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Sunday, January 29, 2023

बसंत ऋतु विशेष छंदबद्ध रचना


 बसंत ऋतु विशेष छंदबद्ध रचना


मनहरण घनाक्षरी------


बसन्ती बहार आगे, जाड़ा घलो दुरिहागे ।

रूख राई धीर लगे, पाना ल झर्रात हे। 


परसा ह फूले माते, सरसों ह बेनी गाँथे।

आँमा ह मँउर बाँधे, मँउहा गर्रात हे। 


गाँव बस्ती झूमे पारा, हरियागे लीम डारा। 

पुरवाही बहे न्यारा, गस्ती बिजरात हे। 


बड़ माते गउँहारी, चना खेत सँगवारी। 

घुँघरू के धुन भारी, आरो बगरात हे। 


नँगारा के ताल मा जी,अबीर गुलाल मा जी। 

फगुवा के तान मा जी, फागुन सर्रात हे। 


प्रेम रँग घोरे हावे, सबला चिभोरे हावे। 

जवानी के का ला कबे, बुढ़वा रिझात हे। 


पँड़की परेवा मैना, सुवा बोले मीठ बैना। 

नदिया पहाड़ सँग, डोंगरी लुभात हे। 


कइली ह राग धरे, मन म उमँग भरे। 

छंद नवा गीत राग, कवि सिरजात हे। 


         राजकुमार चौधरी "रौना" 

          टेड़ेसरा राजनांदगांव 

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 सार छन्द गीत 

विषय-बसंत

ऋतु बसंत के आये ला जी,बउरागे अमराई।

मौसम हा मन भावन होगे,जन-जन बर सुखदाई।।


परसा फुलवा लाली लाली,सरसो फुलवा पिंवरा।

ममहावत हे चारो कोती,भावत हावय जिंवरा।।

रंग बिरंगा फुलवा मन के,नीक लगे मुस्काई।।

ऋतु बसंत के आये ला जी,बउरागे अमराई।।


कुहके कारी कोयलिया हा,मारत हावय ताना।

फूल फूल मा झूमे नाचे,भौंरा गावय गाना।।

तन मन ला हरसावय अब्बड़,फुरहुर ए पुरवाई।

ऋतु बसंत के आये ला जी,बउरागे अमराई।।


फागुन के आये के अब तो,होगे हे तइयारी।

गाँव गली मा ढ़ोल नँगारा,चलही जी पिचकारी।।

रंग लगाही हँसी खुशी ले,होही बड़ पहुनाई।।

ऋतु बसंत के आये ला जी,बउरागे अमराई।।


डी.पी.लहरे"मौज"

कवर्धा छत्तीसगढ़

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*बसंत ऋतु - त्रिभंगी छंद*-


(1)

सुग्घर पुरवाई,बड़ सुखदाई,चलै बसंती,जोर इहाँ।

आमा मउरागे,बन हरियागे, ममहावै सब,ओर इहाँ।।

कोकिल के बोली,हँसी ठिठोली,सँगी जहुँरिया,हास करै।

बिरहिन के मन मा,भभकै तन मा,मया प्रीत हा,वास करै।।


(2)

भुइयाँ के अँचरा,नइ अब कचरा,सुग्घर अँगना,द्वार लगै।

परसा के लाली,मन मतवाली,पहिरे गर मा,हार लगै।।

पंछी सब गावय,मन ला भावय,उड़ै अगासा,छोर घलो।

फागुन के होरी,छोरा छोरी,बँधे मया के,डोर घलो।।


(3)

सुग्घर पुरवइया,देखव भइया,आमा लहसत,मउर भरे।

बन परसा लाली,फूल गुलाली,सबो डोंगरी,ठउर भरे।।

सरसो लहरावय,मन ला भावय,कोयल गावय,गीत बने।

अउ सँगी जहुँरिया,मया पिरितिया,लगन लगावै,मीत बने।।


(4)

