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Wednesday, March 16, 2022

चित्र आधारित छंदबद्ध कविता


 फोटो- साभार अरुण निगम

( फूल ले लदे परसा अउ मुख्य सड़क)

चित्र आधारित छंदबद्ध कविता

: *त्रिभंगी छंद - बसंत के परसा*


आगे ऋतु राजा,बजगे बाजा,ढोल नँगारा,रंग उड़ै।

परसा के लाली,हो मतवाली,थिरकत जम्मों,अंग उड़ै।।

आमा मउरागे,तन बउरागे,कोकिल कुहकत,डार हवै।

डोंगर सब साजे,सरग बिराजे,दुल्हिन जइसन,खार हवै।।


बोधन राम निषादराज

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[: बसंत आय हे-मनहरण घनाक्षरी

उलहा डारा पाना हे,कोयली गावै गाना हे,

गमकत दमकत,बसंत हा आय हे।

मउँरे अमुवा डाल,परसा फूले हे लाल,

अंतस मारे हिलोर,खुशी बड़ छाय हे।।

बाँधय मया के डोरी,दाई सुनावय लोरी,

झूमत मन मँजूर,पाख फइलाय हे।

चना सरसों तिंवरा,देख जुड़ाय जिंवरा,

मउँहा मतौना बने,गंध बगराय हे।।


विजेंद्र वर्मा

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: लाल लाल रुखुवा दिखय,सब के मन ला भाय।

सुग्घर फुलुवा देख के, भौंरा मन ललचाय।।


दहकत आगी कस लगय, दिखय न रुखुवा डार।

डारा सब तोपाय हे, टेसू के भरमार।।


अजय अमृतांशु, भाटापारा

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आशा देशमुख: हरिगीतिका छंद


अब्बड़ सुघर परसा खिले रिरतुराज के स्वागत करे।

फागुन महीना बर घलो, ये रंग लाली ला धरे।।

टेशू बघारत टेश बड़ , मन ला अबड़ ललचात हे।

आगी सही दहकत हवय, बिरहिन ल जस चिढ़हात हे।।


आशा देशमुख

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 इजारदार: *दोहा*

फागुन के तो रंग मा,माते खेती खार ,

अमुवा सुग्घर मौर गे,परसा लहसे डार।


मन भौंरा हा मात गे ,देखत परसा फूल,

गोरी सुरता तोर ओ ,हुदकत हावय शूल।।

आशा देशमुख

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 रंग बिरंगी, सब सतरंगी, सजे पान फर, डार बड़े,

परसा हर फूले, अमुआ झूले, सुघर सेम्हरा, हॉंस खड़े।

ऋतु बसंत राजा, ले के बाजा, ढोल नगाड़ा, संग चले।

बुढ़वा अउ लइका, पाके मउका, रंग गाल भर, डार मले।


मनोज कुमार वर्मा

बरदा लवन बलौदा बाजार

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 त्रिभंगी छंद......



परसा हा फूले, डारी झूले  ,लाली लाली, रंग खिलै।

गुलमोहर मोहै, वन वन सोहै ,खुशी खुशी मन, झूम मिलै।

पंछी चहकय वन ,सुघ्घर उपवन ,रंग बिरंगा, डार भरै।

अमवा ममहावै, फर भर जावै ,किसम किसम फल, पेड़ धरै।


*धनेश्वरी सोनी गुल*

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 *सार छन्द* 


परसा फूले लाली- लाली, सड़क तीर पयडगरी। 

पहिरे टुरी लाल लुगरा जस, ढाँके तन ला सगरी।। 


ठाढ़े - ठाढ़े देखत रहिथे, मनखे मोटर- गाड़ी। 

कभू-कभू ओ मुसका देथे, दाँत दबा के साड़ी।। 


 🙏🙏धन्नूलाल भास्कर 🙏🙏

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 - परसा (दोहा)


तिलक लगाही भाल मा, संग चुपरही गाल।

पहुना के स्वागत निमित, परसा धरे गुलाल।।


का सुख हवय गृहस्थ मा, का जानय बैराग।

परसा फूल अगास ले, दगत दिखे जस आग।।


धर के रंग सुहाग के, शोहय परसा फूल।

देखय बिधवा बिरहनी, बढ़य बिरह के शूल।।


ललियाये हे सेम्हरा, परसा हे चुक लाल।

चर्चा हे चौपाल मा, रखबे तहूँ खियाल।।


-सुखदेव सिंह "अहिलेश्वर"

