कुंडलियाँ
जाति-पाति के भेद
मिलके झगरा आज जी, हवै मताये कौन।
जाति-पाति के भेद कर, नेता साधिन मौन।
नेता साधिन मौन, वोट उन पाहीं कइसे।
जब-जब होय चुनाव, निकालत जिन्न ल जइसे।।
राहव सब मिल आज, कमल तरिया कस खिलके।
'बाबू' मेटव भेद, आज जी सबझन मिलके।।।।
फेंकत हे शकुनी ममा, कपटी पासा चाल।
सत्ता स्वारथ बर इहाँ, बुनत बइठके जाल।।
बुनत बइठके जाल, फँसावत हें उन कसके।
जाति-पाति के भेद, डरावत हें उन डटके।।
गिरगिट जइसे रंग, विरोधी मन ला छेंकत।
कोन मिटाही भेद, जाल जब शकुनी फेंकत।।
कमलेश प्रसाद शर्माबाबू
कटंगी-गंडई
जिला केसीजी छत्तीसगढ़
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गुमान साहू वाम सवैया
।।करौं झन भेद।।
करौ झन भेद कभू मनखे सब एक बरोबर राम बनाये।
हवै सबके रग एक लहू मनखे अलगे बस नाम धराये।
बने जन छोट बड़़े कर कर्म इहाँ तकदीर सबो सम पाये।
रखौ मन मा सब प्रेम सदा मन के सब देवव बैर मिटाये।।
- गुमान प्रसाद साहू
- समोदा (महानदी)
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शंकर छन्द
।। जात पात अउ छुआ-छूत तज।।
जात पात मा हवन बँटाये, मनखे हमन आज।
ऊँच नीच अउ छोट बड़े मा, करै भेद समाज।
पढ़ लिख बनगे शिक्षित मनखे, तभो करथें भेद।
छुआ-छूत कर हिरदे भीतर, करैं कतको छेद।।
एके माटी ले गढ़े हवै, सबो ला भगवान।
छोट बड़े जी बने कर्म ले, इहाँ सब इन्सान।
लाल लहू रग हावय सबके, चाम हाड़ा एक।
एक धरा मा रखै पाँव सब, धरम जाति अनेक।।
कभू भेद नइ करै हवा हर, प्राण सबो बचाय।
एके पानी पीयैं सबझन, घाम एक सुखाय।
कोन खनिन हे छुआ-छूत के, खाई हमर बीच।
जात पात अउ ऊँच नीच के,
दियें रेखा खींच।।
करव मितानी आज सबो ले, छोड़व जात पात।
रंग भेद अउ छुआ-छूत तज, बनही तभे बात।
छोट बड़े अउ ऊँच नीच के, छोड़व सबो क्लेश।
मानवता के धरम सिखाथे, हमर भारत देश।।
- गुमान प्रसाद साहू
- समोदा (महानदी)
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(सरसी छंद)
छाय हवय मानव समाज मा, भेदभाव के भूत।
एक बरोबर हे सब मनखे, झन मान छुआछूत।।
जात -पात झन पूछव ककरो, जानॅंव बड़का ज्ञान।
ज्ञान हवय जेकर कर अब्बड़, देवव वोला मान।।
भगवान बनाइस हे मनखे, लहू सबो के एक।
स्वार्थ खातिर मनुज बनाइस ,जग मा जाति अनेक।।
रामचंद्र हा खाइस बोइर, धन सबरी के भाग।
भेदभाव प्रभु राम मिटाइस, फैलाइस अनुराग।।
गला लगाइस केंवट ला हरि, बहिस नयन ले धार।
दशरथ सुत हा डोंगहार के,नाव लगाइस पार।।
ओमप्रकाश साहू अंकुर
सुरगी, राजनांदगांव।
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सार छंद
कतको पढ़ लिख ले हन तब ले,अनपढ़ता नइ जावै।
तभे मैल हा जात पात के,धोवे नइ धोवावै।
जस जस लोगन शिक्षित होवत,ये कुरीति अउ बाढ़ै।
जइसे लागय दुरिहाये कस,अउ आगू मा ठाढ़ै।
पाय पलौंदी राजनीति के,मुसवा कस भोगावै।
तभे मैल हा जात पात के, धोवे नइ धोवावै।
छुआ छूत अउ ऊँच नीच के,आज घलो हे खाई।
झेलत हावय कतको लोगन,कष्ट गजब दुखदाई।
लगथे नइ चाहय कुछ लोगन, भेदभाव दुरिहावै।
तभे मैल हा जात पात के, धोवे नइ धोवावै।
जात धरम के कारज बर सब,बिन सोंचे अगुवाथे।
देश धरम के आथे बारी,पाछू मुहूंँ लुकाथे।
बँटे हवयँ खुद जात पात मा,काला कोन बतावै।
तभे मैल हा जात पात के, धोवे नइ धोवावै।
छुआ छूत दुरिहावे खातिर,आइन ऋषि मुनि ज्ञानी।
तभो समझ नइ पाइन संगी,मूड़ी मूर्ख परानी।
लड़त हवयँ इन आज घलो बड़,माने नइ समझावै।
तभे मैल हा जात पात के,धोवे नइ धोवावै।
रहव सदा बड़ जुरमिल के जी,सब हन भाई भाई।
भले कहाथन हिन्दू मुस्लिम,धरम सिक्ख ईसाई।
धरम निभावौ मानवता के,इही सबे ला भावै।
तभे मैल हा जात पात के,चिटकुन अब धोवावै।
अमृत दास साहू
राजनांदगांव
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आवव मिलके पाटी संगी, ऊँच-नीच के खाई।
हिन्दू-मुस्लिम सिख-ईसाई, हम सब भाई-भाई।।
