मैं रहवया जंगल के- आल्हा छन्द
झरथे झरना झरझर झरझर, पुरवाही मा नाचय पात।
हवै कटाकट डिही डोंगरी, कटथे जिंहा मोर दिन रात।।
डारा पाना काँदा कूसा, हरे मोर मेवा मिष्ठान।
जंगल झाड़ी ठिहा ठिकाना, लगथे मोला सरग समान।।
कोसा लासा मधुरस चाही, नइ चाही मोला धन सोन।
तेंदू मउहा चार चिरौंजी, संगी मोर साल सइगोन।।
मोर बाट ला रोक सके नइ, झरना झिरिया नदी पहाड़।
सुरुज लुकाथे बन नव जाथे, खड़े रथौं सब दिन मैं ठाड़।।
घर के बाहिर हाथी घूमय, बघवा भलवा बड़ गुर्राय।
चोंच उलाये चील सोचथे, लगे काखरो मोला हाय।।
छोट मोट दुख मा घबराके, जाय मोर नइ जिवरा काँप।
रोज भेंट होथे बघवा ले, कभू संग सुत जाथे साँप।।
काल देख के भागे दुरिहा, मोर हाथ के तीर कमान।
झुँझकुर झाड़ी ऊँच पहाड़ी, रथे रात दिन एक समान।।
रेंग सके नइ कोनो मनखे, उहाँ घलो मैं देथौं भाग।
आलस अउ जर डर जर जाथे, हवै मोर भीतर बड़ आग।।
बदन गठीला तन हे करिया, चढ़ जाथौं मैं झट ले झाड़।
सोन उपजाथौं महिनत करके, पथरा के छाती ला फाड़।।
घपटे हे अँधियारी घर मा, सुरुज घलो नइ आवय तीर।
देख मोर अइसन जिनगी ला, थरथर काँपे कतको वीर।।
शहर नगर के शोर शराबा, नइ जानौं मोटर अउ कार।
माटी ले जुड़ जिनगी जीथौं, जल जंगल के बन रखवार।।
आँधी पानी बघवा भलवा, देख डरौं नइ बिखहर साँप।
मोर जिया हा तभे काँपथे, जब होथे जंगल के नाँप।।
पथरा कस ठाहिल हे छाती, पुरवा पानी कस हे चाल।
मोर उजाड़ों झन घर बन ला, झन फेकव जंगल मा जाल।।
जीतेन्द्र वर्मा "खैरझिटिया"
बाल्को, कोरबा(छग)
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दोहा
आदिवासी
सरल सहज मनखे लगै, जंगल के रखवार ।
सुघर आदिवासी मनन, बुढ़ा देव परिवार ।।
गोंड़ भील धुर्वा सबों,बैगा हल्बी जात।
मिलजुल के रहिथें सबों, दय नइ कोनों घात।।
आयुर्वेद भर-भर भरे, जंगल मा भंडार।
सबके वो रक्षक हवय, रोग हरय भरमार ।।
भरे खजाना अति अकन, सोन हीर के खान ।
दाई कोरा के मया, सुघर हवय संतान।।
जंगल हर भगवान हे, पहिरे तन मा छाल।
गावय कर्मा ददरिया, नाचत दय सब ताल।।
धनेश्वरी सोनी 'गुल'
बिलासपुर
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अश्वनी कोसरे आदिवासी-वीर छंद
जंगल के हें अगुवा बेटा, मूलनिवासी हावय नाम|
रक्षा खातिर जल जमीन के, लगे रथैं गा आठोयाम||
जंगल के रखवारी करना, अव्वल मा हे जिनकर काम|
परबत डोंगर जंगल माढ़े, पुर अंचल घर माड़ा धाम||
बड़ महिनत जुझ करतब करके, जिनगी ला जीथें हर बार|
छिन छिन घड़ी घड़ी संकट हे, तभो बिताथें उमर पहार||
कंद फूल फर जर हे खाना, औषधि टोरा जिनगी सार|
जंगल के फर मउहा खाथें, तेंदू अमली बोइर चार||
पर हर फर बर मया बिकट हे, जिनगी भर रहिथे उपकार|
कहूँ एक फर खाना होही, तभो मनाही परब तिहार||
पहली सुमरन धरती के हे, उँकर कृपा ले हे उपहार|