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] डी पी लहरे: सार छन्द गीत

लाली लाली परसा फुलवा,देखत मन हरसागे।

ऐती-ओती  चारो  कोती,रंग बसंती  छागे।।


उलहा होके मुस्कावत हे,अब तो परसा पाना।

परसा के फुलवा मा बइठे,भौंरा गावय गाना।।

परसा लाली ओन्हा ओढे,दुलहिन जइसे लागे।

ऐती-ओती  चारो  कोती,रंग बसंती  छागे।।


कंक्रिटिंग के सेती नइहे,पैडगरी अउ धरसा।

तभो सबो जीव जंतु मन ला,छाँव देत हे परसा।।

देत सँदेशा परसा फुलवा,फागुन महिना आगे।

ऐती-ओती  चारो  कोती,रंग बसंती  छागे।।


द्वारिका प्रसाद लहरे"मौज"

कवर्धा छत्तीसगढ़

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: कुण्डलिया छंद


फगुआ के पा शोर ला, परसा फूले लाल।

पुचपुचहा कस बाट मा, अपन जनावय चाल।

अपन जनावय चाल, रंग खेले होली मा।

बनके लाल गुलाल, चढ़े गोरी चोली मा।

माते तब अउ खास, संग देवय जब महुआ।

मिलके रंग जमाय, गाँव के फागुन फगुआ।।


विरेन्द्र साहू साधक - 9

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: हरिगीतिका छंद


*परसा कहै अब मोर कर भौरा झुले तितली झुले।*

*तड़पे हवौं मैं साल भर तब लाल फुलवा हे फुले।*

*जब माँघ फागुन आय तब सबके अधर छाये रथौं।*

*बाकी समय बन बाग मा चुपचाप मिटकाये रथौं।*


*सजबे सँवरबे जब इहाँ तब लोग मन बढ़िया कथे।*

*मनखे कहँव या जीव कोनो सब मगन खुद मा रथे।*

*कवि के कलम मा छाय रहिथौं एक बेरा साल मा।*

*देथौं झरा सब फूल ला नाचत नँगाड़ा ताल मा।*


खैरझिटिया

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लावणी छंद- दिलीप कुमार वर्मा 


लाल चुनरिया ओढ़ सुँदरिया, सुग्घर स्वांग रचाये हे।

बने दुल्हनिया परसा रुखुवा, सब ला पास बलाये हे। 


बिन देखे कोनो नइ बाँचय, सबके मन ला भावत हे। 

मन मोहे बन के बन कैना, सब मा बाण चलावत हे। 


घायल होगे अमुवा रुखुवा, बात समझ नइ पाये हे। 

तुरते ताही खाप मउर ला, दूल्हा बन के आये हे।


जस-जस सूरज आँखी फारय, तस-तस रूप बढ़ावत हे। 

कोयल छेड़य गाके गाना, भौरा तान मिलावत हे। 


मउहा रुखुवा झूमत आगे, पग-पग फूल बिछाये हे। 

महर-महर महका घर अँगना, देख रूप बउराये। 



रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा 

बलौदाबाजार

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हरियर हरियर खेतखार अउ, हरियर हे धरसा।

फागुन मस्त महीना सुग्घर, फूले हे परसा।


ज्ञानु

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: चोवा राम ' बादल '-----कुण्डलिया छंद।


