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Friday, September 26, 2025

विषय- अपरदन/मिट्टी कटाव

 विषय- अपरदन/मिट्टी कटाव

*विधा- ताटंक छंद गीत*

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स्वारथ के चक्कर मा परके, करव न अब मनमानी जी।

जंगल झाड़ी ला मत काटव, हो जाही हलकानी जी।।


रुखराई बिन बोहावत हे, देखव उपजाऊ माटी।

माटी पूजा हमर धरम हे, झन भूलव ये परिपाटी।

मृदा अपरदन रोके खातिर, थोरिक बनव सुजानी जी।

जंगल झाड़ी ला मत काटव, हो जाही हलकानी जी।।


हरिया जावय धरती दाई, नँगते पेड़ लगावौ जी।

माटी के कटाव रोके बर, जुरमिल बिड़ा उठावौ जी।

झन बोहावन देवव बिरथा, माटी हे वरदानी जी।

जंगल झाड़ी ला मत काटव, हो जाही हलकानी जी।।


भुइयाँ पानी ला नइ सोखय, जल स्तर हा गहरा जाथे।

परलय बनके ये जिनगी बर, पूरा नदिया मा आथे।

पेड़ बाँध रखथे माटी ला, इही बचाथे पानी जी।

जंगल झाड़ी ला मत काटव, हो जाही हलकानी जी।।


     *डॉ. इन्द्राणी साहू "साँची"*

        भाटापारा (छत्तीसगढ़)

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  जगन्नाथ सिंह ध्रुव : कुंडलिया छन्द    -मृदा अपरदन 


रुखराई रोके हवय, मृदा अपरदन आज।

खेत किसानी के तभे, बनथे सुग्घर काज।।

बनथे सुग्घर काज, एक रुख ला झन काटव।

थोकन मया दुलार, रोज इँखरो सँग बाँटव।।

बंजर जग झन होय, होय झन जग करलाई।

उर्वर झन बोहाय, लगालव सब रुखराई।।


जगन्नाथ ध्रुव घुँचापाली

 ( चण्डी मंदिर ) बागबाहरा


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 ताटंक छन्द गीत- ये माटी महतारी जी (१४/०९/२०२५)


हम ला कोरा मा खेलाये, सुख दुख के सॅंगवारी जी ।

आवव जुरमिल सेवा करबो, ये माटी महतारी जी ।।


मनखें मन बर अन्न उगाथे, जीव-जन्तु बर चारा ला ।

चिरई चिरगुन बर रुख-राई, झन करहू बॅंटवारा ला ।।


ये जग के कल्याण करे बर, बोहत गंगा धारी जी ।

आवव जुरमिल सेवा करबो, ये माटी महतारी जी ।।


सोना चाॅंदी हीरा मोती, भरे खजाना लोहा के ।

ताॅंबा पीतल काॅंसा कतको, बोल बने हे दोहा के ।।


धन दौलत के बरसा बरसे, किरपा हे बड़ भारी जी ।

आवव जुरमिल सेवा करबो, ये माटी महतारी जी ।।


ये ला रख लव जतन-जतन के, नइ तो बड़ पछताहू जी ।

थोर-थोर करके बह जाही, फेर कहाॅं ले पाहू जी ।।


पेड़ लगावव जघा-जघा मा, पेड़ हमर हितकारी जी ।

आवव जुरमिल सेवा करबो, ये माटी महतारी जी ।।


ओम प्रकाश पात्रे 'ओम '

बोरिया बेमेतरा छत्तीसगढ़


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  कौशल साहू: कुंडलिया छंद - माटी कटाव


उखड़य झन भुइयाँ परत, कर लौ जी मरजाद।

पूरा पानी धार मा, बह जाथें सब गाद।।

बह जाथें सब गाद, परत जम जाथें रेती।

घट जाथें उत्पाद, जतन लौ जुरमिल खेती।।

खूब लगा लौ पेंड़, बाग हरियर झन उजड़य।

जड़ हा राखय बांध, कभू माटी नइ उखड़य।।


कौशल कुमार साहू

निवास -सुहेला (फरहदा )

जिला - बलौदाबाजार-भाटापारा


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  मुकेश : कुंडलिया छंद-- माटी कटाव(मृदा अपरदन)