जाति-प्रथा से चारो कोती,बाढ़ँय अत्याचारी।
भारत माँ ला घायल करथे, बड़का ये बीमारी।।
भारत माँ अब रोवत हावय, माते हे करलाई।
आवव मिलके पाटी संगी, ऊँच-नीच के खाई।
छुआछूत के भरम भूत ला, आवव मन ले झारी।
राक्षस जइसे डाहत हावय, मुख ला एखर टारी।।
मानवता के पाठ पढ़ा के, सुमता समता लाई।
आवव मिलके पाटी संगी, ऊँच-नीच के खाई।।
कोन बना पाही संगवारी ,भारत माँ ला पावन।
भाई-चारा ला खावत हे, जात-पात के रावन।
मानवता के नाश होत हे, कोन करय भरपाई।
आवव मिलके पाटी संगी, ऊँच-नीच के खाई।।
जात-पात के ए बंधन ला, मिलके आवव टोरी।
मनखे- मनखे एक बरोबर, सबले नाता जोरी।
भेद-भाव ला तज के जम्मो, नवा सुरुज परघाई।
आवव मिलके पाटी संगी, ऊँच-नीच के खाई।।
डी.पी.लहरे'मौज'
कवर्धा छत्तीसगढ़
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गीतिका छन्द
विषय-जात-पात
जात के ही नाँव ले नित होत अत्याचार हे।
का दलित का शुद्र मन के रोज हाहाकार हे।।
आदमी हन आदमी सब रूप एके रंग के।
जात के ताना कसौ झन आज ले बेढंग के।।
जेन कोती देखहू ता जात के बाजार हे।
जात के ही नाँव ले नित होत अत्याचार हे।।
देख लव माँ भारती के हम सबो संतान गा।
भारती हन भारती हे एक बस पहिचान गा।
आदमी मा भेद करथे तेन हा गद्दार हे।
जात के ही नाँव ले नित होत अत्याचार हे।।
बंधना ला जात के मिलके चलौ हम टोरबो।
एकता राहय बने नाता सबो ले जोरबो।
ऊँच के अउ नीच के गा भावना बेकार हे।
जात के ही नाँव ले नित होत अत्याचार हे।।
डी.पी.लहरे'मौज'
कवर्धा छत्तीसगढ़
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+ दोहा छंद
विषय जात पात ऊॅंच नीच भेद भाव
मनखे मनखे एक हे, एक लहू के रंग ।
भेद भाव के आड़ मा, काबर होथे जंग ।।
मानवता के राह धर, मिलके कर लव काम ।
छुआ छूत सब छोड़ के, भज लव जय श्री राम ।।
गला लगा ले दीन ला, ऊॅंच नीच सब पाट।
नींद फेर आही बने, बिन चद्दर बिन खाट।।
राम राज के कल्पना, करत हवय सब लोग।
ऊॅंच नीच बड़ भेद हे, बनही कइसे योग।।
शबरी के घर राम जी, खाथे जूठा बेर।
भेद मिटाये बर कभू, करय नहीं गा देर।।
जग में देखव आज कल, ऊॅंच नीच बड़ खास।
पइसा वाला बात से, करथे बहुत निराश।।
मर्यादा गहना हरे, सुख दुख दोनों पाॅंव।
नाॅंव कमा ले भेद के, जात पात के ठाॅंव।।
राह नवा पीढ़ी नवा, सोचव सबझन काज ।
भेद भाव ला टार के, गढ़ लव नवा समाज।।
संजय देवांगन सिमगा
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राजेश निषाद ।।चौपाई छंद।।
जात पात, ऊँच नीच, भेद भाव
सुनलव बहिनी सुनलव भाई।
ऊँच नीच के करव बिदाई।।
रहव बनाके भाई चारा।
छुआ-छूत ला करव किनारा।।
हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई।
जैन बौद्ध बन होत लड़ाई।।
लाल लहू रग सबके हावै।
लोग धरम काबर अलगावै।।
जात पात के पाटव खाई।
मनखे सब हे भाई-भाई।।
रंग भेद सब करना छोड़व।
सुग्घर सबले नाता जोड़व।।
सुख दुख जिनगी मा तो आथे
मया मोह मा सबो भुलाथे।।
दीन दुखी सब ला अपना के।
राहव सबले प्रेम बनाके।।
होही तब तो नवा सबेरा।
भेद रुपी जब मिटे अँधेरा।।
मानवता के अलख जगावौ।
रंग भेद ला दूर भगावौ।
राजेश कुमार निषाद ग्राम चपरीद रायपुर
प्रिया *समता* *चौपई*
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कइसे कलयुग आगे आज।
नइ लागय का तुम ला लाज।।
जात–पात के करथौ बात।
मन मा रखथौ इरखा घात।।
शिक्षा हो जाथे बेकार।
भेद–भाव के बहिथे धार।।
ऊँच–नीच के छोड़व भेद।
होथे सब के हिय मा छेद।।
छुआ–छूत ला दूर भगाव।
मनखे मन समता अपनाव।।
करथे जेमन अइसन भेद।
ओला मिलके तुरते खेद।।
ईश्वर के गढ़ना ला देख।
मनखे मन मा अपन सरेख।।
एक लहू अउ एके रंग।
हवै बराबर सब के अंग।।
मया पिरित के चढ़थे नार।
मिलथे सब ला खुशी अपार।।
कर लो संगी तुम सम्मान।
आही तभ्भे नवा बिहान।।
प्रिया देवांगन *प्रियू*
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*सोरठा छंद*
