तिहरहा पहुना-रोला छन्द
फिर ले आही जाड़, तिहरहा पहुना बनके।
अगुवानी मा गॉंव, शहर जाही बन-ठन के।
पहली खेती खार, डहर हे भेंट-भलाई।
ते पाछू सब गॉंव, शहर आदर पहुनाई।
भेंटत खेती खार, पहा जाही अठवरिया।
तेखर पाछू जाड़, गॅंवइहॉं तहॉं शहरिया।
शुरू शुरू महिमान, सबो के मन ला भाही।
महिने दिन मा रोज, दॉंत कटकट-कट्टाही।
टेशन परिस पहाड़, मुॅंधरहा जाड़ उतरगे।
नदिये-नदिया नाव चलावत गॉंव हबरगे।
मुस्की मारत जाड़, खड़े हे पार-सिवाना।
धोही पाहुन पॉंव, देत हे जल तृन-पाना।
पिंवरू धान सियान, नवा के मुड़ जोहारै।
चुन के चातर मेंड़, लगा आसन बइठारै।
दुरिहा ले चिल्लाय, जाड़ ला गन्ना बाहू।
हमरो ॲंगना द्वार, देवउठनी के आहू।
जेन खेत के मेंड़, लगे हे राहर तिल्ली।
रिता मेंड़ ला देख,उड़ावत रहिथें खिल्ली।
कोदो कर लिस पूछ,जाड़ हा का होये हे।
कोदो कहय किसान, दवाई बर बोंये हे।
बपुरा बीही झाड़, सुवागत मा का दीही।
नइहे धन बिन धरम, कठुर्री हावय बीही।
सेमी दॉंत खिसोर, हॅंसे बत्तीसी चमके।
बंगाला के लाल, गाल दुरिहा ले दमके।
कती डहर ले गॉंव, जवइया मन सब जाथें।
कॉंदी लुवत किसान, खड़ा होके अलखाथे।
धरसे-धरसा जाड़, गॉंव के धरलिस रस्ता।
लइका मन लिन भेंट, पीठ मा लादे बस्ता।
पसतावत हे खूब, चिरैया बिन पाना दल।
आहट पा के नैन, निहारत हे सीताफल।
जाड़ पहुॅंचगे खोर, मिले रहि रहि के ॲंखिया।
मुचुर मुचुर मुस्काय , कोंहड़ा तूमा रखिया।
बइठे बबा बिहान, रउनिया लेवत हावय।
महॅंगा अनुभव ज्ञान, मुफत मा देवत हावय।
छू के पबरित पॉंव, जाड़ बइठिस फसकिर के।
देखत हे मुॅंह नाक, ज्ञान गुण के फिर फिर के।
रचना-सुखदेव सिंह'अहिलेश्वर'
गोरखपुर कबीरधाम छत्तीसगढ़
वाह गुरुदेव लाजवाब रोला छंद ..सादर बधाई 💐💐💐🌹🙏
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद अमित जी 🙏
Deleteवाह गुरुदेव लाजवाब रोला छंद ..सादर बधाई 💐💐💐🌹🙏
ReplyDeleteबहुत सुग्घर गुरुदेव जी
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद निषाद सर
Deleteलाजवाब लाजवाब लाजवाब सर बहुत बधाई
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद लहरे सर
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