मीठ बानी।

साजौ सजावौ बने कर्म ला एक लोटा तभे आज पाहू ग पानी।

राखौ मया धीर ले काम लौ पार होही तभे तोर नैय्या ग दानी।।


संगीता वर्मा 

भिलाई



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   नंदकिशोर साव  साव कुंडलिया छंद - जात पात 


मानव मानव एक हे, ईश्वर के सिरजाय।

जाति धरम के फेर मा, मानवता बिसराय।।

मानवता बिसराय, लहू सब झन के एके।

करिया गोरा चाम, गढ़े माटी ला लेके।।

जाति बड़े नइ होय, करम बड़का जी जानव ।

मानौ सब ला एक, नही बाँटव गा मानव ।।


समता के जी बीज बों, ऊँच-नीच ला छोड़।

जात-पात के भेद ले, तुरते नाता तोड़।।

तुरते नाता तोड़, पवन पानी सब बर हे।

एके सूरज चाँद, उही नारी अउ नर हे।।

एके हे भगवान, जाति बर सबके ममता।

रहव सबे मिल साथ, रहे हिरदे में समता।।


नंदकिशोर साव "नीरव"

राजनांदगाव


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   नारायण वर्मा बेमेतरा *सरसी छंद-छुआछूत*


कुटका होगे देश एक घँव, आड़ धरम के लेत।

फेर जात बर मचे लड़ाई, हे बाँटे के नेत।।

चान करेजा भारत माँ के, करिन दुष्ट मन राज।

उनखर पाप करम करनी ला, भोगत हन सब आज।।

मौका ताकत हे पापी मन, आवत नइहे लाज।

तड़पत बिन पानी कस मछरी, पहिरे खातिर ताज।।

लउपट हरहा नकटा नेता , चरत ददा कस खेत।

कुटका होगे देश एक घँव, आड़ धरम के लेत।।


हाड़ माँस अउ चाम एक हे, एक लहू के रंग।

मालिक एक गढ़े सब झन ला, काबर माते जंग।।

फूल खिले बगिया मा कोनो, जइसे रंग बिरंग।

फुलवारी कस जान धरा ला, मिलजुल रहिथन संग।।

बरय दिया सुग्घर सुमता के, आव करिन सब चेत।

कुटका होगे देश एक घँव, आड़ धरम के लेत।।


वर्ण व्यवस्था पुरखा मन के, रिहिस कर्म आधार।

पर कुरीति हर बाधक बनके, दुर्बल करत विचार।।

बाँट दलित अगड़ा पिछड़ा मा, शोषण करत हमार।

छुआछूत हे कोढ़ बरोबर, लोकतंत्र बर भार।।

ऊँच नीच के बिख ला झारव, बइठे बने परेत।

कुटका होगे देश एक घँव, आड़ धरम के लेत।।


जनमभूमि अउ महतारी ला, कहिथें सरग समान।

उही बरोबर अपन जाति कुल, होथे गरब मितान।।

नइ बँटना हम ला छल बल मा,सुनव खोलके कान।

निज धरम देश बड़का सबले, हाबय करम महान।।

कसम तिरंगा अउ गंगा के, चंदन तुँहला देत।

कुटका होगे देश एक घँव, आड़ धरम के लेत।

नारायण प्रसाद वर्मा चंदन

ढ़ाबा-भिंभौरी, बेमेतरा


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छुआछूत-कुकुभ छंद

छुआछूत के बाना बोहे, मनखें मन अँटियावत हें।।
कुकुर घलो ला गला लगाथें, मनखें बर उमियावत हें।

रंग रूप अउ जात पात के, नित फदकत हावै झगड़ा।
एक दुसर ला धुत्कारत हें, लड़त भिड़त हावैं तगड़ा।।
मानवता ला मारत हावैं, ईर्ष्या द्वेष जियावत हें।
छुआछूत के बाना बोहे, मनखें मन अँटियावत हें।।

एक लहू हे एक चाम हे, बोली बैना एके हे।
तभो एक नइ हावैं मनखें, कोन गरी फेके हे।।
एक हवन कहि देखावा भर, कतको झन नरियावत हें।
छुआछूत के बाना बोहे, मनखें मन अँटियावत हें।।

कुकुर बिलाई तक संगी हे, फेर मनुष मन हें बैरी।
जात पात अउ करम धरम के, रोज मतावत हें गैरी।।
मनखें मनखें ला बाँटे बर, सब ला जहर पियावत हें।
छुआछूत के बाना बोहे, मनखें मन अँटियावत हें।।

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बालको, कोरबा(छग)