*यति-,*
कोनो आज बताव, मिटही कब ये रोग हा।
महूँ समझ नइ पाँव, जाति- पाति के भेद ला।।
गिरजाघर गुरुद्वार, मंदिर मस्जिद मा घलो।
भेद-भाव हे यार, जाति धर्म के आज भी।।
गड्ढा पाटव आज, ऊँच- नीच के भेद के।
जागव सबो समाज, बना रखौ संजोग ला।
दिल मा रख के हाथ, पूछव अपने आप ले।
रहिथन का सब साथ, हिंदू मुस्लिम संग मा।।
फोकट झन दौ ज्ञान, खुद पहिली सुधरौ तहाँ।
पाछू बनौ सुजान, थोपौ झन जी बात ला।।
अपने भर ला छोड़, घर-घर मा तक भेद हे।
मुँह ला लेथें मोड़, सब मितान हें खात के।।
रंग रूप अरु देह, सिरजन हे भगवान के।
सबले राखव नेह, हाड़-माँस पुतला सबो।।
भेद करौ सब लोग, लबरा बेईमान ले।
आज मिटावव रोग, फैलत भ्रष्टाचार के।।
मानव-मानव एक, कब होही संसार मा।
मिटही कब मिन मेक, या अइसन चलते रही।।
भागवत प्रसाद चन्द्राकर
डमरू बलौदाबाजार
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कुण्डलिया छंद-
भेद करिस हे कोंन जी, रंग लहू मा फर्क।
सबके तन तो एक हे, मनखे कर लौ तर्क।।
मनखे कर लौ तर्क, बहे सब बर पुरवाई।
ऊँच-नीच ला छोड़, जाति के पाटव खाई।।
छुआछूत विकराल, धरा मा पाँव धरिस हे।
कपटी शातिर कोंन, मनुज मा भेद करिस हे।।
बनही कइसे विश्व गुरु, बोलव भारत देश।
जाति-धर्म के हे जिहाँ, मनखे मन मा द्वेष।।
मनखे मन मा द्वेष, धरे हें जहर बरोबर।
भेदभाव के खूब, भरे माथा मा गोबर।।
रखे श्रेष्ठता भाव, भेद के खाई खनही।
गजानंद तब देश, विश्व गुरु कइसे बनही।।
बाढ़त बनके हे जहर, जाति-धर्म हा रोज।
जावत नइहे जाति हा, हल येखर लौ खोज।।
हल येखर लौ खोज, तभे सुख सुमता आही।
नइ तो भारत देश, गर्त मा गिरते जाही।।
गजानंद जी जाति, साँप कस फन हे काढ़त।
बनके अछूत रोग, दिनोदिन हावय बाढ़त।।
इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"
बिलासपुर (छत्तीसगढ़)
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आल्हा छंद- *जाति-प्रथा*
जाति-धरम ले ऊपर उठके, गढ़ लौ संगी नेक समाज।
काबर देख छुवावत हावय, मनखे ले मनखे हा आज।।
जात जाति के जावत नइहे, उल्टा रूप धरे विकराल।
साध सुवारथ कपटी मनखे, शकुनी जइसे खेलत चाल।।
तार-तार कर मानवता ला, चींथत हें बन कउँवा बाज।
जाति-धरम ले ऊपर उठके, गढ़ लौ संगी नेक समाज।।
श्रेष्ठ जनम ले कोनों नइहे, करम करे ले बने महान।
संत कबीर कहे गुरु घासी, मनखे-मनखे एक समान।।
जाति-पाति अउ छुआछूत हा, फइले हावय बनके खाज।
जाति-धरम ले ऊपर उठके, गढ़ लौ संगी नेक समाज।।
एक कोख ले जनम धरे सब, एक सबो के तन अउ चाम।
रंग लहू तन एक समाये, मिले जगत मा मनखे नाम।।
मुक्ति जाति ले नइ हो पावत, नइ तो आवत हावय लाज।
जाति-धरम ले ऊपर उठके, गढ़ लौ संगी नेक समाज।।
सुमता के डँगनी मा बइठे, पड़की मैना अउ मंजूर।
एक घाट मा पानी पीयत, हावय चीता अउ लंगूर।।
एक खेत मा बाँध डरिन जी, सुमता ला सफरी दुबराज।
जाति-धरम ले ऊपर उठके, गढ़ लौ संगी नेक समाज।।
पर अबूझ मनखे नइ समझत, जाति-धरम ले जग नुकसान।
जाति श्रेष्ठ के ठप्पा ले के, बाँटत हें ज्ञानी बन ज्ञान।।
जाग जगा ले गजानंद तँय, भावी पीढ़ी करही नाज।
जाति-धरम ले ऊपर उठके, गढ़ लौ संगी नेक समाज।।
इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"
बिलासपुर (छत्तीसगढ़)
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ताटंक छंद- *जात-पात*
कोंन खनिस हे जात-पात के, मानव समाज मा खाई।
कोई होगे हिन्दू मुस्लिम, कोई हा सिख ईसाई।।
कोंन बनाइस वर्ण व्यवस्था, कर्म अधार बता के जी।
छोट-बड़े मनखे ला कर दिस, छत्तिस जात बना के जी।।
बाम्हन क्षत्रिय वैश्य शूद्र मा, तब बँटगे भाई-भाई।।
कोंन खनिस हे जात-पात के, मानव समाज मा खाई।।
चार वर्ण पहिचान बताइस, पैर पेट भुज माथा ला।
जहर विषमता के घोलिन हें, गावत झूठा गाथा ला।।
चतुराई कर चतुर मनुज हा, ऊँच सिंहासन हे पाई।
कोंन खनिस हे जात-पात के, मानव समाज मा खाई।।
