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Saturday, September 6, 2025

किन्नर

 कौशल साहू कुंडलिया छंद - किन्नर


लटकाये ढोलक फिरै, किन्नर बारों माह।

देख कँहू ताना कसय, छेंड़य कोन्हों राह।।

छेंड़य कोन्हों राह, सतावयँ हिजड़ा कहिके।

थमय उँकर ना पाँव, बढ़य दुख पीरा सहिके।।

गाँव शहर उन रेल, कमर नैना मटकाये।

गावत मंगल गीत, फिरै ढोलक लटकाये।।


कौशल कुमार साहू

जिला - बलौदाबाजार

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Jugesh किन्नर

सार छंद - 

मनखे जोनी नर तन होवय,चाही नारी अच्छा ।

किन्नर जोनी झन तो पावै, बात कहँव जी सच्चा॥

नइ तो नारी होवय वोहा, नइ तो नर वो पक्का।

कहिथें कुछ मन करबिन किन्नर,कुछ मन हिजड़ा छक्का॥

मानय  कुछ मन देव रूप जस, कुछ मन हाँसी तड़का ।

भूल आय ये सिरजन कर्ता के,होय चूक हे बड़का।।

अभिशापित  किन्नर के जोनी,जीथे मनखे जतका ।

नर तन के सुख ठउर छिनागे, होथे दुख मन कतका॥

माँग जाँच के जीवन जीयें, घर घर ताली ठोके ।

आशीर्वाद सबो ला देये,रुपिया पइसा झोके॥

कुछ छक्का मन लेवय जबरन ,पैसा धौस जमाके ।

जाने कीमत पइसा के जो, लाने खून बहाके॥

गुरु के पद पायेबर किन्नर,करथे खून खराबा ।

आय करोड़ो के होथे जी, होवय नहीं जनाबा॥

पइसा ख़ातिर कुछ मनखे मन किन्नर रूप बनाथे ।

साड़ी लुगरा पहिर पहिर के, पइसा खूब भुनाथे॥

मिलगे हावय किन्नर मन ला,इँहाँ तृतीय लिंग के दरजा।

ऊँचा  पद मा जाके छूटहीं, हमर देश के करजा॥

 करे हवै जब विज्ञान प्रगति, शासन करै उपाये । 

सुख लेवय जीवन के किन्नर, उँकरो अंग बनवाये॥

जुगेश कुमार बंजारे

नवागाँव कला छिरहा बेमेतरा


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मुकेश  कुंडलिया छंद--- किन्नर (तृतीय लिंग)


होथें तीसर लिंग गा, किन्नर के समुदाय।

देखव सदा समाज हा, उन ला हे दुरिहाय।।

उन ला हे दुरिहाय, तभे तो अलगे रहिथें।

लोगन के अपमान, झेल के हरदम सहिथें।।

काय हमर हे दोष, सोच किन्नर मन रोथें।

नर अउ नारी देह, लिंग तीसर उन होथें।।


गारी खाथें रात दिन, कहाँ भला उन जाँय।

किन्नर हावय जान के, लोगन नइतो भाँय।।

लोगन नइतो भाँय, मारथे दुनिया ताना।

माँगे रुपिया दान, बजा ताली अउ गाना।।

गढ़े विधाता रूप, मिले हावय दुख भारी।

आनी बानी बोल, सबो झन देथें गारी।।




सरसी छंद-- किन्नर(तृतीय लिंग)  


