सार छंद-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
छँइहा
किम्मत कतका हवै छाँव के,तभे समझ मा आथे।
घाम घरी जब सुरुज देव हा,आगी असन जनाथे।
गरम तवा कस धरती लगथे,सुरुज आग के गोला।
जीव जंतु अउ मनखे तनखे,जरथे सबके चोला।।
तरतर तरतर चुँहे पछीना,रहिरहि गला सुखाथे।
घाम घरी जब सुरुज देव हा,आगी असन जनाथे।
गरमे गरम हवा हा चलथे,जलथे भुइयाँ भारी।
घाम घरी बड़ जरे चटाचट, टघले महल अटारी।
पेड़ तरी के जुड़ छँइहाँ मा,अंतस घलो हिताथे।
घाम घरी जब सुरुज देव हा,आगी असन जनाथे।
मनखे मन बर ठिहा ठउर हे,जीव जंतु बर का हे।
तरिया नदिया पेड़ पात हा,उँखर एक थेभा हे।
ठाढ़ घाम मा टघलत काया, छाँव देख हरियाथे।
घाम घरी जब सुरुज देव हा,आगी असन जनाथे।
पेड़ तरी के घर जुड़ रहिथे,पेड़ तरी सुरतालौ।
हरे पेड़ पवधा हा जिनगी,सबझन पेड़ लगालौ।
पानी पवन हवै पवधा ले,खुशी इही बरसाथे।
घाम घरी जब सुरुज देव हा,आगी असन जनाथे।
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को,कोरबा
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