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Saturday, October 11, 2025

बेजा कब्जा

  चौपाई छ्न्द - बेजा कब्जा 


जगा छेंक दिन हे सरकारी। बना डरिन बड़ महल अटारी।।

गउ माता बर नइ निस्तारी। अपन जमाये बखरी बारी।।


जब जब होय चुनावी गीता। तब तब काँटय इन मन फीता।।

लावय पथरा माटी ईंटा। घोल बनावय मारय छींटा।।


नइ बाँचिन हे भाँठा टिकरा।  तरिया डबरी गड्ढा डिपरा।।

छेंकय धरम करम ला बिसरा। शासन के आँखी भर चिपरा।।


खेल कूद के जगा सिरागे। बेजा कब्जा मा सब खागे।।

मरघट भूत मसान भगागे। मरघट्ठी हा घलो हजागे।।


पंचायत हर होगे लँगड़ा। बेजा कब्जा के हे भँगड़ा।।

छेंकत हावय सत्ताधारी। बेंचय छेंक बने व्यापारी।।


कुछ तो करव मोर गिरधारी। बिकल होत हे गउ महतारी।

छीनत मनखे सथरा थारी। दुख पावत हे गउ मन भारी।।


कहिथें मनखे गउ नइ राखन। घर मा अब गइया नइ बाँधन।।

नइ ये परिया खार चरागन। अपन मूँड़ नइ बोझा लादन।।


    तातु राम धीवर 

भैसबोड़ जिला धमतरी

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: कुंडलिया छंद-- बेजा कब्जा 


बाँचत नइहे देख लौ, खेत-खार दइहान।

बेजा कब्जा डारके, खोजत हें मइदान।।

खोजत हें मइदान, जिहाँ खेले ला जावँय।

गरुवा बइला आज, कहाँ ले चारा पावँय।

धरसा टिकरा पार, सबो ला हावँय खाँचत।

पटपर भाँठा डीह, घलो अब नइहे बाँचत।।



मुकेश उइके "मयारू"

ग्राम- चेपा, पाली, कोरबा(छ.ग.)

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: सरसी छन्द गीत


चारो कोती बेजा कब्जा, के हावय भरमार।।

कोंदा जइसे बइठे बइठे, देखय बस सरकार।


छेंकागे हावय सँगवारी, दिखे नहीं मइदान।

देख रपोटे बइठे हावँय, कतको मन दइहान।।

खेल चले बेजा कब्जा के, बाढ़े भ्रष्टाचार।

चारो कोती बेजा कब्जा, के हावय भरमार।।


नइ बाँचे हे नदिया नरवा, उजरे जंगल आज।

बेजा कब्जा धारी मनके, आये हावय राज।।

छेंकागे अब गाँव गली हा, छेंकागे कोठार।

चारो कोती बेजा कब्जा, के हावय भरमार।।


सरकारी परिया भुँइयाँ मा, कब्जा बाढ़े जाय।

मरघट्टी मा बेजा कब्जा, हाय आदमी हाय।।

कोन रोकही बेजा कब्जा, बाढ़े कब्जादार।

चारो कोती बेजा कब्जा, के हावय भरमार।।


डी.पी.लहरे'मौज'

कवर्धा छत्तीसगढ़

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ताटंक छंद- बेजा-कब्जा


बेजा-कब्जा सबो जगह मा, दिन-दिन बाढ़त हे भारी।

धरे सुवारथ मनखे अब तो, हृदय चलावत हें आरी।।


बेजा-कब्जा जल जंगल अउ, नरवा नदिया मा होगे।

भाठा भर्री नइ तो बाचिस, परिया धरसा हा खोगे।।

गायब हे सरकारी भुइँया, गायब हे कोला-बारी।

बेजा-कब्जा सबो जगह मा, दिन-दिन बाढ़त हे भारी।।1


बेजा-कब्जा मन्दिर मठ मा, मठाधीश मन हे बाढ़े।

अंधभक्ति के राग अलापत, धर्म पुजारी हें ठाढ़े।।

देव धरम के आड़ लिए इन, लूटत हें आरी-पारी।

बेजा-कब्जा सबो जगह मा, दिन-दिन बाढ़त हे भारी।।2


बेजा-कब्जा संस्कृति मा अब, होगे हे परदेशी के।

छेंक डरिन दइहान संग मा, चारागाह मवेशी के।।

मालिक बन बइठे परदेशी, छीन हमर सथरा थारी।

बेजा-कब्जा सबो जगह मा, दिन-दिन बाढ़त हे भारी।।3


बेजा-कब्जा सत्ता मा हे, करँय वोट के घोटाला।

मचे लड़ाई कुर्सी के हे, सबके मुँह मा हे ताला।।

दीन-दुखी जनता के कब तो, मिटही संगी लाचारी।

बेजा-कब्जा सबो जगह मा, दिन-दिन बाढ़त हे भारी।।4


✍🏻इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"

बिलासपुर (छत्तीसगढ़) 29/09/2025

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 *विषय - बेजा कब्जा*

           *सार छंद* 


बाढ़त हवय दिनों दिन संगी,बेजा कब्जा धारी ।

खोर गली सब होगे सँकरा, नइ बाँचत हे बारी।


दिख जाथे लोगन ला कोनो,जघा थोरको खाली।

घेर डारथें तुरते भैया,नइ जावन दय काली।

कोनो बड़े दुकान बनावै, कोई महल अटारी।

बाढ़त हवय दिनों दिन संगी,बेजा कब्जा धारी।


नइ बाँचत हे नँदिया तरिया,नइतो जंगल झाड़ी।

नइ बाँचत हे सड़क पाइ तक,घेरत हवयँ पहाड़ी।

पता चलय नइ बना डारथें ,पट्टा कब सरकारी।

बाढ़त हवय दिनों दिन संगी, बेजा कब्जा धारी।


जागरूक लोगन जब कोनो,आके रोक लगाथें।

बिन मतलब के देख तहां ले,दुश्मन इन बन जाथें।

मना डारथें कहिके इनला, धरबो आरी पारी।

बाढ़त हवय दिनों दिन संगी, बेजा कब्जा धारी ।


शुरू उतारे छत ओइरछा, तहांँ बनावय सीढ़ी।

सोंचत नइहे कइसे करहीं,हमर अवइया पीढ़ी।

अपन आप देखय नइ कोनो,दूसर ला दय गारी।

बाढ़त हवय दिनों दिन संगी, बेजा कब्जा धारी।


पशु धन बर नइ बँचत चरी हे,दइहानो घेरागे।  

स्वारथ खातिर मनखे मनके, जीव सबो पेरागे।

अभी समझ नइ पावत कोनो,पछताही बड़ भारी। 

बाढ़त हवय दिनों दिन संगी, बेजा कब्जा धारी।

खोर गली सब होगे सँकरा, नइ बाँचत हे बारी।


        अमृत दास साहू 

          राजनांदगांव

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 *विषय - बेजा कब्जा*

[10/4, 9:58 AM] विजेन्द्र: बेजा कब्जा- कुंडलिया छंद 


कइसन होगे गाँव हा, खोर-गली छेकायI

ये बीमारी ला खुदे, मनखे लेके आयI

मनखे लेके आय, लड़ाई झगरा भारीI

कब्जा हे दइहान, होय मुश्किल निस्तारीI

 बेजा कब्ज़ा रोग, काल बनगे हे अइसनI

मरघटिया मइदान, उहू ला छेके कइसन II


विजेन्द्र कुमार वर्मा 

नगरगाँव (धरसीवां)


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 *विषय - बेजा कब्जा*

: कुण्डलिया  ""बेजा कब्जा ""


बेजा कब्जा आदमी, करॅंय गाॅंव ला छेक ।

गरुवा चारागाह बर, रथें नियत ला टेक।। 

रथें नियत ला टेक,जगह नइ बाचय कोई ।

बड़े मेड़ ला काट, अबड़ करथे जोताई ।।

कहाॅं नियत हे साफ, कहॉं मन में हे जज्बा ।

दिन लागय नइ रात, करत हे बेजा कब्जा।।


संजय देवांगन सिमगा

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 *विषय - बेजा कब्जा*

: बेजा कब्जा - कुकुभ छंद 


बेजा कब्जा देख सखा जी, मन मा होथे बड़ पीरा|

तरी - तरी खावत हें धन ला, जइसे खाय घून कीरा||


नँदिया नरवा जलदा पोखर, कब्जा  पइठू तरिया हें|

गौ गोरू मन का ला चरहीं, छेंक डरे सब परिया हें||


चुहकत हे उन गाढ़ लहू ला,  जोंक धरे  कस  धर ले हें|

परचाही हे उँकर ददा के, अपन जुगाड़ा कर ले हें|


संस्कृति शिक्षा भीतर डाँका, कब्जा पोथी पतरा हें|

धनहा डोली घलो नँगा लिन, छिनगे थारी सथरा हें||


लुलवावत हें गली खोर मा, मालिक बइठे दरवाजा|

भटकत हें बन जंगल पाहर, भुइँया के असली राजा||


भरम जाल के बड़का परबत, मुड़ माथा मा माड़े हें|

रखवारी हे छत के भीतर, ठीहा अइसे गाड़े हें||


नशा अबड़ हे धन अफीम के, चोला तो करिया गे हे|

महल अटाला कल खाना मा, मनखे धुत बगिया गे हे||


कब्जा होतिस मानवता बर, झरतिस फूल सरग ले जी|

सबो जीव के लालन पालन, बाँट बरोबर कर ले जी||


अश्वनी कोसरे रहँगिया कवर्धा कबीरधाम  छ. ग.


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 *विषय - बेजा कब्जा*

 कुण्डलिया छन्द     -  बेजा कब्जा 


रोकव अब्बड़ होत हे, बेजा कब्जा आज।

कोनो मनखे ला इहाँ, नइ आवत हे लाज।।

नइ आवत हे लाज, चरागन बन छेकागे।

नइ बाँचिस गौठान, घरे मा गाय धँधागे।।

देखाथे जें शक्ति, इँखर आगू झन ढोकव।

बेजा कब्जा होत, देखके  जुरमिल रोकव।।


जगन्नाथ ध्रुव घुँचापाली

बागबाहरा

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 - बेजाकब्जा 

छंद - विष्णुपद 


चूर अबड़ मनखे स्वारथ मा, अतका आज हवै|

अँधरा बनगे परमारथ के, भूले काज हवै||


खोर- गली परिया नइ बाँचत, डीही डोंगर हा|

सुरसा मुँहु कस बित्ता भर के, बढ़ गे दोंदर हा||


मेड़पार रुँधना- बँधना बर, झगरा होवत हे|

भाई- भाई के रस्ता मा, काँटा बोवत हे||


घर के बाहिर गाड़ी सयकिल, रखना मुश्किल हे|

अइसन करके तोला मनखे, का अब हासिल हे||


लइका मनके खेलकूद बर, अब मइदान कहाँ|

देखा आज गाय- गरुवा बर, हे दइहान कहाँ||


खाँच- खाँच के खाँच डरिन हे, नइ बाँचिस धरसा|

डिंग- डिंग ले मेड़पार मा, गिरे मूड़ भरसा||


उजड़े आज परे हे जंगल, अउ बाग बगइचा|

प्रकृति संग खिलवाड़ करव झन, होही सब खइता||


चेत करव अउ जतन करव गा, ये माटी भुइयाँ|

पार तभे होही सँगवारी, जिनगी के नइया||


ज्ञानु

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: *बेजा कब्जा*

           

            *कुकुभ छंद*


 रहै गाँव मा भाठा भुइँया, बरदी जेमा ठोकावैं।

हरियर-हरियर चारा चर के, गाय भैंस मन मोटावैं।।

रुख राई के डारा पाना, छेरी-पठरू मन खावैं।

संझातीकन बरदी संगे, दौड़त घर कोती आवैं।।


खोर चउँक हा हेलमेल अउ, बड़े -बडे़ परछा चौरा।

नूनपाल खोखो भिर्री अउ, खेलन सब बाँटी भौरा।।

कोनो गली रहै नइ अइसे, जेमा गाड़ी नइ जावै।।

अपने आगू जगा छोड़ के, घर परछी ला बनवावैं।।


 बेजा कब्जा होगे सब्बो, गली खोर सब सकलागे।

हाल बतावँव अब का संगी, भाँठा तक आज नँदागे।।

 घर मा बंधाये गरुवा अउ, छेरी मन नरियावत हें।

चारा बिन सब भूख मरत हें, पशु नइ आज अघावत हें।।


खोर गली के का कहना अब, नइ बुलकै जोड़ा बइला।

बेजा कब्जा के चक्कर मा, होगे जइसे मुँह घइला।

चलना होगे दुभर गली मा, भाँठा जम्मो छेकागे।

काल बाढ़गे मनखे मन के, अउ तंगी भारी छागे।।


भागवत प्रसाद चन्द्राकर

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 *विषय - बेजा कब्जा*

दोहा


बेजा कब्जा हा हरय, कानूनी अपराध।

मिलथे एमा जी सजा, झन करहू तुम साध।।


कोर्ट कचहरी मा अलग, पइसा हो बरबाद।

लालच के गा फेर मा, नइ बाँचै मरजाद।।


बेजा कब्जा जे करय, ते मुजरिम कहिलाय।

थाना संग वकील के, चक्कर उही लगाय।।


आज बाढ़गे अतिक्रमण, सोवत हे सरकार।

नइये डर क़ानून के, करत जुरूम हजार।।


शहर नगर ला का कबे, नइ बाँचत हे गाँव।

कब्जा के मारे इहाँ, नइ राखे बर पाँव।।


सिद्ध होय अपराध हा, हरजाना भरवाय।

नइते जाना जेल जी, नइ अउ कुछू उपाय।।

 

नंदकिशोर साव "नीरव"

राजनांदगाँव (छ. ग.)

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 *विषय - बेजा कब्जा*

[10/4, 11:32 AM] पद्मा साहू, खैरागढ़ 14: बेजा कब्जा 

              (सार छंद /ललित पद छंद 16/12)


खेल चलय बेजा कब्जा के, गाँव शहर मा भारी।

छेंकागे  भाठा  भर्री अउ, गली-खोर  फुलवारी।।


नइ बाँचत हे मंदिर-मस्जिद, घर भवन धर्मशाला।

नइ बाँचत  मरघट्टी  भुइयाँ, डबरी  नाहर  नाला।।

जेकर  लउठी   ओकर  भैंसा,  होवत  ठेकादारी।

खेल चलय बेजा कब्जा के, गाँव शहर मा भारी।।


अपन सुवारथ बर मनखे हा, पाट डरिन तरिया ला।

छेंक  डरिन कोठार बियारा, जीव  चरी परिया ला।।

तरसत  हावयँ  पशु  चारा  बर, बढ़गे  कब्जाधारी।

खेल चलय बेजा कब्जा के, गाँव  शहर मा  भारी।।

    

सकरा होगे गली गाँव के, छेंक डरिन  सब  रद्दा। 

बइला-गाड़ी  टेक्टर अटके, बनगे  नाली  भद्दा।।

परछी ऊपर परछी  बनगे, सबके  सड़क  दुवारी।

खेल चलय बेजा कब्जा के, गाँव शहर मा भारी।।


अपन-अपन ले चतुरा मनखे, मालिक बनके बइठे।

राज करै सब धौंस जमा के, धन गरीब  के अइठे।।

चोर-चोर  मउसेरा    भाई,   सेवक    भ्रष्टाचारी।

खेल चलय बेजा कब्जा के, गाँव शहर मा भारी।।


                  रचनाकार

  डॉ पद्‌मा साहू *पर्वणी* खैरागढ़

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 *विषय - बेजा कब्जा*


लावणी छन्द गीत - रोकव जुरमिल बेजा-कब्जा (२७/०९/२०२७)


का होगे हें मनखें मन ला, नइ जागत नइ सोवत हें ।

रोकव जुरमिल बेजा-कब्जा, नुकसानी बड़ होवत हें ।।


नइ बाॅंचत हें परिया-झरिया, खेले के मइदान इहाॅं ।

तरिया नदिया नरवा झोरी, मरघटिया समसान इहाॅं ।।


नइ बाॅंचत दइहान चरागन, गरुवा मन हा रोवत हें ।

रोकव जुरमिल बेजा-कब्जा, नुकसानी बड़ होवत हें ।।


बात सुनय नइ ककरो कोनों, मालिक सबके सब बनथें ।

समझाये मा नइ तो समझॅंय, गड्ढा खुद बर खुद खनथें ।।


झगड़ा झंझट खून खराबा, ये जिनगी मा बोंवत हें ।

रोकव जुरमिल बेजा-कब्जा, नुकसानी बड़ होवत हें ।।


ये बेजा-कब्जा के कारन, कतको जंगल हा कटगे ।

नइ बाॅंचिन घर कुरिया डेरा, जीव-जंतु कतको घटगे ।।


मन मा लालच लोभ समाये, सुख छइहाॅं ला खोवत हें ।

रोकव जुरमिल बेजा-कब्जा, नुकसानी बड़ होवत हें ।।


ओम प्रकाश पात्रे 'ओम ' 

ग्राम - बोरिया बेमेतरा छत्तीसगढ़

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 *विषय - बेजा कब्जा*

आल्हा छंद*

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सइता नइ ए अब मनखें के,काला खावयँ काय बचायँ।