बाँटिन मरघट घाट घठौंदा, गाँव गुड़ी अउ पारा ला।
नींव हिला दिंन सुमता के जी, भेदभाव भर गारा ला।।
चाल चलिन हें झन पावय कहि, छोट जात हा ऊँचाई।।
कोंन खनिस हे जात-पात के, मानव समाज मा खाई।।
इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"
बिलासपुर (छत्तीसगढ़)
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ताटंक छन्द गीत - खाई ला पाटव सॅंगवारी
ऊॅंच-नीच अउ भेदभाव के, बाढ़त हावय खाई गा ।
खाई ला पाटव सॅंगवारी, होवत हे करलाई गा ।।
जाति धरम मा बॅंटगे मनखे, छुआछूत हा छाये हे ।
ब्राम्हण क्षत्रिय वैश्य शूद्र मा, ये दुनिया लपटाये हे ।।
कोन बतावय मनखे मन ला, मनखे भाई-भाई गा ।
खाई ला पाटव सॅंगवारी, होवत हे करलाई गा ।।
जनम धरे ले ऊॅंच-नीच के, कहाॅं पता चल पाथे गा ।
अपन करम ले मनखे मन हा, ऊॅंच-नीच बन जाथे गा ।।
कतको झन बर ये जिनगी हा, होगे हे दुखदाई गा ।
खाई ला पाटव सॅंगवारी, होवत हे करलाई गा ।।
बाबा साहब भीम राव हा, संविधान निर्माता हे ।
शोषित अउ पिछड़ा समाज के, वो तो भाग्य विधाता हे ।।
जुरमिल के राहव सब हिन्दू, मुस्लिम सिख ईसाई गा ।
खाई ला पाटव सॅंगवारी, होवत हे करलाई गा ।।
छन्दकार व गीतकार
ओम प्रकाश पात्रे 'ओम '
बोरिया (बेमेतरा)
विधा - सरसी छ्न्द ,
भेद भाव ले भरगे मनखे, करथें दुहरी बात।
बात बात मा बात बढ़ा के, दिखा जथें अवकात।।
करे कोन बइरी मन हावय, जात पात के भेद।
टँगिया परय मुँड़ी मा ओखर, हिरदय होवय छेद।।
हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई, एक सबों हे भ्रात।
बात बात मा बात बढ़ा के, दिखा जथें अवकात।।
जात धरम के नाम होत हे, बाँट बँटउला खेल।
इक दूसर हा लड़त मरत हे, नहीं कहूँ सन मेल।।
लड़ा लड़ा के मार डरिन हे, कर दिन हिरदय घात।
बात बात मा बात बढ़ा के, दिखा जथें अवकात।।
जातिवाद के खाई गहरा, कोन सकिन हे पाट।
पाटत पाटत खुदे पटागे, नइ बाँचिन हे ठाट।।
कर नइ पावत हे मनखे हर, एक सबों हे जात।
बात बात मा बात बढ़ा के, दिखा जथें अवकात।।
कुकुर बिलाई चूमे चाँटे, डोर मया के डार।
छुवा जथे मनखे मनखे ले, कहिथे येला टार।।
मुँड़ भसरा गिरथे मनखे जब, जम के खाथे मात।
बात बात मा बात बढ़ा के, दिखा जथें अवकात।।
वेद शास्त्र के लेख बताथे, पिता सबों के एक।
स्वारथ मा हावय कर डारिन, मनखे जाति अनेक।।
भेद करिन नइ हवा देवता, दिये सबों सौगात।
बात बात मा बात बढ़ा के, दिखा जथें अवकात।।
भेद करिन नइ सुरुज देवता, दिये बरोबर घाम।
खाय बेर जूठा शबरी के, जगत पिता श्री राम।।
भेद करिन नइ अगिन देवता, रहे सबों बर तात।
बात बात मा बात बढ़ा के, दिखा जथें अवकात।।
भेद भाव ला दूर करे श्री, राम लिये अवतार।
नर नारी मा भेद करव झन, ये जग के आधार।।
कहिथे भूत बात नइ मानय, परे न जब तक लात।
बात बात मा बात बढ़ा के, दिखा जथें अवकात।।
तातु राम धीवर
भैंसबोड़ जिला धमतरी
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छंद - विष्णुपद
चिल्लावत हन मनखे- मनखे, एक समान हवै|
जाँति- पाँति अउ ऊँच- नीच के, फेर गठान हवै||
एक अंग अउ एक चाम हे, हाड़ा एक लहू|
फेर अलग कइसे मनखे हे, सिरतों सोच तहू||
कतको आगी रोज लगावत, भाषण झाड़त हे|
भेदभाव के जहर दिनोदिन, जग मा बाढ़त हे||
छुआछूत के गाँव- शहर मा, फइले रोग हवै|
मानवता के आज पाठ ला, भूले लोग हवै||
जाँति- धरम के नाम रोज के, दंगा होवत हे|
राजनीति के संरक्षण मा, नफरत बोवत हे||
बम बन के स्वारथ मा अपने, मनखे फूटत हे|
तोरी- मोरी मा कतको अउ, रिश्ता टूटत हे||
जन सेवा ही हरि सेवा हे, झाड़त भाषण हे|
मिलें कहाँ अउ हक गरीब ला, कइसन शासन हे||
समय रहत ले चेत जाँव अब, दूर भगावव जी|
ऊँच- नीच अउ जाँति- पाँति के, खाई पाटव जी||
ज्ञानु
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*चौपाई छन्द*
*छुआछूत*
छुआछूत तुम का ला कहिथौ।
गलत सोच मा काबर रहिथौ।।