खोवत भुइयाँ हा अपन, उर्वरता ला आज।

जंगल झाड़ी काट के, नइतो आवत लाज।।

नइतो आवत लाज, सुनौ सब बहिनी भाई।

रसायनिक हे खाद, खेत बर बड़ दुखदाई।।

माटी ला नकसान, देख अब्बड़ हे होवत।

तुरते करव बचाव, रोज उर्वरता खोवत।।


करलौ आज बचाव जी, माटी होत कटाव।

रोके बर लोगन सबो, फसल चक्र अपनाव।।

फसल चक्र अपनाव, लगावव गा रुख राई।

खेती सीढ़ी दार, करव सुग्घर रोपाई।।

हवँव बतावत सार, गोठ ला गुनके धरलौ।

खोजव बने उपाय, जतन माटी के करलौ।।


मुकेश उइके "मयारू"

ग्राम- चेपा, पाली, कोरबा(छ.ग.)


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  डी पी लहरे: मुक्तामणि गीत..

मृदा अपरदन


मृदा अपरदन रोक लव, पेड़ लगा के भाई।

नइ तो पाछू हो जही, ए जग मा करलाई।।


भूमि क्षरण ला रोकथे, रुखवा के जड़ भारी।

कभू चलाहू झन सखा, रुखुवा मन मा आरी।।

जंगल तुमन उजारहू, रोही धरती दाई।

मृदा अपरदन रोक लव, पेड़ लगा के भाई।।


मृदा बाँध के राखथे, बने पेड़ के जड़ हा।

इही पेड़ ला काटथौ, काबर बनके अड़हा।।

हवा गरेरा बाढ़ ला, टारय जी रुखराई।

मृदा अपरदन रोक लव, पेड़ लगा के भाई।।


डी.पी.लहरे'मौज'

कवर्धा छत्तीसगढ़

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  तातुराम धीवर : रूप घनाक्षरी  

मृदा अपरदन/मिट्टी कटाव 


कहे धरा महतारी, बिपत हावय भारी,

सुन सबो नर-नारी, समझ बने हे जाव।

माटी उपजाऊ हर, बोहात हे बाढ़ पर,

डोंगरी पहाड़ी हर, ठहरत नहीं ठाँव।।

पेड़ सब छाँटत हे, जर मूल काटत हे,

देख सब स्वारथ मा, देवत हावय घाव।

सुख सब मिल जाही, पेड़ जब हे लगा ही, 

तभे तो हे रुक पाही,माटी कर हे कटाव।।


      तातु राम धीवर  

भैसबोड़ जिला धमतरी


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  विजेन्द्र: माटी के कटाव- कुंडलिया छंद 


जंगल झाड़ी पेड़ ले, होथे बने बचावI 

रुकथे माटी के तभे, होवत जेन कटावI 

होवत जेन कटाव, करत हे बड़ नुकसानीI 

आथे पूरा बाढ़, लबालब पानी-पानीI 

माटी रखव सहेज, तभे जिनगी मा मंगलI 

रोकय बने कटाव, पेड़ झाड़ी अउ जंगलII


विजेन्द्र कुमार वर्मा 

नगरगाँव-(धरसीवां)


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नीलम जायसवाल: *छन्न पकैया छन्द*


*मृदा अपरदन / माटी के कटाव*


छन्न पकैया-छन्न पकैया, अबड़ अकन हे कारण।

मृदा अपरदन के जी संगी, ओखर करौ निवारण।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, जंगल के कटवाई।

अवैज्ञानिक कृषि पद्धति ले, गरुवा मन के चराई।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, बाढ़त हे आबादी।

मनमाना निर्माण करत हन, बाढ़ खनन अउ आँधी।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, मरुथल बंजर भुँइया।

तेज हवा अउ जलधारा घलु, मिट्टी काटय नदिया।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, पर्वत मन मा रस्ता।

रुख राई ला काट-काट के, हम ला लागय सस्ता।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, पर्वत धँसते आथे।

गाँव शहर बोहावत जावै, जीव जंतु मर जाथे।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, फसल चक्र हर दारी।

समोच्च जुताई करौ ढाल म, रोपौ जंगल झारी।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, पट्टी बाँट उगावौ।

बंजर ला झन खाली छोड़ौ, ओमा घाँस लगावौ।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, भरसक पेड़ लगावौ।

माटी के कटाव ला रोकौ, शुद्ध हवा घलु पावौ।।


*नीलम जायसवाल, भिलाई, छत्तीसगढ़*


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 अश्वनी कोसरे : माटी के कटाव-

