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Friday, September 26, 2025

विषय- गरीबी

विषय- गरीबी

कुण्डलिया छंद

खूब गरीबी छाय हे, दुनिया भर मा आज।

भीख माँग के राखथें, कतकोझन  जी लाज।।

कतकोझन जी लाज, सड़क अउ  गाँव शहर मा।

कती घाम अउ छाँव, बिहानी अउ दो पहर मा।

संझाकन अउ रात, सकेलें रीबी- रीबी।

लटपट भरथें पेट, छाय हे खूब गरीबी।।

लटियाहा चुंदी मुड़ी, चुपरे तेल न सेंठ।।

पहिरें घोंघटहा सही, कुरता चिरहा पेंठ।

कुरता चिरहा पेंठ, अजब रहिथे दिनचरिया।

 डेरा पीपर छाँव, सड़क तिर भाँठा परिया।।

मांग-मांग नित खाँय, खूब दिखथें मटियाहा।

घूमत रहिथें रोज, दिखै चुंदी लटियाहा।।

तन-मन-धन नइ हे खुशी, दुख सहिथें भरमार।

एक बरोबर रात दिन, ऊँखर तीज तिहार।।

ऊँखर तीज तिहार, घात होथे करलाई।

घर अउ मोटर कार, कहाँ किश्मत हे भाई।।

नइ पावँय उन मान, चोट देथें नित जन- जन।

जबड़ हवय ये रोग, लगे ले टूटे तन-मन।।

आज गरीबी आड़ हा, होगे जी जंजाल।

हाथ गोड़ आँखी सबो, हावँय  तभो अलाल।

हावँय तभो अलाल, काम नइ चाहैं करना।

लइका संग जवान,  चहैं फोकट मा तरना।।

पढ़इ लिखइ दव ध्यान, कभू नइ होही रीबी।

खुद के कारोबार,  मिटाही आज गरीबी।।

भागवत प्रसाद चन्द्राकर

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: कुण्डलिया छंद 

विषय- गरीबी 

पातर पनियर पेज पी, जीयत हवै गरीब। 

बिसहत के सब चीज हे , सपना नहीं करीब। ।

सपना नहीं करीब, कमा ले  कतको मर के। 

जिनगी घलो अजीब, झाँक थन अँगना पर के। ।

कहय शिशिर सच बात, करम हे चातर- चातर। 

जुड़हा  मिलै न तात, पेज पी पनियर पातर।।

छाय   गरीबी  देश   मा ,    महँगाई भरमार। 

मनखे गजब दुखाय हे, सुन ले दुख सरकार। ।

सुन ले दुख सरकार, थोरकिन हमरो सोंचव। 

जीये  के   आधार  ,  फूल घर-घर मा खोंचव। ।

कहय शिशिर सच बात, छोड़ दिन संग करीबी। 

भूखे   बीतय  रात,  छाय  हे  देख गरीबी। ।

सुमित्रा शिशिर

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  जगन्नाथ सिंह ध्रुव : कुण्डलिया छन्द

     गरीब 

मिहनत करथे जेन हा, पाथे अन्न अपार।

खाथे डटके दू बखत, सुखी रहय परिवार।

सुखी रहय परिवार, कभू धन बर नइ तरसे।

दूर भागथे दुःख, सबो सुख अँगना बरसे।।

सुधरे ओखर रोज, गरीबी के जइसे गत।

वो नइ रहय गरीब, जेन बड़ करथे मिहनत।।

जगन्नाथ ध्रुव घुँचापाली 

बागबाहरा

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  जगन्नाथ सिंह ध्रुव : कुण्डलिया छन्द 

    