छुआ कन्हो मनखे मा नइ हे।
सही अर्थ तो भेद करइ हे।।
मनखे प्रभु के हे सिरजाए।
जात-पात प्राणी अपनाए।।
ये समाज ला हवै सिखाना।
छोड़ौ कखरो हॅंसी उड़ाना।।
मनखे-मनखे सबो बरोबर।
राखव सुमता बने घरो-घर।।
एक-दुसर ला देख चिढ़ौ झन।
गलत धारणा कभू गढ़ौ झन।।
छुतहा मनखे वो कहलावय।
गिनहा जेकर करनी हावय।।
जेन दलिद्दर कस जीयत हें।
माॅंस खात मउहा पीयत हें।।
निंदा-चारी जे अपनाथें।
पर-नारी बर लार चुहाथें।।
झूठ बोल के पइसा लूटैं।
दुब्बर पशु ला मारैं कूटैं।।
दुरिहा राहव अइसन मन ले।
सीख पाय हॅंव मॅंय संतन ले।।
कहिथे गुरु घासी के बानी।
छुतहा मन के इही निशानी।।
असली परिभाषा ला जानौ।
छूत सदा करनी ला मानौ।।
छुआ जात मा नइ हे सुन लौ।
ये नादान कहे सब गुन लौ।।
*तुषार शर्मा "नादान"*
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*दोहा छंद*
पहली तीनों लोक मा, वर्ण रहिस हे चार।
ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य अरु, शुद्र जगत आधार।।
कइसे बँटगे जाति मा, जानव जम्मो मर्म।
जिनगी पालन बर करैं, जेहर जइसन कर्म।
रक्षा खातिर जेन मन, बाँह उठाइन भार।
क्षत्रिय पागे नाम ला, जानिन सब संसार।।
रोजी रोटी पाय बर, जेन करिन बयपार।
वैश्य धरागे नाम हा, बनिया साहूकार।।
राज महल अउ राज मा, बाचँय वेद पुरान।
पूजन लागिन लोग सब, ब्राह्मण बने महान।।
धर्म निभावत दुख सहै,, बनके सेवादार।
नाम धरागे शुद्र के, तन- मन- धन लाचार।।
ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य मिल, खूब चलिन हें चाल।
तीन भाग मा शुद्र ला, बाँट करिन बेहाल।।
कहैं आदिवासी दलित, अउ पिछड़े हे लोग।
शोषण तीनों के करैं, नइ लागय जी सोग।।
तब ले देखव आज तक, फैले हे ए रोग।
ऊँच-नीच के भेद ला, कब बिसराहीं लोग।।
कतको चिल्लाथें भले, मत करहव नर भेद।
राजनीति चमकाय बर, नेता करथे छेद।।
देखव पानी घाम ला, सब ला समझै एक।
हवा घलो बिन भेद के, सबबर करथे नेक।।
जाति-धर्म के भेद ला, लानिन जग मा कौन।
पूछत हावय भागवत, काबर हावव मौन।।
भागवत प्रसाद चन्द्राकर
डमरू बलौदाबाजार
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विजेन्द्र जयकारी छंद
ऊँच-नीच मा फरक मिटाव।
मानवता के राह दिखाव II
अपने भीतर दीप जलाव।
अँधियारी ला दूर भगाव।।
करव कुरुति मा जबर प्रहार।
रखव बात बानी व्यवहार।।
सही गलत के करव विचार I
जिनगी होही तब उजियार II
छुवाछूत के फइले रोग।
भोगत हावय कतको लोग।।
ऊँच-नीच ला मन ले झार I
तभे लामही सुमता नार II
मनखे-मनखे एक समान I
भेद-भाव कर मरथव जान II
अइठन अंतस मा झन पाल I
जाति-पाति हा भ्रम के जाल।।
रंग लहू के सबके एक।
मनखे करलव कारज नेक।।
गिनहा मन के बाते छोड़।
जुड़त हवय तेला तँय जोड़।।
संग तोर काहीं नइ जाय।
पुण्य करम हा भाग बनाय।।
मनखे हावय उही महान।
छोट बड़े नइ जानय जान।।
विजेन्द्र कुमार वर्मा
नगरगाँव (धरसीवांँ)
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विजेन्द्र कुण्डलिया छंद
समता के हो भाव तब, गढ़थे देश विकास।
जात-पात के फाँश मा, होथे सदा विनाश।
होथे सदा विनाश, पड़े पाछू पछताना।
छुआछूत के रोग, इहाँ ले हवै भगाना।
जात-पात के छोड़, मोह माया अउ ममता।
ऊँच-नीच ला पाट, तभे आही गा समता।।
विजेन्द्र कुमार वर्मा
नगरगाँव (धरसीवांँ)
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बलराम चन्द्राकर जी रोग आवौ मिटाबो-
(सवैया बागीस्वरी)
गरीबी अशिक्षा बने श्राप हे, बाल-बच्चा पढ़ाना जरूरी कका।
मिलै हाथ ला काम रोटी मिलै, जेब मा आय रोजी मजूरी कका।
रहै आदमी आदमी एक हो, ना चलै काकरो घेंच छूरी कका।
छुआछूत के रोग आवौ मिटाबो, रही एक संसार जूरी कका।।
बलराम चंद्राकर भिलाई
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बलराम चन्द्राकर जी भेद-
(सवैया गंगोदक)
पंथ के भेद हे वर्ग के भेद हे, जात के भेद हे धर्म के भेद हे।