सरस्वती दाई,करै सहाई,एखर पूजा,लोग करै।

फल बोइर हरियर,सरसो नरियर,चना गहूँ जौं,भोग करै।।

हर्षित सबके मन,कुलकत जन-जन,होरी मानय,रंग बने।

इहि परब फाग के,मया राग के,गावय गाना,संग बने।।


(5)

ऋतु बड़ मनभावन,सुघर सुहावन,मन हर्षित चहुँ,ओर लगै।

पाना हरियावत,खार लुभावत,सबो डोंगरी,छोर लगै।।

परसा के लाली,गेहूँ बाली,अरसी सरसो,फूल फभे।

अमुवा के डारा,लहसे झारा,मउर आम के,झूल फभे।।


(6)

कोयल के बोली,हँसी ठिठोली,गुरतुर सुग्घर,बास करै।

भँवरा मँडरावय,तितली गावय,फूल-फूल मा,रास करै।।

नदिया के पानी,कहै कहानी,कल-कल-कल-कल,धार बहै।

भुइयाँ हरियाली,मन खुशहाली,मया पिरित के,लार बहै।।


(7)

रुखवा हरियागे,फागुन आगे,परसा लाली,फूल झरै।

आगी कस दहकै,डोंगर महकै,सेम्हर देखव,झूल परै।।

मधुबन कस सोहै,मन ला मोहै,ये अमरइया,छाँव इहाँ।

कोयल के गाना,मारै ताना,बिरहिन मन के,नाँव इहाँ।।


(8)

सुग्घर निक लागै,आशा जागै,बाग बगइचा,ठउर इहाँ।

सरसो हा माते,अरसी हाँसे,झूलै आमा,मउर इहाँ।।

होरी के सुरता,पहिरे कुरता,रंग मया के,खेल इहाँ।

अउ सब नर नारी,धर पिचकारी,करै सबो ले,मेल इहाँ।।


(9)

आगे ऋतु राजा,बजगे बाजा,ढोल नँगारा,रंग उड़ै।

परसा के लाली,हो मतवाली,थिरकत जम्मों,अंग उड़ै।।

आमा मउरागे,तन बउरागे,कोकिल कुहकत,डार हवै।

डोंगर सब साजे,सरग बिराजे,दुल्हिन जइसन,खार हवै।



छंदकार:-

बोधन राम निषादराज"विनायक"

सहसपुर लोहारा,जिला-कबीरधाम(छ.ग.)

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: दोहा छन्द गीत

विषय- बसंत


ऋतु बसंत हा आय हे,मन मा भरे उलास।

उजरत जंगल देख के,मन ला करय उदास।।


खोजे मा अब नइ मिले,हरियर हरियर बाग।

चट-चट धरती हा जरे,कोन लगादिस आग।।

कभू सुने ला नइ मिले,कोयलिया के राग।

फुलवा बिन भौरा कहाँ,इँखरो फुटगे भाग।।

धुँवा-धुँवा धरती लगे,नइ हे कहूँ उजास।

ऋतु बसंत हा आय हे,मन मा भरे उलास।।(१)


फुरहुर पुरवाही बिना,साँसा घुटते जाय।

इहाँ बसंत बहार हा,अब कइसे रह पाय।

देख कारखाना इहाँ,जघा-जघा मा छाय।

जन जीवन बेहाल हे,कइसे जीहीं हाय।।

लटपट कटथे रात हा,नइ हे दिन हा खास।

ऋतु बसंत हा आय हे,मन मा भरे उलास।।(२)


डी.पी.लहरे"मौज"

कवर्धा छत्तीसगढ़

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 बसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएँ

बसंत आय हे-मनहरण घनाक्षरी

(1)

