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Saturday, August 2, 2025

नशा-छंदबद्ध कविता


लावणी-छंद  


चरण दास बन नशा ह आथे, अउ वो दास बना लेथे।

बड़े-बड़े लखपति नइ बाँचय, उनला राख धरा देथे।।

माता के ममता खा जाथे, पितु के मान बड़ाई ला।

लइका मन के भविष लीलथे, पत्नी के तरुणाई ला।।


इही नशा के फेर म देखौ, कतको मनखे तन खोथें।

इही नशा के मार म देखौ, कतको झन भूखे सोथें।

इही नशा मन चोर बनाथे, इही बनाथे हत्यारा।

इही नशा के कारण कतको, फिरत हवँय मारा-मारा।।


चरस हिरोइन गाँजा डोडा, दारु भाँग माखुर बीड़ी।

रिश्ता नाता सब ला येहा, कर देथे छीड़ी-तीड़ी।।

नशा नाश के जड़ सँगवारी, ये आवय नागिन सुरसा।

'शर्मा बाबू' रहव बाँच के, कर देही सबला भुरसा।।


कमलेश प्रसाद शर्माबाबू 

कटंगी-गंडई जिला केसीजी 

छत्तीसगढ़-९९७७५३३३७५

,   कमलेश प्रसाद  शरमाबाबू नशा नाश के जड़

!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

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चौपाई-छंद 


नशा नाश के जड़ हे भारी। ये नोहय जी निन्दा चारी।। 

जेन अभेड़ा येखर परथे। बिना काल के वोहा मरथे।।


गाँव-गाँव मा मिलथे दारू। नशा उतरथे पियँय उतारू।। 

जघा-जघा मा कूदत रहिथें। जस छानी बन्दर मन डहिथें।।


झन खा गुटखा माखुर खैनी। नजर कभू नइ राहय पैनी।।

तन-मन-धन होही बरबादी। जे मन होहीं येखर आदी।।


बाई बच्चा रहि-रहि रोंही। देखत रद्‌दा लाँघन सोहीं।।

कभू बने नइ पावँय सुख ला। सुने कोन अब ऊँखर दुख ला।।


अँधरा भइरा होइस राजा। आँख मूंँद के माछी खाजा।।

कोन लड़ाई अब तो लड़हीं। बिना मउत के सूली चढ़हीं।।


वोट लेत ले झूठा भाषण। दारू मा चलथे सब शासन।।

'शर्मा बाबू' शरम करव रे। जा डबरा मा डूब मरव रे।।


कमलेश प्रसाद शर्माबाबू

कटंगी-गंडई 

जिला केसीजी छत्तीसगढ़

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,   कमलेश प्रसाद  शरमाबाबू गुटका (मनहरण घनाक्षरी)


बीरो पान हा नँदागे,गुटका पाउच आगे,

छेरी कस मनखे हा,देख चबुलात हे।

पइसा मन उरके,खाय नँगत पुरके,

पइसा के चीज आज,कइसे थुकात हे।

जघा-जघा इही हाल,सकलागे मुँहु गाल,

जानबूझ जहर ला,आज लोग खात हे।

सरकार होगे अंधा,चलत बिकट धंधा,

गाँव-गाँव गली-गली,आज ये बेंचात हे।


कमलेश प्रसाद शर्माबाबू 

 कटंगी-गंडई जिला केसीजी 

 छत्तीसगढ़

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,   Om Prakash Patre कुकुभ छन्द गीत- नशा नाश के जड़ हे संगी (२७०७२०२५)


तन मन धन के नुकसानी हें, बात सही हे धरहू जी । 

नशा नाश के जड़ हे संगी, नशा पान झन करहू जी ।।


गाॅंजा दारू बीड़ी माखुर, गुटखा आनी बानी हें ।

ये पूरा दुनिया मा छाये, झन पूछव मनमानी हें ।।


टी बी कैंसर लकवा होथे, अल्पकाल झन मरहू जी ।

नशा नाश के जड़ हे संगी, नशा पान झन करहू जी ।।


घर मा नारी लइका पिचका, खाये बर नित लुलवाथे ।

मातु-पिता भाई-बहिनी के, गर मा फाॅंसी लग जाथे ।।


कोन बचाही अइसन बेरा, काकर पइयाॅं परहू जी ।

नशा नाश के जड़ हे संगी, नशा पान झन करहू जी ।।


कुकुर बरोबर गति हा होथे, मति हा छिन मा बउराथे ।

सोंच समझ काॅंही नइ राहय, जिनगी भर ठोकर खाथे ।।


चाॅंट-चाॅंट के जूठा थाली, पेट कभू झन भरहू जी ।

नशा नाश के जड़ हे संगी, नशा पान झन करहू जी ।।



✍️छन्दकार, गीतकार, लोकगायक🙏

ओम प्रकाश पात्रे 'ओम '

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,   Dhaneshwari Soni Gull 📚📖✒️ दोहा

विषय,,,,,नशा


नशा नाश के जड़ हवै, बनै जीव के काल।


बीड़ी गांँजा झन पियै, होथे गा जंजाल।।


दारू गाँजा  रोज के , पीथे जे भकवाय।

बुद्धि मिटा जाथे तिहाँ, पैसा कोन कमाय।।


केंसर के रद्दा इही, जानत रहिथे लोग।

शान बताथे देखलौ, लेथे तन मा रोग।।


लत परथे जब थोर कन, ललहा बनके खाय।

गुटका ला मुहु मा भरे, पिच-पिच थूकत जाय।।


घर कुरिया ला बेच के, बरतन भाड़ा खाय।

गहना गुरिया का बचै, घर के मान गवाय।।


जेकर घर दारू बहै, देवव ओला त्याग।

रहै देवता घर भरै, जागय ओखर भाग।।


धनेश्वरी सोनी 'गुल'✍️

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,   पात्रे जी बरवै छंद- नशा


नशा करे ले होथे, नाश समाज।

बर्बादी तन धन के, बुरा रिवाज।।


दास नशा के झन बन, होय विनाश।

सुख संपत्ति ला हरै, करै उदास।।


नशा करे दुर्घटना, होथे लोग।

बड़े-बड़े बीमारी, कैंसर रोग।।


करथे बुद्धि खोखला, भरै विकार।

नाम नशेड़ी देथे, नशा उधार।।


नशा गिराथे सुख मा, दुख के गाज।

नशा करे ले होथे, नाश समाज।।


हलाकान घर लइका, सगा समेत।

समय रहत ले हो जौ, सबो सचेत।।


तब जिनगी मा आही, नवा सुराज।

नशा करे ले होथे, नाश समाज।।


गाँजा बीड़ी गुटका, भांग शराब।

करे फेफड़ा किडनी, आंत खराब।।


मौत गुड़ाखू माखुर, चरस अफीम।

येला छोड़े के कर, तुरत उदीम।।


तभे बाचही घर अउ, खुद के लाज।

नशा करे ले होथे, नाश समाज।।


✍🏻इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध" 

बिलासपुर (छत्तीसगढ़) 

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,   पात्रे जी कुंडलिया छन्द- नशा


दारू झन पीयव कभू, झन पीयव सिगरेट।

बीड़ी गाँजा भाँग हा, देथे जिनगी मेट।।

देथे जिनगी मेट, देह मा रोग समाथे।

नाम भये बदनाम, मान मिट्टी मिल जाथे।।

गजानंद के गोठ, ध्यान दे आज समारू।

नशा करे धन नाश, छोड़ पीये बर दारू।।


आदी बनवा के नशा, जिनगी करे तबाह।

काल बने इंसान ला, करथे सुनव अगाह।।

करथे सुनव अगाह, चेत जावव रे भाई।

जकड़े रोग शरीर, होत हे बड़ करलाई।।

गजानंद परिवार, सबो के हे बर्बादी।

जिनगी रख खुशहाल, नशा के झन बन आदी।।


होथे नशा विनाश के, जड़ जानौ सब लोग।

जिनगी होत खुवार नित, सँचरे तन मा रोग।।

सँचरे तन मा रोग, बुद्धि मनखे के हरथे।

खोथे इज्जत मान, बुराई मन मा भरथे।।

गजानंद पछतात, मनुज जिनगी भर रोथे।

करे जला के राख, नशा दुख तिलगी होथे।।


✍🏻 इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"

बिलासपुर (छत्तीसगढ़) 