*रितु राजा आये हवै, कामदेव हे संग।*

*हावय परघावत प्रकृति,चारों खूँट उमंग।*

*चारों खूँट उमंग,हवा सुग्घर ममहावै।*

*चुपरे लाल गुलाल, अबड़ परसा इँतरावै।*

*ढोल नगाड़ा झाँझ, गुड़ी मा घिड़कै बाजा।*

*फागुन हे मतवार,देख हाँसै रितु राजा।*



*मउहा रुखुवा मातगे, कउहा हे भकुवाय।*

*कुलकत हावय गँधिरवा,आमा गद मउराय।*

*आमा गद मउराय,गहूँ के चढ़े जवानी।*

*हावै भारी पाँव, पिंयारी सरसों रानी।*

*घुँघरु ला छनकाय, चना हा लउहा लउहा।*

*भँवरा हे बउराय,छकत ले पी रस मउहा।*



*कुहकत हावय कोइली, बइठे अमुवा डार।*

*सात धार रोवत हवै, सुनके बिरहिन नार।*

*सुनके बिरहिन नार,पिया के सुरता आथे।*

*छटपट छइया  रात, सेज हा अगिन लगाथे।*

*करिया परगे अंग, रकत चिंता हे चुहकत।*

*उठथे हिरदे हूक,कोइली हावय कुहकत।*

बादल

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 कांकेर: परसा फूल

छंद - दोहा

लाली परसा फूलगे, आमा हे मउराय।

मउहा बड़ ममहात हे, फागुन महिना आय।।


मन भावन मौसम बने, सब ला हवय लुभाय।

नाचत गावत सब मगन, फाग गीत ला गाय।।

अनिल सलाम

जिला - कांकेर छत्तीसगढ़

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 अश्वनी कोसरे 9: सरसी छंद


रंग धरे हे परसा लाली, जस मँदार के फूल|

दुलहिन लागत हावय फागुन, जियँरा मारत हूल||


गली गली मा रंग उड़त हे, मिलके गावँय फाग|

रंग भंग मा रंग नँदागे, साजे सुग्घर राग||


छंद साधक

अश्वनी कोसरे

कवर्धा कबीरधाम

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[परसा फुलगे लाली लाली, लागे बसंत आगे। 

बजही ढोल नगारा अब तो, रंग मया के पागे।। 

मउहा झरही कोवा फरही, तेंदू चार मिठाथे। 

ये फुलवा धरती के गहना, शोभा गजब बढ़ाथे।। 


सुमित्रा शिशिर

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: सवैया- दिलीप कुमार वर्मा 


परसा फुलुवा जबले फुलगे, लगथे धरती धधके जस आगी। 

कुहकी जब पारत कोयलिया, गमके सब ओर बने जस रागी।  

जिन देखत हे तिन मानत हे, नइ हे कउनो हमले बड़ भागी। 

दुलही बनके बन ठाड़ रहे, दमके हर अंग रहे नइ दागी।


रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा 

बलौदाबाजार

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: रोला छंद- दिलीप कुमार वर्मा

परसा रुखुवा बोल, कोन बर सजधज आये। 

दिखा-दिखा के रूप, कोन ला बता रिझाये। 

दमकत हे सब अंग, लाल जे पहिरे चोला। 

काखर देखे राह, बता दे अब तो मोला। 


भौरा गीत सुनाय, तोर चक्कर काटत हे

अपन मया के बात, सबोला  जा बाँटत हे। 

मउहा हे मदहोश, देख के तोर जवानी। 

आमा बाँधे मौर, करत हावय नादानी। 


तोर रूप ला देख, मेनका तको लजागे। 

रति रम्भा के हाल, निचट पतझड़ कस लागे। 

सुरुज देव हो ठाढ़, एक टक गजब निहारे। 

दिखा जवानी रूप, जगत होरी कस बारे। 


बजा नगाड़ा ढोल, बराती बन सब आगे। 

दूल्हा होही कोन, सबोझन सोंचन लागे। 

नाचत कूदत संग, फूल के रंग लगावयँ। 

लगा-लगा हर अंग, सबोझन बड़ सुख पावयँ। 


रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा 

बलौदाबाजार

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: *रोला छंद*

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भागत हावय तेज, देख दुनिया सँगवारी ।

सब ला हावय आज, फिकर जिनगी के भारी ।।

सड़क तीर मा एक, पेड़ परसा के हावय ।

जेकर लाली फूल, सहज अंतस ला भावय ।।1।


कतको मनखे रोज, निहारँय आवत - जावत।

अफसर या मजदूर, बिहनिया- साँझ पहावत ।।

मन मा उमड़य भाव, सोंच हे जेकर जइसे ।

आगे हवय बसंत, बतावय मोहन कइसे ।।2।


झुमरय गा दिन-रात, मगन हो परसा फुलवा ।

चुहक- चुहक रस सार, चिरैया झूलैं झुलवा ।।

व्यस्त हवँय संसार, लगे हे आवा- जाही।

अंतस ले अब कोन, फगुनवा गीत सुनाही ।।3।


पहिली सहीं उमंग, कहाँ तँय पाबे भइया ।

भागँय मनखे रोज, रेस कस सरपिट सइया ।।

धूल- धुआँ अउ शोर, प्रदूषण बाढ़त हावय ।

बुढ़वा परसा पेड़, अपन दुख व्यथा सुनावय ।।4।


कहँय सुजानिक लोग, जमाना बदलय भाई ।

स्वारथ सुख बर आज, काँटथे गा रुखराई ।।

चेतव करव विचार, नहीं पाछू पछताहू ।

स्वच्छ हवा अउ छाँव, बतावव कइसे पाहू ।।5।


------ मोहन लाल वर्मा 

     (छंद साधक सत्र-03

  पता :-  ग्राम अल्दा तिल्दा रायपुर (छत्तीसगढ़ )