उलहा डारा पाना हे,कोयली गावै गाना हे,

गमकत दमकत,बसंत हा आय हे।

मउँरे अमुवा डाल,परसा फूले हे लाल,

अंतस मारे हिलोर,खुशी बड़ छाय हे।।

बाँधय मया के डोरी,दाई सुनावय लोरी,

झूमत मन मँजूर,पाख फइलाय हे।

चना सरसों तिंवरा,देख जुड़ाय जिंवरा,

मउँहा मतौना बने,गंध बगराय हे।।


(2)

परसा सेम्हर डाल,अँगरा बरत लाल,

मुचमुच हाँसे गोंदा,बड़ बिजरात हे।

ताल मा खिले कमल,सुघर दल के दल,

मया रंग भर रति,रस बरसात हे।।

बोहाय मया के रंग,मन मा जागे उमंग,

पींयर पींयर पात,पुरवा झर्रात हे।

ताल तलैया के नीर,देख के भागय पीर,

ऋतु बसंत हा आय,खुशी बड़ छात हे।।

विजेन्द्र वर्मा

नगरगाँव(धरसीवाँ)

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: रोला छन्द


बसंत



आवत देख बसंत, पेड़ मन हाँसन लागें। 

 पुरवा दे आनन्द, शीत के ताप भगागे।। 

सुन महुआ के गोठ, हवा भी होय मतौना। 

लगय प्रकृति ला देख, होत दुलहिन के गौना।।1



ऋतुराजा के राज, सबो के मन ला भाये। 

मन मा भरे उमंग, जगत के मन हरषाये।। 

अरसी ला तो देख, नील मणि धरके बइठे। 

गहूँ घलो इतराय, सोन ला पहिने अंइठे।।2


सातों सुर जुरियांय, कोयली के सुन गाना। 

पुचूर पुचुर इतरात, डोलथें डारा पाना।। 

परसा ला झन पूछ, रंग के करय तियारी। 

फाग _राग के संग, खुशी मारे पिचकारी।। 3



बिना राग संसार, रहिस हे निच्चट कोंदा। 

माँ  वाणी ला देख,खिलें सरसों अउ गोंदा। 

सजे प्रकृति के अंग, सुघड़ सब गहना गूंठा। 

जगत बने धनवान, बटोरे मूंठा मूँठा।। 4


कामदेव , ऋतुराज, दुनो के हवय मिताई। 

फूल पान परघाँय, सुघर गहदे अमराई। 

नहा धोय कस आय, हवा धरके मम हाती। 

बिरहिन के दुख जाय, सजन के पढ़के पाती। 5


दे बसंत संदेश, जगत मा सुख ला बाँटव। 

मन मा भरव उमंग, द्वेष कंकर ला छाँटव।। 

सुखी रहय संसार, जतन कुछ अइसन करलव। 

रहव रंग के संग, खुशी से ओली भरलव।।6



आशा देशमुख

एनटीपीसी जमनीपाली कोरबा

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*दोहा*

*बसंत*


माते बगिया फूल ले, ऋतु बसंत जब आय।

भौंरा तब गुनगुन करय, माली के मन भाय।। 


बोले कारी कोयली, गीत मया के गाय।

कूदे आमा डार मा, जब बसंत ऋतु आय।। 


आय बसंती झूमके, मउहा माते फूल।

लठ-लठ फूले डार मा, जइसे झूले झूल।।


*हरिगीतिका छंद*

              *आगे बसंती*


आगे बसंती झूम के अब, देख जोही बाग ला।

ये पेड़ के पतझड़ हवा हा, शोर देवत फाग ला।।

चंपा-चमेली रातरानी, मन बने भावत हवें।

अउ देख भौंरा मन मया के, गीत ला गावत हवें।।


आमा घलो हा मउरगे हे, टीप थाँही डार मा।

बोलत हवय रे कोयली हा, पेड़ बगिया खार मा।।

सोना सही रे फूल सरसों, खेत मा फूले हवे।

अउ देख मउहा फूल हाँसत, थाँह मा झूले हवे।।


*अनुज छत्तीसगढ़िया*

*पाली जिला कोरबा*

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*कुकुभ छंद----- ऋतु बसंत आगे*