,   पात्रे जी छन्न पकैया- नशा


छन्न पकैया छन्न पकैया, नशा नाश के जड़ हे।

तन धन ला बरबाद करे ये, लत येखर गड़बड़ हे।।


छन्न पकैया छन्न पकैया, सुन ले बात बुधारू।

बछर एक सौ एक जिये बर, छोड़ पिये ला दारू।।


छन्न पकैया छन्न पकैया, झन खावव जी गुटका।

जहर बरोबर ये जिनगी ला, करथे कुटका-कुटका।।


छन्न पकैया छन्न पकैया, सुनव आज के पीढ़ी।

गाँजा अफीम सिगरेट घलो, हवय मौत के सीढ़ी।।


छन्न पकैया छन्न पकैया, नशा काल बन ठाढ़े।

भाँग चरस बीड़ी अउ हुक्का, साँप सहीं फन काढ़े।।


छन्न पकैया छन्न पकैया, खैनी खाना छोड़व।

टीबी केंसर दमा रोग सँग, झन नाता ला जोड़व।।


छन्न पकैया छन्न पकैया, छोड़ गुड़ाखू घिसना।

जानबूझ के दुख चक्की मा, जिनगी ला झन पिसना।।


छन्न पकैया छन्न पकैया, कहिथें लोग नशेड़ी।

पड़े नशा के लत मा मनखे, खुरचत रहिथें ऐड़ी।।


छन्न पकैया छन्न पकैया, गाँव शहर अउ पारा।

गजानंद जी हवय लगावत, नशामुक्ति के नारा।।


✍🏻इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"

बिलासपुर (छत्तीसगढ़) 

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,   अश्वनी कोसरे  नशा - रूपमाला छंद


छोड़ दारू के नशा ला, छोंड़ देना यार|

रोज के दारू पिये मा, छूटही घरबार ||

खाय गुटखा दाँत सरही, घट जही गा मान|

छोड़ दारू त्याग खैनी, छोड़ जरदा पान||


तोर दुख ला का भुलाहीं, तोर गा परिवार|

तोर जाये टूट जाही़ं, हो जही मुँधियार||

मंद महुरा तोर नोहय,  बन जबे कंगाल|

दाँत झरही बाल झरही, जीव के जंजाल||


का नशा मा जीव देबे, होत पीरा घात |

छोड़ दे तैं ये नशा ला, मान लेना बात||

कर नशा तैं देश खातिर, हो जना बलिदान|

राज गाही देश गाही, तोर गा गुनगान||


अश्वनी कोसरे 'रहँगिया' कवर्धा कबीरधाम

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,   डी पी लहरे छप्पय छन्द 

विषय-नशा

दारू()

मानौ कहना मोर,कभू दरुहा झन होहू।

मिट जाही सम्मान,मुड़ी धर-धर के रोहू।

होही बड़ नुकसान,सदा धन दौलत खोहू।

होके जग बदनाम,मौत के मुँह मा सोहू।

झन पीहू दारू कभू,मौज कहत हे मान लौ।

कंचन काया पाय हव,तेला जी पहिचान लौ।।


बीड़ी()

बीड़ी लेवय जान,बढ़ावय अब्बड़ खाँसी।

अटके जावय साँस,चढ़े कस लागय फाँसी।

सोंखय तन के खून,रोग केंसर के लावय।

करय हृदय आघात,नैन अँधियारी छावय।

झन पीहू बीड़ी कभू,धुआँ धुआँ तन ला करै।

करके सुख्खा फेफड़ा,छिन भर मा जिनगी हरै।।


माखुर()

माखुर मुँह मा लाय, जान लव केंसर भारी।

आनी-बानी रोग, पछेड़य पारी-पारी।

निकोटीन के धार, सड़ावय अतड़ी पोटा।

निकले मुँह ले लार, सुखावय माखुर टोंटा।

माखुर के बदला बने,सौंफ सदा तुम खाव गा।

छोड़व माखुर आज ले, साव चेत हो जाव गा।।


गुटका ()

गुटका के नुकसान, झेलथे मुँह अउ जबड़ा।

चटके-पिचके गाल, पेट मा होथे लफड़ा।

पेट साफ नइ होय, गैस के रोग लगाथे।

कर देथे मुँह बंद, दाँत ला इही सड़ाथे।

गुटका के नुकसान ले, बाँच सकौ ता बाँच लौ।

का खाना का हे नहीं, तेला पहिली जाँच लौ।।


गुड़ाखू ()

छोड़ गुड़ाखू यार, घींस के बड़ पछताबे।

माथा फटही तोर, घूम के चक्कर खाबे।

मुरछा देही मार,दाँत मा लगही कीड़ा।

मर जाबे बेमौत, अतिक तँय सह के पीड़ा।।

समय रहत ले मान जा,छोड़ गुड़ाखू आज ले।

दतवन कर तँय लीम के,तन मन ला जी साज ले।।


गाँजा()

श्वसन क्रिया ला बंद, करय ए गाँजा भाई।

खाँसी अउ कफ लाय,फेफड़ा बर दुखदाई।

निमोनिया के रोग, होय जी गाँजा सेती।

तन के करय विनाश ,बना दय सुख्खा रेती।

घबराहट बढ़ जाय गा,रक्तचाप बढ़ जाय जी।

गाँजा पीये ला छोड़ दे,नशा खराबी ताय जी।।


नशा()

होथे नशा खराब,नशा झन करहू भाई।

टोरय घर परिवार,नशा मा हे करलाई।

तन ला करय खुवार,बढ़ावय ए दुखदाई।

छोड़व मन मा ठान,इही मा हवय भलाई।

नशा पान महुरा सहीं,ले लेथे ए जान जी।

बदनामी करथे नशा,सदा मिटाथे मान जी।।


डी.पी.लहरे'मौज'

कवर्धा छत्तीसगढ़

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,   डी पी लहरे गीतिका छन्द गीत

वाह विषय-दारू


छोड़ दारू मोर भाई जीव के जंजाल हे।

जेन पीथे रोज दारू तेन हा कंगाल हे।।


हे नशा महुरा बरोबर ले जथे रे जान ला।

ए मिटा देथे सबो के मान अउ सम्मान ला।।

जेन आदी हो चुके हे वो सदा बेहाल हे।

छोड़ दारू मोर भाई जीव के जंजाल हे।।


बस कलह माते रथे घर मा सदा बेकार के।

हो जथे मरना नशा मा रोज गा परिवार के।

आज मन मा सोच तँय हा ए नशा हा काल हे।

छोड़ दारू मोर भाई जीव के जंजाल हे।।


डी.पी.लहरे'मौज'

कवर्धा छत्तीसगढ़

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,   डी पी लहरे हाकलि छन्द दारू 


झन पीबे दारू भाई,

नइ बाँचे पाई-पाई।

दारू मा करलाई हे,

जिनगी भर दुखदाई हे।।


जब-तक दारू पीबे रे,

घुट-घुट के तँय जीबे रे।

सरही लादी-पोटा हा,

परही यम के सोंटा हा।।


बढ़ जाही बीमारी हा,

बिक जाही घर बारी हा।

दारू मा बदनामी हे,

बड़का एमा खामी हे।।


धन दौलत तन खो जाही,

कंचन काया नइ आही।

सो जाबे तँय टाटी मा,

मिल जाबे रे माटी मा।।


घर के मनखे पछताहीं,

छिन-छिन मा रोहीं गाहीं।

दारू ला तँय नइ पीते,

ऐबल भर तँय अउ जीते।।


डी.पी.लहरे'मौज'

कवर्धा छत्तीसगढ़

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,   राजेश निषाद जलहरण घनाक्षरी 

।।नशा करय नाश।।


मंगलू हा पीये दारू, बीड़ी ला फुँके बुधारू, समारू चरस गाँजा, रबि गुटखा खावय।

नशा हे ख़राब तोर, भावै नहीं मोला थोर, बात एक दूसर ला,

मिलके समझावय।

चारो नशा के शिकार, धीरे-धीरे हो बीमार, मउत के खचवा मा, जाके रोज समावय।

नशा काँही के भी होय, जाथे सब कुछ खोय, खड़े यम द्वार लोग, सोच के पछतावय।।


राजेश कुमार निषाद ग्राम चपरीद रायपुर

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,   मुकेश  सिंहिका छंद-- नशा नाश के जड़

      


भाँग गाँजा के नशा मा, खेत खार लुटाय।

चाल ओकर देख लौ जी, मार लात खाय।।

नाश के जड़ हे नशा हा, चेत जा मतवार।

रोज घर परिवार मा जी, पोठ होवत रार।।


मंद पी के मात जावय, झन पुछव तब हाल।

होय मरना रात दिन गा, खाय देखव काल।

रोग बइरी आय मा जी, देह ठाढ़ सुखाय।

जब करै मनखे नशा ला, जान ओकर जाय।।


मुकेश उइके "मयारू"

ग्राम- चेपा, पाली, कोरबा(छ.ग.)

