आल्हा छन्द - जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
घाम घरी मजदूर किसान
बाँध मूड़ मा लाली पागा ,करे काम मजदूर किसान।
हाथ मले बैसाख जेठ हा,कोन रतन के ओखर जान।
जरे घाम आगी कस तबले,करे काम नइ माने हार।
भले पछीना तरतर चूँहय,तन ले बनके गंगा धार।
करिया काया कठवा कस हे,खपे खूब नइ कभू खियाय।
धन धन हे वो महतारी ला,जेन कमइया पूत बियाय।
धूका गर्रा डर के भागे , का आगी का पानी घाम।
जब्बर छाती रहै जोश मा,कवच करण कस हावै चाम।
का मँझनी का बिहना रतिहा,एके सुर मा बाजय काम।
नेंव तरी के पथरा जइसे, माँगे मान न माँगे नाम।
धरे कुदारी रापा गैतीं, चले काम बर सीना तान।
गढ़े महल पुल नँदिया नरवा,खेती कर उपजाये धान।
हाथ परे हे फोरा भारी,तन मा उबके हावय लोर।
जाँगर कभू खियाय नही जी,मारे कोनो कतको जोर।
देव दनुज जेखर ले हारे,हारे धरती अउ आकास।
कमर कँसे हे करम करे बर,महिनत हावै ओखर आस।
उड़े बँरोड़ा जरे भोंभरा,भागे तब मनखे सुखियार।
तौन बेर मा छाती ताने,करे काम बूता बनिहार।
माटी महतारी के खातिर,खड़े पूत मजदूर किसान।
महल अटारी दुनिया दारी,सबे चीज मा फूँकय जान।
मरे रूख राई अइलाके,मरे घाम मा कतको जान।
तभो करे माटी के सेवा,माटी ला महतारी मान।
जगत चले जाँगर ले जेखर,जले सेठ अउ साहूकार।
बनके बइरी चले पैतरा, माने नहीं तभो वो हार।।
धरती मा जीवन जबतक हे,तबतक चलही ओखर नाँव।
अइसन कमियाँ बेटा मन के,परे खैरझिटिया नित पाँव।
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को(कोरबा)
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