बड़ मनभावन लागे संगी, ये ऋतु बसंत हा आगे ।

कोंवर-कोंवर उलहा डारा, रुख राई सुग्घर लागे ।।


झूमत हावय परसा लाली, जाड़ घलो अब दुरिहागे ।

फूल धरे सरसों हा पिंवरा, अमराई  हा  मउरागे ।।


कुहके कोयल डार-डार मा, लागे अब्बड़ सुखदाई ।

भँवरा गुनगुन गाना गावय, अउ चलै पवन पुरवाई ।।


धरती मा हरियाली छागे, झुमरय अरसी के बाली ।

पींयर- पींयर गोंदा फूले, अउ फुलगे सेम्हर लाली ।।


देख सखा ये ऋतु बसंत ला, दुल्हिन कस धरती लागे ।

खेत खार अउ का बन उपवन, चारो कोती हरियागे ।।


रंग बिरंगी तितली मन हा, फूल-फूल तिर मँडराये ।

मौसम होगे बने लुभावन,  सबके मन ला ये भाये ।।


हरियर-हरियर बने दिखत हे, चना गहूँ के उँनहारी ।

फगुवा रंग उड़ावत हावय, मारे भर- भर पिचकारी ।।


फाग गीत के शोर सुनाये, अउ ढोल नँगारा बाजे ।

ऋतु राजा ला देख प्रकृति हा, अंग-अंग सुग्घर साजे ।।



*मुकेश उइके "मयारू"*

ग्राम- चेपा, पाली, जिला- कोरबा(छ.ग)

