पूस के जाड़-सरसी छंद
जाड़ पूस के गजब जनाथे, जिवरा जाथे काँप।
किनकिन किनकिन ठंडा पानी, चाबे जइसे साँप।
सुरुर सुरुर बड़ चले पवन हा, हाले डोले डाल।
जीव जंतु बर पूस महीना, बनगे हावय काल।
संझा बिहना सुन्ना लागे, बाढ़े हावय रात।
नाक कान अउ मुँह तोपाये, नइहे गल मा बात।
चँगुरे कस हे हाथ गोड़ हा, बइठे सब चुपचाप।
जाड़ पूस के गजब जनाथे, जिवरा जाथे काँप।
दाँत करे बड़ किटकिट किटकिट, नाक घलो बोहाय।
सुधबुध बिसरे बढ़े जाड़ मा, ताते तात खवाय।
गरम चीज बर जिया ललाये, ठंडा हा नइ भाय।
तीन बेर तँउरइया टूरा, बिन नाहय रहि जाय।
लइका लोग सियान सबे झन, करें सुरुज के जाप।
जाड़ पूस के गजब जनाथे, जिवरा जाथे काँप।
भुर्री आखिर काय करे जब, पुरवा बरफ समान।
ठंडा पानी छीचय कोनो, निकल जाय तब प्रान।
काम बुता मा मन नइ लागे, भाये भुर्री घाम।
धीर लगाके लगे तभो ले, गजब पिराये चाम।
दिन ला गिनगिन काटत दिखथे, बबा गोरसी ताप।
जाड़ पूस के गजब जनाथे, जिवरा जाथे काँप।
मुँह के निकले गुँगुवा धुँगिया, धुँधरा कुहरा छाय।
कुड़कुड़ कुड़कुड़ मनखे सँग मा, काँपैं छेरी गाय।
चना गहूँ हें खेत खार मा, संसो मा रखवार।
कतको बेरा हा कट जाथे, बइठे भुर्री बार।
कतका जाड़ जनावत हावय, तेखर नइहे नाप।
जाड़ पूस के गजब जनाथे, जिवरा जाथे काँप।
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को, कोरबा(छग)
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