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,   मुकेश  दोहा छंद--- नशा  


दारू गाँजा के नशा, तन ला करय खुवार।

धन दौलत नकसान कर, फोरय जी घर बार।।


नशा पान करके सदा, खोवँय गा सम्मान।

बहिनी बेटी अउ बहू, होवँय सब हलकान।।


गुटका माखुर रोज के, मुँह मा रहँय दबाय।

टी बी केंसर हा झपा, यम दुवार पहुँचाय।।


बीड़ी अउ सिगरेट हा, चुहकय सब्बो अंग।

नशा पान परिवार मा, रार मताय मतंग।।


पान मसाला खाव झन, देवय दाँत सड़ाय।

जहर बरोबर हे नशा, सबके जिनगी खाय।।


नशा करे तन भीतरी, अब्बड़ रोग हमाय।

किडनी लीवर फेफड़ा, सब खराब हो जाय।।


काकर बाँचे आज तक, घर कुरिया अउ खेत।

हरके बरजे मा घलो, जावव सब झन चेत।।


नशा नाश के जड़ हवय, सार बात लौ जान।

छोडव मन मा ठान के, नइ तो जाही प्रान।।


मुकेश उइके "मयारू"

ग्राम- चेपा, पाली, कोरबा(छ.ग.)

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,   आशा देशमुख लावणी छंद

विषय - नशा



नशा भले मितवा कस लागे ,पर होथे सब ले बइरी।

जिनगी मा एखर से भैया , मातय रहिथे गा गइरी।।


धीरे -धीरे मन ला भावय, फेर तहन तन ला घेरय।

किसम -किसम के बीमारी हा, घर के सब सुख ला पेरय।।


माखुर बीड़ी गुटखा गाँजा,ये सब हें भाई -भाई।

 इंखर किस्मत मा ईश्वर हा, सिरिफ लिखे हे दुखदाई।।


जे मन इंखर संग धरे हे,ओखर हो जाथे आदी।

घर परिवार रहय अति दुख मा, खुसरे घर मा बरबादी।।


तन -मन -धन के अइसे दुश्मन, एको बीजा नइ छोड़य।

धोये चाँउर तक नइ बाँचय,अपन कबर ला खुद कोड़य।।


नशा एक झन आवय नाही, सब कुटुंब मन ला लाथे।

दुख के दाई बहिनी मन सब, मिलके इनला परघाथें।।


दारू के तो बात करव झन, जगह - जगह खुलगे भट्ठी।

एखर बिना होय नइ कुछ भी ,चाहे मरनी या छठ्ठी।।


मार -मार  सुख ला खेदारे,शांति घलो रोवत निकले।

नशा - नाश के कारण बनथे, बिन आगी लोहा टिघले।।


नशा करे जब घर के मुखिया,बेटा शिक्षा बर तरसे ।

बिन ब्याही बेटी रहि जाथे, कइसे घर मा सुख हरसे।


नशा डुबोवय नाम -मान ला, जन समाज थू-थू करथें।

बचव सबो जी नशा पान से, एखर से जिनगी सरथे।।



दोषी कोन हवय येमा जी , लेवइया या बेचइया।

सार बात सरकार सुनव जी, डूबे कतकों के नइया।


आशा देशमुख

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,   भागवत प्रसाद, डमरू बलौदा बाजार  रूप माला छंद

हे नशा ले फायदा का


हे नशा ले फायदा का, आज देवव ध्यान।

काम बिगड़े हे सदा ही, होय हे हिनमान।।

मंद महुआ ले बिमारी, देह लेथे घेर।

जेन चक्कर मा पड़े हे, होय हावय ढेर।।


का मजा पाथें बता दौ,बेच के घर बार।

लोग लइका भूख मरथें, टूट के परिवार।।

चाब गुटखा रात दिन मुँह, भाँग मनभर खाय।

काल के पहिली सदा वो, द्वार यम के जाय।।


जेन पीथे मंद मनभर, होत ले बेहोश।

मार गारी पोठ खाथे ,हो जथे खामोश।।

का मजा सिगरेट मा हे, संग बीड़ी  बोल।

छोड़ गाँजा के चुलुक ला, आँख ला अब खोल।।


पाय मनखे देह ला तँय, रख बचा के शाख।

छोड़ देअब मंद पीना, हो जही तन राख।।

बंद कर सिगरेट दारू, भाँग गाँजा छोड़।

 हरि भजन मा मन लगा अउ, लोक हित मन जोड़।।


भागवत प्रसाद चन्द्राकर

डमरू बलौदाबाजार

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,   भागवत प्रसाद, डमरू बलौदा बाजार  त्रिभंगी छंद

,,,

आज नशा छोड़व

पदांत-अनिवार्य


सुन बात शराबी, खूब खराबी, करथे तन-मन, घाव सदा।

होथे नुकशानी, सब हलकानी, बेचाथे घर अउ, बार कदा।।

लोटा अउ थारी, गहना बारी, हँड़िया तक हा, बीक जथे।

तन होथे रोगी, सुन ले भोगी, स्वागत मा यम, दूत रथे।।


सब कहिथें मँदहा, गँजहा भँगहा, कोनो करथें, मान कहाँ।

तब घर के नारी, खाथे गारी, छुर-छुर करथें, जाय जहाँ।।

जो खाथे गुटका, मारो मुटका, बीड़ी गाँजा, भोग करे।

जीवन भर रोथे, घात पदोथे, टीबी केंसर, रोग धरे।।


खोर-खोर खाँसे, रोय न हाँसे, जाँगर बपुरा, काय करै।

मनखे घर भर के, मुड़ ला धर के, ओखर पाछू, खर्च भरै।।

जब रोग  समाथे, तब पछताथे, रोवत बइठे,  बात गुनै।

 होगे तन कइसे, पतझड़ जइसे, सोंचत मन मा, रोज धुनै।।


घर के धन दौलत, लइका औरत, कछु नइ बाँचय, बात सुनौ।

दारू जो पीथे, कम वो जीथे, कहिथें ज्ञानी, बात गुनौ।।

 तन कीमत जानव, चेतव मानव, लानव झन मन, दानवता।

आज नशा छोड़व, तन-धन जोड़व, लानव मन में, मानवता।।


भागवत प्रसाद चन्द्राकर

डमरू बलौदाबाजार

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,   भागवत प्रसाद, डमरू बलौदा बाजार  छोड़व आज नशा करना


मत्तगयंद सवैया

भगण+गुरु गुरु



सोचिन थोरिक आज सबो कतका कन लाभ हवै गुटखा मा।

थूँकत हौ खरचा करके पर प्राण फँसे रहिथे पुतका मा।।

रोग झपावत केंसर के जब आवत चेत नहीं अतका मा।।

आमदनी नइ हे जतका कन बोहत हे पइसा बिरथा मा।।


 पीयत मंद बने लगथे अउ बाद भले बिकटे पछताथे।

बंद रहै मुँह हा कहिथे अउ बिक्कट के झगरा मतवाथे।।

कारज जौन नहीं करना सबले पहली उन काम कराथे।

नाचत-कूदत उंडत-घूंडत वो दरुहा निज नाम ल पाथे।।


बात करैं पगला जस जी गँजहा -भँगहा झगड़ा ल मतावैं।

संगत मा बइठे अउ पीयत खूब धुआँ मुँह नाक उड़ावैं।।

जेब रखे सिगरेट सदा सुनसान जगा बइठैं सुलगावैं।

मस्त रहे अपने मन मा परिवार सगा दुनिया नइ भावैं।।


नाश नशा करथे तनके मन के धन के सब ला तुम जानौ।

छोड़व आज नशा करना सब चेत लगा कहना अब मानौ।।

आज कहूँ अपने टँगिया धर के अपने मत गोड़ ल चानौ।

वेद पुराण लिखे सत बात पढ़ौ खुद के दर ला मत खानौ।। 


  

भागवत प्रसाद चन्द्राकर

डमरू बलौदाबाजार

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,   भागवत प्रसाद, डमरू बलौदा बाजार  गाँजा बीड़ी हुक्का