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- *बसंत*

विधा - सार छंद गीत

~~~~~~~~~~~~~

बाँध बोरिया बिस्तर अब तो, जाड़ा सरपट भागे।

राजा कस सज-धज के सुग्घर, ऋतु बसंत हा आगे।।


जुन्ना पाना झर्रावत हें, अब जम्मो रुखराई।

नवा पान फर फूल मिलेके, आस लगे हे भाई।

राग बसंती गावत सरसर, पवन घलो बउरागे।

राजा कस सज-धज के सुग्घर, ऋतु बसंत हा आगे।।


आमा मउरे अमली लहसे, मउहा फुले मतौना।

महर-महर बारी बखरी ला, महकावत हे दौना।

ओढ़ पियर सरसों के अचरा, भुइयाँ दुलहिन लागे।

राजा कस सज-धज के सुग्घर, ऋतु बसंत हा आगे।।


जंगल मा जस अँगरा दहकत, परसा के सुघराई।

रंग बसंती छाये सब मा, झूमय धरती दाई।

सुन कोकिल के तान सुहावन, अमरैया हरसागे।

राजा कस सज-धज के सुग्घर, ऋतु बसंत हा आगे।।



       *इन्द्राणी साहू"साँची"*

      भाटापारा (छत्तीसगढ़)

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गीत-आइस नही बसंत(सरसी छन्द)


आइस नही बसंत सखी रे, आइस नही बसंत।

करे कोयली का अमुवा बिन, कांता हा बिन कंत।।


बिन फुलवा के हावय सुन्ना, मोर जिया के बाग।

आसा के तितली ना भौरा, ना सुवना के राग।।

हे बहार नइ पतझड़ हे बस, अउ हे दुःख अनंत।

आइस नही बसंत सखी रे, आइस नही बसंत।।


सनन सनन बोलय पुरवइया, तन मन लेवय जीत।

आय पिया हा हाँसत गावत, धर फागुन के गीत।।

मरत हवौं मैं माँघ मास मा, पठो संदेश तुरंत।

आइस नही बसंत सखी रे, आइस नही बसंत।।


देख दिखावा के दुनिया हा, बैरी होगे मोर।

छीन डरिस सुख चैन पिया के, काट मया के डोर।

पुरवा पानी पियत बने ना, आगे बेरा अंत।

आइस नही बसंत सखी रे, आइस नही बसंत।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

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: प्रदीप छन्द (16-13)

                    *रितु बसंत*


हरियागे सब रूख-रई मन, चिकनागे अब बाट हा।

पा गे लगथे नवा जवानी, गाँव-गाँव के हाट हा।

अमरइया के का कहना जी, मउरे हावय नेत मा।

रितु बसंत हर छागे देखो, बाग-बगइच्चा खेत मा।।


कमती होगे जल तरिया के अउ नदिया के धार हा।

झूमत हावय दलहन तिलहन, मन मोहत हे खार हा।

भँवरा बइहा कस गावत हे, लगथे नइहे चेत मा।

रितु बसंत हर छागे देखो, बाग-बगइच्चा खेत मा।।


चलत हवे अब पुरवइया हर, फरगे तेंदू चार हा।

चारों-कोती सरग बरोबर लागत हे संसार हा।

महकत हावय फुलवारी हर, जाड़ भगागे प्रेत मा।

रितु बसंत हर छागे देखो, बाग-बगइच्चा खेत मा।।


शोभा देखत धीरन होगे, सुरुज देव के पाँव हा।

मन ला अड़बड़ भावत हावय, पंछी के चिंव-चाँव हा।

लाल लाल परसा के डाली, फूल खिले हे नेत मा।

रितु बसंत हर छागे देखो, बाग-बगइच्चा खेत मा।।


                   राम कुमार चन्द्रवंशी

                   बेलरगोंदी (छुरिया)

                   जिला-राजनांदगाँव

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 लावणी छंद 


अमुआ के ड़ारी कोयलिया, कुहू कुहू कहि के  गाथे।

आगे हवे बसंत जहुँरिया,  तोरे सुरता हा आथे।


बाग बगीचा हरियर हरियर,फूले रंग रंग  फुलवा।

मेला मड़ई जगा जगा हे,झूली लेते हम छुलवा।

किसम किसम के खई खजानी,सब झिन मिल जुर के खाथे।

आगे हवे बसंत जँहुरिया, तोरे सुरता हा आथे।


अरसी घुँघरू बाँधे नाचे ,अमुआ  मौरत हे लागे।

सोना बाली गेंहू लहसे,पुरवइया हा बौरागे।

तोर बिना मन सुन्ना लागे,अँसुवन धारा बोहाथे।