नइ बाँचत चौंरा-चौराहा,गली-सड़क ला छेंकत जायँ।।

इरखा-पारी के सेती सब,जघा-जघा मा धाक जमायँ।

लोगन के अब इही सोच हे,फोकट पायँ मरत ले खायँ।।


नइ देखयँ काली का होही,इही जघा बर लड़हीं लोग।

बेजा कब्जा जबर समस्या,बन गे हे संक्रामक रोग।।

एक करय जब बेजा कब्जा,परेशान बहुते झन होयँ।

कहाँ देखथे कभू हँसइया,दूसर काबर रोना रोयँ।।


जघा सिरावत हे तब कइसे,होही सार्वजनिक निर्माण।

खेलकूद शिक्षा- दीक्षा कस,सिध परही कइसे अभियान।।

चिन्ता हावय सिरिफ आज के,नइ संसो का होही काल।

जब रेंगे बर दिक्कत आही,तब तो होही खचित बवाल।।


होके सख्त प्रशासन- शासन,कड़ा कदम पुरजोर उठायँ।

गाँव होय या शहर कहूँ भी,बेजा कब्जा तुरत हटायँ।।

जनता घलो गुनयँ भविष्य बर, करयँ काम झन भेड़धँसान।

हर पीढ़ी ला मिलय बरोबर,रोटी कपड़ा संग मकान।।


दीपक निषाद--लाटा (बेमेतरा)

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 *विषय - बेजा कब्जा*


सार छन्द

।। बेजा कब्जा के मारे।।


बेजा कब्जा होवत हावय, खोर गली अउ पारा।

भर्री भाठा हर छेकागे, कहाँ चरै पशु चारा ।।


बेजा कब्जा खातिर मनखे, बड़ उपाय अपनाथें।

फोकट के पाये बर कतको, झगड़ा तक हो जाथें।।


मनखे मारे बाँचत नइहे, कोनो डबरा नाली।

सगरो अब दइहान सिरागे, नइहे भुइयाँ खाली।।


मेड़ पार अउ धरसा छेकें, जंगल लोग हमागें।

परगे स्वारथ मा मनखे हर, परमारथ भूलागें।।


खेल कूद मैदान हजागे, परिया हर छेकागे।

खोर गली हर होगे शंक्सी, चौंरा सीढ़ी खागे।।


चेत करव सब कुछ तो भइया, जीव जंतु के बारे।

अपन आप मा रहव मगन झन, हो जाही अँधियारे।।


- गुमान प्रसाद साहू 

- समोदा (महानदी)

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           *सार छंद* 


बाढ़त हवय दिनों दिन संगी,बेजा कब्जा धारी ।

खोर गली सब होगे सँकरा, नइ बाँचत हे बारी।


दिख जाथे लोगन ला कोनो,जघा थोरको खाली।

घेर डारथें तुरते भैया,नइ जावन दय काली।

कोनो बड़े दुकान बनावै, कोई महल अटारी।

बाढ़त हवय दिनों दिन संगी,बेजा कब्जा धारी।


नइ बाँचत हे नँदिया तरिया,नइतो जंगल झाड़ी।

नइ बाँचत हे सड़क पाइ तक,घेरत हवयँ पहाड़ी।

पता चलय नइ बना डारथें ,पट्टा कब सरकारी।

बाढ़त हवय दिनों दिन संगी, बेजा कब्जा धारी।


जागरूक लोगन जब कोनो,आके रोक लगाथें।

बिन मतलब के देख तहां ले,दुश्मन इन बन जाथें।

मना डारथें कहिके इनला, धरबो आरी पारी।

बाढ़त हवय दिनों दिन संगी, बेजा कब्जा धारी ।


शुरू उतारे छत ओइरछा, तहांँ बनावय सीढ़ी।

सोंचत नइहे कइसे करहीं,हमर अवइया पीढ़ी।

अपन आप देखय नइ कोनो,दूसर ला दय गारी।

बाढ़त हवय दिनों दिन संगी, बेजा कब्जा धारी।


पशु धन बर नइ बँचत चरी हे,दइहानो घेरागे।  

स्वारथ खातिर मनखे मनके, जीव सबो पेरागे।

अभी समझ नइ पावत कोनो,पछताही बड़ भारी। 

बाढ़त हवय दिनों दिन संगी, बेजा कब्जा धारी।

खोर गली सब होगे सँकरा, नइ बाँचत हे बारी।


        अमृत दास साहू 

          राजनांदगांव

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 *विषय - बेजा कब्जा*

Friday, September 26, 2025

विषय- अपरदन/मिट्टी कटाव

 विषय- अपरदन/मिट्टी कटाव

*विधा- ताटंक छंद गीत*

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स्वारथ के चक्कर मा परके, करव न अब मनमानी जी।

जंगल झाड़ी ला मत काटव, हो जाही हलकानी जी।।


रुखराई बिन बोहावत हे, देखव उपजाऊ माटी।

माटी पूजा हमर धरम हे, झन भूलव ये परिपाटी।

मृदा अपरदन रोके खातिर, थोरिक बनव सुजानी जी।

जंगल झाड़ी ला मत काटव, हो जाही हलकानी जी।।


हरिया जावय धरती दाई, नँगते पेड़ लगावौ जी।

माटी के कटाव रोके बर, जुरमिल बिड़ा उठावौ जी।

झन बोहावन देवव बिरथा, माटी हे वरदानी जी।

जंगल झाड़ी ला मत काटव, हो जाही हलकानी जी।।


भुइयाँ पानी ला नइ सोखय, जल स्तर हा गहरा जाथे।

परलय बनके ये जिनगी बर, पूरा नदिया मा आथे।

पेड़ बाँध रखथे माटी ला, इही बचाथे पानी जी।

जंगल झाड़ी ला मत काटव, हो जाही हलकानी जी।।


     *डॉ. इन्द्राणी साहू "साँची"*

        भाटापारा (छत्तीसगढ़)

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  जगन्नाथ सिंह ध्रुव : कुंडलिया छन्द    -मृदा अपरदन 


रुखराई रोके हवय, मृदा अपरदन आज।

खेत किसानी के तभे, बनथे सुग्घर काज।।

बनथे सुग्घर काज, एक रुख ला झन काटव।

थोकन मया दुलार, रोज इँखरो सँग बाँटव।।

बंजर जग झन होय, होय झन जग करलाई।

उर्वर झन बोहाय, लगालव सब रुखराई।।


जगन्नाथ ध्रुव घुँचापाली

 ( चण्डी मंदिर ) बागबाहरा


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 ताटंक छन्द गीत- ये माटी महतारी जी (१४/०९/२०२५)


हम ला कोरा मा खेलाये, सुख दुख के सॅंगवारी जी ।

आवव जुरमिल सेवा करबो, ये माटी महतारी जी ।।


मनखें मन बर अन्न उगाथे, जीव-जन्तु बर चारा ला ।

चिरई चिरगुन बर रुख-राई, झन करहू बॅंटवारा ला ।।


ये जग के कल्याण करे बर, बोहत गंगा धारी जी ।

आवव जुरमिल सेवा करबो, ये माटी महतारी जी ।।


सोना चाॅंदी हीरा मोती, भरे खजाना लोहा के ।

ताॅंबा पीतल काॅंसा कतको, बोल बने हे दोहा के ।।


धन दौलत के बरसा बरसे, किरपा हे बड़ भारी जी ।

आवव जुरमिल सेवा करबो, ये माटी महतारी जी ।।


ये ला रख लव जतन-जतन के, नइ तो बड़ पछताहू जी ।

थोर-थोर करके बह जाही, फेर कहाॅं ले पाहू जी ।।


पेड़ लगावव जघा-जघा मा, पेड़ हमर हितकारी जी ।

आवव जुरमिल सेवा करबो, ये माटी महतारी जी ।।


ओम प्रकाश पात्रे 'ओम '

बोरिया बेमेतरा छत्तीसगढ़


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  कौशल साहू: कुंडलिया छंद - माटी कटाव


उखड़य झन भुइयाँ परत, कर लौ जी मरजाद।

पूरा पानी धार मा, बह जाथें सब गाद।।

बह जाथें सब गाद, परत जम जाथें रेती।

घट जाथें उत्पाद, जतन लौ जुरमिल खेती।।

खूब लगा लौ पेंड़, बाग हरियर झन उजड़य।

जड़ हा राखय बांध, कभू माटी नइ उखड़य।।


कौशल कुमार साहू

निवास -सुहेला (फरहदा )

जिला - बलौदाबाजार-भाटापारा


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  मुकेश : कुंडलिया छंद-- माटी कटाव(मृदा अपरदन)


खोवत भुइयाँ हा अपन, उर्वरता ला आज।

जंगल झाड़ी काट के, नइतो आवत लाज।।

नइतो आवत लाज, सुनौ सब बहिनी भाई।

रसायनिक हे खाद, खेत बर बड़ दुखदाई।।

माटी ला नकसान, देख अब्बड़ हे होवत।

तुरते करव बचाव, रोज उर्वरता खोवत।।


करलौ आज बचाव जी, माटी होत कटाव।

रोके बर लोगन सबो, फसल चक्र अपनाव।।

फसल चक्र अपनाव, लगावव गा रुख राई।

खेती सीढ़ी दार, करव सुग्घर रोपाई।।

हवँव बतावत सार, गोठ ला गुनके धरलौ।

खोजव बने उपाय, जतन माटी के करलौ।।


मुकेश उइके "मयारू"

ग्राम- चेपा, पाली, कोरबा(छ.ग.)


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  डी पी लहरे: मुक्तामणि गीत..

मृदा अपरदन


मृदा अपरदन रोक लव, पेड़ लगा के भाई।

नइ तो पाछू हो जही, ए जग मा करलाई।।


भूमि क्षरण ला रोकथे, रुखवा के जड़ भारी।

कभू चलाहू झन सखा, रुखुवा मन मा आरी।।

जंगल तुमन उजारहू, रोही धरती दाई।

मृदा अपरदन रोक लव, पेड़ लगा के भाई।।


मृदा बाँध के राखथे, बने पेड़ के जड़ हा।

इही पेड़ ला काटथौ, काबर बनके अड़हा।।

हवा गरेरा बाढ़ ला, टारय जी रुखराई।

मृदा अपरदन रोक लव, पेड़ लगा के भाई।।


डी.पी.लहरे'मौज'

कवर्धा छत्तीसगढ़

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  तातुराम धीवर : रूप घनाक्षरी  

मृदा अपरदन/मिट्टी कटाव 


कहे धरा महतारी, बिपत हावय भारी,

सुन सबो नर-नारी, समझ बने हे जाव।

माटी उपजाऊ हर, बोहात हे बाढ़ पर,

डोंगरी पहाड़ी हर, ठहरत नहीं ठाँव।।

पेड़ सब छाँटत हे, जर मूल काटत हे,

देख सब स्वारथ मा, देवत हावय घाव।

सुख सब मिल जाही, पेड़ जब हे लगा ही, 

तभे तो हे रुक पाही,माटी कर हे कटाव।।


      तातु राम धीवर  

भैसबोड़ जिला धमतरी


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  विजेन्द्र: माटी के कटाव- कुंडलिया छंद 


जंगल झाड़ी पेड़ ले, होथे बने बचावI 

रुकथे माटी के तभे, होवत जेन कटावI 

होवत जेन कटाव, करत हे बड़ नुकसानीI 

आथे पूरा बाढ़, लबालब पानी-पानीI 

माटी रखव सहेज, तभे जिनगी मा मंगलI 

रोकय बने कटाव, पेड़ झाड़ी अउ जंगलII


विजेन्द्र कुमार वर्मा 

नगरगाँव-(धरसीवां)


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नीलम जायसवाल: *छन्न पकैया छन्द*


*मृदा अपरदन / माटी के कटाव*


छन्न पकैया-छन्न पकैया, अबड़ अकन हे कारण।

मृदा अपरदन के जी संगी, ओखर करौ निवारण।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, जंगल के कटवाई।

अवैज्ञानिक कृषि पद्धति ले, गरुवा मन के चराई।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, बाढ़त हे आबादी।

मनमाना निर्माण करत हन, बाढ़ खनन अउ आँधी।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, मरुथल बंजर भुँइया।

तेज हवा अउ जलधारा घलु, मिट्टी काटय नदिया।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, पर्वत मन मा रस्ता।

रुख राई ला काट-काट के, हम ला लागय सस्ता।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, पर्वत धँसते आथे।

गाँव शहर बोहावत जावै, जीव जंतु मर जाथे।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, फसल चक्र हर दारी।

समोच्च जुताई करौ ढाल म, रोपौ जंगल झारी।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, पट्टी बाँट उगावौ।

बंजर ला झन खाली छोड़ौ, ओमा घाँस लगावौ।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, भरसक पेड़ लगावौ।

माटी के कटाव ला रोकौ, शुद्ध हवा घलु पावौ।।


*नीलम जायसवाल, भिलाई, छत्तीसगढ़*


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 अश्वनी कोसरे : माटी के कटाव-

हरिगीतिका छंद 


धरती हरँय सब ताप ला, मनखे करँय सब पाप ला|

जब जब  करँय सिंगार ला, उन दँय फटिक अभिशाप ला||


भुइँया डहन परिधान हे, धनधान्य के वो खदान हे|

रुखुवा बने सिरजाय मा, बँचहीं सबो के प्रान हे ||


कट - कट बहत कन -कन बहत, उँकरे दया सुखमोल हे|

 जिनगी सहीं भूगोल हे, माटी उँही अनमोल हे||


वंदन करौं कर जोरि के, पइँया पखारौ रोज गा|

माटी हवय पूजा हमर, माटी हमर सुख खोज गा||


कचरा बहुत बगरे हवय, दिखथे कहाँ भुइँया बने|

कटते हवँय बन झाड़ मन, अब कोन हें माटी सने ||


सच बात ला कहिबे कहूँ, दुख लागथे सरकार ला|

मनखे घलो का मानथे, जंगल कटत भरमार ला||

अश्वनी कोसरे 'रहँगिया' कवर्धा कबीरधाम छ. ग.


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 दीपक निषाद, बनसांकरा: *लावणी छंद--माटी के कटाव* 

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मया-डोर मा बाँधे रखथें,माटी ला रुखवा के जर।

रुख-राई के रहे सुरक्षित,रहिथे धरती दाई हर।।

माटी के कटाव बढ़ जाथें,जब रुख- राई मन कटथें।

भुइँया के उर्वरा शक्ति अउ,पोषकता के गुन घटथें।।


माटी के कटाव के सेती,भूस्खलन होथें अकसर।

बारिश मा गिरथें पहाड़ ले,पखरा अउ चट्टान जबर।।

सड़क जाम ले हलाकान सब,होय पर्यटन हा बाधित।

पेड़ काट के अपन पाँव मा,टँगिया मारयँ मनखे नित।।


नदिया-नरवा के पूरा मा,जघा-जघा माटी भसकँय।

चौमासा मा दिखय नजारा,कतको सड़क घलो धँस जँय।।

अंधाधुंध कटे रुख-राई,तेकर सब परिणाम हरय।

माटी महतारी कलपय तब,काकर मन मा खुशी भरय।।


दीपक निषाद--लाटा (बेमेतरा)


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  +  : मृदा अपरदन ""माटी के कटाव ""  आल्हा 

 

खूब लगावव रुख राई ला,जतन करव जंगल महकाव।

 परत ऊपरी बड़ उपजाऊ , रोकव ऐखर नित्य बहाव ।।


ज्यादा पानी जब जब गिरथे , पानी माटी सॅंग बोहाय।

उखड़त  जाथे उपरी हिस्सा, ऊपर ले नीचे सकलाय ‌‌।।

समतल जगह म आके रुकथे, उही जगह मैदान कहाय ।

बड़ उपजाऊ होथे मिट्टी, खीरा ककड़ी बहुत लुभाय ।।

अन्दर माटी रथे कड़ा जब, होथे जिनगी से टकराव ।

परत ऊपरी बड़ उपजाऊ, रोकव ऐखर नित्य बहाव ।।


मृदा अपरदन के कुछ कारन, सुनलव संगी सबझन आज ।

ज्यादा पानी जब जब गिरथे, माटी हो जाथे नाराज ।।

कभू कभू तो बइठ हवा में, कर लेथे जिनगी के सैर।

ना झॅ़ंगरा ना करय लड़ाई, ना कउनो से राखय बैर।।

फिर भी एक ठउर ले दूसर , ठउर बने जिनगी भटकाव। 

परत ऊपरी बड़ उपजाऊ, रोकव ऐखर नित्य बहाव ।।

 

देखव जिनगी आज घलो तो, बात मान परके बउराय ।

घर परिवार ले झॅंगरा करके, संगी सॅंग मा मजा उड़ाॅंय ।।

हम मनखे माटी के पुतला, जड़ हावय हमरे माॅं बाप।

 नानपान ले पाॅंलय पोसॅंय, छोड़ अपन सब सुख संताप।।

सुख के बेरा पड़े अकेल्ला, कोन करय दुनिया म नियाव ।

परत ऊपरी बड़ उपजाऊ, रोकव ऐखर नित्य बहाव।।



संजय देवांगन सिमगा

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  गुमान साहू: दोहा छंद।। मृदा अपरदन।।


मृदा अपरदन ले सुनौ, होथे बड़ नुकसान।

येकर फाँदा मा फँसे, संगी सदा किसान।।


परत ऊपरी जब बहै, माटी हा पथराय।

उपजाऊपन हा घटै, कमी उपज मा आय।।


अति पशुचारण अउ हवा, बरसा जल के धार।

रुखराई ला काटना, येकर जिम्मेदार।।


रोकथाम करना हवै, झाड़ी पेड़ लगाव।

खेत मेड़बंदी करौ, समतल भूमि बनाव।।


जोताई समकोण मा, खेती सीढ़ी दार।

अपना लव मल्चिंग ला, हवै इही उपचार।।


- गुमान प्रसाद साहू 

- समोदा (महानदी)


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  Jaleshwar Das Manikpuri : ताटक छंद सादर समीक्षार्थ गुरुदेव 

