(1)
बिटिया कहिथे ग ददा सुन ले,मन मोर कहे ग पढ़े बर जाँव।
सँगवारिन हा सब जावत हे,सँग ओखर जाय महूँ सुख पाँव।
सब सीखत हे पढ़ना लिखना, कुछ सीख महूँ अपने घर आँव।
कुछ ज्ञान बटोर धरे मन मा,घर आवत ही सब ला बतलाँव।
(2)
जब ज्ञान बढ़े सनमान बढ़े,तब अंतस हा अबड़े सुख पाय।
सब लोगन पूछत हे अबड़े,यह काखर गा बिटिया हर आय।
सँगवारिन नाम कहे तुँहरो, सुन के मनवा बड़ नाचन भाय।
अब भेज ददा बड़का स्कुल मा,बिटिया हर जावय नाम कमाय।
(3)
सब सीखत सीखत सीख गये,अब जावत हे बिटिया परदेश।
पढ़ना लिखना सब पूरन हो,बदले रहिथे बिटिया हर भेष।
उड़ियावत हे अब अम्बर मा,जिनगी अब लागत हावय रेस।
बिटिया ह जहाज उड़ावत हे,घर मा अब थोरिक हे न कलेश।
(4)
जब जाँगर टोर कमावत हे,तब पावत हाबय अन्न किसान।
मनखे जब खावत भात रहे,तब फेंकत अन्न करे नहि मान।
कइसे कर भोजन हा मिलथे,अब थोरिक सोंच करौ ग नदान।
कतको हर लाँघन सूतत हे,उन जानत अन्न हरे भगवान।
(5)
मरना सब ला दिन एक हवै,तुम सोंच अभी झन गा घबराव।
करनी कर के फल भोग इहाँ,अउ नेंक करौ मन मा हरसाव।
दुख मा रहिबे मरना गुन के,अपने जिनगी बिरथा न गवाव।
अब दूसर खातिर जीवव जी,तब अंतस मा अबड़े सुख पाव।
(6)
पढ़ना लिखना सिख ले बढ़िया,जिनगी भर आवय ये हर काम।
जब आय समे झन ताक सखा,अब दूसर के रसता अउ धाम।
अपने करनी फल मीठ रहे,अउ दूसर ला अब देय अराम।
करनी अइसे कर ले ग सखा,जग मा बड़ उज्जर होवय नाम।
(7)
मुसवा कहिथे अब धान कहाँ,भगवान बता अब का मँय खाँव।
परिया दिखथे सब खेत तको,घर मा नइ धान कहाँ अब जाँव।
लडुआ न मिले न मिले बरफी,कुछ राह बताव जिहाँ सुख पॉंव।
कुछ ना मिलही तब का करिहौं,मँय लाँघन गा अब जान गवाँव।
(8)
बरसा करदे भगवान बने,तब धान बने ग उगाय किसान।
भरही घर के कुरिया हर जी,तब कूदत फाँदत खावँव धान।
लडुआ चढ़ही जब आव इहाँ,तब खाहव गा कहना अब मान।
सब पूजत हे बिसवास रखे,धन देवत हौ तब हौ भगवान।
(9)
सब मोदक ला जब खावत हौ,न बचावत हौ हमरो बर एक।
जब लाँघन राख सवार रहौ,तब दौड़ सके न रहे हम टेक।
कइसे करके हम काम करे,बतलाव भला मुसवा कह नेक।
जब धान किसान भरे घर मा,सुख आवत हे जग मा बिन छेंक।
(10)
मुसकावत हे इठलावत हे,अउ खेलत हावय हाँथ उठाय।
उबड़ी जब होवत हे मुनिया,तब पाँव उठा मड़ियावन भाय।
मड़ियावत हे अँगना परछी,तब लेत सहाय खड़ा कर जाय।
जब ठाढ़ गये मुनिया हमरो,अब रेंगत दौड़त ओ सुख पाय।
(11)
जिनगी सबके कइसे चलथे,मुनिया हमरो दुनिया ल बताय।
कब कोन इहाँ सनतोस करे,सब चाहत हे अघवावत जाय।
मड़ियावत रेंगत दौड़ पड़े,जिन भागत हे उन मंजिल पाय।
जिन बैठ रहे पछवावत हे,उन साल बिते अबड़े पछताय।
रचनाकार - श्री दिलीप कुमार वर्मा
बलौदाबाजार, छत्तीसगढ़
बिटिया कहिथे ग ददा सुन ले,मन मोर कहे ग पढ़े बर जाँव।
सँगवारिन हा सब जावत हे,सँग ओखर जाय महूँ सुख पाँव।
सब सीखत हे पढ़ना लिखना, कुछ सीख महूँ अपने घर आँव।
कुछ ज्ञान बटोर धरे मन मा,घर आवत ही सब ला बतलाँव।
(2)
जब ज्ञान बढ़े सनमान बढ़े,तब अंतस हा अबड़े सुख पाय।
सब लोगन पूछत हे अबड़े,यह काखर गा बिटिया हर आय।
सँगवारिन नाम कहे तुँहरो, सुन के मनवा बड़ नाचन भाय।
अब भेज ददा बड़का स्कुल मा,बिटिया हर जावय नाम कमाय।
(3)