सुरुज देव के बंदन करके, जल के जोरे हें अनुहार||
किसम किसम के परब मनाथे, हल्बी गोंडी सदरी कोल|
मुड़िया मड़िया मुण्डा भतरा, लेंजा खाथें रीलो बोल|
नाचँय सरहुल पूजा पतरा, सरई सरना माया दोल|
चैत परब हे पाट जातरा, पहिन बाइसन साजे ढोल||
दंडामी मुरिया मन साजैं, नाचँय झूम झूम ककसार|
सरना दइ के पूजा खातिर, सरहुल जस माटी संस्कार||
नवा फसल बर नवाखई हे , आमा बर आमखई तिहार|
बीजा पंडूम बीज बोनी, मन हरियर हे सबो जगार||
शिल्प कला लकड़ी कठवा के, इँकर हे सुग्घर पहिचान|
मेटल घड़वा पत्ता छिंदी, बाँस कला के हे बड़ ज्ञान||
अश्वनी कोसरे 'रहँगिया' कवर्धा कबीरधाम छ ग
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अश्वनी कोसरे आदिवासी- वीर छंद
भैना भतरा उराँव जतरा, कुरुख कोरवा हावँय तेन|
बूढ़ा बड़ा देव हें मुड़का, पुरखा ठाना लिंगो पेन||
बावन गढ़ा गढ़निया राहय, गोंड राज के छतरप मान|
हाथी शेर सिहाँसन बइठे, बैगा भूम नाग परधान||
जोहर जोहर जय सेवा हे, सीधा सरल साफ हे बात|
मउरत फूल डार धर पाना, देवत हें रोजे सौगात||
महर महर हे डोंगर भुइँया, कहरत हे बन जंगल झाड़|
कलकल कलकल बहिथे नँदिया, झरना झरथे ऊँच पहाड़||
चिरई चुरुगुन हें संगवारी, बघवा भलुवा चौकीदार|
कछुआ मुसुवा टोटम टोंटी, बन संरक्षण बर तैयार||
अश्वनी कोसरे 'रहँगिया' कवर्धा कबीरधाम (छ. ग.)
अश्वनी कोसरे गोटुल(घोटुल)- सरसी छंद
गोटुल हें बस्तर मा सुग्घर, मुरिया मन के शान|
गीत कहानी रीलो रेला, हुलकी पाटा मान||
गौर माड़िया ढोलक साजे, जग मा हे पहिचान|
टिमकी तुरही दमऊ दफड़ा, बाजय संग निशान||
शिक्षा के सब पढ़थें बानी, गोंड धरम संस्कार|
करम मान के बोली भाखा, जिनगी के बेवहार||
परंपरा निरबाह करे बर , सिरतों पावँय ज्ञान|
तप ले तो कमती नइ होवय, योग साधना ध्यान||
पुरखा पेन बिराजे सउँहत, सेवा जोहर गान|
चेलिक अउ मुटियारी मन के, जिनगी बर बरदान||
घर के साज सजावट सिखलँय, जानँय सग परिवार|
रहन-सहन अउ रीत - नीत के, बाढ़ँय गुन भरमार||
शिल्प कला अउ पाक कला के, पावँय घलो विधान|
फूल पान ले करँय सवाँगा, निखरय तन परिधान||
बेल जड़ी अउ औषध छानँय, करदँय काढ़ा दान|
रक्षा खातिर डोर बनावँय, सीखँय तीर कमान||
गुरूमाँय के सँग मा जावँय, मुटियारिन बन खार|
जंगल ले उन लावँय टोरा, तेंदू मउहा चार||
चेलिक मन सब धनुष बनावँय, काटँय छाटँय बाँस|
डोरी खींच चढ़ावँय अंचा, तान करँय अभ्यास||
बइठक होवय रतिहा जागँय, आंदोलन के काम|
क्रांतीकारी नवजवान मन, रोज करँय विश्राम||
गोटुल मा रणनीति बनै सब, आजादी के दौर|
देश बचाये खातिर होवँय, छइहाँ वाले ठौर||
घाम प्यास बर कमिया मनके, गोटुल हे गा धाम|
अब नइ हे वो ठाना ठीहा, आवय सबके काम||
अश्वनी कोसरे 'रहँगिया' कवर्धा कबीरधाम (छ.ग.)