हरिगीतिका छंद 


धरती हरँय सब ताप ला, मनखे करँय सब पाप ला|

जब जब  करँय सिंगार ला, उन दँय फटिक अभिशाप ला||


भुइँया डहन परिधान हे, धनधान्य के वो खदान हे|

रुखुवा बने सिरजाय मा, बँचहीं सबो के प्रान हे ||


कट - कट बहत कन -कन बहत, उँकरे दया सुखमोल हे|

 जिनगी सहीं भूगोल हे, माटी उँही अनमोल हे||


वंदन करौं कर जोरि के, पइँया पखारौ रोज गा|

माटी हवय पूजा हमर, माटी हमर सुख खोज गा||


कचरा बहुत बगरे हवय, दिखथे कहाँ भुइँया बने|

कटते हवँय बन झाड़ मन, अब कोन हें माटी सने ||


सच बात ला कहिबे कहूँ, दुख लागथे सरकार ला|

मनखे घलो का मानथे, जंगल कटत भरमार ला||

अश्वनी कोसरे 'रहँगिया' कवर्धा कबीरधाम छ. ग.


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 दीपक निषाद, बनसांकरा: *लावणी छंद--माटी के कटाव* 

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मया-डोर मा बाँधे रखथें,माटी ला रुखवा के जर।

रुख-राई के रहे सुरक्षित,रहिथे धरती दाई हर।।

माटी के कटाव बढ़ जाथें,जब रुख- राई मन कटथें।

भुइँया के उर्वरा शक्ति अउ,पोषकता के गुन घटथें।।


माटी के कटाव के सेती,भूस्खलन होथें अकसर।

बारिश मा गिरथें पहाड़ ले,पखरा अउ चट्टान जबर।।

सड़क जाम ले हलाकान सब,होय पर्यटन हा बाधित।

पेड़ काट के अपन पाँव मा,टँगिया मारयँ मनखे नित।।


नदिया-नरवा के पूरा मा,जघा-जघा माटी भसकँय।

चौमासा मा दिखय नजारा,कतको सड़क घलो धँस जँय।।

अंधाधुंध कटे रुख-राई,तेकर सब परिणाम हरय।

माटी महतारी कलपय तब,काकर मन मा खुशी भरय।।


दीपक निषाद--लाटा (बेमेतरा)


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  +  : मृदा अपरदन ""माटी के कटाव ""  आल्हा 

 

खूब लगावव रुख राई ला,जतन करव जंगल महकाव।

 परत ऊपरी बड़ उपजाऊ , रोकव ऐखर नित्य बहाव ।।


ज्यादा पानी जब जब गिरथे , पानी माटी सॅंग बोहाय।

उखड़त  जाथे उपरी हिस्सा, ऊपर ले नीचे सकलाय ‌‌।।

समतल जगह म आके रुकथे, उही जगह मैदान कहाय ।

बड़ उपजाऊ होथे मिट्टी, खीरा ककड़ी बहुत लुभाय ।।

अन्दर माटी रथे कड़ा जब, होथे जिनगी से टकराव ।

परत ऊपरी बड़ उपजाऊ, रोकव ऐखर नित्य बहाव ।।


मृदा अपरदन के कुछ कारन, सुनलव संगी सबझन आज ।

ज्यादा पानी जब जब गिरथे, माटी हो जाथे नाराज ।।

कभू कभू तो बइठ हवा में, कर लेथे जिनगी के सैर।

ना झॅ़ंगरा ना करय लड़ाई, ना कउनो से राखय बैर।।

फिर भी एक ठउर ले दूसर , ठउर बने जिनगी भटकाव। 

परत ऊपरी बड़ उपजाऊ, रोकव ऐखर नित्य बहाव ।।

 

देखव जिनगी आज घलो तो, बात मान परके बउराय ।

घर परिवार ले झॅंगरा करके, संगी सॅंग मा मजा उड़ाॅंय ।।

हम मनखे माटी के पुतला, जड़ हावय हमरे माॅं बाप।

 नानपान ले पाॅंलय पोसॅंय, छोड़ अपन सब सुख संताप।।

सुख के बेरा पड़े अकेल्ला, कोन करय दुनिया म नियाव ।

परत ऊपरी बड़ उपजाऊ, रोकव ऐखर नित्य बहाव।।



संजय देवांगन सिमगा

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  गुमान साहू: दोहा छंद।। मृदा अपरदन।।