रहिथे रोज गरीब के, जिनगानी हा तंग।

पल भर खातिर नइ भरे, कभू खुशी के रंग।।

कभू खुशी के रंग, गरीबी मा नइ आवय।

दुःख बिपत तकलीफ, रोज बादर बन छावय।।

मनखे बर अभिशाप, गरीबी हे सब कहिथे।

नइ जागे जी भाग, दिनोदिन तंगी रहिथे।।

जगन्नाथ ध्रुव घुँचापाली

बागबाहरा

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  ज्ञानू कवि: विषय- गरीबी 

छंद - विष्णुपद 

काखर कइसन कोन जानथे, काय नसीब हवै|

कोन अमीर हवै ये जग मा, कोन गरीब हवै||

दुःख- दरद अउ मिलथे ताना, ठोकर पग- पग मा|

बड़का बीमारी आय गरीबी, सिरतों ये जग मा||

कोनो धन- दौलत ले संगी, भले अमीर हवै|

दुःख- दरद नइ जानय कखरो, बिके जमीर हवै||

कोनो हा धन अउ दौलत ले, भले गरीब रथे|

अगुवा बन खड़े दुःख- पीरा मा, उही करीब रथे||

खाय- पिये बर कुछू रहय झन, हाय परान रहै|

गुजरय जिनगी भले गरीबी, धर ईमान रहै||

हे बड़का अभिशाप गरीबी, सपना टूट जथे|

कोनो नइये साथ निभइया, कतको छूट जथे||

कभू- कभू तो भूखे- प्यासे, परथे गा सहना|

रोटी, कपड़ा बिन मकान के, परथे गा रहना||

भूख गरीबी अउ बेगारी, कब जग ले मिटही|

नव सुराज अउ नव बिहान तब, भुइयाँ मा दिखही||

ज्ञानु

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 आल्हा- हाल गरीबी के झन पूछव (२२/०९/२०२५)

भोजन पानी अउ कपड़ा बर, तरसे कतको घर परिवार ।

हाल गरीबी के झन पूछव, हाल गरीबी हे बेकार ।।

पइसा कौड़ी के बड़ तंगी, होथे जिनगी नर्क समान ।

रोजगार नइ मिल पावय गा, शिक्षा दीक्षा ले अनजान ।।

दुख पीरा ला निसदिन सहिथें, का करबे होथें लाचार ।

हाल गरीबी के झन पूछव, हाल गरीबी हे बेकार ।।

तन के बीमारी खा जाथे, बिन पइसा के का ईलाज ।

किस्मत मा लिख दे हे रोना, भोगत हें कतको झन आज ।।

कोन जनम के पाप करे हें, कइसे के होही उद्धार ।

हाल गरीबी के झन पूछव, हाल गरीबी हे बेकार ।।

पेट गुजारा खातिर कतको, मनखे मन माॅंगत हें भीख ।

नव पीढ़ी मन देखव गुन लव, ये जिनगी ले लेवव सीख ।।

हर घर मा शिक्षा पहुॅंचावव, तब होही बेड़ा हा पार ।

हाल गरीबी के झन पूछव, हाल गरीबी हे बेकार ।।

ओम प्रकाश पात्रे 'ओम '

बोरिया बेमेतरा छत्तीसगढ़

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प्रदीप छंद- गरीबी

भूख गरीबी के पीरा ला, समझे जेन गरीब हे।

नौकर-चाकर कार बंगला, सब ला कहाँ नसीब हे।।

रोज कमाथें रोजे खाथें, रहिथें काम तलाश मा।

आही इक दिन सुख जिनगी मा, बाँध रखे मन आस मा।।

ये आँखी के बस सपना ये, सच तो कहाँ करीब हे।

भूख गरीबी के पीरा ला, समझे जेन गरीब हे।।

पोट-पोट तो पेट करे अउ, भूख मरे परिवार हा।

महँगाई के मार दिखावत, हावँय नित सरकार हा।।

दूर गरीबी कइसे होही, करे काय तरकीब हे।

भूख गरीबी के पीरा ला, समझे जेन गरीब हे।।

हे अभिशाप गरीबी जग मा, ये समाज बर दाग ये।

हक ले वंचित जिनगी जीना, का गरीब के भाग ये।।

हे सरकार विधाता कइसे, खेले खेल अजीब हे।

भूख गरीबी के पीरा ला, समझे जेन गरीब हे।।

✍🏻इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"

बिलासपुर (छत्तीसगढ़) //

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  डी पी लहरे: दोहा छन्द गीत

बड़का ए अभिशाप हे, हाय गरीबी हाय।

दाना-पानी के बिना, पोटा काँपे जाय।।

 लेवत हावय जान ला, महँगाई के मार।

बढ़हर मनके संग मा, मौज करै सरकार।।

रोजगार के आश ले, भूख गरीबी छाय।।

बड़का ए अभिशाप हे, हाय गरीबी हाय।।

भूख-गरीबी के इहाँ, गूँजत हावय राग।

एखर कहाँ उपाय हे, ये समाज बर दाग।।

जिनगी हा जिनगी सहीं, नइ लागे नइ भाय।।

बड़का ए अभिशाप हे, हाय गरीबी हाय।।

डी.पी.लहरे'मौज'

कवर्धा छत्तीसगढ़


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  डी पी लहरे: मुक्तामणि छन्द गीत