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लावणी छन्द गीत - भारत के हम मूल निवासी (०४/०९/२०२५)
अपने जइसे मनखे समझव, नोहन कोनों दानव जी ।
भारत के हम मूल निवासी, हम ला तो पहिचानव जी ।।
नइ हे बड़का महल अटारी, जंगल भीतर रहिथन जी ।
सरदी गरमी जाड़ा भारी, दुख पीरा ला सहिथन जी ।।
रूखा सूखा भोजन करथन, पेट गुजारा जानव जी ।
भारत के हम मूल निवासी, हम ला तो पहिचानव जी ।।
जंगल के फर फूल सुहाथे, बोली चिरई चिरगुन के ।
कल-कल कल-कल नदिया करथे, मन भर जाथे धुन सुन के ।।
पाॅंच तत्व के पूजा करथन, बात सही हे मानव जी ।
भारत के हम मूल निवासी, हम ला तो पहिचानव जी ।।
झन काटव जंगल झाड़ी ला, एमा तो जिनगानी हे ।
संसाधन देथे जिनगी बर, बिन जंगल नुकसानी हे ।।
दुखिया मन के दुख मिट जावॅंय, अइसे मन मा ठानव जी ।
भारत के हम मूल निवासी, हम ला तो पहिचानव जी ।।
ओम प्रकाश पात्रे 'ओम '
ग्राम- बोरिया, जिला- बेमेतरा (छत्तीसगढ़)
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डी पी लहरे सार छन्द गीत
विषय -आदिवासी
मूल निवासी हम भारत के, जंगल के रखवाला।
लोग आदिवासी कहिथें जी, कहिथें भोला-भाला।
इष्ट देवता हमर प्रकृति हे, करथन एखर पूजा।
बुढ़ा देव ले बड़का देवा, हमर कोंन हे दूजा।
जय सेवा जय सेवा संगी, मिलके जपथन माला।
मूल निवासी हम भारत के, जंगल के रखवाला।।
रेलो-रेलो करमा सरहुल, सुघ्घर नाचा-गाना।
गौर-माड़िया सैला गेंड़ी, सुख के हमर खजाना।।
बिरसा मुंडा के हम वंशज, झन परहू रे पाला।
मूल निवासी हम भारत के, जंगल के रखवाला।।
डी.पी.लहरे'मौज'
कवर्धा छत्तीसगढ़
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कुकुभ छंद- आदिवासी
पिछड़े जाति आदिवासी हें, भारत के मूल निवासी।
तेंदू चार चिरौंजी खाथें, खाथें इन बोरे बासी।।
कोल भील अउ गोंड सहरिया, हो बिरहोर भिलाला।
हल्बा मुण्डा खड़िया बोडो, नायक भूमिज मतवाला।।
हे जनजाति उरांव पारधी, जारी हे जाति तलाशी।
पिछड़े जाति आदिवासी हें, भारत के मूल निवासी।।
प्रकृति उपासक कहिलाथें अउ, जल जंगल के रखवाला।
श्रम के बने पुजारी फिरथें, रहिथें इन भोला-भाला।।
तरसें सुख सुविधा के खातिर, कष्ट सहें हें चौमासी।
पिछड़े जाति आदिवासी हें, भारत के मूल निवासी।।
मुड़ी सजायें पागा कलगी, धोती कुरता पहिनावा।
धरथें तीर कमान हाथ मा, नइ जानें कपट छलावा।।
सुवा ददरिया करमा गा के, कर लेथें दूर उदासी।
पिछड़े जाति आदिवासी हें, भारत के मूल निवासी।।
पाँच तत्व के करथें पूजा, जीथें सुग्घर जिनगानी।
जिनगी के आधार धरा हे, आग हवा नभ अउ पानी।।
हृदय समाये बुढ़ादेव ला, घट-घट मा मथुरा कासी।
पिछड़े जाति आदिवासी हें, भारत के मूल निवासी।
इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"
बिलासपुर (छत्तीसगढ़)
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मुकेश जयकारी छंद-- आदिवासी आँव
जल जंगल के मँय रखवार।
रहिथौं गा जुरमिल परिवार।।
धरथौं मँय हा तीर कमान।
इही मोर हावय पहिचान।।
........जय गंगान
महिनत करथौं जाँगर टोर।
पथरा कस छाती हे मोर।।
सादा-पींयर गमछा बाँध।
चलथौं मँय हा जोरे खाँध।।
........जय गंगान
आदिम संस्कृति के बढ़वार।
करथौं सबले मया दुलार।।
कोदो कुटकी धान उगाँव।
पुरखा मन के गुन ला गाँव।।
.......जय गंगान
मउहा, तेंदू, लासा, चार।
इही मोर जिनगी आधार।।
जंगल झाड़ी हावय धाम।
करथौं मँय हा खेती काम।।
........जय गंगान
बाँधे रखथौं सुमता डोर।
जस दाई के अँचरा छोर।।
सुवा, ददरिया, करमा गीत।
इही मोर पुरखा के रीत।।
.......जय गंगान
पूत आदिवासी के आँव।
प्रकृति शक्ति ला माथ नवाँव।।
पागा कलगी हावय शान।
तुर्रा बाना मोर मितान।।
.......जय गंगान
मुकेश उइके "मयारू"
ग्राम- चेपा, पाली, कोरबा(छ.ग.)