सार छंद


पचर पचर के अबड़ थूँकथें, गुटखा माखुर खाके।

पीथें गाँजा बीड़ी हुक्का, परे रहे भकवाके।।

मन भर के दारू ला पी के, गति ला कुकुर बनाके।

मरे बरोबर जिनगी जीँथे, खुद के मान गँवाके।।


पीयइया मन के मन भाथे, सेव गोंदली मुर्रा।

पड़े रथे जे दारू पीके, चिखला नाली धुर्रा।।

कुकुर मूतथे ऊँखर ऊपर, दिखथें घात भकुर्रा।

हाथ गोड़ तक टूट जथे अउ, फूल जथे नकसुर्रा।।


मनखे देखत सबो नशेड़ी, नखरा भारी करथें।

बात बढ़ाथें जबरन के अउ, भारी उबड़ा परथें।।

हरके बरजे ले नइ मानँय, बात कहाँ वो धरथें।

परथे झापड़ मुटका डंडा, तभ्भे सूशी भरथें।।


हाथ जोड़ के पूछत हावँव, कोनो आज बतावौ।

नशा पान ले का फयदा हे, कोनो तो समझावौ।।

पढ़े-लिखे मनखे मन अब तो, समझौ आगू आवौ।

लइका लोग बिगड़ झन पावै, अइसन अलख जगावौ।।



भागवत प्रसाद चन्द्राकर

डमरू बलौदाबाजार

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,   भागवत प्रसाद, डमरू बलौदा बाजार  दारू पीना छोड़ौ

छन्न पकैया-छंद


छन्न पकैया छन्न पकैया, दारू पीना छोड़ौ।

गाँजा बीड़ी गुटखा माखुर, नाता अब तो तोड़ौ।।


छन्न पकैया छन्न पकैया, होथे बड़ बीमारी।

टीबी केंसर अलसर लकवा, तन मा लगथे भारी ।।


छन्न पकैया छन्न पकैया, लिवर किडनी गुरदा।

नाश नशा ले हो जाथे सब, जीयत मनखे मुरदा।।


छन्न पकैया छन्न पकैया, बरबादी सब होथें।

थारी लोटा सब बेंचाथे, डौकी-लइका रोथें।।


छन्न पकैया छन्न पकैया, सोंच सोंच मन चुरथे।

 रोग घेरथे तन ला संगी, धीरे-धीरे घुरथे।।


छन्न पकैया छन्न पकैया, नहीं फायदा काँहीं।

जेमन दारू गाँजा पीहीं, बदनामीं सब पाँहीं।।


छन्न पकैया छन्न पकैया, काबर पीथौ-खाथौ।

गीता के बानी नइ मानौ, व्यभिचारी बन जाथौ।।


छन्न पकैया छन्न पकैया, मानवता ला जानौ।

दारू गाँजा माखुर पी खा, बरबादी झन लानौ।।


 छन्न पकैया छन्न पकैया, सबला ज्ञान बताथौ।

जान बूझ के मौत कुआँ मा, काबर तुमन झँपाथौ।।


छन्न पकैया छन्न पकैया, सब ला अब चेतावौ।

नशा पान हा तन धन खाथे,  बाँचौ अउर बँचावौ।।


भागवत प्रसाद चन्द्राकर

डमरू बलौदाबाजार

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,   तातुराम धीवर  ।। नशा ।।


छन्न पकैया , छ्न्द 


छन्न पकैया छन्न पकैया, सुनले कका समारू।

बिक जाथे घर जमीन कुरिया, छोड़ पिये बर दारू।।


छन्न पकैया छन्न पकैया, बाई बच्चा रो ही।

रद्दा देखत तोर अगोरा, लाँघन भूखन सोहीं।।


छन्न पकैया छन्न पकैया, कलह घरोघर होथे।

जेन पिथे घर मा हे दारू,  सब संस्कार ल खोथे।।


छ्न्द पकैया छन्न पकैया, माते दारू पी के।

कतको समझा ले कहिथे का, करबो जादा जीं के।। 


छन्न पकैया छन्न पकैया, झन खा जर्दा गुटखा।

अल्सर होवय केंसर होवय, परय काल के मुटका।।


छन्न पकैया छन्न पकैया, गाल गला गल जाही।

पूत भतीजा दाई भाई, कोनो हर नइ भाही।।


छन्न पकैया छन्न पकैया, काम कहूँ नइ आही।

खैनी माखुर पान मसाला,ले अँतरी सर जाही।।


छन्न पकैया छन्न पकैया,  गाँजा बीड़ी पी झन।

खांँस खाँस के मरगे कतको, हर गे जिनगी के धन।।


छन्न पकैया छन्न पकैया,चीट सही जम जाही।

गाँजा बीड़ी के धुँगिया मा, साँस घलो थम जाही।।


छन्न पकैया छन्न पकैया, छोड़ गुड़ाखू हीरा।

दाँत सरे अउ चक्कर आये, हावय ये मुँड़ पीरा।।


छन्न पकैया छन्न पकैया, देंह सुखावय ठाढ़े।

नशा करे ले सुनलौ दीदी, बी पी शूगर बाढ़े।।


छन्न पकैया छन्न पकैया, सुनले सखा बरातू।

जिनगी अनमोल मिले हावय, झन कर तन ला खातू।।


      तातु राम धीवर 

भैंसबोड़ जिला धमतरी


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,   विजेन्द्र नशा - दुर्मिल सवैया 

नुकसान करे तन ला अतका,गुटका जरदा सब त्याग भला I

दुरिहा सब राहव एखर ले,बनहीं बढ़िया तब भाग भला I  

बरबाद करे कतको जिनगी,अब तो मनखे तँय जाग भला I

लइका पिचका परिवार जले,अइसे भपके जब आग भला I



जरदा गुटका खइनी मुँह मा,भरके अउ रोग बुलावत हे।

कतका बरजे परिवार घलो,ककरो नइ बात सुहावत हे।

अपने धुन मा अँधवा बनके,सब ला अउ नाच नचावत हे।

मद मा अउ चूर नशा करके,कइसे बड़ ताव दिखावत हे।


विजेन्द्र कुमार वर्मा 

नगरगाँव (धरसीवांँ)

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,   तातुराम धीवर  ।। नशा ।।


मनहरण घनाक्षरी


दारू पिये दरुहा हे, खाये बर ररुहा हे,

बिना पिये गरवा हे, पिये तब शेर हे।

पाव मा पच्चर मारे, आधा मा हे इतराँय,

पौना मारे पटखाय, बाटल मा ढेर हे।।

रेंगे लड़बिड़ करे, एती-ओती गिरे परे,

माछी-कुछी झूमे रहे, मगज के फेर हे।

आँखी होय अँधियारी, कछु नइये चिन्हारी,

कहे पर के दुवारी, सँकरी ला हेर हे।।


बात मोर सुन भाई, होथे भारी करलाई,

माते झगरा लड़ाई, घट जाथे मान हे।

घर परिवार रोथें, लाँघन भूखन सोथें,

खेती डोली बिक जाथें, होय जेमे धान हे।।

लाये नशा दमा खाँसी, होये जग मा हे हाँसी,

हावय गर बर फाँसी, निकले परान हे।

छोड़ नशा आही खुशी, मन भाही चुनी भूसी,

रोटी खाके रुखी सुखी, रइही संतान हे।।


    तातु राम धीवर 

भैंसबोड़ जिला धमतरी

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,   Dropdi साहू  Sahu ताटक छंद-" नाश नशा हा करही"

                   

गाँजा दारू माखुर मंजन, नशा नाश कर देथे जी।

धन दौलत अउ मति मनखे के, जम्मों ला हर लेथे जी।।


दसा बने मनखे के गिनहा, हाल कुकुर कस हो जाथे।

गारी गल्ला दूसर मन के, अउ बड़ अपनों ले खाथे।।


नशा करइया मनखे मन ले, बने आदमी हा भागे।

बात बात मा झगरा करथे, दूसर नइ कोनों  लागे।।


बटकी थारी  लोटा  गहना, बेंच बेंच  दारू  पीथे।

रहना सबके मुसकुल करके, घिलर नशेड़ी हा  जींथे।।


नइ घेपे घर के सियान ला, बड़ हबका दबका देथे।

फकत ददा दाई हा रोथे, अउ मन ला समझा लेथे।।


पीके गाँजा ला भकवाए, मनखे  हा बउरा  जाथे।

खँइता ओकर होय जवानी, फेर चेत नइ वो पाथे।।


महतारी के रिहिस दुलरवा, बुढ़ा बाप के वो आसा।

बाई  बच्चा  होगे  अद्धर, नशा  बदल  दे हे  पासा।।


बिहना भटके आथे संझा, भूले नइ कहिथे ओला।

छोड़ नसा के रद्दा संगी, सब गँजहा कहिथे तोला।।

                   

द्रोपती साहू "सरसिज"

महासमुंद छत्तीसगढ़

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,   ओम प्रकाश अंकुर नशा नाश के जड़ 

(सरसी - सार छंद)


