घाट न घर के-रोला छंद
छोटे मोटे काम, गिनावय कर बड़ हल्ला।
श्रेय लेत अघुवाय, श्राप सुन भागय पल्ला।।
खुद के खामी तोप, उघारय गलती पर के।
अइसन मनखे होय, कभू भी घाट न घर के।।
सोंचे समझे छोड़, करे मनमानी रोजे।
पर के ठिहा उजाड़, अटारी खुद बर खोजे।।
झटक आन के अन्न, खाय नित उसर पुसर के।
अइसन मनखे होय, कभू भी घाट न घर के।।
दाई ददा ल छोड़, नता के किस्सा खोले।
मीठ मीठ बस बोल, जहर सब कोती घोले।।
कभू होय नइ सीध, रहे अँइठाये जरके।
अइसन मनखे होय, कभू भी घाट न घर के।।
रखे पेट मा दाँत, खोंचका पर बर कोड़े।
अवसर पाके पाँव, गलत पथ कोती मोड़े।
पहिर स्वेत परिधान, चले नित कालिख धरके।
अइसन मनखे होय, कभू भी घाट न घर के।।
घर के भेद ल खोल, मान मरियादा बारे।
आफत जब आ जाय, रहे देखत मुँह फारे।।
बरसे अमरित धार, फुले तभ्भो नइ झरके।
अइसन मनखे होय, कभू भी घाट न घर के।।
पापी बनके पाप, करे अउ लेवय बद्दी।
जाने नही नियाव, तभो पोटारे गद्दी।।
दानवीर कहिलाय, आन के धन बल हरके।
अइसन मनखे होय, कभू भी घाट न घर के।।
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को,कोरबा(छग)
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