विषय-गरीबी

जनसंख्या बढ़वार से, बढ़े गरीबी भारी।

आज गरीबी देश के, बड़का हे बीमारी।।

रोजगार बिन देख ले, बढ़े आर्थिक तंगी।

दहकत आगी पेट के, कोन बुझावय संगी।

देखौ घर-परिवार मा, छाय सदा लाचारी।

जनसंख्या बढ़वार से, बढ़े गरीबी भारी।।

बाढ़े भ्रष्टाचार हा, शासन के कमजोरी।

बढ़हर मालामाल हे, पैसा बोरी-बोरी।

रोजगार के कुछ इहाँ, नइ हे गा तइयारी।

जनसंख्या बढ़वार से, बढ़े गरीबी भारी।।

रोटी कपड़ा घर नहीं, इही भाग के लेखा।

बाढ़त जावय देश मा, रोज गरीबी रेखा।।

मजदूरी के दाम हा, कम हावय सरकारी।

जनसंख्या बढ़वार से, बढ़े गरीबी भारी।।

डी.पी.लहरे'मौज'

कवर्धा छत्तीसगढ़


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  विजेन्द्र: गरीबी- दोहा छंद 

दरद गरीबी के उही, जाने जउँन गरीबI

अपन करम ला कोसथे, फुटहा कहे नसीबII 

आय गरीबी हा इहाँ, बड़का गा अभिशापI 

जिनगी जइसे गा लगे, करे काय हन पापII  

कारण हे अज्ञानता, निर्धनता के मूलI 

बात सहीं गा आय ये, मूल बात झन भूलII 

करम करे बिन नइ बनय, कखरों भइया भागI  

जेन समय सन नइ चलय, लगे पेट मा आगII 

जनसंख्या के बाढ़ ले, पड़े गरीबी मारI 

रोटी कपड़ा बर इहाँ, झगरा झंझट झारII

 

पड़े गरीबी मार तब, दुनिया लगथे भारI  

दवा दवाई बिन इहाँ, जिनगी जाथे हारII 

कहर गजब ये ढाहथे, भोगत जे बउरायI 

मदद मिले नइ तब भला, गर मा फाँस लगायII

धरे कटोरा हाथ मा, माँगव झन गा भीखI 

जिनगी करव अँजोर गा,लेके शिक्षा सीखII 

विजेन्द्र कुमार वर्मा 

नगरगाँव धरसीवाँ

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  दीपक निषाद, बनसांकरा: हरिगीतिका छंद--गरीबी

कोनो कमावय ठोमहा खर्चा करय काठा सही।

परिवार अउ घर-बार मा सुख-चैन तब  कइसे रही।।

मारय उदाली रात-दिन कीरा परे हे चाल हा।

तबहे कटत नइ हे गरीबी के जबर- जंजाल हा।।

शासन-प्रशासन के कतिक ठन योजना मा झोल हें।

कतकोन भ्रष्टाचार हें अउ ढोल मा भी पोल हें।।

जेहा जरूरत मंद हे वोला मिलय नइ माल हा।

तबहे कटत नइ हे गरीबी के जबर- जंजाल हा।।

पहिली असन नइ हे गरीबी फेर हे अब भी असर।

बेरोजगारी-बान ले टूटयँ युवा मन के कमर ।।

जनता-व्यवस्था बीच पूरा नइ जमत सुर-ताल हा।

तबहे कटत नइ हे गरीबी के जबर- जंजाल हा।।

दीपक निषाद--लाटा (बेमेतरा)


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  छत्तीसगढिया: कुकुभ छंद

गरीबी

हवे गरीबी बड़ दुखदायी, गुजर बसर मुश्‍किल होथे।

रोटी कपड़ा घर-गाड़ी अउ, बने चीज बर मन रोथे।।

आज गरीबी ऊपर कतको, बने योजना हर आथे।

फेर योजना हा नइ पहुँचे, घपला पहिली कर जाथे।।

भूख गरीबी के मनखे ला, अतका लाचारी कर देथे।

वोला कुछु समझे नइ आवय, गलत काम ला कर लेथे।।

अनुज छत्तीसगढ़िया

पाली जिला-कोरबा

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  तातुराम धीवर : दोहा - गरीबी 

एक सही सब ला दिये, जनम इहाँ भगवान।

कनो गरीबी मा जिये, कनो बने धनवान।।

करम करय नइ कोढ़िया, कोसत रोज नसीब।

बिना करम पइसा मिले, करत रथे तरकीब।।

सही सलामत हे सबो, देंह गोड़ अउ माथ।

वो सब ले धनवान हे, करम करय जे हाथ।।

जे अपंग हे देंह ले, सँच मा उही गरीब।

तंगहाल जिनगी जिये, हे दुख पीर करीब।।

शासन ले राशन लिये, करके नाप जरीब।

कार्ड गरीबी के बना, धनपति बने गरीब।।

मार गरीबी के परे, सपना होवय चूर।

धन के अभाव मा रहे, सब साधन ले दूर।।

झेल गरीबी ला सहे, बिन ओन्हा के अंग।

लड़थें रोज गरीब हे, जिनगी के सब जंग।।

     तातु राम धीवर 

भैसबोड़ जिला धमतरी


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  नंदकिशोर साव  साव: कुंडलिया छंद - गरीबी 