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मुकेश सरसी छंद गीत-- आदिवासी
पुरखा संस्कृति पागा कलगी, इही हमर पहिचान।
रखवाला हम जल जंगल के, धरथन तीर कमान।।
मूलनिवासी हम भारत के, करथन खेती काम।
डीह-डोंगरी नदिया घाटी, हमर इही हा धाम।।
पुरखा मन के सेवा करथन, संगी मोर मितान।
रखवाला हम जल जंगल के, धरथन तीर कमान।।
गोंड कोरवा हल्बा मुरिया, सँवरा अउ धनुहार।
कोल अगरिया बैगा मुंडा, रहिथन मिल परिवार।।
जय सेवा जय सेवा कहिथन, लइका बुढ़ा जवान।
रखवाला हम जल जंगल के, धरथन तीर कमान।।
सुवा-ददरिया रेला-पाटा, गाथन करमा गीत।
टुंडा मंडा कुंडा हावय, हमर तीन ठन रीत।।
उपजाथन गा कोठी छलकत, कोदो कुटकी धान।
रखवाला हम जल जंगल के, धरथन तीर कमान।।
चार-चिरौंजी लासा-मउहा, जिनगी के आधार।
बुढ़ा देव के अरजी करथन, पाथन मया दुलार।।
बिरसा मुंडा गुंडाधुर के, हम तो वंशज आन।
रखवाला हम जल जंगल के, धरथन तीर कमान।।
प्रकृति शक्ति ला माथ नवाथन, हम तो बारो मास।
हमन आदिवासी गा संगी, सबले हावन खास।।
गोड़ हाथ मा दिखे गोदना, नारी मन के शान।
रखवाला हम जल जंगल के, धरथन तीर कमान।।
मुकेश उइके "मयारू"
ग्राम- चेपा, पाली, कोरबा(छ.ग.)
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तातुराम धीवर आल्हा छ्न्द - आदिवासी
हम भारत के मूल निवासी, देश राज हे जंगल भाय।
झारखण्ड के पावन माटी, बीरन के हे महिमा गायँ ।।
वंसज हम बिरसा मुंडा के, हाथ धरे हन तीर कमान।
मुँड़ मा पागा कलगी गमछा, धोती हवय हमर पहिचान।।
जल जंगल अउ पहाड़ पर्बत, हावन हम बनके रखवार।
तेंदू पाना महुआ लासा, लेवय हमर करा सरकार।
करमा बिल्मा सैला सरहुल, रेला-पाटा पावय मान।
अलग-अलग हे परब-परब मा, होथे इन मन के नित गान।।
इष्ट हमर जी बुढ़ा देव हे, करन सदा इन कर गुनगान।
खेत किसानी हावय कमसल, बोंथन कोदो कुटकी धान।।
गोंड कँवर अउ मुलिया बैगा,भील कोंड़कू हे समुदाय।
कलाकारिता के गुण भारी, लकड़ी बाँस कला मनभाय।।
बाँस चीर के पर्रा बिजना, झांँपी टुकना सुपा बनाय।
काठ छोल के सुग्घर सुग्घर, देवन के मूरत सिरजाय।।
तातु राम धीवर
भैसबोड़ जिला धमतरी
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रमेश मंडावी,राजनांदगांव रुपमाला छंद(आदिवासी )
बीच जंगल मा बसे हे, मोर गँवई गाँव।
मँय प्रकृति के गा पुजारी, आदिवासी आँव।
पेड़ साजा मा बिराजे, पेन पुरखा मोर।
जेखरे करथों सुमरनी, हाथ दूनों जोर।
रमेश कुमार मंडावी (राजनांदगांव )
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Jugesh *आदिवासी*
लावनी छंद
चिरहा कपड़ा तन मा पहिरे,आवँय जंगल रहवासी ।
अपन राज के माटी मा तो, हे मजबूर आदिवासी॥
सगरी भुइँया के उन मालिक,दाना बर लुलवावत हें।
परदेशी मन मालिक बनगे,जउँहर नाच नचावत हें ॥
मालिक मन हा नौकर होगे, लहू पछीना गारत हें।
दू पैसा अउ दू दाना मा,परदेशी भुलवारत हे॥
उन सस्ता मा खेती लेके, कई करोड़ कमावत हें ।
करम ठठावत मूलनिवासी, खेत बेच पछतावत हें।।
लाख योजना रोज बनत हे,फेर लाभ नइ पावत हें ।
सबो योजना बस कागज मा,अधरे अधर उड़ावत हें॥
समय कहत हे मूल निवासी,अब तो निदिया छोड़-तजौ।
हक अधिकार अपन पाये बर,बनके गूण्डाधूर जगौ॥
जुगेश कुमार बंजारे धीरज
नवागाँव कला छिरहा दाढ़ी बेमेतरा छ ग
