लावणी छंद-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
धरती दाई
जतन बिना धरती दाई के, सिसक सिसक पड़ही रोना।
पेड़ पात बिन दिखे बोंदवा, धरती के ओना कोना।।
टावर छत मीनार हरे का, धरती के गहना गुठिया।
मुँह मोड़त हें कलम धरइया, कोन धरे नाँगर मुठिया।
बाँट डरे हें इंच इंच ला, तोर मोर कहिके सबझन।
नभ लाँघे बर पाँख उगा हें, धरती मा रहिके सबझन।
माटी ले दुरिहाना काबर, आखिर हे माटी होना।
जतन बिना धरती दाई के, सिसक सिसक पड़ही रोना।।
दाना पानी सबला देथे, सबके भार उठाय हवै।
धरती दाई के कोरा मा, सरी संसार समाय हवै।
मनखे सँग मा जीव जानवर, सब झन ला पोंसे पाले।
तेखर उप्पर आफत आहे, कोन भला ओला टाले।
धानी रइही धरती दाई, तभे उपजही धन सोना।
जतन बिना धरती दाई के, सिसक सिसक पड़ही रोना।
होगे हे विकास के सेती, धरती के चउदा बाँटा।
छागे छत सीमेंट सबे कर, बिछगे हे दुख के काँटा।
कभू बाढ़ मा बूड़त दिखथे, कभू घाम मा उसनावै।
कभू काँपथे थरथर थरथर, कभू दरक छाती जावै।
देखावा धर मनुष करत हे, स्वारथ बर जादू टोना।
जतन बिना धरती दाई के, सिसक सिसक पड़ही रोना।
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को, कोरबा(छग)
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