नशा नाश के जड़ होथें जी, कर देथें बरबाद।

रहव दूर गाँजा-दारू ले, रहहू सदा अबाद।।

गुटखा माखुर के चक्कर मा, होथें मरे बिहानी।  

साव चेत रहिके सँगवारी, जियव बने जिनगानी।।

भाँग-चरस ले दूर रहव जी, छोंड़व मॅंउहा पानी।

दनुज सहिक झन होवय जिनगी, सुघ्घर बनव परानी।।

नशा पान करके भकवाके, घर मा मचाय रार।

गली-गली मा घूमत रहिथें, बइठे ठलहा झार।।

नशा पान कर दरवाहा मन, नंगत उधम मचाथे।

किसम-किसम के नखरा करके, सबला अबड़ सताथे।।

                           

  ओमप्रकाश साहू "अंकुर", सुरगी, राजनांदगांव

,   गुमान साहू विष्णुपद छन्द 

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।। नशा हे नाश।।


देख आज दुनिया मा कतका, नशा पान बढ़गे।

फँसे जाल मा येकर संगी, भेंट मौत चढ़गे।।


नशा पान ले थोरुक भी तो, होवय नहीं भला।

गला फेफड़ा अँतरी मन ला, देवय नशा गला।।


करे खोखला काया ला ये, धन बल कम करथे।

घर मा होवय रोज लड़ाई, मान घलो हरथे।।


रिसता नाता टूट जथे सब, बैरी होय सगा।

होके टल्ली लोग नशा मा, गिरथे जगा जगा।।


दारू बीड़ी गुटखा माखुर, पान जेन करथे।

बनथे बैरी अपने तन के, बीमारी भरथे।।


नशा अगर करना हे संगी, मन मा राम रमा।

दीन दुखी के करके सेवा, जग मा नाम कमा।।


- गुमान प्रसाद साहू 

- समोदा (महानदी)


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सरसी छन्द गीत 

।। खुल्लम-खुल्ला बिकत नशा हे।।


आनी बानी नशा करे के, हावय बड़ सामान।

खुल्लम-खुल्ला चीज नशीला, हावय बिकत दुकान।।


लोगन जर्दा माखुर गुटखा, मुँह मा रोज चबाय।

खा के थूकें जगा-जगा मा, शरम घलो नइ आय।।

जीभ गला अउ मुँह कैंसर के, कारण येहर आय।

दाँत सड़ावय लार सुखावय, देवय भूख भगाय।।

मुँह मा बदबू ये हर लावै, तभो खाय इन्सान। 

खुल्लम-खुल्ला चीज नशीला, हावय बिकत दुकान।।


बीड़ी गाँजा दारू पीना, आम बात हे आज।

खुशी मनाना दुःख बाँटना, सब मा येकर राज।।

अँतरी गलना किडनी सड़ना, दमा श्वाँस के रोग।

जाम फेफड़ा कैंसर टीबी, होवय कर उपभोग।।

अउ कतको बीमारी ला के, करथें ये नुकसान।

खुल्लम-खुल्ला चीज नशीला, हावय बिकत दुकान।।


काया ला ये करै खोखला, धन बल ला सिरवाय।

रिसता नाता तोड़ै सब ले, घर-घर रार मचाय।।

खुशी चैन ये छीनै सबके, देवय मान घटाय।

नशा जाल मा फँस के कतको, फोकट जान गँवाय।।

नशा पान मा नही भलाई, लेवव सब पहिचान।

खुल्लम-खुल्ला चीज नशीला, हावय बिकत दुकान।। 


- गुमान प्रसाद साहू 

- समोदा (महानदी)


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मनहरण घनाक्षरी 

।। नशा पान।।


नशा नाश के हे खाई, येमा नइ हे भलाई, लोग येला जान के भी, रोज अपनात हे।

आनी-बानी रोग होवै, सुख चैन सब खोवै, गली-गली होवै चारी, इज्जत गँवात हे।

घर मा मचाये रार, बने लोग मतवार, भूखन लाँघन फिरै, तन दुबरात हे।

छूटै नाता परिवार, लाचारी के सहै मार, जड़ जायदाद बिकै, करजा लदात हे।।


गुटखा माखुर पान, समझै लोगन शान, खाके थूकें जगा जगा, कचरा फैलात हे।

बीड़ी गाँजा मारै दम, रोज भर के चिलम, फेफड़ा धुआँ ला भरे, बीमारी बलात हे।

शराब मउहा मार, होवै लोग मतवार, अँतरी किडनी रोग, तन मा झपात हे।

चरस अफीम खाके, रहिथे जी भकवाके, धीमा जहर लोगन, रोज रोज खात हे।।


- गुमान प्रसाद साहू 

- समोदा (महानदी)

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,   तुषार वत्स 🥰🌹 चौपई छन्द

नशा करव झन

सुनव नशा झन करव मितान।

जिनगी बर हे खतरा जान।।

बीड़ी धुॅंगिया तन मा जाय।

भीतर भीतर घुन कस खाय।।


गुटखा मा सर जाथे दाॅंत।

दारू ले गल जाथे ऑंत।।

होथे केंसर जइसन रोग।

कष्ट जनम भर भोगॅंय लोग।।


पइसा पानी कस बोहाय।

लहुट फेर नइ सेहत आय।

खावव ताजा फल अउ साग।

शुद्ध हवा लव घूमव बाग।।


सही गलत ला देवव ध्यान।

तन हे ईश्वर के वरदान।।

आज अभीच्चे लेवव ठान।

समझावत हॅंव मॅंय नादान।।

तुषार शर्मा "नादान" 


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,   नंदकिशोर साव  साव सरसी छंद - नशा 


नशा नाश के जड़ ए संगी, झन कर एखर पान।

जिनगी ला बर्बाद करय ये, बीमारी के खान।।


पिथे जेन हा जादा वोकर, लीवर होय खराब।

किडनी जाथे सर जिनगी भर, अइसन हरे शराब।।

गिरे रथे नाली म कुकुर कस, होवय जग परिहास।

रिश्ता नत्ता गारी देवय, सदन कलह के वास।।

रुपिया पइसा भारी तंगी, होथे भैया जान।

जिनगी ला बर्बाद करय ये, बीमारी के खान।।


सुट्टा बीड़ी के मारय अउ, जौन पिए सिगरेट।

जरय फेफड़ा वोकर झरफर, रोगी होवय पेट।।

गाँजा धतुरा सब मादक हे, करय मगज कमजोर।

काम बुता मा पाछू होथे, कहलावय कमचोर।।

दूर नशा ले जौने रहिथे, वोही पाथे मान।

जिनगी ला बर्बाद करय ये, बीमारी के खान।।


गुटखा खैनी जर्दा पाउच, रगड़ रगड़ जे खाय।

कैंसर ला वो देवय नेवता, घोर नरक मा जाय।।

लौंग सौंफ सादा इलायची, खावव मानौ मोर।

सांस तरोताजा ये करथे, पाचन होय सजोर।।

छोड़व सब जी नशा पान ला, जियव साथ सम्मान।

जिनगी ला बर्बाद करय ये, बीमारी के खान।।


नंदकिशोर साव 'नीरव' 

राजनांदगाव (छ. ग.)

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,   संगीता वर्मा, भिलाई त्रिभंगी छंद- नशा 

नशा नाश के जड़, करथे तन के, बड़ नुकसानी,बात धरौI

टी बी केंसर के, रोग झपाथे, लड़ लड़ के दिन, रात मरौI

नारी महतारी, बरजे कतका, नशा नरक के, द्वार हरेI 

मान गौण धन यश, सब मिट जाथे, बात इही तो, सार हरेII



 नशा – कुंडलिया 

झंझट झगरा रोज के, कलर कलर दिन रातI  

घर फोरय बइरी नशा, रोग समाये घातI 

रोग समाये घात, करे तन के नुकसानीI 

लेवय सबके जान, माँग पाये ना पानीI 

मिटे मान सम्मान, लगे जिनगी हा कंझटI

नशा पान के रोग, कराथे झगरा झंझटII



संगीता वर्मा 

भिलाई

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,   जगन्नाथ सिंह ध्रुव  चौपाई छन्द  -   नशा 


बात मान के दारू छोड़व।

 तन ले सुग्घर नाता जोड़व।।

दारू ले बढ़ जाथे खर्चा।

करव घरोघर एखर चर्चा।।


येला पीके सबझन लड़थे।

खेत खार के काम बिगड़थे।।

जें मनखे हा भट्ठी जाथे।

ऊँखर घर सब दुःख झपाथे।।


घर घर लड़थे भाई भाई।

अँगना मा बन जाथे खाई।।

दारू हे सबझन बर घाटा।

मिले नहीं बासी अउ आटा।।


दारू आय बड़े बीमारी।

संकट लाथे ये बड़ भारी।।

कोन इहाँ दारू मा तरगे।

येला पीके कतको मरगे।।


   जगन्नाथ ध्रुव 

चण्डी मंदिर घुँचापाली 

    बागबाहरा

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,   जगन्नाथ सिंह ध्रुव  नशा-  सरसी छन्द