                माटी -कटाव 

पेड़ झाड़ के रक्षा करथे,हमरे धरती दाई जी।

माटी के कटाव ल रोके,सुघ्घर रुखवा राई जी।।

हरा -भरा सब पौध लगावा, धरती बने सजावव जी।

माटी के कटाव ला रोकव,जुरमिल सबझन आवव जी।।

भीतरे- भीतर रोवत हावय,हमरो धरती दाई हा।

गरमी भारी भूंजत संगी,बिकट हे करलाई हा।।

जलेश्वर दास मानिकपुरी ✍️ 

 मोतिमपुर बेमेतरा


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  ज्ञानू कवि: विषय - माटी के कटाव/ मृदा अपरदन 

छंद - विष्णुपद 


मनखे का सरकार करत हें, अपन राग रटई|

अइसन मा कइसे रुकही गा, माटी के कटई||


रुखराई हा रोज कटावत, देख दनादन हे|

बढ़ते जावत तभे हवै तो, मृदा अपरदन हे||


सघन, गहन, घनघोर रहिस तें, जंगल उजड़त हे|

बरसा, गरमी, गरमी, बरसा, मौसम बिगड़त हे||


बेमौसम बरसात होय ले, माटी जाय बहै|

बन मैदान पहाड़ जथे गा, खेती मार सहै||


मनखे के मारे नइ बाँचत, नदिया पार घलो|

खाँच- खाँच के खाँच डरिन हे, आज पहाड़ घलो||


सड़क, बाँध, पुल अउ कतको कन, नाम विकास हवै|

फेर दिखत मोला भुइयाँ मा, होत विनाश हवै||


टूट जथे अउ बिखर जथे वो, जेन अकड़ रहिथे|

सदा ठोस- ठाहिल हे, जड़ ला, जेन पकड़ रहिथे||


भुइयाँ के सिंगार हरे ये, चलौ सजालव गा|

माटी कटई हवै रोकना, पेड़ लगालव गा||


ज्ञानु


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  आशा देशमुख: कुंडलिया


विषय - मृदा अपरदन


मिट्टी हर तो सार हे , बाकी सब हे व्यर्थ।

सोचव ये माटी बिना, जिनगी के का अर्थ।।

जिनगी के का अर्थ, इही माटी मा जीना।

एखर से संसार, इही हे रतन नगीना।।

होवत रोज कटाव, दिखत हे रेती गिट्टी।

बचे हवय संसार, खास हावय ये मिट्टी।।




आशा देशमुख


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  अश्वनी कोसरे : हरिगीतिका छंद - माटी कटाव 


चंदन सही कतकोन गा, बिरछा कटे बीच खार गा|

सैगोन अउ सीसम कटे, कट के गिरे भरमार गा||


माटी अपरदन होय ले, चिंतित अबड़ भगवान हे|

एको खनिज का बाँचही, मूंडा मुड़ाये खान हे|


खन खन परे हीरा- मणी, अउ खोखला भू सार हे|

बढ़ के गिरे ले बाढ़ मा, पानी सरोवत पार हे||


रुख राइ के बढ़ होय ले, पर्यावरण हरिया जही|

उपरी परत हर जरधरे,  माटी बने जुरिया जही||


कनहार भुइँया हा बने, उपजत फसल ला भात हें|

करिया चिकट माटी धरय, पानी अबड़ ओगरात हें||


माटी बचाये बाँच ही, बढ़वार खेती खार के|

रोकन कटत बन झाड़ ला, पौधा लगावन नार के||


पक्की सड़क बहजात हे, उपरी परत ल मार के|

एकर सही उपचार ले, रुकही सरकना पार के||


माटी प्रदूषण के बढ़े, माटी बोहावत चान के|

जरमूल ले उखड़े पड़े, जंगल बनत विरान के||



अश्वनी कोसरे 'रहँगिया' कवर्धा कबीरधाम छ. ग.


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  संगीता वर्मा, भिलाई: चौपाई छंद - माटी के कटाव 


पेड़ हवा माटी अउ पानी I चलथे एखर ले जिनगानीII 

इही हरे तो प्रान अधारा I जीव जगत के बने सहाराII


पुण्य कमा लव पेड़ लगा केIभुइयाँ के जी भाग जगा केII 

जतन करव अब तो सब भाईIमाटी मा ठाड़े रुख राईII 


माटी के कटाव ला रोकव I धरती बर गा पानी झोकवII 

जिनगी सुग्घर अपन बनावौ Iआवव मिलके पेड़ लगावौII


सुख मा तब दिन रात पहाही Iतभे प्रकृति हा कहाँ रिसाहीII 

करहू भइया जब मनमानीI कइसे मिलहीं दाना पानीII 


शुद्ध हवा अउ पानी देथे Iसोचव बदला मा का लेथेII 

जीव जगत बर चारा दाना I अन्न उपजथे तन बर खानाII 


हरियर-हरियर रइही जंगल Iजिनगी मा तब आही मंगलII 

माटी हर तो सुख के दाता I जीव जगत बर गढ़े विधाताII


माटी के कटाव ला रोकव Iबरसा के पानी ला झोकवII

पेड़ लगा के भाग जगालौ Iइही जगत मा पुण्य कमालौII


संगीता वर्मा 

भिलाई


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  पद्मा साहू, खैरागढ़ : शीर्षक - मृदा अपरदन / मृदा कटाव 

           आल्हा छन्द /


रोको-रोको  रोको  संगी,  माटी  के  जी  बढ़त  कटाव।

जागो-जागो अब तो जागो, मृदा क्षरण के करव बचाव।।



माटी हे जीव जंतु के घर, माटी  ले  हे  जीवन सार।

अन्न उपजथे माटी मा ही, माटी जिनगी के आधार।।

भौतिक सुख साधन माटी ले, माटी ला झन मलिन बनाव।

जागो-जागो  अब तो जागो, मृदा क्षरण के करव बचाव।।


रखथे पेड़ बाँध के माटी,  चक्रवात  आथे  जब  बाढ़।

नइ बोहावय पानी मा ये, मृदा  खड़े रखथे रुख ठाढ़।।

ये माटी के रक्षा खातिर, जुरमिल के सब पेड़ लगाव।।

जागो-जागो अब तो जागो, मृदा क्षरण के करव बचाव।।



झिल्ली डिस्पोजल प्लास्टिक हा, माटी के बड़ करते नास।

करव उपयोग एकर कमती, प्रकृति प्रदूषक येमन खास।।

शीशी अपशिष्ट धातु मन ला,  माटी मा जी झन गड़ियाव।

जागो-जागो अब तो जागो, मृदा क्षरण के करव बचाव।।


          रचनाकार

  डॉ पद्‌मा साहू *पर्वणी* खैरागढ़


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  जगन्नाथ सिंह ध्रुव : कुन्डलिया छन्द    - मृदा अपरदन


माटी महतारी असन, जग मा हवय महान।

झन बोहाय कटाव हा, देवव थोकन ध्यान।।

देवव थोकन ध्यान, रही तब धरती धानी।

करही हमर किसान, रोज दिन खेत किसानी।।

किसम किसम के पेड़, लगालव जुरमिल भारी।

रोज उपजही धान, तभे माटी महतारी।।


जगन्नाथ ध्रुव घुँचापाली बागबाहरा

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सार छंद

16-12

 *माटी के कटाव* 

कुछ कारन ले होथे संगी,माटी के कटाव हा।उपजाऊ माटी के बहुते,होथे जी बहाव हा॥


खूब काटना पेड़ झाड़ अउ,पशु ला बहुत चराना।

काँदी कचरा के मरनाअउ,बादर के बरसाना॥


बहथे उपजाऊ माटी,उत्पादन कम होथे ।

कर्जा बोड़ी के सुरता मा,तब किसान हा रोथे॥


चलव जूरमिल रोकन सबझन,माटी के कटाव ला ।

एक धार चलवाई मिल,पानी के बहाव ला॥


समकोन खेत जोताई कर ,पेड़ झाड़ लगवाई।

सीढ़ीदार खेत बनवाके,टपका विधि अपनाई।।


मल्चिंग बहुत गुनकारी विधि,सब किसान अपनालव।

खूब लगा लव पेड़ झाड़ अब,धरती सरग बना लव॥

जुगेश कुमार बंजारे

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विषय- गरीबी

विषय- गरीबी

कुण्डलिया छंद

खूब गरीबी छाय हे, दुनिया भर मा आज।

भीख माँग के राखथें, कतकोझन  जी लाज।।

कतकोझन जी लाज, सड़क अउ  गाँव शहर मा।

कती घाम अउ छाँव, बिहानी अउ दो पहर मा।

संझाकन अउ रात, सकेलें रीबी- रीबी।

लटपट भरथें पेट, छाय हे खूब गरीबी।।

लटियाहा चुंदी मुड़ी, चुपरे तेल न सेंठ।।

पहिरें घोंघटहा सही, कुरता चिरहा पेंठ।

कुरता चिरहा पेंठ, अजब रहिथे दिनचरिया।

 डेरा पीपर छाँव, सड़क तिर भाँठा परिया।।

मांग-मांग नित खाँय, खूब दिखथें मटियाहा।

घूमत रहिथें रोज, दिखै चुंदी लटियाहा।।

तन-मन-धन नइ हे खुशी, दुख सहिथें भरमार।

एक बरोबर रात दिन, ऊँखर तीज तिहार।।

ऊँखर तीज तिहार, घात होथे करलाई।

घर अउ मोटर कार, कहाँ किश्मत हे भाई।।

नइ पावँय उन मान, चोट देथें नित जन- जन।

जबड़ हवय ये रोग, लगे ले टूटे तन-मन।।

आज गरीबी आड़ हा, होगे जी जंजाल।

हाथ गोड़ आँखी सबो, हावँय  तभो अलाल।

हावँय तभो अलाल, काम नइ चाहैं करना।

लइका संग जवान,  चहैं फोकट मा तरना।।

पढ़इ लिखइ दव ध्यान, कभू नइ होही रीबी।

खुद के कारोबार,  मिटाही आज गरीबी।।

भागवत प्रसाद चन्द्राकर

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: कुण्डलिया छंद 

विषय- गरीबी 

पातर पनियर पेज पी, जीयत हवै गरीब। 

बिसहत के सब चीज हे , सपना नहीं करीब। ।

सपना नहीं करीब, कमा ले  कतको मर के। 

जिनगी घलो अजीब, झाँक थन अँगना पर के। ।

कहय शिशिर सच बात, करम हे चातर- चातर। 

जुड़हा  मिलै न तात, पेज पी पनियर पातर।।

छाय   गरीबी  देश   मा ,    महँगाई भरमार। 

मनखे गजब दुखाय हे, सुन ले दुख सरकार। ।

सुन ले दुख सरकार, थोरकिन हमरो सोंचव। 

जीये  के   आधार  ,  फूल घर-घर मा खोंचव। ।

कहय शिशिर सच बात, छोड़ दिन संग करीबी। 

भूखे   बीतय  रात,  छाय  हे  देख गरीबी। ।

सुमित्रा शिशिर

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  जगन्नाथ सिंह ध्रुव : कुण्डलिया छन्द

     गरीब 

मिहनत करथे जेन हा, पाथे अन्न अपार।

खाथे डटके दू बखत, सुखी रहय परिवार।

सुखी रहय परिवार, कभू धन बर नइ तरसे।

दूर भागथे दुःख, सबो सुख अँगना बरसे।।

सुधरे ओखर रोज, गरीबी के जइसे गत।

वो नइ रहय गरीब, जेन बड़ करथे मिहनत।।

जगन्नाथ ध्रुव घुँचापाली 

बागबाहरा

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  जगन्नाथ सिंह ध्रुव : कुण्डलिया छन्द 

    

रहिथे रोज गरीब के, जिनगानी हा तंग।

पल भर खातिर नइ भरे, कभू खुशी के रंग।।

कभू खुशी के रंग, गरीबी मा नइ आवय।

दुःख बिपत तकलीफ, रोज बादर बन छावय।।

मनखे बर अभिशाप, गरीबी हे सब कहिथे।

नइ जागे जी भाग, दिनोदिन तंगी रहिथे।।

जगन्नाथ ध्रुव घुँचापाली

बागबाहरा

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  ज्ञानू कवि: विषय- गरीबी 

छंद - विष्णुपद 

काखर कइसन कोन जानथे, काय नसीब हवै|

कोन अमीर हवै ये जग मा, कोन गरीब हवै||

दुःख- दरद अउ मिलथे ताना, ठोकर पग- पग मा|

बड़का बीमारी आय गरीबी, सिरतों ये जग मा||

कोनो धन- दौलत ले संगी, भले अमीर हवै|

दुःख- दरद नइ जानय कखरो, बिके जमीर हवै||

कोनो हा धन अउ दौलत ले, भले गरीब रथे|

अगुवा बन खड़े दुःख- पीरा मा, उही करीब रथे||

खाय- पिये बर कुछू रहय झन, हाय परान रहै|

गुजरय जिनगी भले गरीबी, धर ईमान रहै||

हे बड़का अभिशाप गरीबी, सपना टूट जथे|

कोनो नइये साथ निभइया, कतको छूट जथे||

कभू- कभू तो भूखे- प्यासे, परथे गा सहना|

रोटी, कपड़ा बिन मकान के, परथे गा रहना||

भूख गरीबी अउ बेगारी, कब जग ले मिटही|

नव सुराज अउ नव बिहान तब, भुइयाँ मा दिखही||

ज्ञानु

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 आल्हा- हाल गरीबी के झन पूछव (२२/०९/२०२५)

भोजन पानी अउ कपड़ा बर, तरसे कतको घर परिवार ।

हाल गरीबी के झन पूछव, हाल गरीबी हे बेकार ।।

पइसा कौड़ी के बड़ तंगी, होथे जिनगी नर्क समान ।

रोजगार नइ मिल पावय गा, शिक्षा दीक्षा ले अनजान ।।

दुख पीरा ला निसदिन सहिथें, का करबे होथें लाचार ।

हाल गरीबी के झन पूछव, हाल गरीबी हे बेकार ।।

तन के बीमारी खा जाथे, बिन पइसा के का ईलाज ।

किस्मत मा लिख दे हे रोना, भोगत हें कतको झन आज ।।

कोन जनम के पाप करे हें, कइसे के होही उद्धार ।

हाल गरीबी के झन पूछव, हाल गरीबी हे बेकार ।।

पेट गुजारा खातिर कतको, मनखे मन माॅंगत हें भीख ।

नव पीढ़ी मन देखव गुन लव, ये जिनगी ले लेवव सीख ।।

हर घर मा शिक्षा पहुॅंचावव, तब होही बेड़ा हा पार ।

हाल गरीबी के झन पूछव, हाल गरीबी हे बेकार ।।

ओम प्रकाश पात्रे 'ओम '

बोरिया बेमेतरा छत्तीसगढ़

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प्रदीप छंद- गरीबी

भूख गरीबी के पीरा ला, समझे जेन गरीब हे।

नौकर-चाकर कार बंगला, सब ला कहाँ नसीब हे।।

रोज कमाथें रोजे खाथें, रहिथें काम तलाश मा।

आही इक दिन सुख जिनगी मा, बाँध रखे मन आस मा।।

ये आँखी के बस सपना ये, सच तो कहाँ करीब हे।

भूख गरीबी के पीरा ला, समझे जेन गरीब हे।।

पोट-पोट तो पेट करे अउ, भूख मरे परिवार हा।

महँगाई के मार दिखावत, हावँय नित सरकार हा।।

दूर गरीबी कइसे होही, करे काय तरकीब हे।

भूख गरीबी के पीरा ला, समझे जेन गरीब हे।।

हे अभिशाप गरीबी जग मा, ये समाज बर दाग ये।

हक ले वंचित जिनगी जीना, का गरीब के भाग ये।।

हे सरकार विधाता कइसे, खेले खेल अजीब हे।

भूख गरीबी के पीरा ला, समझे जेन गरीब हे।।

✍🏻इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"

बिलासपुर (छत्तीसगढ़) //

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  डी पी लहरे: दोहा छन्द गीत

बड़का ए अभिशाप हे, हाय गरीबी हाय।

दाना-पानी के बिना, पोटा काँपे जाय।।

 लेवत हावय जान ला, महँगाई के मार।

बढ़हर मनके संग मा, मौज करै सरकार।।

रोजगार के आश ले, भूख गरीबी छाय।।

बड़का ए अभिशाप हे, हाय गरीबी हाय।।

भूख-गरीबी के इहाँ, गूँजत हावय राग।

एखर कहाँ उपाय हे, ये समाज बर दाग।।

जिनगी हा जिनगी सहीं, नइ लागे नइ भाय।।

बड़का ए अभिशाप हे, हाय गरीबी हाय।।

डी.पी.लहरे'मौज'

कवर्धा छत्तीसगढ़


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  डी पी लहरे: मुक्तामणि छन्द गीत

विषय-गरीबी

जनसंख्या बढ़वार से, बढ़े गरीबी भारी।

आज गरीबी देश के, बड़का हे बीमारी।।

रोजगार बिन देख ले, बढ़े आर्थिक तंगी।

दहकत आगी पेट के, कोन बुझावय संगी।

देखौ घर-परिवार मा, छाय सदा लाचारी।

जनसंख्या बढ़वार से, बढ़े गरीबी भारी।।

बाढ़े भ्रष्टाचार हा, शासन के कमजोरी।

बढ़हर मालामाल हे, पैसा बोरी-बोरी।

रोजगार के कुछ इहाँ, नइ हे गा तइयारी।

जनसंख्या बढ़वार से, बढ़े गरीबी भारी।।

रोटी कपड़ा घर नहीं, इही भाग के लेखा।

बाढ़त जावय देश मा, रोज गरीबी रेखा।।

मजदूरी के दाम हा, कम हावय सरकारी।

जनसंख्या बढ़वार से, बढ़े गरीबी भारी।।

डी.पी.लहरे'मौज'

