(1)
ठुठवा रुख मा जब बैठ रहे,तब सोंचत हे जग के कुछ होही।
धनहा मन मा अब धान घलो,बिकटे अब होय ग जेहर बोही।
परही जब घाम त हो अबड़े,धन पाय किसान ह सुग्घर सोही।
पर पेंड़ बिना बरसा नइ हो,तब देख ग मूँड़ धरे सब रोही।
(2)
बरखा बन के बदरा गिरथे,बखरी भर मा बगरे बड़ पानी।
बखरी बनवावत हे बनिहार म,बारत हे कचरा तब नानी।
बनिहार घलो बगरावत हे,बखरी भर बीज बने सब खानी।
बउरे बढ़िया बखरी सब ला,बड़ सुग्घर साग उगाय सयानी।
(3)
रसता धर के जब जावत हे,धरसा पर जावत हे सब खारे।
गरवा मन के चलना हर जी,अब खेत घलो सब देत उजारे।
कतका रखवार बने बइठे,पर कोन कहाँ कतका कर पारे।
अबड़े गरवा मन घूमत हे,उखरो नइ मालिक दीख सखा रे।
रचनाकार - श्री दिलीप कुमार वर्मा
बलौदाबाजार, छत्तीसगढ़
ठुठवा रुख मा जब बैठ रहे,तब सोंचत हे जग के कुछ होही।
धनहा मन मा अब धान घलो,बिकटे अब होय ग जेहर बोही।
परही जब घाम त हो अबड़े,धन पाय किसान ह सुग्घर सोही।
पर पेंड़ बिना बरसा नइ हो,तब देख ग मूँड़ धरे सब रोही।
(2)
बरखा बन के बदरा गिरथे,बखरी भर मा बगरे बड़ पानी।
बखरी बनवावत हे बनिहार म,बारत हे कचरा तब नानी।
बनिहार घलो बगरावत हे,बखरी भर बीज बने सब खानी।
बउरे बढ़िया बखरी सब ला,बड़ सुग्घर साग उगाय सयानी।
(3)
रसता धर के जब जावत हे,धरसा पर जावत हे सब खारे।
गरवा मन के चलना हर जी,अब खेत घलो सब देत उजारे।
कतका रखवार बने बइठे,पर कोन कहाँ कतका कर पारे।
अबड़े गरवा मन घूमत हे,उखरो नइ मालिक दीख सखा रे।
रचनाकार - श्री दिलीप कुमार वर्मा
बलौदाबाजार, छत्तीसगढ़
बहुँत बहुँत धन्यवाद गुरुदेव।
ReplyDeleteवाह वाह अद्भुत सर जी
ReplyDeleteवाहःहः दिलीप भाई जी
ReplyDeleteतुरते रचना के आनंद कुछ और लगत हे
बहुत बहुत बधाई
बहुँत सुघ्घर बधाई हो सर जी
ReplyDeleteबहुँत सुघ्घर बधाई हो सर जी
ReplyDeleteबहुत सुग्घर रचना सर।सादर बधाई
ReplyDeleteबहुत सुग्घर रचना सर।सादर बधाई
ReplyDeleteबहुत सुग्घर सुंदरी छंद लिखे हव,गुरुदेव दिलीप वर्मा जी।बहुत बहुत बधाईअउ शुभकामना।
ReplyDeleteगुना के जस के अब मोल नहीं, चुचुवावत नैन भरे ढर जावै
ReplyDeleteसब जानत मानत हें पनही,गुणगान कहाँ अपमान गनावै।
घर मा घर बाहिर मा रहि के,ससुरार तभो उतपात मचावै बनिहारिन ए सबके करके,चुपचाप मने मन रोवय गावय।
वाह्ह्ह् वाह्ह्ह सुग्घर सुंदरी सवैया।
ReplyDeleteसुंदर हे सुंदरी सवैया...भाई
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