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Tuesday, December 5, 2017

सुंदरी सवैया - श्री दिलीप कुमार वर्मा

(1)
ठुठवा रुख मा जब बैठ रहे,तब सोंचत हे जग के कुछ होही।
धनहा मन मा अब धान घलो,बिकटे अब होय ग जेहर बोही।
परही जब घाम त हो अबड़े,धन पाय किसान ह सुग्घर सोही।
पर पेंड़ बिना बरसा नइ हो,तब देख ग मूँड़ धरे सब रोही।

(2)
बरखा बन के बदरा गिरथे,बखरी भर मा बगरे बड़ पानी।
बखरी बनवावत हे बनिहार म,बारत हे कचरा तब नानी।
बनिहार घलो बगरावत हे,बखरी भर बीज बने सब खानी।
बउरे बढ़िया बखरी सब ला,बड़ सुग्घर साग उगाय सयानी।

(3)
रसता धर के जब जावत हे,धरसा पर जावत हे सब खारे।
गरवा मन के चलना हर जी,अब खेत घलो सब देत उजारे।
कतका रखवार बने बइठे,पर कोन कहाँ कतका कर पारे।
अबड़े गरवा मन घूमत हे,उखरो नइ मालिक दीख सखा रे।

रचनाकार - श्री दिलीप कुमार वर्मा
बलौदाबाजार, छत्तीसगढ़

11 comments:

  1. बहुँत बहुँत धन्यवाद गुरुदेव।

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  2. वाह वाह अद्भुत सर जी

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  3. वाहःहः दिलीप भाई जी
    तुरते रचना के आनंद कुछ और लगत हे
    बहुत बहुत बधाई

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  4. बहुँत सुघ्घर बधाई हो सर जी

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  5. बहुँत सुघ्घर बधाई हो सर जी

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  6. बहुत सुग्घर रचना सर।सादर बधाई

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  7. बहुत सुग्घर रचना सर।सादर बधाई

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  8. बहुत सुग्घर सुंदरी छंद लिखे हव,गुरुदेव दिलीप वर्मा जी।बहुत बहुत बधाईअउ शुभकामना।

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  9. गुना के जस के अब मोल नहीं, चुचुवावत नैन भरे ढर जावै
    सब जानत मानत हें पनही,गुणगान कहाँ अपमान गनावै।
    घर मा घर बाहिर मा रहि के,ससुरार तभो उतपात मचावै बनिहारिन ए सबके करके,चुपचाप मने मन रोवय गावय।

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  10. वाह्ह्ह् वाह्ह्ह सुग्घर सुंदरी सवैया।

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  11. सुंदर हे सुंदरी सवैया...भाई

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