आगे हवे बसंत जँहुरिया,तोरे सुरता हा आथे।


पींयर पींयर परसा फूले,साधू संतन कस लागे।

पींवर लुगरा सरसो ओढ़े,मोरो मन हा ललचागे। 

आ जा संगी लिये बरतिया, मोरो मन गाना गाथे।

आगे हवे बसंत जँहुरिया तोरे सुरता हा आथे।


केवरा यदु"मीरा"राजिम

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लावणी छन्द विरह युगल गीत- ऋतु बसंत (२८/०१/२०२३)



कुहकत ये कारी कोयलिया, गीत मया के गाये हे ।

आजा तॅंय आजा ना रानी, ऋतु बसंत हा आये हे ।।


ममहावत हे बाग- बगीचा, पाना हरियर- हरियर ओ ।

पाके हे बोईर- बहेरा, गुरतुर- गुरतुर नरियर ओ ।।

तोर बिना मन हा नइ लागय, अउ काॅंही नइ भाये हे ।

आजा तॅंय आजा ना रानी, ऋतु बसंत हा आये हे ।।


आमा मउॅंरे परसा फूले, सादा पींयर लाली गा ।

आहूॅं कहिके तॅंय नइ आये, देखत रहेंव काली गा ।।

चुहके बर रस ला बइरी ये, भॅंवरा मन मॅंडराये हे ।

आजा तॅंय आजा ना राजा, ऋतु बसंत हा आये हे ।।


कल- कल करथे नदिया नरवा, झर- झर झरना झरथे ओ ।

सरर- सरर पुरवाही चलथे, जुगनू जुग- जुग बरथे ओ ।।

चिरई- चिरगुन मोर- पपीहा, मस्ती मा इतराये हे ।

आजा तॅंय आजा ना रानी, ऋतु बसंत हा आये हे ।।

ओम प्रकाश पात्रे "ओम"

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 बसंत - दिलीप कुमार वर्मा 


ममहावत हे बड़ जंगल हा अउ खेत तको लहरावत हावय। 

ठुठवा रुखुवा हरसावत हे जब पान नवा उन पावत हावय। 

दमकावत हे परसा रुखुवा लगथे जग आग लगावत हावय। 

चल मस्त हवा बतलावत हे ऋतु राज बसंत ह आवत हावय।


एती ओती चारो कोती, बगरे बसंत देखा, 

रुखुवा के डारी डारी, फूल लदकाय हे। 

अमुवा म मौर आगे, परसा ह ललियागे, 

महुवा महक मारे, सब ला लुभाय हे। 

खेत खार झूमे लागे, ओनहारी भदरागे, 

सरसों के फूल देख, सब हरसाय हे। 

कोयली कुहुक मारे, तितली के वारे न्यारे, 

चहक चिरइया ह, फगुवा सुनाय हे। 


लेवत हे अंगड़ाई धरा हर, पा के नवा सवांगा। 

पान पतउवा अउ फुलुवा ले, भरगे ठांगा ठांगा। 


रचनाकार - दिलीप कुमार वर्मा 

बलौदाबाजार छत्तीसगढ़

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 दोहा छंद


आमा मउँरे सब डहर, महुआ हा ममहाय।

डारा बइठे कोयली, सुग्घर तान सुनाय।।


महर महर बारी करै, हरियर हरियर खेत।

फागुन हा आगू खड़े, राखे रहिबे चेत।।


चम्पा, गेंदा, मोंगरा, आनी बानी फूल।

देवत ए संदेश हे, करहू झन कुछु भूल।।


फूलें सरसों निक लगे, टेसू झूलें डार।

हे मतंग तन मन गजब, अउ झूमत संसार।।


सुग्घर पुरवाही चले, तन मन ला हरषाय।

ऋतुराजा ला देखके, लगे जवानी आय।।


स्वागत हे स्वागत हवै, ऋतु बसंत अब तोर।

मनखे मनखे बन रहय, अतके बिनती मोर।।


ज्ञानुदास मानिकपुरी

चंदेनी-कवर्धा

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सार छन्द गीत - दिलीप कुमार वर्मा 

बसंत 


विधवा जइसन दुनिया होगे, जब ले पेड़ कटाये। 

मांग उजड़गे ये धरती के, तन पूरा मुरझाये। 

लकलक रेगिस्तान बरोबर, आगी ला धधकावय। 

कतको जोहत राहव रसता, अब बसंत नइ आवय। 


बिन रुखुवा का पान पतउवा, फुलुवा कइसे आही। 

महर-महर नइ महकय धरती, मउसम कब भदराही। 

तितली भंवरा मधुमक्खी हर, इहां कहां मंडरावय। 

कतको जोहर राहव रसता, अब बसंत नइ आवय। 


बिन आमा के मउर लगे नइ, बिन परसा का लाली। 

सुन्ना परगे खेत खार नइ, कुहकय कोयल काली। 

चिरई चिरगुन अइसन जग ला, अब थोरिक नइ भावय। 