मृदा अपरदन ले सुनौ, होथे बड़ नुकसान।

येकर फाँदा मा फँसे, संगी सदा किसान।।


परत ऊपरी जब बहै, माटी हा पथराय।

उपजाऊपन हा घटै, कमी उपज मा आय।।


अति पशुचारण अउ हवा, बरसा जल के धार।

रुखराई ला काटना, येकर जिम्मेदार।।


रोकथाम करना हवै, झाड़ी पेड़ लगाव।

खेत मेड़बंदी करौ, समतल भूमि बनाव।।


जोताई समकोण मा, खेती सीढ़ी दार।

अपना लव मल्चिंग ला, हवै इही उपचार।।


- गुमान प्रसाद साहू 

- समोदा (महानदी)


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  Jaleshwar Das Manikpuri : ताटक छंद सादर समीक्षार्थ गुरुदेव 

                माटी -कटाव 

पेड़ झाड़ के रक्षा करथे,हमरे धरती दाई जी।

माटी के कटाव ल रोके,सुघ्घर रुखवा राई जी।।

हरा -भरा सब पौध लगावा, धरती बने सजावव जी।

माटी के कटाव ला रोकव,जुरमिल सबझन आवव जी।।

भीतरे- भीतर रोवत हावय,हमरो धरती दाई हा।

गरमी भारी भूंजत संगी,बिकट हे करलाई हा।।

जलेश्वर दास मानिकपुरी ✍️ 

 मोतिमपुर बेमेतरा


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  ज्ञानू कवि: विषय - माटी के कटाव/ मृदा अपरदन 

छंद - विष्णुपद 


मनखे का सरकार करत हें, अपन राग रटई|

अइसन मा कइसे रुकही गा, माटी के कटई||


रुखराई हा रोज कटावत, देख दनादन हे|

बढ़ते जावत तभे हवै तो, मृदा अपरदन हे||


सघन, गहन, घनघोर रहिस तें, जंगल उजड़त हे|

बरसा, गरमी, गरमी, बरसा, मौसम बिगड़त हे||


बेमौसम बरसात होय ले, माटी जाय बहै|

बन मैदान पहाड़ जथे गा, खेती मार सहै||


मनखे के मारे नइ बाँचत, नदिया पार घलो|

खाँच- खाँच के खाँच डरिन हे, आज पहाड़ घलो||


सड़क, बाँध, पुल अउ कतको कन, नाम विकास हवै|

फेर दिखत मोला भुइयाँ मा, होत विनाश हवै||


टूट जथे अउ बिखर जथे वो, जेन अकड़ रहिथे|

सदा ठोस- ठाहिल हे, जड़ ला, जेन पकड़ रहिथे||


भुइयाँ के सिंगार हरे ये, चलौ सजालव गा|

माटी कटई हवै रोकना, पेड़ लगालव गा||


ज्ञानु


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  आशा देशमुख: कुंडलिया


विषय - मृदा अपरदन


मिट्टी हर तो सार हे , बाकी सब हे व्यर्थ।

सोचव ये माटी बिना, जिनगी के का अर्थ।।

जिनगी के का अर्थ, इही माटी मा जीना।

एखर से संसार, इही हे रतन नगीना।।

होवत रोज कटाव, दिखत हे रेती गिट्टी।

बचे हवय संसार, खास हावय ये मिट्टी।।




आशा देशमुख


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  अश्वनी कोसरे : हरिगीतिका छंद - माटी कटाव 


चंदन सही कतकोन गा, बिरछा कटे बीच खार गा|

सैगोन अउ सीसम कटे, कट के गिरे भरमार गा||


माटी अपरदन होय ले, चिंतित अबड़ भगवान हे|

एको खनिज का बाँचही, मूंडा मुड़ाये खान हे|


खन खन परे हीरा- मणी, अउ खोखला भू सार हे|

बढ़ के गिरे ले बाढ़ मा, पानी सरोवत पार हे||


रुख राइ के बढ़ होय ले, पर्यावरण हरिया जही|

उपरी परत हर जरधरे,  माटी बने जुरिया जही||


कनहार भुइँया हा बने, उपजत फसल ला भात हें|

करिया चिकट माटी धरय, पानी अबड़ ओगरात हें||


माटी बचाये बाँच ही, बढ़वार खेती खार के|

रोकन कटत बन झाड़ ला, पौधा लगावन नार के||


पक्की सड़क बहजात हे, उपरी परत ल मार के|

एकर सही उपचार ले, रुकही सरकना पार के||


माटी प्रदूषण के बढ़े, माटी बोहावत चान के|

जरमूल ले उखड़े पड़े, जंगल बनत विरान के||



अश्वनी कोसरे 'रहँगिया' कवर्धा कबीरधाम छ. ग.