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 *आल्हा छंद*

चमचम चमचम चमकत हावय,सड़क बने हे अपरंपार,

जगमग जगमग शहर करे बर ,बिजली खंभा खड़े हजार।।


चींबो चींबो कर भागत हे,कतका मोटर सइकल कार,

अपन अपन के धुन हे रेंगत,दूसर बर नइ दारमदार।।


बने अहाता कतका बड़खा, भीतर हे अंग्रेजी फूल ,

उही जगा मा परसा भैय्या, खड़े खड़े खावत हे धूल।।


दुनिया के तो चकाचौंध ला,देखत परसा हा मुस्काय,

कान लगा के सुनौ सबो झन,अंतस के तो बात बताय।।


सड़क बहुत तँय चमकत हावस,काकर दम मा येला जान,

तोर बने बर कतका जंगल, हो गिस हावय रे कुर्बान।।


खंभा जादा झन इतरा तँय,तोर ल ऊपर भैय्या साल,

तोर जनम के खातिर सुन रे,मोरो कटगे कतका डाल।।


बड़े अहाता भीतर फुलवा,हाँसत हस तँय गर्मी जून,

तोर जरी बर पानी बनगे,कतको माली मन के खून।।


आपा धापी चकाचौंध मा,मनखे मोला झन बिसराव,

अंत समय मा मँय हर देहूं,दया मया के तोला छाँव।।


  छंद साधक

दुर्गा शंकर ईजारदार

सारंगढ़( मौहापाली)

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 दोहा छन्द


लाली परसा फूल गे,फगुआ छेड़े राग।

पिया बिरह मा देख तो,लागे तन मा आग।।


बूड़े फागुन रंग मा,परसा पाना डार।

माते राधा अउ किशन, होत रंग बौछार।।


राजेन्द्र कुमार निर्मलकर

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चित्रा श्रीवास: दोहा छंद-


मोटर  गाड़ी के धुआँ, रहिथे साँस समाय।

परसा मन के पीर ला,काला जाय बताय।।

गर्दा पाना मा जमे,उड़थे देखव धूल।

बीपत जम्मो भूल के,झूमे परसा फूल।।

कार ट्रक अउ टेम्पो, हे दिन भर चिचियाय।

कान फोरथे शोर हा,ब्लड प्रेशर बढ़ाय।।

बइठे सबके बीच मा,मन पंछी उड़ियाय।

फोरलेन के भीड़ मा,परसा हे तिरियाय।।

आँसू ढरके गाल मा,होगे आँखी लाल।

कहिथे लोगन  देखके,बिखरे हवे गुलाल।।

चित्रा श्रीवास

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सार छंद 

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परसा के सुघ्घर फुलवा मन, हाँसत या रोवत हें। 

मनखे के स्वारथ के आघू, प्रकृति प्रेम सोवत हें। ।

अब विकास के भेड़चाल मा, पर्यावरण पिसागे। 

पेड़ काट के पौध लगाना, खानापूर्ती लागे। ।

बन संपदा लुटावँय दिनदिन,कटँय पेड़ मन सरलग। 

इँखर जघा मा कंकरीट के, जंगल लागँय जगमग। ।

खड़े चौंक चौराहा जइसे, महापुरुष के मूरत। 

बस शोभा बर लगयँ पेड़ झन, बदलै अइसन सूरत। ।

पेड़ लीम बर पीपर जम्मो, आमा अमली गस्ती। 

फिर से पावँय मया सबो खुँट, खेत खार घर बस्ती। ।

तब रुख राई के हर पाना, फर फुलवा इतराहीं।

अउ भुइँया के कोना कोना, मुसकाहीं ममहाहीं। ।

तब परसा के फुलवा देखत, सबके अंतस खिलहीं। 

अउ बसंत के असल मजा हा, हर मानस ला मिलहीं। ।🙏


दीपक निषाद 

छंद साधक-सत्र-10

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 कुण्डलिया- 


परसा के ये फूल हा, देवत हे संदेश।

पेड़ बचावव साँस बर, स्वच्छ रखौ परिवेश।।

स्वच्छ रखौ परिवेश, करौ मिल दूर प्रदूषण।

सजे प्रकृति तन माथ, पेड़ बन के आभूषण।।

गजानंद अब गाँव, शहर नइ बाचिस धरसा।

रहय कटाकट पेड़, लीम बमरी अउ परसा।।


इंजी. गजानंद पात्रे 'सत्यबोध'