किन्नर मन ला देवव सुग्घर, सब झन गा सम्मान।

हवय विधाता के सिरजन उन, हमरे कस इंसान।।


पढ़-लिख के उन बड़का-बड़का, करत हवैं सब काम। 

नेता अफसर डॉक्टर बनके, खूब कमावत नाम।।

ध्यान रखव सब कभू उँकर गा, झन होवय अपमान।

हवय विधाता के सिरजन उन, हमरे कस इंसान।।


पहिनावा हे नारी मन कस, लजकुर लागे चाल।

लोक लाज के डर मा घर ले, झन गा करौ निकाल।।

खड़ी हवय जी बोली भाखा, अउ अलगे पहिचान।

हवय विधाता के सिरजन उन, हमरे कस इंसान।।


भेदभाव ला छोड़ छाड़ के, कर लौ मया दुलार।

दुरिहावव झन अब समाज ले, रखव संग परिवार।।

किन्नर मन ला देवव सुग्घर, सब झन गा सम्मान।

हवय विधाता के सिरजन उन, हमरे कस इंसान।।



मुकेश उइके "मयारू"

ग्राम- चेपा, पाली, कोरबा(छ.ग.)


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हीरा गुरुजी समय *किन्नर-सार छंद*


हमर सनातन धरम शास्त्र हा, किन्नर ज्ञान कराथे। 

मनखे अउ देवता बीच के, ऐहा योनि कहाथे।


नर के काया पाय तभो ले, नारी रुप मा रहिथे।

हिजड़ा छक्का करबिन किन्नर, लोगन इनला कहिथे।


सतजुग ले जी किन्नर मन हा, मान गउन ला पावँय।

देव दनुज के सभागार मा, नाच नाच ये गावँय।


किन्नर आशीर्वाद पाय के, हावय महिमा भारी।

हे भगवान कभू कोनों हा, पाय इँखर झन गारी।


आशीर्वाद इँखर मनखे के, भाग बदल के रखथे।

छठ्ठी बरही बिहाव मउका, ठउँका एमन दिखथे।


द्वापर जुग मा सिखँडी बनके, भीष्म पितामह मारे।

किन्नर रूप धरे अर्जुन हा, एक बछर ल गुजारे।


देव अरावन इँखर देवता, पूजा जेखर करथें।

कुल देवी बचरा दाई हा, अँछरा सबके भरथे। 


नान्हे पन आकब नइ होवय, चेलिक मा चिनहाथे।

रेंगे बोले पहिरइ ओढ़इ, इनला अलग बनाथे।


आजकाल इखरों आदत हा, बिगड़त जावत हावे।

परेशान लोगन ला करथे, देखे ला नइ भावे।



हीरालाल गुरुजी"समय"