कवर्धा छत्तीसगढ़


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  विजेन्द्र: गरीबी- दोहा छंद 

दरद गरीबी के उही, जाने जउँन गरीबI

अपन करम ला कोसथे, फुटहा कहे नसीबII 

आय गरीबी हा इहाँ, बड़का गा अभिशापI 

जिनगी जइसे गा लगे, करे काय हन पापII  

कारण हे अज्ञानता, निर्धनता के मूलI 

बात सहीं गा आय ये, मूल बात झन भूलII 

करम करे बिन नइ बनय, कखरों भइया भागI  

जेन समय सन नइ चलय, लगे पेट मा आगII 

जनसंख्या के बाढ़ ले, पड़े गरीबी मारI 

रोटी कपड़ा बर इहाँ, झगरा झंझट झारII

 

पड़े गरीबी मार तब, दुनिया लगथे भारI  

दवा दवाई बिन इहाँ, जिनगी जाथे हारII 

कहर गजब ये ढाहथे, भोगत जे बउरायI 

मदद मिले नइ तब भला, गर मा फाँस लगायII

धरे कटोरा हाथ मा, माँगव झन गा भीखI 

जिनगी करव अँजोर गा,लेके शिक्षा सीखII 

विजेन्द्र कुमार वर्मा 

नगरगाँव धरसीवाँ

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  दीपक निषाद, बनसांकरा: हरिगीतिका छंद--गरीबी

कोनो कमावय ठोमहा खर्चा करय काठा सही।

परिवार अउ घर-बार मा सुख-चैन तब  कइसे रही।।

मारय उदाली रात-दिन कीरा परे हे चाल हा।

तबहे कटत नइ हे गरीबी के जबर- जंजाल हा।।

शासन-प्रशासन के कतिक ठन योजना मा झोल हें।

कतकोन भ्रष्टाचार हें अउ ढोल मा भी पोल हें।।

जेहा जरूरत मंद हे वोला मिलय नइ माल हा।

तबहे कटत नइ हे गरीबी के जबर- जंजाल हा।।

पहिली असन नइ हे गरीबी फेर हे अब भी असर।

बेरोजगारी-बान ले टूटयँ युवा मन के कमर ।।

जनता-व्यवस्था बीच पूरा नइ जमत सुर-ताल हा।

तबहे कटत नइ हे गरीबी के जबर- जंजाल हा।।

दीपक निषाद--लाटा (बेमेतरा)


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  छत्तीसगढिया: कुकुभ छंद

गरीबी

हवे गरीबी बड़ दुखदायी, गुजर बसर मुश्‍किल होथे।

रोटी कपड़ा घर-गाड़ी अउ, बने चीज बर मन रोथे।।

आज गरीबी ऊपर कतको, बने योजना हर आथे।

फेर योजना हा नइ पहुँचे, घपला पहिली कर जाथे।।

भूख गरीबी के मनखे ला, अतका लाचारी कर देथे।

वोला कुछु समझे नइ आवय, गलत काम ला कर लेथे।।

अनुज छत्तीसगढ़िया

पाली जिला-कोरबा

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  तातुराम धीवर : दोहा - गरीबी 

एक सही सब ला दिये, जनम इहाँ भगवान।

कनो गरीबी मा जिये, कनो बने धनवान।।

करम करय नइ कोढ़िया, कोसत रोज नसीब।

बिना करम पइसा मिले, करत रथे तरकीब।।

सही सलामत हे सबो, देंह गोड़ अउ माथ।

वो सब ले धनवान हे, करम करय जे हाथ।।

जे अपंग हे देंह ले, सँच मा उही गरीब।

तंगहाल जिनगी जिये, हे दुख पीर करीब।।

शासन ले राशन लिये, करके नाप जरीब।

कार्ड गरीबी के बना, धनपति बने गरीब।।

मार गरीबी के परे, सपना होवय चूर।

धन के अभाव मा रहे, सब साधन ले दूर।।

झेल गरीबी ला सहे, बिन ओन्हा के अंग।

लड़थें रोज गरीब हे, जिनगी के सब जंग।।

     तातु राम धीवर 

भैसबोड़ जिला धमतरी


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  नंदकिशोर साव  साव: कुंडलिया छंद - गरीबी 

खाली बइठे झन रहव, तज दव जी आराम।

दूर गरीबी हो तभे, करहू तुम कुछ काम।।

करहू तुम कुछ काम, हाँथ मा पइसा आही।

घर खर्चा आसान, सरल जिनगी हो पाही।।

सुधर जही गा आज, बने होही अउ काली।

मिलय सबो ला काज, रहय झन सथरा खाली।।

नंदकिशोर साव 'नीरव'

राजनांदगाँव (छ. ग.)

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बरवै छंद-- गरीबी 

आय गरीबी बड़का, गा अभिशाप।
कोन जनम के मनखे, भोगँय पाप।।

देख सबो लाचारी, फेकँय जाल।
ठग बैपारी होवत, मालामाल।।

हाल गरीबी झेलय, जब परिवार।
भीख मॉंग के जिनगी, काटँय यार।।

भूख मरै अउ सपना, टूटय रोज।
तभो पेट बर दाना, लावँय खोज।।

रोग अशिक्षा लोगन, जावँय भूल।
आय गरीबी के ये, कारण मूल।।

रोजगार बिन मनखे, सब लाचार।
आँखी मूँदे देखत, हे सरकार।।

तन मा दुख बीमारी, जब-जब आय।
धरके संग गरीबी, घर मा लाय।।

रोजगार के अवसर, दव भरपूर।
तंग हाल हा तभ्भे, होही दूर।।


मुकेश उइके "मयारू"
ग्राम- चेपा, पाली, कोरबा(छ.ग.)
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गरीबी
सरसी छंद
16-11
होत गरीबी श्राप बरोबर ,सच्चा येला जान।.
पिसा जथे परिवार सबो,आय पिसनही मान॥

फँसे गरीबी के फाँदा मा,जीना मुश्किल हाय।
मन मारत जीये ला परथे,नरक बरोबर ताय॥

बिन पइसा लाचारी जिनगी,संकट के भरमार।
रोजी रोटी खाना पानी,दवई के दरकार ॥

मन के आशा पूरा कब हो,चुरत रहीथे साध।
तरसत मन के लाचारी मा,कर जाथें अपराध॥

 बेटी गरीब के चिरई हे,दुनिया बनथे बाज।
हाय गरीबी तोर मार मा,बेचे परथे  लाज॥

जाँगर पेरत उमर पहाथे, बाढ़य नही गरीब' ।
 बाढ़त जावय बड़हर मन हाँ, बड़का हवय नसीब॥

लाख जतन कर,मुड़ पथरा दे, होवय नही सुधार ।
बना योजना करम करे ले, होही गा उद्धार॥
जुगेश कुमार बंजारे
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: सरसी छंद - गरीबी 

कहाँ गरीबी के जनमन हे,  देखन ये ला खोज|
काबर पसरत हे समॎज मा, जानन ये हर रोज||

नाम गरीबी बड़का भारी,  कतका होत उपाय|
जनसंख्या बाढ़त जावत हे, तभे मचे घर हाय||

काम मिले दू चार दिवस बस, बीते फिरत हजार|
ठलहा बइठे हें गरीब, अब कहाँ रोजगार||

उबजन ले का नसीब बनथे, मिलथे काम अपार|
हर हालत मा धन हे भारी, धन करथे बैपार||

धनी मनी मन दबदर खातिर, दैं कहाँ रोजगार|
कीमत ला उन कमकर देथे, लेथे काम अपार||

गाँव शहर मा सेठ महाजन, करथे उन बलडार |
गली गली मा हाँक परै, हे गरीब  भरमार||

कोन करत हे शोषण भारी, हे गरीब बर प्यार|
खावँय छप्पन भोग मलाई, दुख के हो निरवार||

अश्वनी कोसरे रहँगिया कवर्धा कबीरधाम छ. ग.
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 - कुंडलिया छंद

जाँगर आगर हे लगत, हँकरँय कमा गरीब|
दू कौंरा के भूँख ले, हारय उँकर नसीब||
हारय उँकर नसीब, नाम ले का मिल पाथे|
बिपदा बाढ़त जाय, खून पानी बन जाथे||
का बरसा का घाम, जाड़ तन रहिथे करीब|
रात दिवस थक हार, जूझ के सोथें गरीब||

अश्वनी कोसरे रहँगिया कवर्धा कबीरधाम छ. ग.
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Monday, September 15, 2025

नारी शक्ति विशेष, छंदबद्ध कविता

  भागवत प्रसाद, डमरू बलौदा बाजार  *मनहरण घनाक्षरी*

*नारी*

नारी जग हे महान,  सुन लेना देके ध्यान, झनकर अपमान,  कहाँ कमजोर हें।

देख लेना आसमान , उड़ावत वायुयान, थाम्हे आज हे कमान,  नारी तो सजोर हें।।

खेलत हें मैदान म, कार्यालय दुकान म, संगीत अउ गान म, उड़त जी शोर हे।

नारी बिना अँधियार, जिनगी के कारोबार, नइ भाय घर द्वार, नारी हे त भोर हे।।


 मइके ससुराल म, दिन महीना साल म, जिहाँ हे हरहाल म, सुन्ना जी संसार हे।

 घर परिवार बर, लइका दुलार बर, पति के जी प्यार बर, नारी एक सार हे।।।

 नारी जाति एक तन, रुप म अनेक ठन, नानी दादी पत्नी बन,   बहिनी के प्यार हे।

सब सुख ला छोड़ के, परिवार ला जोड़ के,  मन ला नइ तोड़ के, बोहे रथें भार हे।।।।


नारी धरम निभाथें,  कुल ल आगू बढ़ाथें, घर सरग बनाथें, शक्ति पहिचान लौ।

घर होथे अँधियारी, मुशकिल होथे भारी, मइके जाथे सुवारी, महिमा ल जान लौ।

सबके पीरा मिटाथे, घर भर ल खवाथे, बाँचे खोंचे खुद खाथे, उपकार मान लौ।।

अबला तो झन जान, सबला होगे हें मान, कर नारी सनमान, गुण ल बखान लौ।।


भागवत प्रसाद चन्द्राकर

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  जगन्नाथ सिंह ध्रुव  कुण्डलिया छन्द     -    नारी


नारी हे नारायणी, नारी जग आधार।

घर -घर पूजा पाठ अउ, करव इॅंखर सत्कार।।

करव इँखर सत्कार, इही मन लक्ष्मी सीता।

करथे रोज बखान, वेद अउ भगवत गीता।।

नारी मन हा आय, सबो जग के महतारी।

करथे अँचरा छाँव, घरोघर मा सब नारी।।


    जगन्नाथ ध्रुव घुँचापाली 

बागबाहरा

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   दीपक निषाद, बनसांकरा *सार छंद--नारी शक्ति* 

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सेवा-ममता-मया-समर्पण, गुन के खानी नारी।

जग सिरजन-पालन-पोषण के, इँकरे जिम्मेदारी।।

संस्कृति-रीति-धरम के एमन,करयँ सदा रखवारी।

हर पीढ़ी ला होना चाही,एमन के आभारी।।


नारी ए माँ दुर्गा- लक्ष्मी,सरस्वती-संतोषी।

बहिनी-बेटी-बाई-माई,फूफू-काकी-मोसी।।

सब ला रखयँ सहेजत एमन,घर-बन सगा-परोसी ।

इँकर दशा बिगड़े मा नर के,सोच घलो हें दोषी।।


नारी हठ अउ त्रिया चरित्तर,इँकर शान मा दागी।

कतको बाला अंग प्रदर्शन,फैशन के अनुरागी।।

काबर कतको जगमग दीया,बनथें भभकत आगी।

सच्चरित्र नारी ले लागयँ,घर-समाज बड़भागी।।


आदर-मान जिहाँ नारी के,उहाँ देव के बासा।

जिहाँ सुरक्षित नइ ए नारी,नरक वो करमनासा।।

सहीं जघा पावय हर नारी,झन बन जाय तमाशा।

इही वक्त के माँग हरय अउ, हवयँ सबो के आशा।।


दीपक निषाद--लाटा (बेमेतरा)

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  विजेन्द्र नारी शक्ति –दुर्मिल सवैया 


अबला खुद ला झन तो समझो,ममता मइ रूप महान हरौ I

जग के जननी महिमा अतका,लइका बर तो भगवान हरौ I

तुहरे परताप हरे जिनगी,घर बार सबो बर शान हवौ I

पइयाँ सब लागय तोर इहाँ,कतका गुण के तुम खान हवौ I

विजेन्द्र कुमार वर्मा 

नगरगाँव (धरसीवां)


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प्रदीप छंद- *नारी शक्ति*


नारी महिमा गाथा गाये, गीता ग्रंथ कुरान हे।

दू कुल के महकत फुलवारी, नारी शक्ति महान हे।।


दुनिया के तो सृष्टि करइया, सुख के सिरजनहार ये।

ये ममता मनुहार भरइया, भवसागर पतवार ये।।

रखे मया के छइँहा अँचरा, गोदी सरग समान हे।

नारी महिमा गाथा गाये, गीता ग्रंथ कुरान हे।।


कोंन कथे हे नारी अबला, ताड़न के अधिकार ये।

आँख उठा के देख तहूँ तो, हाथ धरे तलवार ये।।

बैरी बर रणचंडी बनके, थामे तीर कमान हे।

नारी महिमा गाथा गाये, गीता ग्रंथ कुरान हे।।


आसमान मा रखे कदम हे, रचे नवा इतिहास ला।

सबो क्षेत्र मा अव्वल नारी, गढ़े चले विश्वास ला।।

भारत माँ के सबला बेटी, सदा बढ़े यश शान हे।

नारी महिमा गाथा गाये, गीता ग्रंथ कुरान हे।।


✍🏻इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"

बिलासपुर (छत्तीसगढ़) 

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,   +   ""नारीशक्ति "" आल्हा छंद 


हाथ जोड़ के माथ नवालव, नारी हे जग के आधार ।

जनम दिये तॅंय  सरी जगत ला, तोर बिना सुन्ना संसार ।।


तोर मया हे अड़बड़ भारी, कखथस सबके तॅंय हा सोर ।

बेटी बहिनी भार्या बनके, सबके मन ला करे ॲंजोर।।

कभू देव सॅंग करे लड़ाई, दानव मन से करे सॅंहार ।

कभू सीख दे लइका मन ला, कभू चलाए घर परिवार ।।

तही जगत के कर्ता धर्ता,  तोर बिना दुनिया लाचार ।

जनम दिये तॅंय सरी जगत ला, तोर बिना सुन्ना संसार ।।


त्याग तपस्या के तॅंय मूरत, दुख सहिके दुनिया सिरजाय ।

दुनिया कहिथे फिर भी अबला, करके  सब ला काम दिखाय ।।

आठो पहर डटे तॅंय रहिथस, करके सबके तॅंय सत्कार ।

दोनों कुल ला तॅंय हर तारे, चाहे मइके या ससुरार ।।

देश धरम ला घलो चलाथस, बड़े सुजानिक बन सरकार ।

जनम दिये तॅंय सरी जगत ला, तोर बिना सुन्ना संसार ।।


तोर कोख मा जनम धरे हे, तुलसी मीरा राम रहीम 

माथा ऊॅंचा करके चलथे, पाॅंच पाण्डव में वीर भीम ।।

वीर नरायण गुण्डाधुर के, तही सहासी माता आत ।

तोर चरण मा सेवा करथे, भक्तन मन नव दिन नव रात ।।

दुर्गा काली मात् भवानी, रूप तोर हे अपरंपार ।

जनम दिये तॅंय सरी जगत ला, तोर बिना सुन्ना संसार ।।


संजय देवांगन सिमगा 

चन्द्राकर

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,   डी पी लहरे सार छन्द गीत

विषय-नारी

हाँ इतिहास रचइया हावँय, आजकाल के नारी। 

अत्याचार सहइया नोहँय, हिम्मत हावय भारी।।


शिक्षा के जे अलख जगाये, हे सावित्री बाई।

मदर टरेसा पाटे जानव, ऊँच-नीच के खाई।।

इंद्रा गाँधी प्रतिभा पाटिल, होइन सत्ताधारी।।

हाँ इतिहास रचइया हावँय, आजकाल के नारी।।


बीस बलत्कारी मन ला तो, मारिस दन-दन गोली।

फूलन देवी पापी मन के, बंद करिस हे बोली।।

देखव तो मजबूर कहाँ हें, नइ हे अब लाचारी।

हाँ इतिहास रचइया हावँय, आजकाल के नारी।।


मैरी काम किरण बेदी मन, पाइन ऊँचा दर्जा।

आज कल्पना दीदी मनके, कहाँ चुकाबो कर्जा।।

वंदन कर लौ घेरी-बेरी, इनमन तारनहारी।।

हाँ इतिहास रचइया हावँय, आजकाल के नारी।।


डी.पी.लहरे'मौज'

कवर्धा छत्तीसगढ़

चन्द्राकर

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,चौपई(जयकारी) छन्द - नारी महिमा (१०/०९/२०२५)