दारू मा बर्बाद हवय जी, सबके घर परिवार।

चाँउर दार घलो नइ बाँचय, कर देथे लाचार।।

एक पाव दारू मा सबके, बदल जथे जी चाल।

इँखर नशा के लत हा बनथे, सबके जी के काल।।

दुनिया भर के दुख घर आथे, रोज नशेड़ी संग।

घर परिवार बाप दाई सब, रहिथे दिनभर तंग।।

घर के जम्मो सुख सुविधा ला, नशा करे बर्बाद।

दरुहा मन के भार उठाना, पड़थे छाती लाद।।

किरिया खाके छोड़व सबझन, दारू गाँजा भाँग।

सुखमय जिनगानी बर संगी, इही समय के माँग।।

दारू गाँजा घर ला टोरय, अउ टोरय परिवार।

सबो नशा छोड़व तब मिलही, जिनगी के सुख सार।।


      जगन्नाथ ध्रुव 

घुँचापाली बागबाहरा

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,   प्रिया नशा – छप्पय छंद


दारू पीथें लोग, तहाँ ले चेत गवाॅंथें।

करथें एक्सीडेंट, जीव बर अलहन लाथें।।

फूटै माड़ी मूड़, लहू अब्बड़ बोहाथे।

खुद खतरा लॅंय मोल, दुसर हा घलो झपाथे।।

गोठ प्रियू के मान लौ, मन मा अब सब ठान लौ।

दारू पीना छोड़ दौ, सुख जिनगी मा जोड़ दौ।।



प्रिया देवांगन प्रियू


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,   नारायण वर्मा बेमेतरा ताटंक छंद-भट्ठी हर सरकारी हे


बिकट अचंभा लागे मोला, मनखे के नादानी मा।

देके मोल बिसावत पीरा, बुढ़वा लगे जवानी मा।।

नाँचत हे लोगन ला देखव, भुँज के होरा छानी मा।

आज सबो तो बउरा गेहे, मउहा वाले पानी मा।।


नशा जाल मा फँसे लोग सब, का लइका नरनारी हे।

अस्पताल अउ स्कूल निजी हे, भट्ठी मन सरकारी हे।।

मंदा चलत मेडिकल मन हा, इहाँ भीड़ बड़ भारी हे।

मंदिर सुन्ना सुन्ना लागे, इनखर घात पुजारी हे।।


चेत चेपटी डहर सबो के, लेके पियत उधारी हे।

पेग बनावत चखना झोरत, बेंच डरिस घर बारी हे।।

लाँघन लइका परे सुवारी, इँखर रोज देवारी हे।

दम मारत दम निकल जही रे, लंदी फंदी यारी हे।।


बढ़े घात चोरी बदमाशी, बाढ़त नित बइमानी हे।

हत्या हिंसा बलात्कार हर, एखर जबर निशानी हे।।

अस्पताल मन भरे परे हे, मरत झपा मनमानी हे।

कोर्ट कछेरी झगरा सबके, कारण नशा दिवानी हे।।


बन बइठे सरकार कुभारज, कुर्सी सबले प्यारी हे।

मरय सरय जनता का करना, बने स्वयं बैपारी हे।।

फिरी माल देके लूटत हे, इही हमर लाचारी हे।

करव उदीम नशाबंदी के, बाकी बात गँवारी हे।।


🙏🙏🙏🙏

नारायण प्रसाद वर्मा चंदन

ढ़ाबा-भिंभौरी, बेमेतरा छग

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,   नारायण वर्मा बेमेतरा सरसी छंद-नशा


ढकना खोल ढकेलत ढक-ढक, ढार-ढार के रोज,

ओखर लइका बीनय कचरा, शीशी बाटल खोज,

मंद पिये माते हे सबके, मुँह मा पैरा बोज,

गंगू तेली ला देखव तो, बनगे राजा भोज,

धरे लेठवा गिंजरत हाबय, मुन्ना मणी मनोज।।

ढकना खोल ढकेलत.........


पान-फूल पूजा हर अतरे, अतरय नही शराब,

पार डरे तन तहूँ फोकला, हाड़ माँस ला चाब,

तन मन मान गलावत विरथा, जिनगी करे खराब,

किडनी लीवर जरगे गलगे, जाने नही हिसाब,

लड़भिड़- लड़भिड़ रेंग एक दिन, जम घर जाबे सोज।।

ढकना खोल ढकेलत........


एक डहर आँसू हर छलकय, छलकत उहाँ गिलास,

लइका मन के सपना टोरे, बुढवा मन के आस,

घूँट घूँट मा घुटक डरे रे, तभो मरत हस प्यास,

नइ माने कखरो बरजे तैं, बने नशा के दास,

उचय नही कवँरा संशो मा, तोर बढ़त नित डोज।।

ढकना खोल ढकेलत..........


पैग बनावत परिया परगे, जाँगर खेती खार,

चखना चीखत चीख डरे तै, घरवाली के हार,

पुरिस नही पुरखा के दौलत, बेंच खाय घर द्वार,

काय बिगाड़े नोनी बाबू, बइठे मन ला मार,

सपना सरी सरग अमरे के, छिन-भिन होवत रोज।।

ढकना खोल ढकेलत........


सबले गिनहा बात नशा हे, कहिथे ये सरकार,

फेर पियाके वोट बिसाथे, करत झूठ व्यापार,

धूम्रपान ला लिख निषेध हे, करथे खुद लाचार,

हितवा मन हा कातिल बनगे, घर-घर करत उजार,

भैरा नेता बने कान मा, बइठे पोनी गोंज।।

ढकना खोल ढकेलत..........

नारायण प्रसाद वर्मा चंदन

ढ़ाबा-भिंभौरी, बेमेतरा छग

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,   दीपक निषाद, बनसांकरा चौपई छंद (नशा) 

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नशाखोर तँय बने बिचार।

का पाबे आदर सत्कार।।

 अर्थ उलट झन लगा मितान।

नशा कहाँ ले बनगे शान।।


पी के जघा- जघा सिगरेट।

धुँआ उड़ाथस तँय भरपेट।।

गुटखा दिन भर कतको बार।

दारू पेक बनयँ सँग यार।।


गुटखा- बीड़ी दारू- मंद।

पी के लागय बड़ आनंद।।

फेर मजा छिन भर के आय।

पाछू तन मा ब्याध हमाय।।


मिल जावयँ जब गाँजा- भाँग।

 छरियावय मति बहकय टाँग।।

अल्लर- अल्लर रहय शरीर।

झटकुन जावय मरघट तीर।।


नशा हरय मनखे के चेत।

परिया पारय बुध के खेत।।

दँय बिगाड़ धंधा घर- बार।

काम- बुता के बंटाधार।।


नशापान का अमरित पान।

जेमा लगे रथे जी- जान ।।

नशा शान ए झन तँय मान।

बाँच नशा ले बन सज्ञान।।


दीपक निषाद--लाटा (बेमेतरा)

,   कौशल साहू कुंडलिया छंद 

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     माखुर


माखुर मुँह मा दाब झन, जिनगी अपन सुधार।

निकोटीन घातक बड़ा, तन ला करे खुवार।

तन ला करे खुवार, दाँत मा रचथे काई।

मुँह मा केंसर रोग, घरौंदा बनथे भाई।।

आँखी ला कमजोर, करे हाड़ा ला पाखुर।

पचर पचर झन थूक, खोर मा खाके माखुर।।


      बीड़ी


पीयव झन बीड़़ी कभू, चुंदी होय सफेद।

बीड़़ी के करिया धुआँ, करे करेजा छेद।

करे करेजा छेद, रोग अंतस मा सँचरय।

खाँसी सँग कफ लाय, आदमी रेंगत हँफरय।।

नशापान ले दूर, समाजिक बनके जीयव।

कहना कौशल मान, कभू बीड़़ी झन पीयव ।।


      सरकारी भठ्ठी


बेंचत हे सरकार हा, दारू गाँजा भाँग।

अँगरेजी देशी सबो, रेट लिखे हे टाँग।

रेट लिखे हे टाँग, नशेड़ी लेवय मन के।

कतको परे उतान, ठिकाना नइये तन के।।

मुँह मा लाड़ू गोंज, तमाशा सब देखत हे।

ये कइसन सरकार, भाँग दारू बेंचत हे।।


कौशल कुमार साहू

फरहदा ( सुहेला )

जिला - बलौदाबाजार (छ.ग.)