छुरा, जिला- गरियाबंद

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विजेन्द्र किन्नर-कुंडलिया 


सामाजिक अवहेलना,होथे बारंबारI  

लोगन मन के धारणा,किन्नर बर बेकारI 

किन्नर बर बेकार,नजरिया सबके होथेI 

करथे घृणा समाज, देख उकरो मन रोथेI  

जाय मनोबल टूट,तभो रहिथे स्वाभाविकI  

भेद भाव ला छोड़, बनालव गा सामाजिकII 


बोली भाखा हे खड़ी, अलगे अउ व्यवहारI

पहनावा अलगे दिखे, जइसे रोग विकारI 

जइसे रोग विकार, मानसिक के उन रोगीI 

किन्नर के समुदाय, फिरे अउ बनके जोगीI 

तिरस्कार अपमान, सहे किन्नर के टोलीI

रहन-सहन व्यवहार, खड़ी हे भाखा बोलीII  


नाँचय गाँवय रोज के, खुशियाँ सुघर मनायI 

परके खुशियाँ मा तको, जिनगी उकर सनायI 

जिनगी उकर सनाय,देख दुख होथे भारीI 

किन्नर के समुदाय, करय नइ चुगली चारीI  

जिहाँ मिले धन धान, उकर बर अशीष बाँचयI 

शादी तीज तिहार, बजा ताली दे नाँचयII


विजेन्द्र कुमार वर्मा 

नगरगाँव धरसीवां

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डी पी लहरे सरसी छन्द गीत


रंग रंग के ताना मारत, करथौ सब अपमान।

काबर नइ समझौ मनखे मन, इनला जी इंसान।।


छियालीस नंबर मनखे के, हावय क्रोमोसोम।

दू ठन क्रोमोजोम लिंग के, बाकी आटोड्रोम।।

एक्स-वाय से लड़का होथे, डाक्डर हा बतलाय।

एक्स-एक्स से लड़की होथे, एला समझे जाय।।

तीन एक्स अउ वाय-वाय ले, होथे जे संतान।

रंग रंग के ताना मारत, करथौ सब अपमान।


गर्भवती महिला हा रहिथे,परथे जब बीमार।

बच्चा दानी मा आ जाथे, हारमोंस के धार।।

तहाँ ट्राँस जेंडर हो जाथे, मन मा करौ-विचार।

इनला जम्मो मानौ संगी, हम सब के परिवार।।

रोजगार शिक्षा के मौका, इनला दौ पहिचान।

रंग रंग के ताना मारत, करथौ सब अपमान।

डी.पी.लहरे'मौज'

कवर्धा छत्तीसगढ़

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" किन्नर,""।   एक आल्हा 


नाचय गावय खुशी मनावय, देखव किन्नर के समुदाय।

लोगन के सब मन बहलावय, खुद के जिनगी भले सनाय ।।


अभिश्राप एक जिनगी बनगे, करथे जिनगी सॅंग तकरार ।

माॅंग माॅंग के जिनगी जीयय,नइहे कोनों जग रखवार ।।

देख देख के हाॅंसय लोगन, नइहे जिनगी के पतवार ।

भारी दुख ला सहिके जी थे, शील भाव बड़ नेक विचार ।।

बोली भाखा खड़ी बोलथे, चंदा जइसे रूप सजाय।

लोगन के सब मन बहलावय, खुद के जिनगी भले सनाय।।


मोर नजर ले देखव सबझन, किन्नर घलो आय विकलांग।

विकसित नइहे अंग देह के, चाहे होवय वो जननांग ।।

कुंठित श्रापित कहिथे सबझन, फिर भी रहिथे वो हर मौन।

ना नर हे ना वो हर नारी , फेर आय जी दोषी कौन।।

प्रश्न खड़ा हो जाथे मन में, यहू ल तो ईश्वर जन्माय ।

लोगन के सब मन बहलावय, खुद के जिनगी भले सनाय ।।


  संजय देवांगन सिमगा


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जगन्नाथ सिंह ध्रुव  कुंडलिया छन्द   - किन्नर 


हमरे जस मनखे इहाँ, किन्नर मन हा आय।

नर नारी दू रूप मा, जिनगी भर दुख पाय।

जिनगी भर दुख पाय, रोज दिन सुख बर तरसे।

दूसर बर आशीष, इँखर अँचरा ले बरसे।

इँखरो अँतस पीर, कभू कउनो नइ टमरे।

करव कभू झन भेद, भला सब करथे हमरे।।


जगन्नाथ ध्रुव घुँचापाली 

बागबाहरा

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ओम प्रकाश अंकुर किन्नर 

          (सार छंद)


ना नर हावय ना ये नारी, जिनगी लगय उधारी।

जिनगी गुजरॅंय भीख माॅंग के, होय समस्या भारी।।

 