विश्व के देश मा बोल के भेद हे, रूप के रंग के चर्म के भेद हे।
देश मा भेद हे वेश मा भेद हे, आदमी आदमी कर्म के भेद हे।
ऊंच के नीच के पुण्य के पाप के, लागथे लोग मा मर्म के भेद हे।।
बलराम चंद्राकर भिलाई
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बलराम चन्द्राकर *आवौ जुरमिल के रबो*
(छंदप्रदीपबइगा)
जात-पाँत अउ ऊँच-नीच मा, होवत बंटाधार हे।
देश-प्रेम हा पाछू होगे, स्वारथ आगू यार हे।।
राजनीति के भेंट चढ़े हे, असली मुद्दा देश के।
होत लड़ाई आपस मा बस, दृश्य दिखत हे क्लेश के।।
एहा वोला वोहा एला, जम्मो हुदरत कोचकत।
जिम्मेदारी कोन निभाही, हवैं कलेचुप बोचकत।।
नेता-अफसर चट्टा-बट्टा, लेन-देन के जोर हे।
ककरो तैं सरकार बना ले,आसन बइठे चोर हे।।
आफिस-आफिस चक्रव्यूह हे, कहाँ- कहाँ तैं बाँचबे।
ए फारम ला वो फारम ला, बार-बार तैं नाँचबे।।
जात-धरम के अगुवा बन के, बिगड़ी कोन बनात हे।
सब ला पंच विधायक बनना, पद ला ढाल बनात हे।।
दिखा एक-दूसर ला नीचा, मन ला बड़ सहलात हें।
ये सोशल मीडिया रात दिन, मनखे ला भरमात हे।।
कहाँ चिन्हारी झूठ-साँच के, अपन-अपन जम्मो मगन।
मउका खोजत हे संसारी, कब कइसे हम हा ठगन।।
मानवता अब नाश दिखत हे, बुड़े ढोंग मा आदमी।
सत मारग रेंगैया मन के, काबर होवत हे कमी।।
सब अपने ला ऊंचा समझत, होत दिखावा घात हे।
अंदर खाना जिनगी बेढब, बिरबिट कारी रात हे।।
सुमता-समता रहना होही, तभे भलाई गाँठ लौ।
जन-मन देश समाज सुधारे, मन मा निर्णय टाँठ लौ।।
मनखे-मनखे एक-समाना, खींच-तान का फायदा।
घासीदास बबा के सुग्घर, अंतस राखौ कायदा।।
संत कबीर कहे हे जग मा, मनखे रहना चार दिन।
फेर लड़ाई झगरा काबर, मया बाँट लौ थोर किन।।
राम बुद्ध के देश हरे ये, रहना सब ला साथ हे।
भूल सुधारत बाबा साहब, संविधान अब नाथ हे।।
इही देश मा शहर गाँव मा, इहें जनम-माटी सबो।
दया-धरम ले अंतस सींचत, आवौ जुरमिल के रबो।।
छंदकार
बलराम चंद्राकर भिलाई
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मुकेश कुंडलिया छंद-- भेदभाव
आवव मिलके काट दव, ऊँच-नीच के जाल।
आज घलो छाए हवय, भेदभाव विकराल।।
भेदभाव विकराल, होत हे देखव कइसे।
देवव सब ला मान, बरोबर अपने जइसे।।
ऊँच-नीच के भेद, कभू झन मन मा लावव।
सुमता के परिवार, बनाबो मिलके आवव।।
मुकेश उइके "मयारू"
ग्राम- चेपा, पाली, कोरबा(छ.ग.)
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माहिया छंद
भेद-भाव लटका थे,
ना समझी मनखे,
रद्दा ला भटका थे ।
ऊंच नींच भाग जही,
मया पिरित राखव,
सूते हा जाग जही। ।
सब एक बरोबर हें,
मनखे-मनखे बर,
मनुहार सरोवर हे।
राजा ना रानी हे,
धरती कोरा मा,
सब झन बर पानी हे। ।
सूरज कब भेद करै,
घाम छाँव सब बर,
मनखे मन छेद करै।।
जे प्रेम कमाही जी,
सबके हिरदे मा,
घर एक बनाही जी।
हम जात बनाए हन,
टोर घलो देबो,
अब हाथ बढ़ाए हन।।
दुनिया हर मेला ये,
मेल डरे सब ला,
मुँड़ पेलिक पेला ये। ।
सुमित्रा शिशिर भिलाई
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सरसी छंद
विषय- सुमता, एकता
मिलके सुमता ले सब राहव ,सबके राखव ध्यान।
देके सबला मीठा बोली, बाँटव घर ग्यान।।
बोझा भारी हे संसो के, घर मा रखव उतार।
रहिथे सुमता जेकर घर मा, सुखी उही परिवार।।
पूछव सबके काम धाम ला, रद्दा सही देखाव ।
सब झिन मिलके कर लो मिहनत,मन चाहा फल पाव।।
लागा बोड़ी ला नइ जाने, जाने नहीं उधार ।
रहिथे सुमता जेकर घर मा, सुखी उही परिवार।।
माथ निहारे बिपदा लहुटे , अपन मान के हार ।
बाहिर खोजे मा नइ पाबे, घूम जबे संसार।।
येकर ले सब उपजे बाढे, ये ही हमर अधार।
रहिथे सुमता जेकर घर मा, सुखी उही परिवार।।
दुरिहा छोड़व भेदभाव ला, सुमता हावय सार ।
सबके सुनके मन मा गुन के, लगा ले मया नार।।
बोबे तेला लूबे तैं हा, मन के मधुरस झार।।
रहिथे सुमता जेकर घर मा, सुखी उही परिवार।।
मोहन लाल साहू " कबीरपंथी"