नारी महिमा अपरम्पार ।

जानत हें पूरा संसार ।।

थामें रखथे घर परिवार ।

नइ मानय जिनगी मा हार ।।


माॅं बेटी बहिनी कहलाय ।

पत्नी बन पति के घर आय ।।

रिश्ता-नाता खूब निभाय ।

सब के मन ला वो हर्षाय ।।


त्याग तपस्या जेकर पास ।

नइ छोड़य आशा विश्वास ।।

दया-मया करथे बिन्दास ।

सुख-दुख के जे साथी खास ।।


बूता भारी दिन अउ रात ।

रोज बिहनिया ले शुरुआत ।।

सरदी गरमी का बरसात ।

भोजन बाॅंटय ताते-तात ।।


नारी अबला नइ हे आज ।

बड़े-बड़े वो करथे काज ।।

साजे सुग्घर सिर मा ताज ।

नारी मन के आगे राज ।।


नारी ला देवव सम्मान ।

आन बान वो घर के शान ।।

शक्ति-भक्ति ला लव पहिचान ।

झन बनहू पढ़-लिख नादान ।।



ओम प्रकाश पात्रे 'ओम '

बोरिया बेमेतरा (छत्तीसगढ़)


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,   तातुराम धीवर  ।। रूप घनाक्षरी ।। 

        नारी शक्ति -


जनम देवय नारी, कहें जग महतारी,

महिमा हावय भारी, शक्ति कर अवतार।

जने ऋषि मुनि ज्ञानी, बड़े-बड़े महादानी,

बने वीर बलिदानी,  गुण गावय संसार ।।

राधा बन प्रेम करे, मोहना के मन हरे,

कालिका के रूप धरे, मारे भारी किलकार।

मीरा भेष जोगन के, नाम जपे मोहन के,

दुख सहे लोगन के, शक्ति तोर हे अपार।।


नारी आय रूपबती, नारी आय गुनबती,

नारी आय शीलबती, नारी के शक्ति महान।

करतब बड़े-बड़े, यम के हे पाछु पड़े,

पति प्रान बर लड़े, अबला हे झिन जान।।

नारी रनचण्डी बन, भिड़य कछोरा तन,

बइरी मारत रन, हरत हावय प्रान।

देव शक्ति हे समाय, देवन हे गुण गायँ,

नारी शक्ति ले होवय, नर कर फहिचान।।


नारी शक्ति हे भवानी, जतमाई घटारानी,

बहे झरना के पानी, झरे अमरित धार।

माता देवी भगवती, शिव जी के आय सती,

सबके बनाय गति, जोरे मन के हे तार।।

नारी ला जगाये बर,जग रचे घरो घर,

जियो नइ डर डर, भरव अब हूंकार।

जागो जागो नारी मन, जागें तब जन जन,

बाढ़ जाही शक्ति धन, होवय जब संस्कार।।


    तातु राम धीवर 

भैसबोड़ जिला धमतरी


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,   मुकेश  बरवै छंद--- नारी शक्ति 


नारी मन के महिमा, अपरंपार।

सुमता मा राखँय जी, घर परिवार।।


आज करत हें उन मन, जम्मों काम।

पढ़-लिख बने कमावत, हावँय नाम।।


नारी बिन हावय गा, जग अँधियार।

माँ बेटी पत्नी बन, बाटँय प्यार।।


रानी दुर्गा लक्ष्मी, बनिन महान।

बैरी मन ले लड़के, देइन प्रान।।


बने चलावत हावँय, अब सरकार।

राजनीति मा बनके, भागीदार।।


बड़े-बड़े ग्रंथन हा, करय बखान।

शक्ति स्वरूपा नारी, देवव मान।।


मान गउन सब झन ला, दँय हरहाल।

करँय सदा पति सेवा, जा ससुराल।।


दुनिया भर मा अब तो, होवय शोर।

नइहें नारी अबला, अउ कमजोर।।


ओलंपिक उन खेलँय, गा मैदान।

मेडल जीत बनावँय, जी पहिचान।।


नारी मन हें जग के, सिरजनहार।

मातृ रूप मा पूजय, अब संसार।।


मुकेश उइके "मयारू"

ग्राम- चेपा, पाली, कोरबा(छ.ग.)

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,   नंदकिशोर साव  साव कुंडलिया छंद - नारी शक्ति


नारी जग जननी हरे, नारी ले ही प्राण।

नारी गौरव गान ए, कहिथे वेद पुराण।।

कहिथे वेद पुराण, शक्ति के सरूप होथें ।

अबला नइ तो जान, मया के बीजा बोथें।।

नापय भू आकाश, सबर बर पड़थे भारी।

माता बहिनी मान, करव आदर जी नारी।।


नंदकिशोर साव 

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,   भागवत प्रसाद, डमरू बलौदा बाजार  *नारी*

*प्रदीप छंद*


 नारी ला कमती झन समझव, नारी घर के शान हे।

नारी के बिन लगथे घर हा, जइसे जी समसान हे।

नारी ले ही नर के जग मा, आज सबो पहिचान है।

नारी ही नइ रही कहूँ तब, जिनगी सबो विरान हे।।


दुर्गा रानी लक्ष्मी बाई, सुषमा  प्रतिभा नाज हे।  ।

राधा मीरा लक्ष्मी सीता, देव लोक मा राज हे।।

शेखर बिस्मिल प्रहलाद भगत, जन्मे सबो महान हे।

नारी ला कमती झन समझव, नारी घर के शान हे।।


सुलोचना अनुसुइया शबरी, शति शावित्री जान लौ।

झुकिन देवगण इँखरो आगू, नारी ताकत मान लौ।।

बाँचव नारी के निंदा ले, नारी ले सनमान हे।

नारी ला कमती झन समझव, नारी घर के शान  हे।।


आज राष्ट्रपति बनके सुघ्घर, नारी देश चलात हें।

बस ट्रक रेल ल कोन पुछय जी, अब जहाज ल उड़ात हें।।

मंत्री संत्री बने हवँय अउ, लड़त युद्ध मैदान हे।

नारी ला कमती झन समझव, नारी  घर के शान हे।।


भागवत प्रसाद चन्द्राकर

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,   भागवत प्रसाद, डमरू बलौदा बाजार  *मनहरण घनाक्षरी*

*नारी*

नारी जग हे महान,  सुन लेना देके ध्यान, झनकर अपमान,  कहाँ कमजोर हें।

देख लेना आसमान , उड़ावत वायुयान, थाम्हे आज हे कमान,  नारी तो सजोर हें।।

खेलत हें मैदान म, कार्यालय दुकान म, संगीत अउ गान म, उड़त जी शोर हे।

नारी बिना अँधियार, जिनगी के कारोबार, नइ भाय घर द्वार, नारी हे त भोर हे।।


 मइके ससुराल म, दिन महीना साल म, जिहाँ हे हरहाल म, सुन्ना जी संसार हे।

 घर परिवार बर, लइका दुलार बर, पति के जी प्यार बर, नारी एक सार हे।।।

 नारी जाति एक तन, रुप म अनेक ठन, नानी दादी पत्नी बन,   बहिनी के प्यार हे।

सब सुख ला छोड़ के, परिवार ला जोड़ के,  मन ला नइ तोड़ के, बोहे रथें भार हे।।।।


नारी धरम निभाथें,  कुल ल आगू बढ़ाथें, घर सरग बनाथें, शक्ति पहिचान लौ।

घर होथे अँधियारी, मुशकिल होथे भारी, मइके जाथे सुवारी, महिमा ल जान लौ।

सबके पीरा मिटाथे, घर भर ल खवाथे, बाँचे खोंचे खुद खाथे, उपकार मान लौ।।

अबला तो झन जान, सबला होगे हें मान, कर नारी सनमान, गुण ल बखान लौ।।


भागवत प्रसाद चन्द्राकर

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,   Jugesh *नारी शक्ति* 

जयकारी चौपई छंद


नारी ला देवव सम्मान,नारी के हर रूप महान ।

आवय दुर्गा सती समान,अतका तो लेवव सब जान॥


नारी मा गुन हवय अपार,देव घलो मन जाथे हार।

दया मया सुख बाँटे सार,ले बेटी बहिनी अवतार॥


सखी रूप मा मन ला भाय, सुख के वो बरसा बरसाय ।

जाँवर जोड़ी बन जबआय,जीवन बगिया ला महकाय॥


खानदान के होथे आन,बेटी बन के राखे मान।

ददा बबा केआवय शान,मया रूखवा येला जान॥


रूप धरे महतारी आय,सबो सरग धर अँचरा लाय।

देव घलो मन हा ललचाय,भाग मान हा ये सुख पाय॥


कृपा करै देवन के नाथ, चमक जथे घिनहा के माथ ।

शक्ति रूप धर देथे साथ,तब नारी के मिलथे हाथ॥


जुगेश कुमार बंजारे  धीरज 

नवागाँवकला छिरहा दाढ़ी बेमेतरा

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,   विजेन्द्र माटी के कटाव- कुंडलिया छंद 


जंगल झाड़ी पेड़ ले, होथे बने बचावI 

रुकथे माटी के तभे, होवत जेन कटावI 

होवत जेन कटाव, करत हे बड़ नुकसानीI 

आथे पूरा बाढ़, लबालब पानी-पानीI 

माटी रखव सहेज, तभे जिनगी मा मंगलI 

रोकय बने कटाव, पेड़ झाड़ी अउ जंगलII


विजेन्द्र कुमार वर्मा 

नगरगाँव-(धरसीवां)

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,    अशोक कुमार जायसवाल *कुण्डलियाँ*


*नारी शक्ति*


नारी महिमा जान ले,शक्ति स्वरूपा आय |

दुर्गा चंडी कालिका, शितला कभू कहाय ||

शितला कभू कहाय, अबड़ जुड़ जेकर अँचरा |

मनखे थके थिराय, हरै दुख जिनगी पचरा ||

नारी शक्ति महान, वेद हा गाथे भारी |

नर हे पालनहार, फेर जननी हे  नारी ||


अशोक कुमार जायसवाल 

भाटापारा

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,   Jaleshwar Das Manikpuri  कुंडलियां नारी शक्ति 


नारी के सम्मान बर,सरलग राहव संग।

पीटव ओला सोंट  के,करय जेन अतलंग।।

करय जेन अतलंग,ठठावा मुटके मुटका।

टूटय चाहे हाड़,करव तन कुटका -कुटका।

बदलव अपन बिचार, समे  आहे  ए दारी।

राखव ऊंखर मान,तभे सम्मानित नारी।।

 जलेश्वर दास मानिकपुरी ✍️ 

 मोतिमपुर बेमेतरा

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,   नंदकिशोर साव  साव कुंडलिया छंद - नारी शक्ति


नारी जग जननी हरे, नारी ले ही प्राण।

नारी गौरव गान ए, कहिथे वेद पुराण।।

कहिथे वेद पुराण, शक्ति के रूपस होथें ।

अबला नइ तो जान, मया के बीजा बोथें।।

नापय भू आकाश, सबर बर पड़थे भारी।

माता बहिनी मान, करव आदर जी नारी।।


नंदकिशोर साव "नीरव"

राजनांदगाँव (छ. ग.)

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,   नीलम जायसवाल *छन्न पकैया छन्द*

*नारी शक्ति*


छन्न पकैया-छन्न पकैया,नारी हे महतारी।

सबो नता ला बने निभावय, झन दव ओला गारी।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, महामूर्ख अज्ञानी।

जे नारी के शोषण करथे, अधम हरे वो प्रानी।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, ममता रहे हमाये।

जग जननी के रूप हरे ये, मया-पिरित बगराये।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, तिरिया जिहाँ पुजाही।

उहें भ्रमण करथें ग देवता, लछमी उँहिचे आही।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, कभू रहय न उदासी।

नारी के सम्मान जिहाँ हे, सम्पति उहिँ के वासी।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, नारी जनम ल देथे।

अवतार घलो तन पाये खातिर, इँखर सहारा लेथे।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, कखरो ले कम नो हे।

उही एवरेस्ट मा चग जाथे, स्पेस तको मा ओ हे।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, कोन क्षेत्र हे बाँचे।

जल-थल-नभ मा नारी हावै, नारी खुद ला जाँचे।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, नारी सब ला पालै।

पहिली सब के पेट व भरथे, बचे-खुचे ला खा लै।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, नारी महिमा जानौ।

दव अधिकार बराबर ओला, वहू ल मनखे मानौ।।


*नीलम जायसवाल, भिलाई, छत्तीसगढ़*

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,   ज्ञानू कवि विषय- नारी शक्ति 

छंद - विष्णुपद 


पार पाय नइ सकिस देवता, सदा महान हवै|

नारी बिना अधूरा सिरतों, जग वीरान हवै||


नारी के शक्ति, बुद्धि, बल ले, दुनिया हा चलथे|

अँधियारी ला दूर करें बर , दीया बन जलथे||


नारी के महिमा ला गावत, वेद पुराण हवै|

नारी बिन दुनिया हा सिरतों, जस शमसान हवै||


कोन आज तक समझे हे गा, पीरा अंतस के|

नारी हृदय समझना कखरो, नइये गा वश के||


नारी ममता के मूरत हे, नारी हे सबला|

बखत परे रणचंडी बनथे, समझौ झन अबला||


मिला खाँध ले खाँध चलत हे, नारी आज हवै|

बचे कहाँ कुछ करत आज हे, जम्मों काज हवै||


तभो करत हे दुनिया काबर, बड़ अत्याचार हवै|

कतको नियम बनाये तब ले, अउ सरकार हवै||


दाई, पत्नि, बहन, बेटी बन, साथ हमर रहिथे|

नारी ला सम्मान सदा दव, सब बर दुख सहिथे||


ज्ञानु


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,   +   *नारी जागरण*

विधा - ताटंक छंद गीत

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उठव नींद ले दाई बहिनी, अब जागे के पारी हे।

घर परिवार समाज सुरक्षा, तुँहरे जिम्मेदारी हे।।


पढ़े-लिखे के उदिम करव अउ, दियना बारव शिक्षा के।

बाना तुहीं उठावव जुरमिल, लइका मन के दीक्षा के।

बदल सकत हव ये दुनिया ला, तुँहर परन बड़ भारी हे।

घर परिवार समाज सुरक्षा, तुँहरे जिम्मेदारी हे।।


कोमल हव कमजोर नहीं हव, ताकत ला पहिचानौ जी।

कर सकथव सब काम तहूँ मन, मन मा कस के ठानौ जी।

मया पिरित के जुड़ छइहाँ मा, महकत तुँहर दुवारी हे।

घर परिवार समाज सुरक्षा, तुँहरे जिम्मेदारी हे।।


दो-दो कुल के लाज बचाथव, सह जाथव सब पीरा ला।

पाल-पोस इंसान बनाथव, घर के सुग्घर हीरा ला।

मधुरस कस सुघराई भाखा, गोठ-बात संस्कारी हे।

घर परिवार समाज सुरक्षा, तुँहरे जिम्मेदारी हे।।


     *इन्द्राणी साहू"साँची"*

         भाटापारा (छत्तीसगढ़)


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,   अमृतदास साहू  *विषय - नारी शक्ति*

       *सार छंद*


हावय संगी नारी मनके, महिमा अड़बड़ भारी।

इँकर बिना नइ चलय थोरको,सगरो दुनिया दारी।


कभू हार नइ मानै येमन ,कतको बाधा आवै।

अपन आखरी साँस चलत ले ,नारी धरम निभावै।

संत देव ऋषि ज्ञानी ध्यानी,हवय इँकर आभारी।

इँकर बिना नइ चलय थोरको,सगरो दुनिया दारी।


झन समझौ जी अब इनला तुम, शक्तिहीन अउ अबला।

बात रथे जब इँकर मान के,कँपा देत इन जग ला।

करव सदा सम्मान इँकर सब,होथें इन अवतारी।

इँकर बिना नइ चलय थोरको, सगरो दुनिया दारी। 


अलग अलग रुप मा येमन हा, ये दुनिया मा आथे।

दया मया बगराके सुग्घर,जिनगी ला महकाथे।

इहीं रूप देवी दुर्गा के,आवय जग महतारी।

इँकर बिना नइ चलय थोरको, सगरो दुनिया दारी।

 

 अमृत दास साहू 

   राजनांदगांव


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,   मीता अग्रवाल *घनाक्षरी छंद -नारी शक्ति* 