लोगन ला रिझाय बर किन्नर, गावॅंय सुघ्घर गाना।

हरय अंग मानव समाज के, तभो सुने़ जी ताना।।

देय सजा प्रभु कोन जनम के, हे तलवार दुधारी।

जिनगी गुजरॅंय भीख माॅंग के, होय समस्या भारी ।।


हीनमान जब करथे मानव, होथय हक्का -बक्का।

कहिथे जब किन्नर ला छक्का, लगथे दिल ला धक्का।

दे अशीष जी सब ला किन्नर , तभो कहाय भिखारी।।

जिनगी गुजरॅंय भीख माॅंग के, होय समस्या भारी।।



रूप अर्धनारीश्वर सेती,करथे समाज ह घृना।

करव मान सब किन्नर मन के ,इन ला हावय जीना।।

तिमिर छाय जिनगी मा नंगत, बिरबिट रतिहा कारी।

जिनगी गुजरॅंय भीख माॅंग के, होय समस्या भारी।।



कोनो देवय रुपया -पैसा, कोनो देवय गारी।

बच के राहव सब किन्नर मन,घूमत हे बेपारी।।

"अंकुर" सुनाय किन्नर किस्सा, कतको फिरे शिकारी।।

जिनगी गुजरॅंय भीख माॅंग के , होय समस्या भारी।।


              - ओमप्रकाश साहू अंकुर 

                सुरगी, राजनांदगांव।

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गुमान साहू सार छन्द

।।किन्नर के दर्द।।


कइसे हम ला गढ़े विधाता, ना नर हन ना नारी।

बोर दिये जिनगी के नइया, काबर तैं मझधारी।


किन्नर छक्का जाने का-का, जग मा नाम धराये। 

घर परिवार सबो ले थोरुक, कमी हमर अलगाये।।

कोन जनम के दिये सजा तैं, हम ला अइसन भारी।

कइसे हम ला गढ़े विधाता, ना नर हन ना नारी।।


काम धाम सबले अलगाये, ये समाज हा काबर।

दुनिया ताना मार गड़ाये, जिया भीतरी साबर।।

दोष हमर नइहे तब ले, होथे कतका चारी।

कइसे हम ला गढ़े विधाता, ना नर हन ना नारी।।


दे ताली गा नाच बजाके, चलै हमर जिनगानी।

उठै सदा आशीष देय बर, हमर हाथ अउ बानी।

मनरंजन कर दान माँगथन, समझै लोग भिखारी।।

कइसे हम ला गढ़े विधाता, ना नर हन ना नारी।।


सबो बरोबर काया हमरो, लाल लहू हे रग मा।

जनन अंग के कमी बनाये, अलग हमन ला जग मा।।

नइ समझै विकलांग हमन ला, हे जग के लाचारी।

कइसे हम ला गढ़े विधाता, ना नर हन ना नारी।।


- गुमान प्रसाद साहू

- महानदी (समोदा)

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  चौपाई छन्द-किन्नर


किन्नर मनखे नइये जादा।

कोनो कहिथे ऐमन मादा।।


किन्नर मन के रहिथे टोली।

नारी  जइसे  होथे बोली।।


टेशन मा किन्नर मिल जाथे।

पैसा माँगत  जीथे   खाथे।।


समझव कइसे हे जिनगानी।

कहिथे जनता आनी-बानी।।


देख विधायक पार्षद सेवा।

जुर मिल के हिम्मत ला देवा।


किन्नर हिजड़ा कहिथे भाई।

बेटा  एके    बाबू     दाई।।


सुध  लेवा  भारत  के  नेता।

किन्नर मन वोट घलो देता।।


गुण सूत्र कहूँ होए आने।

किन्नर तन  मनखे मन जाने।।


राजकिशोर धिरही

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Om Prakash Patre सार छन्द गीत - किन्नर (२९०८२०२५)


जिनगी जीथें घूट-घूट के, दुख ला सहिथें भारी ।

किन्नर मन ला हिजड़ा कहिके, झन देवव गा गारी ।।


मनखे समझव मान रखव नित, बोलव गुरतुर बोली ।

दया- मया मा बाॅंधे राखव, कर लव हॅंसी ठिठोली ।।


पाप करम का उन कर डारिन, सोंचव नर अउ नारी ।

किन्नर मन ला हिजड़ा कहिके, झन देवव गा गारी ।।


नाच-गान मा उन पारंगत, सब के मन ला भाथें ।

माॅंग-माॅंग के पइसा कौड़ी, जिनगी अपन बिताथें ।।


किन्नर के समुदाय बने हें, का करबे लाचारी ।

किन्नर मन ला हिजड़ा कहिके, झन देवव गा गारी ।।


मान इरावन ला कुल देवा, इक दिन ब्याह रचाथें ।

विधवा बन के शोक करॅंय उन, रो - रो हाल सुनाथें ।।


सुख दुख मा ताली ला ठोकॅंय, किरपा कर गिरधारी ।

किन्नर मन ला हिजड़ा कहिके, झन देवव गा गारी ।।


✍️छन्दकार व गीतकार 🙏

ओम प्रकाश पात्रे 'ओम '