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अमृतदास साहू *विषय - आदिवासी*
*सार छंद*
जल जंगल अउ जमीन के,करथें इन रखवारी।
कहलाथें धरती के सेवक,अउ प्रकृति के पुजारी।
सरल सहज व्यवहार इँकर , होथें बड़ अभिमानी।
मातृभूमि के बात रथे ता,दे देथें कुर्बानी।
आन बान बर इँकर लड़ाई,आज घलो हे जारी।
जल जंगल अउ जमीन के,करथें इन रखवारी।
रहिथें जुरमिल एमन संगी, सुग्घर एक्के टोली।
पहनावा मा दिखे सादगी, बोले गुरतुर बोली।
होथें बड़ मिहनत कश येमन,चाहे नर या नारी।
जल जंगल अउ जमीन के,करथें इन रखवारी।
कहलाथें इन हमर देश के,पहिली मूल निवासी।
तेकर पाछू कहिलाथन सब,सुग्घर भारतवासी।
हमर संस्कृति अउ सभ्यता के,आवय इहीं पुजारी।
जल जंगल अउ जमीन के, करथें इन रखवारी।
अमृत दास साहू
राजनांदगांव
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विजेन्द्र आदिवासी- कुंडलिया
फेंकव झन तो जाल ला, सबके आय मितानI
माटी ले जुड़के सदा, रहिथें उन मन मानI
रहिथें उन मन मान, धरा के मूल निवासीI
कहिथन जेला आदि, देव पुरखा कैलासीI
लगा दाँव अउ पेंच, अपन रोटी झन सेंकवI
जंगल ओकर प्रान, जाल ला झन तो फेंकवII
विजेन्द्र कुमार वर्मा
नगरगाँव
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जगन्नाथ सिंह ध्रुव सरसी छंद -- आदिवासी
बुढ़ा देव हा हमर ईष्ट हे, वीर नरायन शान।
हमन आदिवासी होथन जी, एखर हवय गुमान।।
सबो आधुनिक देखावा ले, आरुग हे परिधान।
हे छितका तो घर कुरिया पर, मन मा हे ईमान।।
लइका के जइसे निश्छल मन, आय हमर पहिचान।
छले हवँय तइहा कतकोझन, भोला भाला जान।।
सबके संँग मा मीत मितानी, सब हे हमर मितान।
इही मितानी के सेतिन बड़, झेले हन नुकसान।।
कभू इहाँ राजा बनके जी, करे रहे हन राज।
तभो सबो दिन मिहनत खातिर, नइ आवय जी लाज।
मिहनत करके उपजाथन सब, कोदो कुटकी धान।
दाई ददा प्रकृति हा होथे, हमरे चारों धाम।।
रुखराई अउ मनखे मन बर, रखथन नेक विचार।
दया धरम अउ मया पिरित हे, हमरे खेती खार।।
हमर फसल हे बन जंगल के, महुआ लासा चार।
हरियर सोना तेन्दू पाना, जिनगी के आधार।।
मनखे होके मनखे मन ले, सहे हवन दुत्कार।
झन खेदो हमरे धरती ले, करके अत्याचार।
सदा सगा पहुना के करथन, आदर अउ सत्कार।
मानुष तन बर इही सार हे, बाँटव मया दुलार।।
जगन्नाथ ध्रुव घुँचापाली
बागबाहरा
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भागवत प्रसाद, डमरू बलौदा बाजार *सादगी जिनगी*
*आल्हा छंद*
बात सुनावत हावँव सुनलव, देके भैय्या दूनों कान।
जाति आदिवासी के जानव, ज्ञान बात हे देवव ध्यान।।
हल्बा मुण्डा खड़िया बोडो, कोल भील नायक संथाल।
गोंड सहरिया भूमिज राजा, होथे जी बिरहोल भिलाल।।
जिँखर मावली नंदर देवी, देव सिंग बोंगा धर्मेश।
पूजँय पौधा पेड़ पहाड़ी, बुढ़ादेव हरथे सब क्लेश।।
बिरसा मुण्डा तिलका माँझी, अल्लूरी अउ सीताराम।
सिद्धू कान्हू राजू रानी, सैनिक स्वतंत्रता संग्राम।।
इँखर सादगी जिनगी रहिथे, छोट-मोट हे कारोबार।
पशुपालन खेती करथें अउ, जंगल के सब मँदरस झार।।
कोदो कुटकी तक उपजाथें, जड़ बूटी फर फूल शिकार।
छाली हर्रा संग बहेरा, लासा महुआ तेंदू चार।।
गुरतुर भाखा भीली गोंडी, संथाली मुंडारी जान।
परब मनाथें सरहुल फगुआ, करम सोहराई रख मान।।