पुरुष प्रधान देश, भारतीय हवे वेष,

मान दे विधाता नारी, देवी के अवतार।

लछमी गायत्री गौरी,  ईखर त्रिदेव पति,

सीता राम राधेश्याम,पूजे सब संसार।

नारी शक्ति अवतार, विश्व के पालनहार,

रूप कतकों धरे हे,

सब्बो ग्रंथ आधार।

जुन्ना नवा इतिहास,नारी महिमा विकास,

गाथा गढ़े कतकों हे,जानगे अधिकार।



नारी गुन के हे खान, दू कुल बसाय जान,

रुप हे कल्याणकारी,ऐखर से संसार।

धीर हे सहनशील,पोषे सब जगजीव,

धरा कस गुनी नारी, पोषय परिवार।

काल धारा बदलगे, बदलिस रुप रंग,

बदलाव संग नारी,हर क्षेत्र विस्तार।

हर-दिन आघु बढ़े,जिम्मेदारी घर धरे,

दूनों हाथ काम करें,

आज मान सत्कार।


मेल मा शक्ति हे नारी, खेल मां शक्ति हे नारी,

संयम साहस शक्ति,नारी गुन सार हे।

नव रुप पूजा कर,नव ज्ञान गुन धर,

शक्ति ले ही शक्ति बाढ़े,  शक्ति तलवार हे।

आपसी सम्मान करें, नारी  ही नारी ल गढ़े,

सहयोग भाव भरे

 नारी शक्ति धार हे।

नारी नर परिवार,लइका पालनहार,

हर क्षेत्र आघु बढ़े,महिमा अपार हे।


डॉ मीता अग्रवाल मधुर रायपुर छत्तीसगढ़


Wednesday, September 10, 2025

आदिवासी विशेष छंदबद्ध सृजन

 मैं रहवया जंगल के- आल्हा छन्द


झरथे झरना झरझर झरझर, पुरवाही मा नाचय पात।

हवै कटाकट डिही डोंगरी, कटथे जिंहा मोर दिन रात।।


डारा पाना काँदा कूसा, हरे मोर मेवा मिष्ठान।

जंगल झाड़ी ठिहा ठिकाना, लगथे मोला सरग समान।।


कोसा लासा मधुरस चाही, नइ चाही मोला धन सोन।

तेंदू मउहा चार चिरौंजी, संगी मोर साल सइगोन।।


मोर बाट ला रोक सके नइ, झरना झिरिया नदी पहाड़।

सुरुज लुकाथे बन नव जाथे, खड़े रथौं सब दिन मैं ठाड़।।


घर के बाहिर हाथी घूमय, बघवा भलवा बड़ गुर्राय।

चोंच उलाये चील सोचथे, लगे काखरो मोला हाय।।


छोट मोट दुख मा घबराके, जाय मोर नइ जिवरा काँप।

रोज भेंट होथे बघवा ले, कभू संग सुत जाथे साँप।।


काल देख के भागे दुरिहा, मोर हाथ के तीर कमान।

झुँझकुर झाड़ी ऊँच पहाड़ी, रथे रात दिन एक समान।।


रेंग सके नइ कोनो मनखे, उहाँ घलो मैं देथौं भाग।

आलस अउ जर डर जर जाथे, हवै मोर भीतर बड़ आग।।


बदन गठीला तन हे करिया, चढ़ जाथौं मैं झट ले झाड़।

सोन उपजाथौं महिनत करके, पथरा के छाती ला फाड़।।


घपटे हे अँधियारी घर मा, सुरुज घलो नइ आवय तीर।

देख मोर अइसन जिनगी ला, थरथर काँपे कतको वीर।।


शहर नगर के शोर शराबा, नइ जानौं मोटर अउ कार।

माटी ले जुड़ जिनगी जीथौं, जल जंगल के बन रखवार।।


आँधी पानी बघवा भलवा, देख डरौं नइ बिखहर साँप।

मोर जिया हा तभे काँपथे, जब होथे जंगल के नाँप।।


पथरा कस ठाहिल हे छाती, पुरवा पानी कस हे चाल।

मोर उजाड़ों झन घर बन ला, झन फेकव जंगल मा जाल।।


जीतेन्द्र वर्मा "खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)


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    दोहा 

आदिवासी 


सरल सहज मनखे लगै, जंगल के रखवार ।

सुघर आदिवासी मनन, बुढ़ा देव परिवार ।।


गोंड़ भील धुर्वा सबों,बैगा हल्बी जात।

मिलजुल के रहिथें सबों, दय नइ कोनों घात।।


आयुर्वेद भर-भर भरे, जंगल मा भंडार।

सबके वो रक्षक हवय, रोग हरय भरमार ।।


भरे खजाना अति अकन, सोन हीर के खान ।

दाई कोरा के मया, सुघर हवय संतान।।


जंगल हर भगवान हे, पहिरे तन मा छाल।

गावय कर्मा ददरिया, नाचत दय सब ताल।।


धनेश्वरी सोनी 'गुल'

बिलासपुर


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   अश्वनी कोसरे  आदिवासी-वीर छंद


जंगल के हें अगुवा बेटा, मूलनिवासी हावय नाम|

रक्षा खातिर जल जमीन के, लगे रथैं गा आठोयाम||


जंगल के रखवारी करना, अव्वल मा हे जिनकर काम|

परबत डोंगर जंगल माढ़े, पुर अंचल घर माड़ा धाम||


बड़ महिनत जुझ करतब करके, जिनगी ला जीथें हर बार|

छिन छिन घड़ी घड़ी संकट हे, तभो बिताथें उमर पहार||


कंद फूल फर जर हे खाना, औषधि टोरा जिनगी सार|

जंगल के फर मउहा खाथें, तेंदू अमली बोइर चार||


पर हर फर बर मया बिकट हे, जिनगी भर रहिथे उपकार|

कहूँ एक फर खाना होही, तभो मनाही परब तिहार||


पहली सुमरन धरती के हे, उँकर कृपा ले हे उपहार|

सुरुज देव के बंदन करके, जल के जोरे हें अनुहार||


किसम किसम के परब मनाथे, हल्बी गोंडी सदरी कोल|

मुड़िया मड़िया मुण्डा भतरा, लेंजा खाथें रीलो बोल|


नाचँय सरहुल पूजा पतरा, सरई सरना माया दोल|

चैत परब हे पाट जातरा, पहिन बाइसन साजे ढोल||


दंडामी मुरिया मन साजैं, नाचँय झूम झूम ककसार|

सरना दइ के पूजा खातिर, सरहुल जस  माटी संस्कार||


नवा फसल बर नवाखई हे , आमा बर आमखई तिहार|

बीजा पंडूम बीज बोनी, मन हरियर हे सबो जगार||


शिल्प कला लकड़ी कठवा के, इँकर हे सुग्घर पहिचान|

मेटल घड़वा पत्ता छिंदी, बाँस कला के हे बड़ ज्ञान||


अश्वनी कोसरे 'रहँगिया' कवर्धा कबीरधाम छ ग


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   अश्वनी कोसरे  आदिवासी- वीर छंद


भैना भतरा उराँव जतरा, कुरुख कोरवा हावँय तेन|

बूढ़ा बड़ा देव हें मुड़का, पुरखा ठाना लिंगो पेन||


बावन गढ़ा गढ़निया राहय, गोंड राज के छतरप मान|

हाथी शेर सिहाँसन बइठे, बैगा भूम नाग परधान||


जोहर जोहर जय सेवा हे, सीधा सरल साफ हे बात|

मउरत फूल डार धर पाना, देवत हें रोजे सौगात||


महर महर हे डोंगर भुइँया, कहरत हे बन जंगल झाड़|

कलकल कलकल बहिथे नँदिया, झरना झरथे ऊँच पहाड़||


चिरई चुरुगुन हें संगवारी, बघवा भलुवा चौकीदार|

कछुआ मुसुवा टोटम टोंटी, बन संरक्षण बर तैयार||


अश्वनी कोसरे 'रहँगिया' कवर्धा कबीरधाम (छ. ग.)

   अश्वनी कोसरे  गोटुल(घोटुल)- सरसी छंद


गोटुल हें बस्तर मा सुग्घर, मुरिया मन के शान|

गीत कहानी रीलो रेला, हुलकी पाटा मान||


गौर माड़िया ढोलक साजे, जग मा हे पहिचान|

टिमकी तुरही दमऊ दफड़ा, बाजय संग निशान||


शिक्षा के सब पढ़थें बानी, गोंड धरम संस्कार|

करम मान के बोली भाखा, जिनगी के बेवहार||


परंपरा निरबाह करे बर , सिरतों पावँय ज्ञान|

तप ले तो कमती नइ होवय, योग साधना ध्यान||


पुरखा पेन बिराजे सउँहत, सेवा जोहर गान|

चेलिक अउ मुटियारी मन के, जिनगी बर बरदान||


घर के साज सजावट सिखलँय, जानँय सग परिवार|

रहन-सहन अउ रीत - नीत के, बाढ़ँय गुन भरमार||


शिल्प कला अउ पाक कला के, पावँय घलो विधान|

फूल पान ले करँय सवाँगा, निखरय तन परिधान||


बेल जड़ी अउ औषध छानँय, करदँय काढ़ा दान|

रक्षा खातिर डोर बनावँय, सीखँय तीर कमान||


गुरूमाँय के सँग मा जावँय, मुटियारिन बन खार|

जंगल ले उन लावँय टोरा, तेंदू मउहा चार||


चेलिक मन सब धनुष बनावँय, काटँय छाटँय बाँस|

डोरी खींच चढ़ावँय अंचा, तान करँय अभ्यास||


बइठक होवय रतिहा जागँय, आंदोलन के काम|

क्रांतीकारी नवजवान मन, रोज करँय विश्राम||


गोटुल मा रणनीति बनै सब, आजादी के दौर|

देश बचाये खातिर होवँय, छइहाँ वाले ठौर||


घाम प्यास बर कमिया मनके, गोटुल हे गा धाम|

अब नइ हे वो ठाना ठीहा, आवय सबके काम||


अश्वनी कोसरे 'रहँगिया' कवर्धा कबीरधाम (छ.ग.)

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 लावणी छन्द गीत - भारत के हम मूल निवासी (०४/०९/२०२५)


अपने जइसे मनखे समझव, नोहन कोनों दानव जी ।

भारत के हम मूल निवासी, हम ला तो पहिचानव जी ।।


नइ हे बड़का महल अटारी, जंगल भीतर रहिथन जी ।

सरदी गरमी जाड़ा भारी, दुख पीरा ला सहिथन जी ।।


रूखा सूखा भोजन करथन, पेट गुजारा जानव जी ।

भारत के हम मूल निवासी, हम ला तो पहिचानव जी ।।


जंगल के फर फूल सुहाथे, बोली चिरई चिरगुन के ।

कल-कल कल-कल नदिया करथे, मन भर जाथे धुन सुन के ।।


पाॅंच तत्व के पूजा करथन, बात सही हे मानव जी ।

भारत के हम मूल निवासी, हम ला तो पहिचानव जी ।।


झन काटव जंगल झाड़ी ला, एमा तो जिनगानी हे ।

संसाधन देथे जिनगी बर, बिन जंगल नुकसानी हे ।।


दुखिया मन के दुख मिट जावॅंय, अइसे मन मा ठानव जी ।

भारत के हम मूल निवासी, हम ला तो पहिचानव जी ।।


ओम प्रकाश पात्रे 'ओम ' 

ग्राम- बोरिया, जिला- बेमेतरा (छत्तीसगढ़)


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   डी पी लहरे सार छन्द गीत

विषय -आदिवासी


मूल निवासी हम भारत के, जंगल के रखवाला।

लोग आदिवासी कहिथें जी, कहिथें भोला-भाला।


इष्ट देवता हमर प्रकृति हे, करथन एखर पूजा।

बुढ़ा देव ले बड़का देवा, हमर कोंन हे दूजा।

जय सेवा जय सेवा संगी, मिलके जपथन माला।

मूल निवासी हम भारत के, जंगल के रखवाला।।


रेलो-रेलो करमा सरहुल, सुघ्घर नाचा-गाना।

गौर-माड़िया सैला गेंड़ी, सुख के हमर खजाना।।

बिरसा मुंडा के हम वंशज, झन परहू रे पाला।

मूल निवासी हम भारत के, जंगल के रखवाला।।


डी.पी.लहरे'मौज'

कवर्धा छत्तीसगढ़


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   कुकुभ छंद- आदिवासी


पिछड़े जाति आदिवासी हें, भारत के मूल निवासी।

तेंदू चार चिरौंजी खाथें, खाथें इन बोरे बासी।।


कोल भील अउ गोंड सहरिया, हो बिरहोर भिलाला।

हल्बा मुण्डा खड़िया बोडो, नायक भूमिज मतवाला।।

हे जनजाति उरांव पारधी, जारी हे जाति तलाशी।

पिछड़े जाति आदिवासी हें, भारत के मूल निवासी।।


प्रकृति उपासक कहिलाथें अउ, जल जंगल के रखवाला।

श्रम के बने पुजारी फिरथें, रहिथें इन भोला-भाला।।

तरसें सुख सुविधा के खातिर, कष्ट सहें हें चौमासी।

पिछड़े जाति आदिवासी हें, भारत के मूल निवासी।।


मुड़ी सजायें पागा कलगी, धोती कुरता पहिनावा।

धरथें तीर कमान हाथ मा, नइ जानें कपट छलावा।।

सुवा ददरिया करमा गा के, कर लेथें दूर उदासी।

पिछड़े जाति आदिवासी हें, भारत के मूल निवासी।।


पाँच तत्व के करथें पूजा, जीथें सुग्घर जिनगानी।

जिनगी के आधार धरा हे, आग हवा नभ अउ पानी।।

हृदय समाये बुढ़ादेव ला, घट-घट मा मथुरा कासी।

पिछड़े जाति आदिवासी हें, भारत के मूल निवासी।


इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"

बिलासपुर (छत्तीसगढ़)

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   मुकेश  जयकारी छंद-- आदिवासी आँव


जल जंगल के मँय रखवार।

रहिथौं गा जुरमिल परिवार।।

धरथौं मँय हा तीर कमान।

इही मोर हावय पहिचान।।

........जय गंगान


महिनत करथौं जाँगर टोर।

पथरा कस छाती हे मोर।।

सादा-पींयर गमछा बाँध।

चलथौं मँय हा जोरे खाँध।।

........जय गंगान


आदिम संस्कृति के बढ़वार।

करथौं सबले मया दुलार।।

कोदो कुटकी धान उगाँव।

पुरखा मन के गुन ला गाँव।।

.......जय गंगान


मउहा, तेंदू, लासा, चार।

इही मोर जिनगी आधार।।

जंगल झाड़ी हावय धाम।

करथौं मँय हा खेती काम।।

........जय गंगान


बाँधे रखथौं सुमता डोर।

जस दाई के अँचरा छोर।।

सुवा, ददरिया, करमा गीत।

इही मोर पुरखा के रीत।।

.......जय गंगान


पूत आदिवासी के आँव।

प्रकृति शक्ति ला माथ नवाँव।।

पागा कलगी हावय शान।

तुर्रा बाना मोर मितान।। 

.......जय गंगान


मुकेश उइके "मयारू"

ग्राम- चेपा, पाली, कोरबा(छ.ग.)


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   मुकेश  सरसी छंद गीत-- आदिवासी


पुरखा संस्कृति पागा कलगी, इही हमर पहिचान।

रखवाला हम जल जंगल के, धरथन तीर कमान।।


मूलनिवासी हम भारत के, करथन खेती काम।

डीह-डोंगरी नदिया घाटी, हमर इही हा धाम।।

पुरखा मन के सेवा करथन, संगी मोर मितान।

रखवाला हम जल जंगल के, धरथन तीर कमान।।


गोंड कोरवा हल्बा मुरिया, सँवरा अउ धनुहार।

कोल अगरिया बैगा मुंडा, रहिथन मिल परिवार।।

जय सेवा जय सेवा कहिथन, लइका बुढ़ा जवान।

रखवाला हम जल जंगल के, धरथन तीर कमान।।


सुवा-ददरिया रेला-पाटा, गाथन करमा गीत।

टुंडा मंडा कुंडा हावय, हमर तीन ठन रीत।।

उपजाथन गा कोठी छलकत, कोदो कुटकी धान।

रखवाला हम जल जंगल के, धरथन तीर कमान।।


चार-चिरौंजी लासा-मउहा, जिनगी के आधार।

बुढ़ा देव के अरजी करथन, पाथन मया दुलार।।

बिरसा मुंडा गुंडाधुर के, हम तो वंशज आन। 

रखवाला हम जल जंगल के, धरथन तीर कमान।।


प्रकृति शक्ति ला माथ नवाथन, हम तो बारो मास।

हमन आदिवासी गा संगी, सबले हावन खास।।

गोड़ हाथ मा दिखे गोदना, नारी मन के शान।

रखवाला हम जल जंगल के, धरथन तीर कमान।।


मुकेश उइके "मयारू"

ग्राम- चेपा, पाली, कोरबा(छ.ग.)