कतको जोहत राहव रसता, अब बसंत नइ आवय। 


बारी बखरी सुन्ना परगे, कइसे के हरियाही। 

वन उपवन बिन पानी परिया, फुलुवा कोन लगाही। 

हरर-हारर बड़ हवा चलत हे, धुर्रा बस  उड़ियावय। 

कतको जोहत राहव रसता, अब बसंत नइ आवय 


रचनाकार - दिलीप कुमार वर्मा 

बलौदाबाजार छत्तीसगढ़

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 दोहा


 रंग बसंती छाय हे,धरके यवना रूप।

परसा लाली फूल गे,बाढ़त हावय धूप।।


मउरे आमा खूब हे,कोयल गावय गीत।

पिया बिना तरसत हवै,प्रेम भरे मनमीत।।


पाना ला फोरत हवै,उलहा उलहा डार।

झूम उठे मस्ती सबो,झूमत खेती खार।।


राजेन्द्र कुमार निर्मलकर

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 *बसंत* (सार छंद गीत)

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एसो के सुघ्घर बसंत हा, गजब सुहावन लागे। 

मन मा आशा अउ उमंग के, नवा जोत हर जागे। ।


कोरोना के मारे बिरथा,दू ठो बछर सिराइन। 

कतको सपना के बिरवा मन, बिना खिले मुरझाइन। ।

अब लागत हे बिपदा के दिन, जइसे हमर सिरागे।

मन मा------


अमरइया के मउरे आमा,खिले फूल परसा के। 

जिवरा ला कुलकावत हे फिर,

कतिक बछर तरसा के। ।

कोयलिया के कूक मनोहर, सुन जम्मो दुख भागे।

मन मा------


दीपक निषाद--लाटा (बेमेतरा)

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*कुंडलियाँ-बसंत*


फूले फूल पलाश के, अमरैया बउराय।

कोयल कुहके डार तब, जान बसंत ह आय।।

जान बसंत ह आय, रिझाथे सरसों पिंवरा।

छाये नवाँ उमंग, देखके हरषय जिंवरा।।

तरसे बिरहिन नैन, चेहरा आँखी झूले।

एक झलक के आस, मया हर मन मा फूले।।

नारायण वर्मा, बेमेतरा

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ताटक छंद -"बसंत बहार"

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आए हावय सुघ्घर बसंत, घोफ्फा मा मउरे आमा।

हो के मतंग झूमे भँवरा, पहिरे पिंयर हे जामा।।


अरसी सरसों चुकचुक फूले, फुरफुर चलथे पुरवाही।

राग लमा के कोयल गाए, डारा मा  आवाजाही।।


मँगनी जँचनी लगिन मढ़ा के, बरा उरिद के राँधे।

रस रंग रंग के फूल चुहक, कइसे तितली मन बाँधे।।


परसा फूले दहकत लाली, लागय दुलहिन गवनाही।

पींयर फूले सरसों फुलवा, आमा मउर संग  भँवराही।।

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द्रोपती साहू "सरसिज" 

पिन-493445

Email; dropdisahu75@gmail.com

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*लवंगलता सवैया* 

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बसंत/फागुन


खुशी मन के छलके जब कोयल हा कुहके मधु गीत सुनावत।

मया उमड़े मन मा भँवरा रसिया रस लेवत हे मँडरावत।

नवा फर फूल लगे उल्हवा उल्हवा निक पान डँगाल लुभावत।

अहा! ऋतुराज बसंत सुहावत जंगल बाग हवै ममहावत।।



बियाकुल हे भँवरा प्रिय खोजत फूल पराग हवै बगिया बन।

तपावत देह उड़े इँहचे उँहचे नइ पावत चैन न नैनन।

मिलै जब गंध सुगंध कहूँ मकरंद लगे मिलगे धन जीवन।

करे रसपान सुवासय प्राण धरा हरसे मनखे मन के मन।।



झरै सब पात जुना मन पेड़ डँगाल हवै ठुठवा ठुठवा बड़।

फुले परसा हर लाल गुलाल लगै अगियाय हवै जग ले अड़।

हिलोरत हे मउरे अमुवा पिंवरा पिंवरा महकाय नदी खड़।

बसंत हवै ऋतु फागुन आत सुहाय हवा निक जाड़ भगे झड़।।


रचना :बलराम चंद्राकर भिलाई

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