छंद साधक, सत्र
ग्राम दानीकोकडी(धमधा) दुर्ग
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दोहा छंद
*छुआ - छूत, भेदभाव ,ऊंच - नीच*
छुआ - छूत का चीज हे , कोन बनाये जात।
दरद होय तन ला तभो,मुक्का हो या लात।।
मनखे मन के सोच ला, देखत रोय कबीर।
कोनो भी बरतन रहय ,दूध बनाही खीर।।
पानी हवा अगास मा, नइहे कोनो भेद।
मनखे मा अंतर भरे, सोच घड़ा मा छेद।।
सबके घर पानी गिरे, सब घर आये घाम।
सब ला ईश्वर दे हवय,रंग रूप अउ चाम।।
कोन करे घपला इहाँ, कोन रचत हे स्वाँग।
नाम लेत भगवान के ,मनखे पीये भाँग।।
समय - समय के बात हे, समय-समय के सोच।
समय बदलगे हे सखा,मिटही मन के मोच।।
एक सरीखे सब हवंय, फेंकव छूत विकार।
मिले हवय हर वर्ग ला,स्वतंत्रता अधिकार।।
जस - जस होवत हे इहाँ,शिक्षा के विस्तार।
भेद मिटत हे जाति के, सुधरत हे व्यवहार।।
सुनलव आही एक दिन, रहही मनखे नाम।
जाति - धरम सब मिट जही, बच जाही बस काम।।
आशा देशमुख
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जगन्नाथ सिंह ध्रुव दोहा छंद
भेद -भाव
भेद भाव ला छोड़ दौ, मनखे हे सब एक।
जाति धर्म अउ रंग हा, हावै भले अनेक।।
जुरमिल राहव एक मा, बनही बिगड़े काज।
जन -जन के मन मा तभे, करहू निशदिन राज।।
एक मातु के पूत हौ, एक लहू के रंग।
पीरा होथे एक जस, कटे काखरो अंग।।
कतका रोज बताय हे, सज्जन संत सियान।
मन के भेद मिटाय बर, सब ले बदौ मितान।।
आदिकाल ले एक हे, शिक्षा अउ संस्कार।
चलव सदा सद मार्ग मा, इही जगत आधार।।
भेद भाव ला पाल के, राखव झन बेकार।
जिनगानी के दिन इहाँ, हावय गिनवा चार।।
खाँई गड्ढा पाट दौ, भेदभाव के आज।
मानुष तन ला पाय के, रख लौ जग मा लाज।।
पर हित अउ सम्मान के, रखव सबर दिन ध्यान।
ये जग मा सुग्घर तभे, होही नवा बिहान।।
जगन्नाथ ध्रुव
घुँचापाली बागबाहरा
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अश्वनी कोसरे दोहा छंद
अस्पृश्यता उन्मूलन जाति-प्रथा ऊँच-नीच भेद-भाव
भाईचारा ले बने, दुनिया के माहोल|
मानवता के रूप मा, विश्व गुरु के बोल||
सबो जीव के मोल हे, संरक्षण अधिकार|
जात पात ले हे बड़े, मनखे सब परिवार||
देव पहर आजो हवय, हे मानुष मा ज्ञान|
मानवता आजो रहय ,कहिथें संत सुजान||
तन मन बने सँवार के, पबरित सुमता भाव|
भेद कहाँ रहि जाय जी, समता फिर सिरजाव||
भेद भाव मा का मिलै, जिनगी हे अनमोल|
वाणी गुरुजन के गुनन, बोले हे बड़ तोल||
अश्वनी कोसरे 'रहँगिया' कवर्धा कबीरधाम
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अश्वनी कोसरे वीर छंद
भेद - भाव
सुरुज नरायन भेद करिन का, जात रंग मनखे के देख |
बादर पानी छाँटे गिरथे, का बड़हर के घर हे लेख||
डर कुलीन पुरवाही चलथे, का कुलवंता हावँय शेर|
काबर घलो जरोथे आगी, राजा जर के हावँय ढेर||
अपन विकासे राज धरम के, जाति पाति के हावय शोर|
लोकतंत्र मजबूत करे ले, मिल पाही समता सुखभोर||
जाति देख के सत्ता झुकथे, काबर मन मा रखथें भेद|
छुआ छूत हे भवना दहरा, मानवता बर बड़का छेद||
उजियारा शिक्षा ले आही, समता - सुमता के सुर देख|
ऊँच - नीच के पटही खाई, जात धरम के मूल सरेख||
अश्वनी कोसरे 'रहँगिया' कवर्धा कबीरधाम
कौशल साहू कुंडलिया छंद
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विषय -ऊँच-नीच भेद-भाव छुआछूत
बाँटव झन मुँह रंग मा, ईश्वर के सब अंश।
कोनों ला अब झन डहय, छुआछूत के दंश।।
छुआछूत के दंश, सहे पीरा दुखदाई।
भेद-भाव बिसराव, बरोबर पाटव खाई।।
जनमन उपजन एक, गौर करिया झन छाँटव।
बनके सूरज चाँद, अँजोरी रतिहा बाँटव।।
सबके तन मा हे लहू, लाली लाली रंग।
परम पिता जी एक हे, सिरजाये सम अंग।।
सिरजाये सम अंग, भेद काबर फिर करथव।
जात धरम मा रार, जहर ये मन मा भरथव।।
ऊँच-नीच ला पाट, रहव झन कोनों दबके।
मनखे एक समान, लहू हे लाली सबके।।
कौशल कुमार साहू
जिला - बलौदाबाजार ( छ.ग.)