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   तातुराम धीवर  आल्हा छ्न्द - आदिवासी 


हम भारत के मूल निवासी, देश राज हे जंगल भाय।

झारखण्ड के पावन माटी, बीरन के हे महिमा गायँ ।।


वंसज हम बिरसा मुंडा के, हाथ धरे हन तीर कमान।

मुँड़ मा पागा कलगी गमछा, धोती हवय हमर पहिचान।।


जल जंगल अउ पहाड़ पर्बत, हावन हम बनके रखवार।

तेंदू पाना महुआ लासा, लेवय हमर करा सरकार।


करमा बिल्मा सैला सरहुल, रेला-पाटा पावय मान।

अलग-अलग हे परब-परब मा, होथे इन मन के नित गान।।


इष्ट हमर जी बुढ़ा देव हे, करन सदा इन कर गुनगान।

खेत किसानी हावय कमसल, बोंथन कोदो कुटकी धान।।


गोंड कँवर अउ मुलिया बैगा,भील कोंड़कू हे समुदाय।

कलाकारिता के गुण भारी, लकड़ी बाँस कला मनभाय।।


बाँस चीर के पर्रा बिजना, झांँपी टुकना सुपा बनाय।

काठ छोल के सुग्घर सुग्घर, देवन के मूरत सिरजाय।।


     तातु राम धीवर 

भैसबोड़ जिला धमतरी

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   रमेश मंडावी,राजनांदगांव रुपमाला छंद(आदिवासी )


बीच जंगल मा बसे हे, मोर गँव‌ई गाँव।

मँय प्रकृति के गा पुजारी, आदिवासी आँव।

पेड़ साजा मा बिराजे, पेन पुरखा मोर।

जेखरे करथों सुमरनी, हाथ दूनों जोर।


रमेश कुमार मंडावी (राजनांदगांव )


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   Jugesh *आदिवासी* 

 लावनी छंद


चिरहा कपड़ा तन मा पहिरे,आवँय जंगल  रहवासी ।

अपन राज के माटी मा तो, हे मजबूर आदिवासी॥


सगरी भुइँया के उन मालिक,दाना बर लुलवावत हें।

परदेशी मन मालिक बनगे,जउँहर नाच नचावत हें ॥


मालिक मन हा नौकर होगे, लहू पछीना गारत हें।

दू पैसा अउ दू दाना मा,परदेशी भुलवारत हे॥


उन सस्ता मा खेती लेके, कई करोड़ कमावत हें ।

करम ठठावत मूलनिवासी, खेत बेच  पछतावत हें।।


लाख योजना रोज बनत हे,फेर लाभ नइ  पावत हें । 

सबो योजना बस कागज मा,अधरे अधर उड़ावत हें॥


समय कहत हे मूल निवासी,अब तो निदिया छोड़-तजौ।

 हक अधिकार अपन पाये बर,बनके गूण्डाधूर जगौ॥


जुगेश कुमार बंजारे धीरज

नवागाँव कला छिरहा दाढ़ी बेमेतरा छ ग


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   अमृतदास साहू  *विषय - आदिवासी*

        *सार छंद* 


जल जंगल अउ जमीन के,करथें इन रखवारी।

कहलाथें धरती के सेवक,अउ प्रकृति के पुजारी।


सरल सहज व्यवहार इँकर , होथें बड़ अभिमानी।

मातृभूमि के बात रथे ता,दे देथें कुर्बानी।

आन बान बर इँकर लड़ाई,आज घलो हे जारी।

जल जंगल अउ जमीन के,करथें इन रखवारी।


रहिथें जुरमिल एमन संगी, सुग्घर एक्के टोली। 

पहनावा मा दिखे सादगी, बोले गुरतुर बोली।

होथें बड़ मिहनत कश येमन,चाहे नर या नारी।

जल जंगल अउ जमीन के,करथें इन रखवारी।


कहलाथें इन हमर देश के,पहिली मूल निवासी।

तेकर पाछू कहिलाथन सब,सुग्घर भारतवासी। 

हमर संस्कृति अउ सभ्यता के,आवय इहीं पुजारी।

जल जंगल अउ जमीन के, करथें इन रखवारी।


अमृत दास साहू 

   राजनांदगांव

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   विजेन्द्र आदिवासी- कुंडलिया 


फेंकव झन तो जाल ला, सबके आय मितानI

माटी ले जुड़के सदा, रहिथें उन मन मानI  

रहिथें उन मन मान, धरा के मूल निवासीI 

कहिथन जेला आदि, देव पुरखा कैलासीI 

लगा दाँव अउ पेंच, अपन रोटी झन सेंकवI 

जंगल ओकर प्रान, जाल ला झन तो फेंकवII


विजेन्द्र कुमार वर्मा 

नगरगाँव

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   जगन्नाथ सिंह ध्रुव  सरसी छंद    -- आदिवासी 


बुढ़ा देव हा हमर ईष्ट हे, वीर नरायन शान।

हमन आदिवासी होथन जी, एखर हवय गुमान।।

सबो आधुनिक देखावा ले, आरुग हे परिधान।

हे छितका तो घर कुरिया पर, मन मा हे ईमान।।

लइका के जइसे निश्छल मन, आय हमर पहिचान।

छले हवँय तइहा  कतकोझन, भोला भाला जान।।

सबके संँग मा मीत मितानी‌‌, सब हे हमर मितान।

इही मितानी के सेतिन बड़, झेले हन नुकसान।।

कभू इहाँ राजा बनके जी, करे रहे हन राज।

तभो सबो दिन मिहनत खातिर, नइ आवय जी लाज।

मिहनत करके उपजाथन सब, कोदो कुटकी धान।

दाई ददा प्रकृति हा होथे, हमरे चारों धाम।।

रुखराई अउ मनखे मन बर, रखथन नेक विचार।

दया धरम अउ मया पिरित हे, हमरे खेती खार।।

हमर फसल हे बन जंगल के, महुआ लासा चार।

हरियर सोना तेन्दू पाना, जिनगी के आधार।।

मनखे होके मनखे मन ले, सहे हवन दुत्कार।

झन खेदो हमरे धरती ले, करके अत्याचार।

सदा सगा पहुना के करथन, आदर अउ सत्कार।

मानुष तन बर इही सार हे, बाँटव मया दुलार।।


जगन्नाथ ध्रुव घुँचापाली

बागबाहरा

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   भागवत प्रसाद, डमरू बलौदा बाजार  *सादगी जिनगी*

*आल्हा छंद*


 बात सुनावत हावँव सुनलव, देके  भैय्या दूनों कान।

जाति आदिवासी के जानव, ज्ञान बात हे देवव ध्यान।।

हल्बा मुण्डा खड़िया बोडो, कोल भील नायक संथाल।

गोंड सहरिया भूमिज राजा, होथे जी बिरहोल भिलाल।।


जिँखर मावली नंदर देवी, देव सिंग बोंगा धर्मेश।

पूजँय पौधा पेड़ पहाड़ी, बुढ़ादेव हरथे सब क्लेश।।

बिरसा मुण्डा तिलका माँझी, अल्लूरी अउ सीताराम।

सिद्धू कान्हू राजू रानी, सैनिक स्वतंत्रता संग्राम।।


इँखर सादगी जिनगी रहिथे, छोट-मोट हे कारोबार।

पशुपालन खेती करथें अउ, जंगल के सब मँदरस झार।।

कोदो कुटकी तक उपजाथें, जड़ बूटी फर फूल शिकार।

 छाली हर्रा संग बहेरा, लासा महुआ तेंदू चार।।


गुरतुर भाखा भीली गोंडी, संथाली मुंडारी जान।

परब मनाथें सरहुल फगुआ, करम सोहराई रख मान।।

करमा गवरी झूमथ बाहा, नाच मनाथें खुशी अपार।

सहज-सरस ले रहन- बसन हे, निष्छल होथे जी व्यवहार।।


भागवत प्रसाद चन्द्राकर


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   भागवत प्रसाद, डमरू बलौदा बाजार  *आदिवासी*

*कुण्डलिया छंद*


 जंगल खातिर जेनमन , तजदिन घर अउ बार।

स्वारथ लालच छोड़ के, बनगें बन रखवार।।

बनगें बन रखवार, धरे सब तीर कमानी।

कभू करैं नइ जान, आदिवासी मनमानी ।।

चकाचौंध ले दूर, सदा जिनगी हें मंगल।

तन मन देथें वार, इँखर जिनगी हे जंगल।।


बुढ़ा देव ला पूजथें, तन-मन ले सम्मान।

मेहनती सिधवा सरल, उँखर हवै पहिचान।।

उँखर हवै पहिचान, मुड़ी मा पागा कलगी।

करमा जीँखर शान, बाँह मा साजैं बलगी।।

बाँटत जन-जन प्रेम, सबो दुख पीरा हरथें।

रखथें सेवाभाव, खूब जन सेवा करथें।।


भागवत प्रसाद चन्द्राकर

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   नंदकिशोर साव  साव सरसी  छंद - आदिवासी


हरय आदिवासी इन मन जी, रहिथे जंगल पार।

सीधा साधा जिनगी जीथें, सरल इँकर व्यवहार।।


मुरिया भतरा मुंडा खड़िया, बैगा हल्बा कोल।

गोंड भील धुर्वा कोटरिया, ना ना बोली बोल।।

जाति माड़िया बस्तर बसथे, अउ कतको हे नार।

सीधा साधा जिनगी जीथें, सरल इँकर व्यवहार।।


बिरसा मुंडा ला पूजँय जी, धरती आबा रूप।

बुढ़ा देव के पूजन करके, पाथें वरद अनूप।।

जंगल जाथें महुआ बीने, तेंदू लासा चार।

सीधा साधा जिनगी जीथें, सरल इँकर व्यवहार।।


खेती करके अन उपजाथें, कोदो कुटकी धान।

पागा धोती हे पहनावा, धरथें तीर कमान।।

दया मया बर हितवा प्राणी, जंगल के रखवार।

सीधा साधा जिनगी जीथें, सरल इँकर व्यवहार।।


गौर मांदरी गेंड़ी नाचा, करमा अउ करसाड़।

रेला पाटा दोरना रिलो, नाचय गाँवय ठाड़।।

अइसन के इन जीवन शैली , सुघ्घर हे संस्कार।

सीधा साधा जिनगी जीथें, सरल इँकर व्यवहार।।


नंदकिशोर साव, 'नीरव'

 राजनांदगाँव (छ. ग.)

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   गुमान साहू प्रदीप छन्द

।।आदिवासी।।


ये भुँइया के मूल निवासी, इही आदिवासी हरे।

जल पहाड़ अउ जंगल के नित, इही लोग रक्षा करे।।


भोला भाला अउ मृदुभाषी, धरथें तीर कमान हे।

परंपरा अउ पहनावा मा, इँखर अलग पहिचान हे।।


भोजन ईंधन औषधि घर के, बस जंगल ही स्त्रोत हे।

हँसी खुशी ले मिलके रहिथें, चाहे कुछु भी होत हे।।


रुखराई जंगल ला मानै, येमन मात समान जी।

जल पहाड़ सूरज धरती ला, पूजै ईश्वर जान जी।।


अस्पताल अउ स्कूल इँखर ले, आज घलो बड़ दूर हे।

घर कपड़ा नल सुख सुविधा बिन, रहिथें बड़ मजबूर हे।।


कोदो कुटकी धान उगा के, पालय सब परिवार ला।

तेंदूपत्ता तोड़ सकेलै, बेंचय तब सरकार ला।।


बिनै बहेरा हर्रा महुआ, चार चिरौंजी खोज के।

पर्यावरण बचाना समझै, काम अपन सब रोज के।।


गोंड कोंड़कू मुरिया बैगा ,भील इँखर समुदाय हे। हस्त शिल्प अउ बाँस कला हर, इँखर प्रमुख व्यवसाय हे।।


बूढ़ा देवा ईष्ट देवता, जय सेवा सत्कार मा।

बिरसा मुंडा अउ गुंडाधुर, वीर इही परिवार मा।।


गुमान प्रसाद साहू 

समोदा (महानदी ),रायपुर

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   दीपक निषाद, बनसांकरा रूपमाला छंद --(आदिवासी)

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आदिवासी मन सँजो के राखथें हर रीत।

काम -कारज साफ सुघ्घर  नाच-पेखन- गीत।।

सादगी सँग मनलुभावन भेष-भाखा- बोल।

ए जमाना झन इँकर जिनगी म बिख ला घोल।।


दीपक निषाद--लाटा (बेमेतरा)


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      ""आदिवासी  ""आल्हा छंद 


मिलके माटी सॅंग मा रहिथन, माटी हावय मीत मितान ।

खुद के रक्षा खातिर हम सब, धरके चलथन तीर कमान ।।


शिक्षा दीक्षा नइहे ज्यादा, ना ही तन में कपड़ा आय ।

घूमत रहिथन उघरा होके, सरी जगत के हम सताय ।।

कोल कवॅंर बैगा बंजारा, किसम किसम के हावय जात ।

बुढादेव हे इष्ट देवता,  करन सोम रस पी जग रात ।।

जंगलिया फल हमरे भोजन, पाबो कहाॅं मेव मिष्ठान ।

खुद के रक्षा खातिर हम सब, धरके चलथन तीर कमान ।।


प्रथा रूढ़िवादी हे प्रचलित, सुघर नेक रखथन व्यवहार 

बसे बीच जंगल के भितरी, रहिथन मिलजुल सब परिवार ।।

खेत खार अउ बारी बखरी, करथन सब इखरे सत्कार ।

पूजा कर धरती दाई के, पाथन  जिनगी के अधिकार ।।

चिखला माटी सब ला सहिथन, तभो नॅंदागे अब पहिचान ।

खुद के रक्षा खातिर हम सब, धरके चलथन तीर कमान ।।


समय बदलगे आज जगत में, राजा होगे अब तो रंक ।

बिरसा मुंडा वीर नरायण , ले हावय दुश्मन ले जंग ।।

जेन धरा मा रहीस अगुवा, वो हर होगे पाछू आज।

मान सम्मान ऊपर हमरे, रोज गिरत हावय अब गाज ।।

जन जाति बना ताना मारे, रोज करत हे बड़ अपमान।

खुद के रक्षा खातिर हम सब, धरके चलथन तीर कमान।।


  संजय देवांगन सिमगा

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   अमृतदास साहू  *विषय - आदिवासी*

        *सार छंद* 


जल जंगल अउ जमीन के,करथें इन रखवारी।

कहलाथें धरती के सेवक,अउ प्रकृति के पुजारी।


सरल सहज व्यवहार इँकर , होथें बड़ अभिमानी।

मातृभूमि के बात रथे ता,दे देथें कुर्बानी।

आन बान बर इँकर लड़ाई,आज घलो हे जारी।

जल जंगल अउ जमीन के,करथें इन रखवारी।


रहिथें जुरमिल एमन संगी, सुग्घर एक्के टोली। 

पहनावा मा दिखे सादगी, बोले गुरतुर बोली।

होथें बड़ मिहनत कश येमन,चाहे नर या नारी।

जल जंगल अउ जमीन के,करथें इन रखवारी।


कहलाथें इन हमर देश के,पहिली मूल निवासी।

तेकर पाछू कहिलाथन सब,सुग्घर भारतवासी। 

हमर संस्कृति अउ सभ्यता के,आवय इहीं पुजारी।

जल जंगल अउ जमीन के, करथें इन रखवारी।


अमृत दास साहू 

   राजनांदगांव


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   कौशल साहू कुंडलिया छंद -आदिवासी


मउहा फूल सकेल अउ, चार चिरौंजी लाँय।

तेंदू पाना टोर के, काँदा कूसा खाँय।।

काँदा कूसा खाँय, कोड़ के आनी बानी।

जंगल के रखवार, बने धर तीर कमानी।।

पागा कलगी खोंच, डोंगरी जावय लउहा। 

थकँय कभू ना पाँव, बिने बर लासा मउहा।।


कौशल कुमार साहू

जिला -बलौदाबाजार

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   Dropdi साहू  Sahu आल्हा छंद -"आदिवासी"

भुजिया हल्बा कोंध साँवरा,भैना बैगा गोंड कमार।

कँवर अगरिया हवय पारधी, इहाँ आदिवासी भरमार।।


सौंता अउ परधान जान लव, बाँस बुता करथें बिँझवार।

हमर छत्तीसगढ़ के संगी, हवय आदिवासी धनवार।।


इँकरे रखवारी ले बाँचे, हमर जंगली जीव जमीन।

पूजा पाठ प्रकृति के करथें, करे गुजारा मउहाँ बीन।।


इही आदिवासी ले जन्में, जिगरा नेता गुंडाधूर।

नाम जगाइस हे बस्तर के, देशभक्ति मा रहिके चूर।।


सोनाखनिहा सोना बेटा, हे शहीद नारायण वीर।

शान आदिवासी मन के ये, माटी बर दिस‌ त्याग शरीर।।


जल जंगल अउ जमीन के गा, हरँय आदिवासी रखवार।

असल छत्तीसगढ़ के येमन, असली मा हे गा हकदार।।


नइ जानें जी चाल कपट ला, निश्छल निच्चट सिधवा आँय।

सिधवापन के लाभ उठाके, कपटी मन इँकरे हक खाँय।।


लुगरा पटका पहिरे कउड़ी, तान हाथ मा तीर कमान।

जंगल ला घर अउ जग मानें, करिया काया बज्र समान।।


द्रोपती साहू "सरसिज"

महासमुंद छत्तीसगढ़

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छंद - विष्णुपद 


जल जमीन जंगल बर रहिथे, इन प्राण लुटइया|

माटी महतारी के सेवा, इन आँय करइया||


सीधा सरल सहज जिनगानी अउ व्यवहार हवै|

भाखा संस्कृति करम इँखर बर, अतके सार हवै||


प्रकृति शक्ति ला मान देवता, पूजा इँन करथें|

देख घलो बल इँखर जोश ला, बइरीमन डरथें||


जीव- जंतु अउ चिरई- चिरगुन, सुग्घर मीत हवै|

करमा रेला पाटा सरहुल, सुग्घर गीत हवै||


पिछड़ा जाति आदिवासी हे, निच्चट गा सिधवा|

कतको हक अधिकार छिने बर, बन बइठे गिधवा||


सिधवापन के आज फायदा, इँखर उठावत हे|

बपुरामन कुछ ला नइ जाने, रोज लुटावत हे||


जल जमीन जंगल उजड़त हे, चिंता कोन करै|

आज आदिवासीमन के गा, पीरा कोन हरै||


देख दशा ला आज इँखर गा, चुप सरकार हवै|

इँखर नाम मा बने योजना, बड़ भरमार हवै||


ज्ञानु

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   नीलम जायसवाल *छन्न पकैया छन्द* - *आदिवासी*


छन्न पकैया-छन्न पकैया, जंगल के रहवासी।

पौराणिक पहचान धरा के, ये हवँय आदिवासी।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, अनुसूचित जनजाति ह।

अलग वेश हे अलगे भाषा, बढै देश के ख्याति ह।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, मन म प्रकृति ला धरथें।

जंगल धरती नदिया पर्वत, सूरज पूजा करथें।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, संगी मन सँग रहिथें।

सीमित संसाधन के खर्चा, जुर-मिल के सब सहिथें।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, समुदायिक ये हावैं।

धान रोपथे अउ शिकार बर, जुर-मिल के सब जावैं।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, लोक गीत ला गाथें।

पारम्परिक नृत्य ला करथें, सज-धज के बड़ भाथें।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, जम्मो भारत वासी।

'कोल' 'भील' 'हल्बा' 'हो' 'खड़िया', 'संथाल' 'गोंड़' 'खासी'।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, 'नायक' 'असुर' 'सहरिया'।

'मुंडा' 'गारो' 'वोडो' 'भूमिज', 'मिजो' 'कुकी' 'जयन्तिया'।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, संस्कृति हवै निराला।

'अंगामी' 'विरहोर' 'पारथी', अउ 'घटवाल्स' 'भिलाला'।।


नीलम जायसवाल, भिलाई, छत्तीसगढ़


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   ओम प्रकाश अंकुर चेंदरू के कमाल 

           (सरसी छंद)


