शिक्षक दिवस विशेष छंदबद्ध कविताएँ
हरिगीतिका छंद*
शिक्षक रथे माँ-बाप कस,रद्दा दिखाथे ज्ञान के।
रक्षा करौ संगी सबो,जुरमिल इँखर सम्मान के।।
माटी सहीं लइका रथे,जिनगी इही गढ़थे बने।
पा के सबो शिक्षा इहाँ, अँगरी पकड़ बढ़थे बने।।
दीया सहीं जलके बने,करथे अँजोरी ज्ञान के।
अज्ञान मिट जाथे सुनौ, रद्दा सँवरथे मान के।।
धर के कलम पट्टी बने,आखर सिखाथे जोड़ के।
नइ भेद कखरो ले करै,नइ जाय मुख ला मोड़ के।।
शिक्षा बिना जग सून हे,शिक्षा बिना अँधियार हे।
शिक्षा बिना अनपढ़ सबो,जिनगी इँखर बेकार हे।।
आवव करौ सम्मान ला,आवव पखारव पाँव ला।
मिलही बने आशीष हा, पाहव सुखी के छाँव ला।।
बोधन राम निषादराज"विनायक"
सहसपुर लोहारा,जिला-कबीरधाम(छ.ग.)
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"शिक्षक दिवस" (साठ के दशक की कविता)
(जनकवि श्री कोदूराम "दलित")
चिटिक प्राथमिक शिक्षक मन के, सुन लव भइया हाल।
महँगाई के मारे निच्चट, बने हवँय कंगाल।।
जउन गुरू मन बापू जी सँग, लाइन सुखद सुराज।
दाना-दाना बर तरसे हें, उँकरे लइका आज।।
सत्तर-अस्सी तनखा पावँय, अनपढ़ चौकीदार।
तिरपन-छप्पन मा लटके हें, कतको गुरू हमार।।
जउन गुरू मन गढ़िन देस बर, नेहरु तिलक सुभास।
तउने मन ला कतको झन अब ले समझें हें दास।।
आजकाल के शिक्षक मानों, भेड़-बोकरा आँय।
जउने पायें तउने इनला, जुच्छा पूजत जाँय।।
गुरूजी मन ला जउन सताथे, होते तेकर नास।
कुकुर घलो नइ सूँघय आखिर, कहे कबीरा दास।।
तइहा जुग के ऋषि-मुनि जन मन, इहिच गुरू तो आँय।
इँकरे दुखदेवा मन तइहा, निर्मम असुर कहाँय।।
जउन देश मा गुरुजी मन ला, मिलथे कष्ट अपार।
कहै कबीरा तउन देश के, होथे बंठाढार।।
जउन देश मा गुरुजी मन के , होथे आदर-मान।
कहै कबीरा तउन देस के, होथे अति कल्यान।।
रचनाकार - जनकवि श्री कोदूराम "दलित"
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विष्णुपद छंद
बिन स्वारथ के ज्ञान जगत मा, वो बगरावत हे।
रोज छात्र मन ला शिक्षक हा, खूब पढ़ावत हे।।
पढ़ा रोज लइका ला शिक्षक, देवय ज्ञान इहाँ।
परमारथ बर जिनगी अर्पित, काम महान इहाँ।।
जइसे बरसा ये भुइँया के, प्यास बुझावत हे।
जइसे रद्दा मनखे मन ला, घर पहुँचावत हे।।
नदी कुआँ अउ रुखराई, पर सेवा करथे।
जंगल पर्वत खेतीबारी, सबके दुख हरथे।।
माटी के लोंदा ला सुग्घर, दे आकार इहाँ।
आनी बानी जिनिस बनाथे, रोज कुम्हार इहाँ।।
शिक्षक हा शिक्षक के शिक्षक, लइका मास्टर हे।
नेता अधिकारी वकील अउ, कोनो डॉक्टर हे।।
ज्ञानुदास मानिकपुरी
चंदेनी- कवर्धा
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शिक्षक दिवस - आल्हा छंद गीत//
मनखे के उद्धार करइया,
शिक्षक हावय बड़ा महान।
अँधियारी रद्दा बर ये तो,
लागय सुग्घर दीप समान।।
पहिली शिक्षक दाई सुमिरँव,
महतारी भाखा के बोल।
अड़ही रहिके ज्ञान बतइया,
नइये एखर कोई तोल।।
हाथ पकड़ रद्दा देखइया,
करलौ दाई के गुणगान।
मनखे के उद्धार करइया,...............
दूसर शिक्षक हमर ददा जी,
घर बइठे देइन संस्कार।
इँखरे बल मा सीखे हावन,
जग मा बने लोक व्यवहार।।
हृदय भीतरी सदा विराजित,
जइसे मंदिर में भगवान।
मनखे के उद्धार करइया,...............
तीसर शिक्षक गुरुवर सुग्घर,
इँखरे हावय बड़ उपकार।।
जिनगी मा सम्मान दिलइया,
करँव वंदना बारम्बार।।
इही ज्ञान के अमिट खजाना,
देइन हे आखर के ज्ञान।
मनखे के उद्धार करइया,................
रचना:-
बोधन राम निषादराज"विनायक"
सहसपुर लोहारा,जिला-कबीरधाम(छ.ग.)
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दोहा छंद गीत- शिक्षक (गुरु)
शिक्षक हें माता पिता, शिक्षक हें परिवार।
शिक्षक मित्र समाज हें, देथे जे संस्कार।।
मिले कहीं ले ज्ञान जब, कर लौ ग्रहण सहर्ष।
शिक्षक ले शिक्षा मिले, मिले परम उत्कर्ष।।
शिक्षक गुरु गोविंद हें, बात करव स्वीकार।
शिक्षक हें माता पिता, शिक्षक हें परिवार।।
जीवन शिक्षा पाठ ये, गुणा भाग विज्ञान।
सुख दुख के हे पाहड़ा, अउ हे गणित समान।।
शिक्षक सीढ़ी हें प्रथम, चढ़ मंजिल कर पार।
शिक्षक हें माता पिता, शिक्षक हें परिवार।।
सागर ले गहरा रहय, जेंखर मन के भाव।
खड़े रहँय पतवार बन, शिक्षक हे वो नाव।।
गजानंद जीवन करय, गुरु चरणों बलिहार।
शिक्षक हें माता पिता, शिक्षक हें परिवार।।
इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध"
बिलासपुर (छत्तीसगढ़)
बहुत सुग्घर संकलन गुरुदेव
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