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*अस्पृश्यता जाति-प्रथा भेद-भाव ऊँच-नीच*
*विधा- आल्हा छंद गीत*
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जनम धरे हें सबो परानी, जब भुइयाँ के एके ठाँव।
मनखे-मनखे ला मत बाँटव, जाति-धरम के लेके नाँव।।
बाम्हन क्षत्री वैश्य शुद्र ये, चार वर्ण के हे उल्लेख।
काम अधार बने ये सबके, पोथी पुरखा पढ़ लव देख।
बाँधत हव अब काबर संगी, जाति-पाँति के बेड़ी पाँव।
मनखे-मनखे ला मत बाँटव, जाति-धरम के लेके नाँव।।
जइसे करनी वइसे भरनी, हवय कहावत जग मा जान।
जाति चिन्हारी नोहय ककरो, करम बनाथे जी पहिचान।
भाईचारा ला अपना के, सरग बरोबर बनथे गाँव।
मनखे-मनखे ला मत बाँटव, जाति-धरम के लेके नाँव।।
ऊँच-नीच कोनो नइ होवय, जाति सबो हे एक समान।
एके अन्न सबो झन खाथें, तब काबर हे भेद सुजान।
मनखे होके मनखे मन बर, छूत समझ के करव न खाँव।
मनखे-मनखे ला मत बाँटव, जाति-धरम के लेके नाँव।।
जुरमिल के सब काम करव अउ, गावव मिल सुमता के गीत।
शिक्षा अउ संस्कार जगावव, आपस मा राहव बन मीत।
भेदभाव के पाटव खाई, तब मिलही खुशहाली छाँव।।
मनखे-मनखे ला मत बाँटव, जाति-धरम के लेके नाँव।।
*डॉ. इन्द्राणी साहू "साँची"*
भाटापारा (छत्तीसगढ़)
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कुंडलिया छंद -"अलगाव"
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मनखे जम्मों एक हे, एक हाड़ अउ माँस।
दुनिया मा बहिथे हवा, सरी जगत के साँस।।
सरी जगत के साँस, सबो बर एके पानी।
नइ कोनों हें खास, एक सब के जिनगानी।।
ऊँच-नीच के भेद, छोड़ सब जाचे परखे।
झन देवव हिनमान, एक हे जम्मों मनखे।।
घिनही होगे रोग कस, जाति धरम के भेद।
जब ले आइस आर्य मन, करदिन हिरदे छेद।।
करदिन हिरदे छेद, लाद के वर्ण व्यवस्था।
वर्ण बने गा जात, बदल गे सब के आस्था।।
पूरा बँटे समाज, जाति ले सब ला चिनही।
ऊँच-नीच के भेद, घाव जस होगे घिनही।।
कहिथे जेला नीच हे, हिरदे करथे घाव।
जाति भेद ले हो जथे, मनखे मा अलगाव।।
मनखे मा अलगाव, कहाँ मन हा मिल पाथे।
छुआ-छूत बढ़ जाय, बैर हा गड़हा जाथे।।
होवय कइसे एक, सबो छरियाहा रहिथे।
मेटावव जंजाल, नीच जेला हे कहिथे।।
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द्रोपती साहू "सरसिज"
महासमुंद छत्तीसगढ़
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संगीता वर्मा, भिलाई सर्वगामी सवैया
सेवा करे ले सदा पुण्य पाथे इही बात के तो सुनौ जी कहानी।
छोड़ौ हमेशा दुआ भेद संगी चलौ बोल बोलौ बने मीठ बानी।
साजौ सजावौ बने कर्म ला एक लोटा तभे आज पाहू ग पानी।
राखौ मया धीर ले काम लौ पार होही तभे तोर नैय्या ग दानी।।
संगीता वर्मा
भिलाई
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नंदकिशोर साव साव कुंडलिया छंद - जात पात
मानव मानव एक हे, ईश्वर के सिरजाय।
जाति धरम के फेर मा, मानवता बिसराय।।
मानवता बिसराय, लहू सब झन के एके।
करिया गोरा चाम, गढ़े माटी ला लेके।।
जाति बड़े नइ होय, करम बड़का जी जानव ।
मानौ सब ला एक, नही बाँटव गा मानव ।।
समता के जी बीज बों, ऊँच-नीच ला छोड़।
जात-पात के भेद ले, तुरते नाता तोड़।।
तुरते नाता तोड़, पवन पानी सब बर हे।
एके सूरज चाँद, उही नारी अउ नर हे।।
एके हे भगवान, जाति बर सबके ममता।
रहव सबे मिल साथ, रहे हिरदे में समता।।
नंदकिशोर साव "नीरव"
राजनांदगाव
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नारायण वर्मा बेमेतरा *सरसी छंद-छुआछूत*
कुटका होगे देश एक घँव, आड़ धरम के लेत।
फेर जात बर मचे लड़ाई, हे बाँटे के नेत।।
चान करेजा भारत माँ के, करिन दुष्ट मन राज।
उनखर पाप करम करनी ला, भोगत हन सब आज।।
मौका ताकत हे पापी मन, आवत नइहे लाज।
तड़पत बिन पानी कस मछरी, पहिरे खातिर ताज।।
लउपट हरहा नकटा नेता , चरत ददा कस खेत।
कुटका होगे देश एक घँव, आड़ धरम के लेत।।
हाड़ माँस अउ चाम एक हे, एक लहू के रंग।
मालिक एक गढ़े सब झन ला, काबर माते जंग।।
फूल खिले बगिया मा कोनो, जइसे रंग बिरंग।
फुलवारी कस जान धरा ला, मिलजुल रहिथन संग।।
बरय दिया सुग्घर सुमता के, आव करिन सब चेत।
कुटका होगे देश एक घँव, आड़ धरम के लेत।।
वर्ण व्यवस्था पुरखा मन के, रिहिस कर्म आधार।
पर कुरीति हर बाधक बनके, दुर्बल करत विचार।।
बाँट दलित अगड़ा पिछड़ा मा, शोषण करत हमार।
छुआछूत हे कोढ़ बरोबर, लोकतंत्र बर भार।।
ऊँच नीच के बिख ला झारव, बइठे बने परेत।
कुटका होगे देश एक घँव, आड़ धरम के लेत।।
जनमभूमि अउ महतारी ला, कहिथें सरग समान।
उही बरोबर अपन जाति कुल, होथे गरब मितान।।
नइ बँटना हम ला छल बल मा,सुनव खोलके कान।
निज धरम देश बड़का सबले, हाबय करम महान।।
कसम तिरंगा अउ गंगा के, चंदन तुँहला देत।
कुटका होगे देश एक घँव, आड़ धरम के लेत।
नारायण प्रसाद वर्मा चंदन
ढ़ाबा-भिंभौरी, बेमेतरा
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