सब सीखत सीखत सीख गये,अब जावत हे बिटिया परदेश।
पढ़ना लिखना सब पूरन हो,बदले रहिथे बिटिया हर भेष।
उड़ियावत हे अब अम्बर मा,जिनगी अब लागत हावय रेस।
बिटिया ह जहाज उड़ावत हे,घर मा अब थोरिक हे न कलेश।
(4)
जब जाँगर टोर कमावत हे,तब पावत हाबय अन्न किसान।
मनखे जब खावत भात रहे,तब फेंकत अन्न करे नहि मान।
कइसे कर भोजन हा मिलथे,अब थोरिक सोंच करौ ग नदान।
कतको हर लाँघन सूतत हे,उन जानत अन्न हरे भगवान।
(5)
मरना सब ला दिन एक हवै,तुम सोंच अभी झन गा घबराव।
करनी कर के फल भोग इहाँ,अउ नेंक करौ मन मा हरसाव।
दुख मा रहिबे मरना गुन के,अपने जिनगी बिरथा न गवाव।
अब दूसर खातिर जीवव जी,तब अंतस मा अबड़े सुख पाव।
(6)
पढ़ना लिखना सिख ले बढ़िया,जिनगी भर आवय ये हर काम।
जब आय समे झन ताक सखा,अब दूसर के रसता अउ धाम।
अपने करनी फल मीठ रहे,अउ दूसर ला अब देय अराम।
करनी अइसे कर ले ग सखा,जग मा बड़ उज्जर होवय नाम।
(7)
मुसवा कहिथे अब धान कहाँ,भगवान बता अब का मँय खाँव।
परिया दिखथे सब खेत तको,घर मा नइ धान कहाँ अब जाँव।
लडुआ न मिले न मिले बरफी,कुछ राह बताव जिहाँ सुख पॉंव।
कुछ ना मिलही तब का करिहौं,मँय लाँघन गा अब जान गवाँव।
(8)
बरसा करदे भगवान बने,तब धान बने ग उगाय किसान।
भरही घर के कुरिया हर जी,तब कूदत फाँदत खावँव धान।
लडुआ चढ़ही जब आव इहाँ,तब खाहव गा कहना अब मान।
सब पूजत हे बिसवास रखे,धन देवत हौ तब हौ भगवान।
(9)
सब मोदक ला जब खावत हौ,न बचावत हौ हमरो बर एक।
जब लाँघन राख सवार रहौ,तब दौड़ सके न रहे हम टेक।
कइसे करके हम काम करे,बतलाव भला मुसवा कह नेक।
जब धान किसान भरे घर मा,सुख आवत हे जग मा बिन छेंक।
(10)
मुसकावत हे इठलावत हे,अउ खेलत हावय हाँथ उठाय।
उबड़ी जब होवत हे मुनिया,तब पाँव उठा मड़ियावन भाय।
मड़ियावत हे अँगना परछी,तब लेत सहाय खड़ा कर जाय।
जब ठाढ़ गये मुनिया हमरो,अब रेंगत दौड़त ओ सुख पाय।
(11)
जिनगी सबके कइसे चलथे,मुनिया हमरो दुनिया ल बताय।
कब कोन इहाँ सनतोस करे,सब चाहत हे अघवावत जाय।
मड़ियावत रेंगत दौड़ पड़े,जिन भागत हे उन मंजिल पाय।
जिन बैठ रहे पछवावत हे,उन साल बिते अबड़े पछताय।
रचनाकार - श्री दिलीप कुमार वर्मा
बलौदाबाजार, छत्तीसगढ़
लाजवाब।एक ले बढ़ के एक अरविंद सवैया के सृजन।सादर बधाई वर्मा सर जी।
ReplyDeleteधन्यवाद सरजी।
Deleteसुंदर सृजन भाई के...इही ल कथें समर्पण सीखे के...
ReplyDeleteबधाई भाई गो...
आभार गुप्ता भइया।आप मन के आशिर्वाद बने रहय।
ReplyDeleteवाहःहः दिलीप भाई जी एक से बढ़कर एक सृजन
ReplyDeleteबधाई हो
वाह सर मजा आगे,एक ले बढ़के एक,अरविंद सवैया
ReplyDeleteअनुपम रचना सर अरविंद सवैया मा।वाह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्।सादर बधाई
ReplyDeleteअनुपम रचना सर अरविंद सवैया मा।वाह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्।सादर बधाई
ReplyDeleteबेटी ऊपर शानदार सवैया सर जी
ReplyDeleteबेटी ऊपर शानदार सवैया सर जी
ReplyDeleteअनुपम अरविंद सवैया ,गुरुदेव दिलीप वर्मा जी।बधाई।
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई दिलीप, बहुतेच बढिया लिखे हस भाई।
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