ग्राम - बोरिया, जिला - बेमेतरा (छत्तीसगढ़)

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आल्हा छंद- *किन्नर*


दुख भारी हे किन्नर मन के, पग-पग बगरे ताना शूल।

देह गढ़े प्रभु अइसे काबर, कोंन जनम के होगे भूल।।


किन्नर जान अपन ललना ला, मूरत बन माँ होय निढाल।

लोक लाज मर्यादा खातिर, देथें तब घर गाँव निकाल।।

मनखे ला मनखे नइ समझे, हे धिक्कार समाज उसूल।।

दुख भारी हे किन्नर मन के, पग-पग बगरे ताना शूल।।


ना नर मा हे ना नारी मा, गिनती इँखरो आज समाज।

हेय नजर ले देखय मनखे, रोज गिराये दुख के गाज।।

मिले अनादर जग मा सब ले, करथे हँसके तभो कबूल।

दुख भारी हे किन्नर मन के, पग-पग बगरे ताना शूल।।


रूप अर्धनारीश्वर पाये, पाये अलगे हे पहिचान।

जिंखर दुवा मा हवय समाये, सारी दुनिया के कल्यान।।

ममता के अँचरा मा राखे, रहिथे जे हा सुख के फूल।।

दुख भारी हे किन्नर मन के, पग-पग बगरे ताना शूल।।


✍🏻इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"

बिलासपुर (छत्तीसगढ़) 

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मीता अग्रवाल किन्नर 


जिंनगी बीतय नाच गा, काला देवय दोष।

सामाजिक सम्मान बर, कलपे मन मा रोष।।


ईश्वर के वरदान ले,

तरसे किन्नर जात।

नर-नारी दूनों नहीं,लिंग भेद के बात।।


जनन अंग के हे कमी,समझव झन विकलांग।

मात-पिता भी त्याग दें,खावय घर-घर मांग।।


किंदर किंदर रहवास हे,मिलथें ताना मान।

हमर दुआ आसीस ले,फरय फुलय संतान।।


सुख-दुख सब्बो संग मा, घर-घर गाथे गीत।

ढोंलक ताली ताल दे, 

बाँटय सब ला प्रीत।।


संत असन ज़िनगी सदा, सुख-दुख के संज्ञान।

परिवर्तन के जोर हे,खोजत देह विज्ञान।।


होत जागरुक जन  हवे,पढ़-लिख दे सरकार।

आज हवय हर क्षेत्र मा, किन्नर के अधिकार।।


काल चक्र के फेर मा, बदलिस ज़िनगी चाल।

सावचेत जिनगी जिए, किन्नर मनखे भाल।।


मीता अग्रवाल मधुर रायपुर छत्तीसगढ़

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दीपक निषाद, बनसांकरा *आल्हा छंद--किन्नर* 

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का गलती ए किन्नर मन के,विधना अउ कुदरत के दोष।

बिन अपराध सजा कस जिनगी,तबहो ले रखथें संतोष।।

हिजड़ा-छक्का सदा कहावयँ,अउ झेलयँ गारी अपमान।

नफरत  भरे नजर  सब  कोती,का एमन  नोहय  इंसान।।

घर- घर  जायँ  बधावा दे  बर,ताली इँकर  हरय  पहिचान।

ढोलक पीटयँ सोहर गावयँ,दँय असीस गावयँ गुनगान।।

फेर बदलगे चलन आजकल,मांगयँ जबरन जोर लगायँ।

होवयँ परेशान कतको झन,कतको झन के जी करलायँ।।

जोर- जबर्दस्ती ले बाँचयँ,खुश  हो  के  धर  लेवँय दान।

अइसन कोनो काम करयँ झन ,होवन दयँ खुद के हिनमान।।

दुखिया एमन अपन जनम के,काबर लोगन हँसी उड़ायँ।

प्रतिभा अउ योग्यता मुताबिक,अवसर काम बुता के पायँ।।

औरत- मरद दुनों  ले हटके,लिंग तृतीय  इँकर तकदीर।

मिलय उचित दर्जा समाज मा, थोरिक तो बदलय तस्वीर।।


दीपक निषाद--लाटा (बेमेतरा)