खाली बइठे झन रहव, तज दव जी आराम।

दूर गरीबी हो तभे, करहू तुम कुछ काम।।

करहू तुम कुछ काम, हाँथ मा पइसा आही।

घर खर्चा आसान, सरल जिनगी हो पाही।।

सुधर जही गा आज, बने होही अउ काली।

मिलय सबो ला काज, रहय झन सथरा खाली।।

नंदकिशोर साव 'नीरव'

राजनांदगाँव (छ. ग.)

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बरवै छंद-- गरीबी 

आय गरीबी बड़का, गा अभिशाप।
कोन जनम के मनखे, भोगँय पाप।।

देख सबो लाचारी, फेकँय जाल।
ठग बैपारी होवत, मालामाल।।

हाल गरीबी झेलय, जब परिवार।
भीख मॉंग के जिनगी, काटँय यार।।

भूख मरै अउ सपना, टूटय रोज।
तभो पेट बर दाना, लावँय खोज।।

रोग अशिक्षा लोगन, जावँय भूल।
आय गरीबी के ये, कारण मूल।।

रोजगार बिन मनखे, सब लाचार।
आँखी मूँदे देखत, हे सरकार।।

तन मा दुख बीमारी, जब-जब आय।
धरके संग गरीबी, घर मा लाय।।

रोजगार के अवसर, दव भरपूर।
तंग हाल हा तभ्भे, होही दूर।।


मुकेश उइके "मयारू"
ग्राम- चेपा, पाली, कोरबा(छ.ग.)
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गरीबी
सरसी छंद
16-11
होत गरीबी श्राप बरोबर ,सच्चा येला जान।.
पिसा जथे परिवार सबो,आय पिसनही मान॥

फँसे गरीबी के फाँदा मा,जीना मुश्किल हाय।
मन मारत जीये ला परथे,नरक बरोबर ताय॥

बिन पइसा लाचारी जिनगी,संकट के भरमार।
रोजी रोटी खाना पानी,दवई के दरकार ॥

मन के आशा पूरा कब हो,चुरत रहीथे साध।
तरसत मन के लाचारी मा,कर जाथें अपराध॥

 बेटी गरीब के चिरई हे,दुनिया बनथे बाज।
हाय गरीबी तोर मार मा,बेचे परथे  लाज॥

जाँगर पेरत उमर पहाथे, बाढ़य नही गरीब' ।
 बाढ़त जावय बड़हर मन हाँ, बड़का हवय नसीब॥

लाख जतन कर,मुड़ पथरा दे, होवय नही सुधार ।
बना योजना करम करे ले, होही गा उद्धार॥
जुगेश कुमार बंजारे
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: सरसी छंद - गरीबी 

कहाँ गरीबी के जनमन हे,  देखन ये ला खोज|
काबर पसरत हे समॎज मा, जानन ये हर रोज||

नाम गरीबी बड़का भारी,  कतका होत उपाय|
जनसंख्या बाढ़त जावत हे, तभे मचे घर हाय||

काम मिले दू चार दिवस बस, बीते फिरत हजार|
ठलहा बइठे हें गरीब, अब कहाँ रोजगार||

उबजन ले का नसीब बनथे, मिलथे काम अपार|
हर हालत मा धन हे भारी, धन करथे बैपार||

धनी मनी मन दबदर खातिर, दैं कहाँ रोजगार|
कीमत ला उन कमकर देथे, लेथे काम अपार||

गाँव शहर मा सेठ महाजन, करथे उन बलडार |
गली गली मा हाँक परै, हे गरीब  भरमार||

कोन करत हे शोषण भारी, हे गरीब बर प्यार|
खावँय छप्पन भोग मलाई, दुख के हो निरवार||

अश्वनी कोसरे रहँगिया कवर्धा कबीरधाम छ. ग.
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 - कुंडलिया छंद

जाँगर आगर हे लगत, हँकरँय कमा गरीब|
दू कौंरा के भूँख ले, हारय उँकर नसीब||
हारय उँकर नसीब, नाम ले का मिल पाथे|
बिपदा बाढ़त जाय, खून पानी बन जाथे||
का बरसा का घाम, जाड़ तन रहिथे करीब|
रात दिवस थक हार, जूझ के सोथें गरीब||

अश्वनी कोसरे रहँगिया कवर्धा कबीरधाम छ. ग.
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