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,   ज्ञानू कवि विषय - नशा 


विष्णुप्रद छंद 


जानबूझ सब खाथे- पीथे, नशा नाश करथे|

लगे अमीर गरीब कहाँ अउ, बिना मउत मरथे||


फुकुर- फुकुर बीड़ी अउ गाँजा, पी- पी खाँसत हे|

टीबी, दमा मउत बन के तब, आगू नाचत हे||


गुटका, खैनी अउ तम्बाकू, मुँह मा जेखर हे|

बात समझ ले सगा अवइया, बन के केंसर हे||


पीयत दारू अध्धी- बाँटल, नाम होय दरुहा|

किडनी, लीवर बीमारी मा, नइ बाँचिस ररुहा||


धरे हाथ सिगरेट शेखिया, टूरा फूँकत हे|

भरे जवानी पन मा दिल के, गति हा रूकत हे||


भांग, चरस अउ ते अफीम हा, बड़ नुकसान करै|

बीमारी ला खाने वाला , जिनगी दान करै||


जानबूझ के मुँह मा मनखे, घलो दबाय हवै|

पान मसाला संग गुड़ाखू, रोग धराय हवै|| 


कतको पद, पाँवर, पइसा के, नशा घलो करथे|

देख सकै नइ कखरो सुख ला, अपनआप जरथे||


फोकट तामस मा देखा झन, झूठा शान इहाँ| 

नशा छीन लेथे सँगवारी, सुख, सम्मान इहाँ||


नशा करइया उजड़ जथे सुन, घर परिवार इहाँ|

हो मुठभेड़ जही पग- पग मा, यम दरबार इहाँ||


नशा रातदिन बढ़त हवै बड़, का गाँव- शहर मा| 

धन, दौलत, सुख, चैन गँवाथे, दुःख कलह घर मा||


का सियान अउ का जवान गा, डूबें बचपन हे|

कलह, दुःख, दारिद हे घर मा, होवत अलहन हे||


कतको कौड़ी भाव देख ले, खेतखार बिकगे|

का राजा का परजा लुटगे, घर दुवार बिकगे||


का करना हे मिटकियाय अउ, चुप सरकार हवै|

करना नइये कुछ वादा के, बस भरमार हवै||


छोड़ नदानी मूरख मनखे, करथे नाश नशा|

बीमारी अउ मउत धराथे, अपने जाल फँसा||


ज्ञानु

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,   रीझे यादव, छुरा दोहा-नशा


गांजा फूंकत आज रे, लइका संग सियान।

नशा छाय चारों मुड़ा, नइहे चिटिक धियान।।


दारू बिकथे गाॅंव मा, पारा पारा शोर।

अलहन होही एक दिन,बात मान ले मोर।।


गुटखा थूकै कोठ मा, जस हो बिखहर नाग।

नशा शौक के चीज हे, इही लमाथे राग।।


नशापान के साध मा, मिटगे कतको लोग।

धन अउ इज्जत बोर के, पाइन फोकट रोग।।


नशा नाश के जड़ हरे, कर देथे सब राख।

बेरा राहत चेतगे, उही बचाथे साख।।


रीझे यादव टेंगनाबासा

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,   +   नशा (तांटक छंद)-


का होगे हे मनखे मन ला, रोज नशा मा माते हे।

खेत-खार मन नइ बाचत हे, पीआई मा जाते हे।।


कतको समझावव नइ मानय, छट्ठी मरनी मा पीथे।

खाथे रोजे बासी चटनी, मउहारी पीके जीथे।।


जगह-जगह मा बेचत दारू, पीयत हे सब के पारा।

झगरा माढ़े हे घर-घर मा, झगरा ए जग ले टारा।।


जाति धर्म नइ लागय ऐमा, दारू पीना ला भाथे।

पहुना आइस बने तिहाँ ले, पउवा घर ले के आथे।।


दारू कोनो अमरित नोहय, काबर हे सब दीवाना।

नइ छोड़य कोनो मनखे मन, कतको देवव जी ताना।।


बोजावत मनखे गाड़ी मा, नशाबाज मन ला देखा।

बाढ़त हावय नशा आँकड़ा, बोलत सरकारी  लेखा।।


का अंग्रेजी का हे देशी, का हे लाली का सादा।

पीने वाले हा कुछु पावय, मारय अउ आधा-आधा।।


बिगड़त छोटे-छोटे लइका, भारत के अब का होही।

नशा नाश करही हम सबला, भारत के मनखे  रोही।।


नइ बाँचय पैसा अउ इज्जत, दारू मा बेचाते हे।

का होगे हे मनखे मन ला, रोज नशा मा माते हे।।

राजकिशोर धिरही

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,   Jugesh कुण्डलिया  

गुटका माखुर छोड़ दे,झन पी कभू शराब ।

जहर भरे हे जान ले, तन बर हवै खराब ।।

तन बर हवै खराब, धराये ये बीमारी I

बिगड़ जथे धन मान, लाय ये हा लाचारी॥

होथे केन्सर रोग,गलय तन कुटका कुटका।

बात अभी ले मान,छोड़ दे खाए गुटका॥

जुगेश कुमार बंजारे "धीरज " नवागाँवकला छिरहा बेमेतरा

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,   +   नशा नाश के मूल

विधा- ताटंक छंद

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नाश नशा करथे मति के अउ, दुख के रद्दा देखाथे।

बना अमानुष मनखे ला ये, पाप करम करवा जाथे।।


बिकट समस्या हवय नशा के, समझव येकर माया ला।

दारू दंगा करवाथे अउ, गुटका खाथे काया ला।

नशा बोलथे जब सिर चढ़ के, भारी बिपदा ले आथे।

बना अमानुष मनखे ला ये, पाप करम करवा जाथे।।


पीके मउहा माते मनखे, सब झन बर दुखदाई हे।

टूट जथे परिवार नता सब, मात जथे करलाई हे।

झगरा-झंझट अबड़ मचाथे, बात-बात मा गुर्राथे।

बना अमानुष मनखे ला ये, पाप करम करवा जाथे।।


नरक बनाही ये जिनगी ला, नशा आय बीमारी जी।

बेरा राहत चेत जवव अब, छोड़व सब लाचारी जी।

चेत-बिचेत नशा कर देथे, दुख मनखे भारी पाथे।

बना अमानुष मनखे ला ये, पाप करम करवा जाथे।।


       डॉ. इन्द्राणी साहू "साँची"

        भाटापारा (छत्तीसगढ़)

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,   +   नशा

विधा- गीतिका छंद

   

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जस अमानुष हे नशा ये प्रान ले लेथे इही।

शांति सुख सब लूट लेथे कष्ट दुख देथे इही।

मान अउ सम्मान सबके अंत करथे ये नशा।

सुध रखय नइ थोरको मति बुद्धि हरथे ये नशा।।


तन बनाये खोखला मन ला करय कमजोर ये 

छोड़ दव संगत नशा के बात मानव मोर ये।

लत नशा जब लग जथे छोड़े घलो छूटय नहीं।

कोन मनखे हे इहाँ जेला नशा लूटय नहीं।।


हो जथे बदनाम मनखे ये नशा के संग मा।

जानथें सब झन तभो ले रंग जाथें रंग मा।

जाल मा फँस के नशा के दुख बढ़य परिवार के।

प्रान आखिर मा निकलथे जिंदगी ला हार के।।


प्रन उठाबो आज मिलके सब नशा ला छोड़बो।

हम अपन परिवार घर के दुख गगरिया फोड़बो।

दास बनके नइ रहन हम ये नशा के अब कभू।

जीत लेबो जब नशा ला दुख मिलय नइ तब कभू।।


      डॉ. इन्द्राणी साहू "साँची"

        भाटापारा (छत्तीसगढ़)


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,   +   नशा के कई रूप

विधा- छप्पय छंद

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दारू गाँजा भाँग, पान गुटका ला छोड़व।