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अश्वनी कोसरे  वीर छंद - किन्नर


किन्नर मन राजा के रानी, सजत रहिस मुड़ उनकर ताज|

सत्ता के उन दासी बन के, करे हवँय शासन अउ राज||


सुने हवन मन मोहिन बनके, कोन करे हे बड़का काम|

ढोल बजाके शिक्षा देहे, ब्रीहिनला जग मा हे नाम||


युद्ध महाभारत के जानौ, श्रीखंडी किन्नर हे नाम|

बने प्रमुख हे सेना दल के, भीष्म पितामह ला दिस थाम||


किन्नर के इतिहास बता थे, रूप रंग ले पावँय मान|

नाचँय ढोल बजा के कोनो, तब मनखे मन देवँय दान||


किन्नर जोनी पाप कहाँ हे, जश के कारज उँकरे नाम|

शादी छट्ठी सुख के बेरा, उन मनखे के आथें काम||


जनम धरै जब बाल रूप मा, सूत्र गुणन के राहय दोष|

ओदर मा जब महतारी के, रचना गति मिलावँय कोश||


भीतर - पीतर कमती होगे, संरचना बाहर के सोह|

जिनगी जनम बदलगे मउका, लिंग पिण्ड मा होगे खोह||


किन्नर अइसन दोषन उपजे, पर जग मा हे बड़का रोल|

जीव जगत मा कतको जोनी, दुर्लभ अउ हावँय अनमोल||


जोंक केचुवा घोघी मछरी, मन मा हे किन्नर कस रोग|

फूल फरे हें पौधा कतको, संततिबर करथें संजोग||


अश्वनी कोसरे 'रहँगिया' कवर्धा कबीरधाम छ. ग.

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पद्मा साहू, खैरागढ़  *किन्नर*

                (कुण्डलिया)


होथे  जैविक  ढंग  ले,  लिंग  भेद  जननाँग।

जन्मजात जेकर अलग, दिखथे रूप सवाँग।।

दिखथे  रूप   सवाँग,  अर्धनारीश्वर   जइसे।

हिजड़ा  छक्का  नाम, पड़े  हे  कइसे-कइसे।

सुनके  अइसन  नाम, हृदय  किन्नर  के रोथे।

चाल-ढाल अउ बोल,अजब छक्का के होथे।।



लेथे  जे   हर   बलइया,  देथे  बधई   सीख।

पेट  भरे  बर  माँगथे, वो हा घर-घर  भीख।।

वो हा घर-घर  भीख, नाच  गाके  जी  पाथे।

ताली  जेकर  साज, नाम  किन्नर  कहिलाथे।

जेला  हमर  समाज,  उपेक्षा  के  दुख   देथे।

पाए  बर  सम्मान, कष्ट  हिजड़ा  सहि लेथे।।

 

           रचनाकार

  डॉ पद्‌मा साहू *पर्वणी* खैरागढ़

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 अशोक कुमार जायसवाल *बरवै छंद*

*किन्नर*

 ना नर  ना नारी ते,किन्नर आय |

गढ़े विधाता जेला,मनखे ताय ||


नाचय गावय अउ कर,ताल बजाय |

हाय -हाय के धूनी, अबड़ लगाय ||


लिखे वेद मा किन्नर, मन के बात |

दानव गंधर्व नाग, सुर सहँरात ||


छठ्ठी बर बिहाव के, बेरा आय |

येकर पाँव रखत ही ,शुभ हो जाय ||


जात पात हर नइये, किन्नर नाँव |

मया पिरित मा राहय,सुख के छाँव ||

 