बिलासपुर (छत्तीसगढ़)

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परसा (सार छन्द)


परसा फूल हवे सुरता मा, सिरजत कविता गाना।

परसा पाना ला बिसरा के, करत बिकास जमाना।


सुख-दुख मा परिवार कुटुम जब, एक जघा सकलावय।

पतरी दोना बन हर घर मा, परसा पाना आवय।


परसा के पतरी दोना मा, जेवन हर परसावय।

अंगत अंग लगाके मनखे, मनभर जेवन खावय।


पाना के पतरी दोना उठ, घुरवा मा फेंकावय।

सड़ के सहज खाद बन जावय, भुँइया के मन भावय।


नइ नुकसान करय ओ पतरी, पत्ता सिकुने तावय।

चाही कोनो कर उड़ जावय, चाही गरुवा खावय।


प्लास्टिक के गिलास पत्तल मा, परसावत अब खाना।

परसा पाना ला बिसरा के, करत बिकास जमाना।


परसा फूल बरोबर देखव, ललियावत हे दुनिया।

आही आँच झुलसही जिनगी, युद्ध न देत रउनिया।


विश्व कुटुम के भाव भवन का? पोठ बनाही दुनिया।

मनुज माथ मद मा मतलाये, नींव धरत बदगुनिया।


युद्ध लड़ाई के न दवाई, खोज पूछ लौ दुनिया।

डॉक्टर बैद हकीम न एखर, नइहे बइगा-गुनिया।


चैनल चौपालन के चर्चा, चुगली चारी सुनि आ।

तहूँ अपन कुछ बदरा दाना, उँखरे आघू फुनि आ।


करनी कमजोरी ढाँके के, बिकथे लाख बहाना।

परसा पाना ला बिसरा के, करत बिकास जमाना।


-सुखदेव सिंह "अहिलेश्वर "

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*रोला छंद* 


उपजे रहय रवार, नीम मउहा बर परसा।

पेंड़ लगावन रोज, रितोवन पानी करसा।।

ताप बढ़े दिन रात, कहाँ ले होवय बरषा।।

कटगे जंगल ठाढ़, कहाँ बाँचे बन परसा।।



गरम हवा के जोर, जनावत हावय भारी।

नइहे कुछु सेवाद, साग-भाजी तरकारी।

मौसम हे बेहाल,  धुआँ धुर्रा गरदा ले।

झाँकत हवय विकास, देख खिड़की परदा ले।।



कहाँ बगइचा बाग, टँगे हे छत मा गमला।

काटे बर बन झाड़, लगे हें सारी अमला ।

बन मा भोगँय राज ,कोन बनके दरबारी।

काट लगाथे पेंड़ ,रोज अमला सरकारी।।


कटगे कतका पेंड़, सड़क ले आरी पारी।

रोवत हावँय डार, ठूँठ मन देवँय गारी।।

बिखरे हावँय फूल, तना ले कटगे शाखा।

पारत हें गोहार, पेंड़ धर मनखे भाखा।।


छंद साधक

अश्वनी कोसरे

रहँगी पोंड़ी

कवर्धा

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दोहा

फागुन महीना आय तब, परसा हो तैयार।

धरसा बन अउ बाग मा, बइठे आगी बार।


धुँगिया उगले रात दिन, मोटर गाड़ी कार।

तभ्भो लाली फूल धर, हाँसे परसा डार।।


मनुष भुलय इंसानियत, बिपत कहूँ यदि आय।

पेड़ बिचारा का करे, सब दिन फरज निभाय।।


धधकत हे अन्तस् जबर, धूल धुँवा हे काल।

तभ्भो देख पलास ला, फुले हवे चुक लाल।

जीतेंन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

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3 comments:

  1. बहुत सुग्घर संकलन ।
    बहुत बहुत बधाई।

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  2. परसा के फूल ऊपर सुग्घर - सुग्घर छंद रचना

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