करमा गवरी झूमथ बाहा, नाच मनाथें खुशी अपार।
सहज-सरस ले रहन- बसन हे, निष्छल होथे जी व्यवहार।।
भागवत प्रसाद चन्द्राकर
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भागवत प्रसाद, डमरू बलौदा बाजार *आदिवासी*
*कुण्डलिया छंद*
जंगल खातिर जेनमन , तजदिन घर अउ बार।
स्वारथ लालच छोड़ के, बनगें बन रखवार।।
बनगें बन रखवार, धरे सब तीर कमानी।
कभू करैं नइ जान, आदिवासी मनमानी ।।
चकाचौंध ले दूर, सदा जिनगी हें मंगल।
तन मन देथें वार, इँखर जिनगी हे जंगल।।
बुढ़ा देव ला पूजथें, तन-मन ले सम्मान।
मेहनती सिधवा सरल, उँखर हवै पहिचान।।
उँखर हवै पहिचान, मुड़ी मा पागा कलगी।
करमा जीँखर शान, बाँह मा साजैं बलगी।।
बाँटत जन-जन प्रेम, सबो दुख पीरा हरथें।
रखथें सेवाभाव, खूब जन सेवा करथें।।
भागवत प्रसाद चन्द्राकर
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नंदकिशोर साव साव सरसी छंद - आदिवासी
हरय आदिवासी इन मन जी, रहिथे जंगल पार।
सीधा साधा जिनगी जीथें, सरल इँकर व्यवहार।।
मुरिया भतरा मुंडा खड़िया, बैगा हल्बा कोल।
गोंड भील धुर्वा कोटरिया, ना ना बोली बोल।।
जाति माड़िया बस्तर बसथे, अउ कतको हे नार।
सीधा साधा जिनगी जीथें, सरल इँकर व्यवहार।।
बिरसा मुंडा ला पूजँय जी, धरती आबा रूप।
बुढ़ा देव के पूजन करके, पाथें वरद अनूप।।
जंगल जाथें महुआ बीने, तेंदू लासा चार।
सीधा साधा जिनगी जीथें, सरल इँकर व्यवहार।।
खेती करके अन उपजाथें, कोदो कुटकी धान।
पागा धोती हे पहनावा, धरथें तीर कमान।।
दया मया बर हितवा प्राणी, जंगल के रखवार।
सीधा साधा जिनगी जीथें, सरल इँकर व्यवहार।।
गौर मांदरी गेंड़ी नाचा, करमा अउ करसाड़।
रेला पाटा दोरना रिलो, नाचय गाँवय ठाड़।।
अइसन के इन जीवन शैली , सुघ्घर हे संस्कार।
सीधा साधा जिनगी जीथें, सरल इँकर व्यवहार।।
नंदकिशोर साव, 'नीरव'
राजनांदगाँव (छ. ग.)
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गुमान साहू प्रदीप छन्द
।।आदिवासी।।
ये भुँइया के मूल निवासी, इही आदिवासी हरे।
जल पहाड़ अउ जंगल के नित, इही लोग रक्षा करे।।
भोला भाला अउ मृदुभाषी, धरथें तीर कमान हे।
परंपरा अउ पहनावा मा, इँखर अलग पहिचान हे।।
भोजन ईंधन औषधि घर के, बस जंगल ही स्त्रोत हे।
हँसी खुशी ले मिलके रहिथें, चाहे कुछु भी होत हे।।
रुखराई जंगल ला मानै, येमन मात समान जी।
जल पहाड़ सूरज धरती ला, पूजै ईश्वर जान जी।।
अस्पताल अउ स्कूल इँखर ले, आज घलो बड़ दूर हे।
घर कपड़ा नल सुख सुविधा बिन, रहिथें बड़ मजबूर हे।।
कोदो कुटकी धान उगा के, पालय सब परिवार ला।
तेंदूपत्ता तोड़ सकेलै, बेंचय तब सरकार ला।।
बिनै बहेरा हर्रा महुआ, चार चिरौंजी खोज के।
पर्यावरण बचाना समझै, काम अपन सब रोज के।।
गोंड कोंड़कू मुरिया बैगा ,भील इँखर समुदाय हे। हस्त शिल्प अउ बाँस कला हर, इँखर प्रमुख व्यवसाय हे।।
बूढ़ा देवा ईष्ट देवता, जय सेवा सत्कार मा।
बिरसा मुंडा अउ गुंडाधुर, वीर इही परिवार मा।।
गुमान प्रसाद साहू
समोदा (महानदी ),रायपुर
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दीपक निषाद, बनसांकरा रूपमाला छंद --(आदिवासी)
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आदिवासी मन सँजो के राखथें हर रीत।