अशोक कुमार जायसवाल 

भाटापारा

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Jaleshwar Das Manikpuri  किन्नर दोहा 

इज्जत गजब उछालथे, करथे कतको तंग।

किन्नर के का कायदा,छिन- छिन बदले रंग।।

फुहर -फुहर गारी बकय,रहय घलो परिवार।

किन्नर मन नगते तपय ,अलकरहा व्यवहार।।

मन से देना दान हे,करे दान मा धौंस।

किन्नर के का कायदा, वचन करै ना  हौस।।


जलेश्वर दास मानिकपुरी ✍️

    🙏  मोतिमपुर बेमेतरा 🙏

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नंदकिशोर साव  साव लावणी छंद - किन्नर 


सतयुग त्रेता द्वापर युग मा, महिमा इनकर सब गावँय।

किन्नर मन हा आज देख लौ, कलियुग मा मान न पावँय।।


आधा नर अउ आधा नारी, तन धर जनम ल इन पाइस ।

अर्धनारीश्वर उमा शिव के, चिनहा इनमन कहलाइस।।

देव लोक मा देवन जइसन, होथे किन्नर के गनती।

गायन वादन इन ला प्रिय हे, नइ हे कोन्हो ले कमती।।

अर्जुन संगीत गुरू बनके, नाच गान शिक्षा देइस ।

राजसभा राजा विराट के, किन्नर बन जिनगी सेइस ।।

श्री राघव के पा शुभाशीष, शुभ कारज मा बुलवावँय।

किन्नर मन हा आज देख लौ, कलियुग मा मान न पावँय।।



जनम धरे हे उभयलिंग मा, का हे गलती जी इनकर।

दुनिया मा आदर जब पाहीँ, सँवर जही जिनगी उनकर।।

लइका जनमन छट्ठी बरही, शुभ के बेरा जब पावय।

पाए बर आशीष ल किन्नर, के दल मन सुरता आवय।।

ताली मंगल गीत बजाके, नाच गान करथे परसन।

शुभ इनकर मान बड़ाई मा, रुपिया पइसा कर अरपन।।

माँग जोंग के जिनगी भर ये, दो जुन के रोटी खावँय।।

किन्नर मन हा आज देख लौ, कलियुग मा मान न पावँय।।



खड़ा हवय उन भाषा बोली, व्यवहार अलग जी होथे।

अलगे इनकर समाज हावय, अपने जिनगी मा खोथे।।

नेता अफसर बन के अपने, सपना जी सब ल पुराइस।

पर समाज में किन्नर मन के, वो आदर नइ हो पाइस।।

कोन करम के फल सरूप जी, किन्नर के जनम ल पाथे।

कभू देव मा गनती होवय, अब तीसर जाने जाथे।।

देवव आदर यहू लिंग ना, कोन्हो झन हँसी उड़ावँय।।

किन्नर मन हा आज देख लौ, कलियुग मा मान न पावँय।।


नंदकिशोर साव 'नीरव' राजनांदगाँव 

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ज्ञानू कवि विषय - किन्नर, तीसर लिंग 

विधा दोहा 


आवय मनखे रूप इन, समझौ झन अभिशाप|

किन्नर तीसर लिंग हे, कोन जनम के पाप||


कोन जनम के पाप ला, भोगत हे भगवान| 

नरनारी के बीच मा, इँखर बने पहिचान||


इँखर बने पहिचान हे, घूम- घूम माँगय नोट|

देवय आशिष अउ दुआ, नइ राखय मन खोट||


नइ राखय मन खोट इन, नाचय- गावय रोज|

नकली कतको हे तको, सही गलत ला खोज||


सही गलत ला खोज के, देवय मया दुलार|

मिले इहू मन ला हवै, सामाजिक अधिकार||


ज्ञानु

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Anuj छत्तीसगढिया *किन्नर  सरसी छंद*

