सार छन्द- श्री सुखदेव सिंह'अहिलेश्वर'
"सावन आही"
गय अषाढ़ अब सावन आही, रिमझिम छन्द सुनाही।
ओदर भर अमरित रस पी के, खेती खार अघाही।
खेत छिपरवानी भर जाही, आही बखत बियासी।
बोंता धान फोरही कंसा, तज के अपन उदासी।
खेत मताही कोपरियाही, संगी मोर किसनहा।
देख नजर भर एक बरोबर, थारी जइसे धनहा।
नौ नइते दस बजे किसनहिन, रोटी पानी लाही।
ओदर भर अमरित रस पी के, खेती खार अघाही।
बनिहारिन मन भिरे कछोरा, निहरे खनहीं थरहा।
निहरे के निहरे पलघुच्चा, खोंचत जाहीं परहा।
बइठ मेढ़ मा मेठ मुकड़दम, माखुर मलही खाही।
करिया करिया दॉंत दिखावत, चिचियाही चिल्लाही।
मुड़ी नवा के नवा बहुरिया, तरी तरी मुस्काही।
ओदर भर अमरित रस पी के, खेती खार अघाही।
सोयाबीन सरकही सर-सर, राहर हा कनिहा धर।
उरिद जोंधरी मूंगफली मन, खोभे बर धरहीं जर।
लेदी हा लउहाये लेही, हरय बॉंस के चेला।
तिल्ली के हिरदे हरषाही, देख घुरनहा ढेला।
बन-कचरा मनला धकियावत, कोदो मुड़ी उचाही।
ओदर भर अमरित रस पी के, खेती खार अघाही।
चढ़ही रखिया तुमा कोहड़ा, जॉंगर जोर लगा के।
सेमी नार लपेटन लगही, पास ढेखरा पा के।
कुॅंदरू परवल करू करेला, संग खेखसी आही।
बरबट्टी चुरचुटिया भिंडी, पछुआ के पछताही।
हाट बजार हरषही देखत, तरकारी सवनाही।
ओदर भर अमरित रस पी के, खेती खार अघाही।
नदिया नरवा राग ताल मा, गावन लगही गाना।
ऑंखी खोलत सउॅंहे दिखही, पुरखा मन के हाना।
छलके लगही डबरी तरिया, पा असीस ला पावन।
जन गण मन सुनके सुख पाही, नाम भजन मनभावन।
घर घर भजिया प्याज-पकौड़ा, झड़िहारा ममहाही।
ओदर भर अमरित रस पी के, खेती खार अघाही।
रचना-सुखदेव सिंह'अहिलेश्वर'
गोरखपुर कबीरधाम छत्तीसगढ़
बहुत बहुत आभार छन्दखजाना के
ReplyDeleteबहुत सुग्घर सर जी
ReplyDeleteधन्यवाद सर 🙏
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