जनम धरिस जंगल मा चेंदरु, बस्तर के गढ़वाल।

बाघ संग जी खेलकूद के, वो दिखलइस कमाल।।


रिहिस बछर जब दस के चेंदरु, घायल टैंबू लाय।

बाघ -पिला ला मीत बनाके, सोर बने बगराय।।


खेलय नंगत बाघ संग जी, दूनों रहय मितान।

दुनिया भर मा नांव कमाइस, बस्तर के वो शान।।


काम करिस वो फिल्मकार बर, सुघ्घर पाइस मान।

रहय घोर जंगल मा चेंदरु,  जंगल के वो जान।।


रिहिस आदिवासी जी चेंदरु, बस्तर के वो शेर।

जिनगी गुजरिस गुमनामी मा, होइस अबड़ अॕंधेर ।।


जिनगी बीतय बाघ संग जी, मोगली वो कहाय।

चेंदरु के किस्सा ला "अंकुर", सब झन ला बतलाय।।


                  - ओमप्रकाश साहू "अंकुर"

            सुरगी, राजनांदगांव


Saturday, September 6, 2025

अंधविश्वास

 अंधविश्वास *सच का हे तँय जान*

*दोहा छंद*


जादू टोना टोटका, आँख मूंद झन मान।

बैगा भटरी छोड़ के, सच का हे तँय जान।।


थरथर काँपे जाड़ ले, देह गोड़ अउ हाथ।

चक्कर उल्टी संग मा, पीरा बाढ़ै माथ।।


झाड़फूँक सब छोड़ के, दौड़ चिकित्सक पास।

मलेरिया लक्षण हवै, जाँच करा तँय खास।।


खानपान भावय नहीं, झूकन लगै शरीर।

भारी-भारी मुड़ लगै, गाँठ-गाँठ तन पीर।।


चक्कर झन पड़ काखरो, चिटको झनकर देर।

अस्पताल जा खा दवा, नइ तो होबे ढेर।।


साँप काँट दिस जब कभू, फूँकझाड़ रह दूर।

लापरवाही होय ले, होबे चकनाचूर।।


मन से भगवत भक्ति कर, देखा सब बेकार।

सोच समझ के काम कर, अंधभक्त मन टार।।


नया जमाना आज हे, पढ़े लिखे हस जाग।

कखरो कहना मान के, बिन विचार झन भाग।।


भागवत प्रसाद चन्द्राकर

डमरू बलौदाबाजार

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दोहा छ्न्द 


रोग अंधविश्वास के, बाढ़त दिन दिन जाय।

पढ़ें लिखे मनखे तभो, मगज हवय भरमाय।।


अस्पताल ला छोड़ के, बइगा कर हे जाय।

जादू टोना हे लगे, फूँक झार करवाय।।


झारय मिर्चा डार के, गुनिया फेंकय दाँव।

हावय लइका ला धरे, भूत प्रेत के छाँव।।


लइका तोर बचाय के, हावय एक उपाय।

कहिबे झन कखरो करा, बात म हे अरझाय।।


कुकरा उल्टा पाँख के, उलट धार के नीर।

लिमऊ सात उतार के, हरिहँव येखर पीर।।


महुआ पानी के बिना, भागय नहीं मसान।

पाव नहीं आधा नहीं, सइघो बोतल लान।।


देख हरत हँव फेर मैं, ये भुतवा के प्रान।

जंतर-मंतर हे पढ़े,  खीचय दूनों कान।।


लिमऊ चानी काँट के, देवय बंदन डार।

कुकरी पूजे रात के, महुआ पानी मार।।


बइगा चक्कर मा करे, धन दौलत के नास।

ठीक नहीं हो पाय ता, जाये डॉक्टर पास।।


डॉक्टर जाँचे अउ कहे, कब ले हे बीमार।

पीत्त मुड़ मा हे चढ़े, लगे भीतर बुखार।।


रोग टाइफाइड बढ़े, घुसगे हावय हाड़। 

लदलद लदलद हे कँपे, लागत जमके जाड़।।


सुजी लगा देवय दवा, कर बढ़िया उपचार।

हउस आय होगे बने, कटगे रोग बुखार।।


लइका होगे ठीक हे, हाँसत घर मा आय।

देख सबो परिवार मा, भारी खुशियाँ छाय।।


करनी ले दुख आत हे, करनी ले दुख जात।

करनी कर जी नेक हे, सब सुख दँउड़े आत।।


ठग जग घूमत रोज हे, गाँव गली अउ द्वार।

सुख सपना देखाय के, लूटत लाख हजार।।


गाँठ बाँध के राख ले, मनखे जिनगी खास।

साँच बात ही सार हे, छोड़ अंधविश्वास।।


     तातु राम धीवर 

भैसबोड़ जिला धमतरी

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कुंडलिया 


टोना जादू टोटका, आय अंधविश्वासI 

मनखे येकर आड़ मा, धरे अशिक्षा आसI 

धरे अशिक्षा आस, आड़ मा शोषण करथेI  

उल्टा सीधा काम, करे बर मनखे मरथेI 

थोकिन करव विचार, नींद ला काबर खोनाI 

फूलत हे व्यापार, टोटका जादू टोनाII


फेंकत चारा गूँथ के, आड़ धरम के लेतI 

जादू मंतर मार के, सब ला करत अचेतI 

सब ला करत अचेत, आय ये बात बुराईI 

जादू करके लूट, मचावत हावय भाईI 

बुनत बइठ के जाल, राह मा काँटा छेंकतI

स्वारथ खातिर आज, गूँथ के चारा फेंकतII  


विजेन्द्र कुमार वर्मा 

नगरगाँव धरसीवाँ

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मुक्तामणि छन्द गीत - घोर अन्धविश्वास हे (२३/०८/२०२५)


मनखे मन ला देख के, होवत हे करलाई ।

घोर अन्धविश्वास हे, ये दुनिया मा भाई ।।


जादू टोना टोटका, रूढ़िवाद कहलाथे ।

एमा बड़ नुकसान हें, काम कहाॅं बन पाथे ।।


जब तन मा ब्याधा रथे, आथे काम दवाई ।

घोर अन्धविश्वास हे, ये दुनिया मा भाई ।।


पाखण्डी मन हा इहाॅं, जाल बिछाये भारी ।

करथें ढोंग ढकोसला, फॅंसगें नर अउ नारी ।।


सच लगथे गा झूठ हा, जिनगी हे दुखदाई ।

घोर अन्धविश्वास हे, ये दुनिया मा भाई ।।


पढ़े-लिखे मन हा घलो, चक्कर मा पड़ जाथे ।

नइ बदलय गा सोंच ला, धोखा निसदिन खाथे ।।


देवत हें बलिदान ला, बनके आज कसाई ।

घोर अन्धविश्वास हे, ये दुनिया मा भाई ।।


✍️छन्दकार व गीतकार🙏 

ओम प्रकाश पात्रे 'ओम ' 

ग्राम- बोरिया, जिला- बेमेतरा (छत्तीसगढ़)

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[साव: सार छंद - अंधविश्वास 


जादू टोना के चक्कर में, बैगा मन के चाँदी।

अन्ध भक्त मन ला लुटके जी, अपने खाथे माँदी।।


सिधवा मन ला लालच देके, बइठे बन बैपारी।

पढ़े लिखे मन तको बनय जी, इँखरे तो सँगवारी ।।


ढोंगी बाबा बनके लुटथे, मूढ़ बनय सब भारी।

कतको धोखा खाथे तबले, नइ चेतय नर नारी।।


गाँव गँवतरी ला का कहिबे, शहरो जमाय डेरा।

झाड़ फूँक मे बने करे बर, इन लगवावय फेरा।।


अंधभक्ति के दरद मरज हा, अल्प ज्ञान ले होथे।

जानौ समझौ झूठ कपट ला, नइ जाने ते रोथे।।


झूठा लम्पट के दुनिया हे, बच के रहना भाई।

सच्चा सीधा जिनगी जी लौ, हावे सबर भलाई।।


नंदकिशोर साव "नीरव"

राजनांदगाँव (छ. ग.)


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कुंडलियाँ


पसरे हावय देख लव, आज अंध विश्वास |

नीबू मिरचा टाँग के, धंधा होगे खास||

धंधा होगे खास, टँगाये हर दुकान मा|

नजर उतारय पान, गुँथाये हे मकान मा||

ग्राहक हे मोहाय, बात मन हिय ला भावय|

छिन भर मा बिक जाय, देख लव पसरे हावय||


खातू माटी ले बने, सिरजय फुल फर डार |

गँगलय कोंवर पान हा, छतरावय हर नार||

छतरावय हर नार, लदै गा भाजी पाला|

टूटय टुकना लाल, कोचकिच ले बंगाला||

ओखी होगे आज, हँसे के हे परिपाटी|

महिनत ले सब होय, छींचलव खातू माटी||


देखे हावव टोटका, गल के गिरथे पान|

भाटा मिरचा झर जथे, सरहा मखना चान||

सरहा मखना चान, भेकथें रोज गली मा|

सरथे लोवा झार, रोस नइ रहय कली मा||

बंदन बुके हजार, टाँग भड़वा मढ़ियावव|

चउँक पुराये राख, टोटका देखे हावव||


भरे लबालब मूँहटा, देखँय तव फुरमान|

खाली मरकी हाँथ के, कतका हे अपमान||

कतका हे अपमान, देखलव नारी मनके|

का इज्जत के भान, ठेठ महतारी पनके||

पीरा होथे घात, चोंट ये करय हबाहब|

पानी प्यास बुझाय, मूँहटा भरे लबालब||


अश्वनी कोसरे रहँगिया कवर्धा कबीरधाम (छ. ग.)

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मुक्तामणि गीत


रोज अंधविश्वास के ,जपथें कतको माला।

चारो कोती छाय हे, अंध-भक्ति के जाला।।


देखव तो पाखण्ड हा, बनगे पक्का धंधा।

पढ़े-लिखे मनखे घलो, मानय होके अंधा।।

जादू टोना टोटका, पर बइगा के पाला।

रोज अंधविश्वास के ,जपथें कतको माला।


ठग-जग बाबा हे बनें, बाढ़त हें पाखंडी।

धरम बने बाजार हे, खुलगे जइसे मंडी।

बेंचावत हे झूठ हा, सच के मुँह मा ताला।

रोज अंधविश्वास के ,जपथें कतको माला।।


अंध-भक्ति हा पेरथे, जइसे बइला घानी।

सूते मन अब जागजौ, छोड़व गा नादानी।

बात मौज के मान लौ, सत्य वचन हे लाला।

रोज अंधविश्वास के ,जपथें कतको माला।।


डी.पी.लहरे'मौज'

कवर्धा छत्तीसगढ़

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कुण्डलिया छन्द- *अंधविश्वास*


होही कइसे दूर अब, रोग अंधविश्वास।

अंधभक्ति मा डूब के, लोग बने हें दास।।

लोग बने हें दास, हकीकत नइतो समझे।

ढोंग रूढ़ि पाखंड, फाँस मा हावँय अरझे।।

खात मलाई आन, चुसत हें इन तो गोही।

अइसे मा उद्धार, बता तो कइसे होही।।


सुन लौ आस्था आड़ मा, बाढ़त हावय ढोंग।

अंधभक्ति के तेल ला, देह लिये हें ओंग।।

देह लिये हें ओंग, आँख ला मनखे मूँदे।

भटक गये हें राह, भुलन काँदा ला खूँदे।।

सच्चाई ला जान, परख अउ मन मा गुन लौ।

गजानंद के गोठ, ध्यान दे के जी सुन लौ।।


सोंचव स्वयं दिमाग मा, काय सहीं अउ झूठ।

आँखी मूँदे झन करौ, ये जिनगी ला ठूठ।।

ये जिनगी ला ठूठ, करे हे कोंन बिचारव।

सच्चाई लौ तौल, तभे अंतस मा धारव।।

रूढ़िवाद के पाँख, हृदय मा झन तो खोंचव।

गजानंद के गोठ, सुजानिक बनके सोंचव।।


✍🏻इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"

बिलासपुर (छत्तीसगढ़) 23/08/2025

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कुंडलिया


सबके घर ज्ञानी बने, पढ़ लिख लइका लोग।

तभे अन्धविश्वाश के, दूर भागही रोग।।

दूर भागही रोग, टोनही जादू टोना।

जिनगी के सुख त्याग, पड़े झन थोकन रोना।।

डर मा लइका लोग, रहय झन कउनो दबके।

भरे खुशी के रंग, सुघर जिनगी मा सबके।।


जगन्नाथ ध्रुव घुँचापाली

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 कुंडलियां (अंधविश्वास)


बीमारी तन मा हवै,अस्पताल मा जाव।

झाड़ फूंक ब‌इगा जघा,झन गा तुमन कराव।।

झन गा तुमन कराव,नहीं ते धोखा खाहू।

रुपिया समय शरीर,हाथ ले अपन गँवाहू।।

मूड़ धरे पछताय,परे झन तुँहला भारी।

डाँक्टर ले उपचार,करावव जी बीमारी।।


रमेश कुमार मंडावी (राजनांदगांव)

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 ज्ञानू कवि: विषय - जादू- टोना 

छंद - विष्णुपद 


ढोंगी पाखंडी मनके बड़, चलत दुकान हवै|

मनखे बन नइ सकै बरोबर, बन भगवान हवै||


बइठे बनके बइगा- गुनिया, जाल बिछाय हवै|

नाम लेय जादू- टोना के, बस डरुहाय हवै||


लीमू- बंदन ला धर करतब, रोज दिखाय हवै|

जंतर- मंतर रंग- रंग के, बात बताय हवै||


पढ़े- लिखे मन घलो इँखर गा, चक्कर मा फँसगे|

कइसे चंगुल ले निकलै अब, दलदल मा धँसगे||


बढ़त अंधविश्वास रोग हा, का बताँव जग मा|

कतको के गा पेट चलत हे, लूटपाट ठग मा||


झार उतारै नइ बिच्छी के, सांप बिला टमरै|

खड़े- खड़े भुइयाँ ले ढोंगी, बादर ला अमरै||


सुनै कान ला कौव्वा लेगे, पाछू दउड़त हे|

हवै नही ते काबर कोनो, नइ ते टमरत हे||


लूट खसोट भरे हे हो जव, सावचेत भइया|

बीच भँवर मा नइ ते फँसही, जिनगी के नइया||


ज्ञानु

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: जादू टोना--- अमृतध्वनि छंद 


टोना जादू टोटका, हवय अंधविश्वास।

झाड़ फूँक के नाँव मा, देथें झूठा आस।।

देथें झूठा, आस सबो गा, बइगा गुनिया।

काम बनाहूँ, कहिके ठगथें, सगरो दुनिया।।

जान गँवाथें, तब तो परथे, रोना धोना।

होवय नइ जी, सच मा कोनो, जादू टोना।।


मुकेश उइके "मयारू"

ग्राम- चेपा, पाली, कोरबा(छ.ग.)

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*रोला छंद--अंधविश्वास* 

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का- का रीति-रिवाज,सहीं हे मानवता बर।

काकर ले तकलीफ,पाय कोनो नारी- नर।।

करना हवय बिचार,प्रथा अउ परंपरा ला।

तिरिया के सब खोट,राखना हवै खरा ला।।


ककरो ले झन भेद,होय अब धरम काज मा।।

छुआछूत कस रोग, मिटय जम्मो समाज मा।

कोनो भी विश्वास,अंधविश्वास बनय झन।

करके सउँहे तर्क,सरी दिन मानयँ जन-जन।।


दीपक निषाद--लाटा (बेमेतरा)

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: कुंडलिया छंद


विषय - टोना-टोटका


करके टोना- टोटका, लोगन ला भरमाँय।

झाड़ -फूँक के आड़ मा, बइगा खूब कमाँय।।

बइगा खूब कमाँय, मनुज मन देखत नइये।

कतको जान गवाँय, तभो जी चेतत नइये।।

पढ़े लिखे कतकोन, जात हे नीबू धर के।

सरी चीज मँगवाय, टोटका टोना करके।।


कौशल कुमार साहू

जिला - बलौदाबाजार

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*विषय - टोनही,टोटका,जादू*

            *सार छंद* 


जादू टोना भरम भूत के,चक्कर मा जें आथे।

अपन करम ला ठठा ठठा के,पाछू बड़ पछताथे।


हाथ देख के लोगन मन ला,अइसे इन भरमाथे।

डर के मारे लोगन कतको, बरबस अरझे जाथे।

उही बाँचथे जेन बखत मा, हिम्मत अपन अड़ाथे।

बांकी कुछु तो कर नइ पावय,सरबस सिरिफ गँवाथे।


फूंक असर नइ होवय कहिके,जावन नइ दे मइके।

बेटी माई रहि जाथे चुप,ये सब दुख ला सहिके।

अपने काम सधाये खातिर‌‌ ,घर घर इन लड़वाथे।

अपन करम ला ठठा ठठा के,पाछू बड़ पछताथे।


लेके विज्ञान के सहारा, ढोंगी करयँ तमाशा।

बता बताके चमत्कार इन, देवयँ सबला झाँसा।

अनपढ़ मन ले गे बीते तो,पढ़े लिखे हो जाथे।

अपन करम ला ठठा ठठा के, पाछू बड़ पछताथे।


बइगा गुनिया के झाँसा मा,कभु कोनो झन आवौ।

तबियत ककरो बिगड़ जाय ता,अस्पताल ही जावौ।

ए सब के चक्कर मा संगी,समय व्यर्थ ही जाथे। 

अबड़ अंधविश्वास सिर्फ गा,लोगन ला भरमाथे।

जादू टोना भरम भूत के, चक्कर मा जे आथे।

अपन करम ला ठठा ठठा के,पाछू बड़ पछताथे।


अमृत दास साहू 

  राजनांदगांव