काम -कारज साफ सुघ्घर नाच-पेखन- गीत।।
सादगी सँग मनलुभावन भेष-भाखा- बोल।
ए जमाना झन इँकर जिनगी म बिख ला घोल।।
दीपक निषाद--लाटा (बेमेतरा)
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""आदिवासी ""आल्हा छंद
मिलके माटी सॅंग मा रहिथन, माटी हावय मीत मितान ।
खुद के रक्षा खातिर हम सब, धरके चलथन तीर कमान ।।
शिक्षा दीक्षा नइहे ज्यादा, ना ही तन में कपड़ा आय ।
घूमत रहिथन उघरा होके, सरी जगत के हम सताय ।।
कोल कवॅंर बैगा बंजारा, किसम किसम के हावय जात ।
बुढादेव हे इष्ट देवता, करन सोम रस पी जग रात ।।
जंगलिया फल हमरे भोजन, पाबो कहाॅं मेव मिष्ठान ।
खुद के रक्षा खातिर हम सब, धरके चलथन तीर कमान ।।
प्रथा रूढ़िवादी हे प्रचलित, सुघर नेक रखथन व्यवहार
बसे बीच जंगल के भितरी, रहिथन मिलजुल सब परिवार ।।
खेत खार अउ बारी बखरी, करथन सब इखरे सत्कार ।
पूजा कर धरती दाई के, पाथन जिनगी के अधिकार ।।
चिखला माटी सब ला सहिथन, तभो नॅंदागे अब पहिचान ।
खुद के रक्षा खातिर हम सब, धरके चलथन तीर कमान ।।
समय बदलगे आज जगत में, राजा होगे अब तो रंक ।
बिरसा मुंडा वीर नरायण , ले हावय दुश्मन ले जंग ।।
जेन धरा मा रहीस अगुवा, वो हर होगे पाछू आज।
मान सम्मान ऊपर हमरे, रोज गिरत हावय अब गाज ।।
जन जाति बना ताना मारे, रोज करत हे बड़ अपमान।
खुद के रक्षा खातिर हम सब, धरके चलथन तीर कमान।।
संजय देवांगन सिमगा
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अमृतदास साहू *विषय - आदिवासी*
*सार छंद*
जल जंगल अउ जमीन के,करथें इन रखवारी।
कहलाथें धरती के सेवक,अउ प्रकृति के पुजारी।
सरल सहज व्यवहार इँकर , होथें बड़ अभिमानी।
मातृभूमि के बात रथे ता,दे देथें कुर्बानी।
आन बान बर इँकर लड़ाई,आज घलो हे जारी।
जल जंगल अउ जमीन के,करथें इन रखवारी।
रहिथें जुरमिल एमन संगी, सुग्घर एक्के टोली।
पहनावा मा दिखे सादगी, बोले गुरतुर बोली।
होथें बड़ मिहनत कश येमन,चाहे नर या नारी।
जल जंगल अउ जमीन के,करथें इन रखवारी।
कहलाथें इन हमर देश के,पहिली मूल निवासी।
तेकर पाछू कहिलाथन सब,सुग्घर भारतवासी।
हमर संस्कृति अउ सभ्यता के,आवय इहीं पुजारी।
जल जंगल अउ जमीन के, करथें इन रखवारी।
अमृत दास साहू
राजनांदगांव
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कौशल साहू कुंडलिया छंद -आदिवासी
मउहा फूल सकेल अउ, चार चिरौंजी लाँय।
तेंदू पाना टोर के, काँदा कूसा खाँय।।
काँदा कूसा खाँय, कोड़ के आनी बानी।
जंगल के रखवार, बने धर तीर कमानी।।
पागा कलगी खोंच, डोंगरी जावय लउहा।
थकँय कभू ना पाँव, बिने बर लासा मउहा।।
कौशल कुमार साहू
जिला -बलौदाबाजार
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Dropdi साहू Sahu आल्हा छंद -"आदिवासी"
भुजिया हल्बा कोंध साँवरा,भैना बैगा गोंड कमार।
कँवर अगरिया हवय पारधी, इहाँ आदिवासी भरमार।।
सौंता अउ परधान जान लव, बाँस बुता करथें बिँझवार।
हमर छत्तीसगढ़ के संगी, हवय आदिवासी धनवार।।
इँकरे रखवारी ले बाँचे, हमर जंगली जीव जमीन।
पूजा पाठ प्रकृति के करथें, करे गुजारा मउहाँ बीन।।
इही आदिवासी ले जन्में, जिगरा नेता गुंडाधूर।
नाम जगाइस हे बस्तर के, देशभक्ति मा रहिके चूर।।
सोनाखनिहा सोना बेटा, हे शहीद नारायण वीर।
