कुर्सी महिमा-चौपई छंद
दागी मन के धोथे दाग।समझव येला तीर्थ प्रयाग।।
मूरख बाँचे कथा पुरान।कहाँ उँखर बर बने विधान।।
कुर्सी के जब चढ़े बुखार।नीत नियम होवय लाचार।।
पद रुतबा के जय जयकार। कुर्सी ले चलथे सरकार।।
रंग बदलथे बारंबार। कुर्सी बर गिरगिट अवतार।।
कुर्सी सहिथे कतको भार।लेन- देन चलथे व्यापार।।
पद पाये बर लगे कतार।लोग भुलाके शिष्टाचार।।
कहूँ मचे हे चीख पुकार।कहूँ सजे हावय दरबार।।
कुर्सी के सब पूछन हार।बिन कुर्सी जीवन बेकार।।
अइसन करथे खेल कमाल।इँखर कृपा ले गलथे दाल।।
कुर्सी पा के गंग नहाय।सात पुस्त वोकर तर जाय।।
नाता-गोता मन बउराय।छप्पन भोग रोज के खाय।।
कुर्सी ला समझव भगवान।घर बन निक गा सरग समान।।
हावय कतका येकर ताप।धुल जाथे कतको गा पाप।।
लबरा बाँटे सुग्घर ज्ञान।होय देख के जन हैरान।।
ज्ञान बाँट के माल डकार।मारय पर के हक अधिकार।।
जल जंगल अउ भुईं पहाड़। कुर्सी के बल होय उजाड़।।
सांसत मा सबके हे जान।बचा तहीं हर अब भगवान।।
सत्ता लोभी मन हर आज।झन बइठे कुर्सी ला साज।।
अइसे मन हा शोभित होय।बीज करम के जे मन बोय।।
विजेन्द्र कुमार वर्मा
नगरगाँव (धरसीवाँ)
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