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  संगीता वर्मा, भिलाई: चौपाई छंद - माटी के कटाव 


पेड़ हवा माटी अउ पानी I चलथे एखर ले जिनगानीII 

इही हरे तो प्रान अधारा I जीव जगत के बने सहाराII


पुण्य कमा लव पेड़ लगा केIभुइयाँ के जी भाग जगा केII 

जतन करव अब तो सब भाईIमाटी मा ठाड़े रुख राईII 


माटी के कटाव ला रोकव I धरती बर गा पानी झोकवII 

जिनगी सुग्घर अपन बनावौ Iआवव मिलके पेड़ लगावौII


सुख मा तब दिन रात पहाही Iतभे प्रकृति हा कहाँ रिसाहीII 

करहू भइया जब मनमानीI कइसे मिलहीं दाना पानीII 


शुद्ध हवा अउ पानी देथे Iसोचव बदला मा का लेथेII 

जीव जगत बर चारा दाना I अन्न उपजथे तन बर खानाII 


हरियर-हरियर रइही जंगल Iजिनगी मा तब आही मंगलII 

माटी हर तो सुख के दाता I जीव जगत बर गढ़े विधाताII


माटी के कटाव ला रोकव Iबरसा के पानी ला झोकवII

पेड़ लगा के भाग जगालौ Iइही जगत मा पुण्य कमालौII


संगीता वर्मा 

भिलाई


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  पद्मा साहू, खैरागढ़ : शीर्षक - मृदा अपरदन / मृदा कटाव 

           आल्हा छन्द /


रोको-रोको  रोको  संगी,  माटी  के  जी  बढ़त  कटाव।

जागो-जागो अब तो जागो, मृदा क्षरण के करव बचाव।।



माटी हे जीव जंतु के घर, माटी  ले  हे  जीवन सार।

अन्न उपजथे माटी मा ही, माटी जिनगी के आधार।।

भौतिक सुख साधन माटी ले, माटी ला झन मलिन बनाव।

जागो-जागो  अब तो जागो, मृदा क्षरण के करव बचाव।।


रखथे पेड़ बाँध के माटी,  चक्रवात  आथे  जब  बाढ़।

नइ बोहावय पानी मा ये, मृदा  खड़े रखथे रुख ठाढ़।।

ये माटी के रक्षा खातिर, जुरमिल के सब पेड़ लगाव।।

जागो-जागो अब तो जागो, मृदा क्षरण के करव बचाव।।



झिल्ली डिस्पोजल प्लास्टिक हा, माटी के बड़ करते नास।

करव उपयोग एकर कमती, प्रकृति प्रदूषक येमन खास।।

शीशी अपशिष्ट धातु मन ला,  माटी मा जी झन गड़ियाव।

जागो-जागो अब तो जागो, मृदा क्षरण के करव बचाव।।


          रचनाकार

  डॉ पद्‌मा साहू *पर्वणी* खैरागढ़


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  जगन्नाथ सिंह ध्रुव : कुन्डलिया छन्द    - मृदा अपरदन


माटी महतारी असन, जग मा हवय महान।

झन बोहाय कटाव हा, देवव थोकन ध्यान।।

देवव थोकन ध्यान, रही तब धरती धानी।

करही हमर किसान, रोज दिन खेत किसानी।।

किसम किसम के पेड़, लगालव जुरमिल भारी।

रोज उपजही धान, तभे माटी महतारी।।


जगन्नाथ ध्रुव घुँचापाली बागबाहरा

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सार छंद

16-12

 *माटी के कटाव* 

कुछ कारन ले होथे संगी,माटी के कटाव हा।उपजाऊ माटी के बहुते,होथे जी बहाव हा॥


खूब काटना पेड़ झाड़ अउ,पशु ला बहुत चराना।

काँदी कचरा के मरनाअउ,बादर के बरसाना॥


बहथे उपजाऊ माटी,उत्पादन कम होथे ।

कर्जा बोड़ी के सुरता मा,तब किसान हा रोथे॥


चलव जूरमिल रोकन सबझन,माटी के कटाव ला ।

एक धार चलवाई मिल,पानी के बहाव ला॥


समकोन खेत जोताई कर ,पेड़ झाड़ लगवाई।

सीढ़ीदार खेत बनवाके,टपका विधि अपनाई।।


मल्चिंग बहुत गुनकारी विधि,सब किसान अपनालव।

खूब लगा लव पेड़ झाड़ अब,धरती सरग बना लव॥

जुगेश कुमार बंजारे

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