शान आदिवासी मन के ये, माटी बर दिस त्याग शरीर।।
जल जंगल अउ जमीन के गा, हरँय आदिवासी रखवार।
असल छत्तीसगढ़ के येमन, असली मा हे गा हकदार।।
नइ जानें जी चाल कपट ला, निश्छल निच्चट सिधवा आँय।
सिधवापन के लाभ उठाके, कपटी मन इँकरे हक खाँय।।
लुगरा पटका पहिरे कउड़ी, तान हाथ मा तीर कमान।
जंगल ला घर अउ जग मानें, करिया काया बज्र समान।।
द्रोपती साहू "सरसिज"
महासमुंद छत्तीसगढ़
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छंद - विष्णुपद
जल जमीन जंगल बर रहिथे, इन प्राण लुटइया|
माटी महतारी के सेवा, इन आँय करइया||
सीधा सरल सहज जिनगानी अउ व्यवहार हवै|
भाखा संस्कृति करम इँखर बर, अतके सार हवै||
प्रकृति शक्ति ला मान देवता, पूजा इँन करथें|
देख घलो बल इँखर जोश ला, बइरीमन डरथें||
जीव- जंतु अउ चिरई- चिरगुन, सुग्घर मीत हवै|
करमा रेला पाटा सरहुल, सुग्घर गीत हवै||
पिछड़ा जाति आदिवासी हे, निच्चट गा सिधवा|
कतको हक अधिकार छिने बर, बन बइठे गिधवा||
सिधवापन के आज फायदा, इँखर उठावत हे|
बपुरामन कुछ ला नइ जाने, रोज लुटावत हे||
जल जमीन जंगल उजड़त हे, चिंता कोन करै|
आज आदिवासीमन के गा, पीरा कोन हरै||
देख दशा ला आज इँखर गा, चुप सरकार हवै|
इँखर नाम मा बने योजना, बड़ भरमार हवै||
ज्ञानु
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नीलम जायसवाल *छन्न पकैया छन्द* - *आदिवासी*
छन्न पकैया-छन्न पकैया, जंगल के रहवासी।
पौराणिक पहचान धरा के, ये हवँय आदिवासी।।
छन्न पकैया-छन्न पकैया, अनुसूचित जनजाति ह।
अलग वेश हे अलगे भाषा, बढै देश के ख्याति ह।।
छन्न पकैया-छन्न पकैया, मन म प्रकृति ला धरथें।
जंगल धरती नदिया पर्वत, सूरज पूजा करथें।।
छन्न पकैया-छन्न पकैया, संगी मन सँग रहिथें।
सीमित संसाधन के खर्चा, जुर-मिल के सब सहिथें।।
छन्न पकैया-छन्न पकैया, समुदायिक ये हावैं।
धान रोपथे अउ शिकार बर, जुर-मिल के सब जावैं।।
छन्न पकैया-छन्न पकैया, लोक गीत ला गाथें।
पारम्परिक नृत्य ला करथें, सज-धज के बड़ भाथें।।
छन्न पकैया-छन्न पकैया, जम्मो भारत वासी।
'कोल' 'भील' 'हल्बा' 'हो' 'खड़िया', 'संथाल' 'गोंड़' 'खासी'।।
छन्न पकैया-छन्न पकैया, 'नायक' 'असुर' 'सहरिया'।
'मुंडा' 'गारो' 'वोडो' 'भूमिज', 'मिजो' 'कुकी' 'जयन्तिया'।।
छन्न पकैया-छन्न पकैया, संस्कृति हवै निराला।
'अंगामी' 'विरहोर' 'पारथी', अउ 'घटवाल्स' 'भिलाला'।।
नीलम जायसवाल, भिलाई, छत्तीसगढ़
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ओम प्रकाश अंकुर चेंदरू के कमाल
(सरसी छंद)
जनम धरिस जंगल मा चेंदरु, बस्तर के गढ़वाल।
बाघ संग जी खेलकूद के, वो दिखलइस कमाल।।
रिहिस बछर जब दस के चेंदरु, घायल टैंबू लाय।
बाघ -पिला ला मीत बनाके, सोर बने बगराय।।
खेलय नंगत बाघ संग जी, दूनों रहय मितान।
दुनिया भर मा नांव कमाइस, बस्तर के वो शान।।
काम करिस वो फिल्मकार बर, सुघ्घर पाइस मान।
रहय घोर जंगल मा चेंदरु, जंगल के वो जान।।
रिहिस आदिवासी जी चेंदरु, बस्तर के वो शेर।
जिनगी गुजरिस गुमनामी मा, होइस अबड़ अॕंधेर ।।
जिनगी बीतय बाघ संग जी, मोगली वो कहाय।
चेंदरु के किस्सा ला "अंकुर", सब झन ला बतलाय।।
- ओमप्रकाश साहू "अंकुर"
सुरगी, राजनांदगांव
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