किन्नर मन घर के सदस्य हें, नोहे एमन आन।

हीन भावना ले झन देखव, इनला देवव मान।


गाँव-शहर अउ गली-खोर मा, माँगत रहिथें भीख।

पढ़ा लिखा दौ किन्नर मन ला, बढ़िया देवव सीख।।

आज इँखर से नाता जोड़व, एहू मन इंसान।

हीन भावना से झन देखव, इनला देवव मान।।


अवसर देवव रोजगार के, तब तो पाहीं काम।

आघू बढ़ही जब किन्नर मन, तभे कमाहीं नाम।।

ताना देहे बर छोड़व अब, हे समाज के शान।

हीन भावना ले झन देखव, इनला देवव मान।।


*अनुज छत्तीसगढ़िया*

*पाली जिला-कोरबा*

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नीलम जायसवाल *छन्न पकैया छन्द*


*किन्नर*


छन्न पकैया-छन्न पकैया, श्राप जगत हा मानै।

जेखर घर के लइका किन्नर, उही ये दुख ला जानै।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, मन मा भरे निराशा।

सब झन बेटा-बेटी माँगय, करैं न किन्नर आशा।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, शर्मिंदा हो जाथे।

जेखर घर मा जनम ल धर के, किन्नर लइका आथे।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, बचपन मा नइ लागे।

कुछ लइका मा लक्षण दिखथे, जस-जस बाढै आगे।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, किन्नर के दुख भारी।

नर-नारी से अलगे होवय, इँखर घलो चिनहारी।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, किन्नर ताली मारै।

मांँगै खावै घर-घर जावै, गीत बधाई पारै।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, जिनगी मुश्किल हावै।

सौ दुश्मन के दुश्मन भइया, किन्नर जनम न पावै।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, भूल प्रकृति के कहिथे।

कानूनी हक मिले हे थोकिन, किन्नर बड़ दुख सहिथे।।


छन्न पकैया-छन्न पकैया, मुख्य धार मा आही।

परंपरा ला छोड़ के किन्नर,जब गा पढ़-लिख जाही।।


*नीलम जायसवाल, भिलाई, छत्तीसगढ़*

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तातुराम धीवर  ।।दोहा छ्न्द।।


जग मा किन्नर के सखा, देंह लगे हे घात।

दूनों मा एको नहीं, महिला न पुरुष जात।।


खड़ी खड़ी बोली रथें ,अलग रथें व्यवहार।

अलग रेंगना हे रथें, आय दूर चिनहार।।


कथा पुराण कहे सुनो, किन्नर देवन आय।

खुश राखे सब देवता, गीत संगीत बजाय।।


भेव करत सब आज हे, मयला होगे भाव।

किन्नर के समुदाय ला, कर दिन हे अलगाव।।


अधनारीश्वर रूप हे, हम सब ला स्वीकार।

फेर कहव कइसे हवै, किन्नर मन बेकार।।


सबो छेंड़थें स्कूल मा, पढ़े लिखे नइ जाय।

गाँव समाजिक लोग हे, हिजड़ा कहि दुर्राय।।


किन्नर ला प्रिय हे सबो, करयँ नहीं वो जंग।

काबर करथें लोग हें, अपमानित अउ तंग।।


भारी दुख हे झेल थें, ये किन्नर समुदाय।

कोन जनम अउ करम के, हावय दोष लदाय।।


नर के तन मा हे फँसे, नारी के गुण चाल।

थिरक थिरक के नाच थें, सुग्घर दे दे ताल।।


रुपया आवक के बचें, हावय दू आधार।

भीख माँगना हे परे, या त देंह व्यापार।।


बइठे आँखी मूँद के, रहव नहीं सरकार।

किन्नर रहे समाज मा, हो विधान इक सार।।


      तातु राम धीवर

भैसबोड़ जिला धमतरी

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