बीड़ी अउ सिगरेट, घलो ले अब मुँह मोड़व।

कर देथे बरबाद, नशा जिनगी ला भाई।

करवाथे अपराध, चिन्हे नइ बहिनी-दाई।

नशापान ला छोड़के, बनव सुजानिक आप जी।

बन जाही जिनगी सुघर, कट जाही दुख ताप जी।।


नशा मया के होय, जगत मा बड़ सुखदाई।

येकर सुग्घर भाव, सबो के करय भलाई।

रोकय सब अपराध, दिखावय रद्दा पबरित।

मया पिरित के स्वाद, हवय गुरुतुर जस अमरित।

होथे जब येकर नशा, घर बनथे सुखधाम जी।

सुख-सम्मति आथे उहाँ, सध जाथे सब काम जी।।


राम नाम अनमोल, नशा येकर कर लेवव।

मिलथे ये बिन दाम, पियाला भर-भर लेवव।

छोड़व माया मोह, रहव प्रभु के शरणागत।

रखके पबरित भाव, राम के करव सुवागत।

नशा राम के नाम के, हो जाथे जेला इहाँ।

सुधर जथे ओकर करम, मुक्ति उही पाथे इहाँ।।


     डॉ. इन्द्राणी साहू "साँची"

        भाटापारा (छत्तीसगढ़)


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,   बलराम चन्द्राकर जी नशा-

सवैया मत्तगयंद


माखुर पान चबा गुटका मुँह दाँत रचावय हावय खैरी।

भाँग पिये मदमस्त रहै खुद, होश दिमाग घुमावय बैरी।

मंद नशा लत रोग लगाय, कुटुम्ब समाज मतै बड़ गैरी।

राशन बेंच पिये दरुहा मन बेंचय कंगन कर्धन पैरी।।


बलराम चंद्राकर भिलाई

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,   गुरु निगम सर जयकारी छन्द


जब दारू बेचै सरकार। 

तब दारू-बन्दी बेकार।।

खुल्ला जिनगी के बेपार।

भुगतत हें कतको परिवार।।


गाँव-गाँव मा खुलिस दुकान।

लइका बुढ़वा अउर सियान।।

करत हवँय नित मदिरा-पान।

पी-पी देवँय रोज परान।।


अर्थ-व्यवस्था के आधार।

कहिथे दारू ला सरकार।।

चिटिको नइ वो करय विचार।

होवत हावय बंठाढार।।


तन-मन-धन होवत हे नास।

एला कइसे कहन विकास??

नारी लइका सबो उदास।

अब काखर ले रखहीं आस??


अपने माथा ला झन फोड़।

झन अपने बर खाँचा कोड़।।

तँय भविष्य बर पइसा जोड़।

नशा-पान के आदत छोड़।।


अरुण कुमार निगम

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,   पद्मा साहू, खैरागढ़  नशा (सरसी छंद)


जर्दा छैनी माखुर गुटखा, करथे मुँह ला  लाल।

नशा जेनमन करथें एकर, सरथे उनकर गाल।।


बीयर शेरी व्हिस्की ब्रांडी, दारू रम अउ जीन।

होगे उनकर जिनगी माटी, जेमन येला  पीन।।

यकृत हृदय अउ जरगे गुर्दा, बनगे जी कंगाल।

जर्दा छैनी माखुर गुटखा, करथे मुँह ला लाल।


ताश जुआँ के खेल खेलके, बनथे मनखे चोर।

अपराधी  के  ठप्पा  लगथे, बदनामी के डोर।।

झन खेलव ताश जुआँ ला, अउ झन बनौ दलाल।

जर्दा छैनी माखुर गुटखा, करथे मुँह ला लाल।


नशा खोखला करथे तन ला, जिनगी ला बीमार।

मनखे  के  पहिचान  मेटथे, टूट  जथे  परिवार।।

बाढ़ जथे अपराध बिकट के, नशा जाल बिकराल।

जर्दा छैनी माखुर गुटखा, करथे मुँह ला  लाल।


दारू  नशा  पियत  मनखे  ला, धीरे-धीरे  आज।

मइला होवत तन-मन-धन हा, बिगड़त हवय समाज।।

भाँग चरस गाँजा बीड़ी के, गुँगवा  होथे  काल।

जर्दा छैनी माखुर गुटखा, करथे मुँह ला  लाल।


                    रचनाकार

       डॉ पद्‌मा साहू पर्वणी खैरागढ़

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,   +   मनहरण घनाक्षरी 


नशा नाश के हे जड़, करै सब गड़बड़,  नशा देथे घाव सब, बात ला जी जान लौं ।

काम बूरा करवाथे, मन घलो भरमाथे, नशा के विकार ला तो, सब पहिचान लौं ।

बने मन ला मारथे, भूर्री घर ला बारथे, सगा संबंधी घलो जी , रुठ जाथे मान लौं ।

  नशा के कई रूप हे, नाॅंव घलो अनूप हे, आज नशेड़ी जान लौं, ज्ञानी से जी ज्ञान लौं।।


संजय देवांगन सिमगा

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,   +   ""नशा""    जयकारी छंद 


सुन लौ सुन लौ सबों सियान।

देखव होगे नवा बिहान ।।

नशा चीज हाबय बेकार ।

लूट जथे सबके परिवार ।।

जय गंगान 



ऐला जिनगी ले दव टार ।

मिल जाही बढ़िया संसार ।।

सही बात के करव धियान।

देखव होगे नवा बिहान ।।

             जय गंगान .......


दारू गाॅंजा महुआ भाॅंग ।

नशा चीज के अड़बड़ माॅंग ।।

तन ला करथे चकनाचूर ।

छिन जाथे सूरत के नूर ।।

                  जय गंगान


मन ला करथे बहुत गुमान ।

देखव होगे नवा बिहान।।

अभी अभी सब लइका आज ।

मन मा रखथे अड़बड़ राज ।।

जय गंगान 


होगे जिनगी हर इक खेल ।

मात पिता ले नइहे मेल ।।

सही बात के करव धियान।

देखव होगे नवा बिहान ।।

जय गंगान 


सुन लौ सुन लौ सबों सियान ।

बात सिरतोन हाबय मान ।।

                जय गंगान ......      

 

संजय देवांगन सिमगा

,   बलराम चन्द्राकर जी नशा-

(सवैया किरीट) 

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कैंसर होत बिड़ी सिगरेट मा, काल अकाल समावत हे तन।

दुर्घटना दिन रात सुनावत, कारण हे चरसी गँजहा मन।

टूटत हे परिवार दिनोंदिन, रोज मचे झगरा डउकी सन।

मंद नशा घर बोरत तोड़त, जाहर घोरत मानुस जीवन ।।


बलराम चंद्राकर भिलाई

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*कुण्डलिया छंद*


*नशा*


(1)


मोल चुकाए नइ चुकै, नशा लेय बड़ मोल।

पहिली रुपिया गिन तभे, पुड़िया बोतल खोल।।

पुड़िया बोतल खोल, खुल जथे मुड़ के पागा।

उघरा होथे अंग, उझरथे धागा धागा।।

होथे घर नीलाम, लाज नइ बचे बचाए।

तन होथे बीमार, चुकै नइ मोल चुकाए।।


(2)


नशा करइया सोचथे,  करथौं एकर पान।

सोचय नइ ये बात ला, हरथे नशा परान।।

हरथे नशा परान, बदन छलनी कर देथे।

किसिम-किसिम के रोग, नशेड़ी ला धर लेथे।।

लुट जाथे धन मान, जथे मर नहीं मरइया।

कइसे छूटय जाल, सोचथे नशा करइया।।


(3)


नशा करइया भोगथे, अउ भोगय परिवार।

एक करय गलती मगर, बिगड़ जथे घर-बार।।

बिगड़ जथे घर-बार, पुरय नइ घर के खर्चा।

हो जाथे बदनाम, होय जब एकर चर्चा।।

आदत ये छुड़वाव,  स्वयं के जीव  जरइया।

जागव सबे समाज,भोगथे नशा करइया।।


*नीलम जायसवाल, भिलाई, छत्तीसगढ़*


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सरकारी दारू-सरसी छंद

गांव गांव मा दारू भट्ठी, खोलत हे सरकार।
मंद पियइया बाढ़त हावै, बाढ़त हावै रार।।

कोष भरे बर दारू बेंचय, शासन देखव आज।
नशा नाश ए कहि चिल्लावै, आय घलो नइ लाज।।
पीयैं बेंच भांज दरुहा मन, घर बन खेती खार।
गांव गांव में दारू भट्ठी, खोलत हे सरकार।।

दारू गांजा के चक्कर मा, होवत हवै बिगाड़।
मंद पियइया मनखें मन हा, लाहो लेवैं ठाड़।।
कहाँ सुधर पावत हे कोई, खावँय चाहे मार।
गांव गांव में दारू भट्ठी, खोलत हे सरकार।।

नशा करौ झन कहिके शासन, पीटत रहिथे ढोल।
मंद मिलत हावै सरकारी,  खुल जावत हे पोल।।
कथनी करनी मा अंतर हे, काय कहौं मुँह फार।
गांव गांव में दारू भट्ठी, खोलत हे सरकार।।

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को नगर कोरबा(छग)

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