मजदूर दिवस अउ बासी दिवस विशेष छंदबद्ध कविता
: रूपमाला छंद
*मँय मजदूर*
हाँव मँय मजदूर संगी,काम करथौं जोर।
पेट पालत दिन पहावँव,देश हित अउ मोर।
कर गुजारा रात दिन मँय,मेहनत कर आँव।।
रातकुन के पेज पसिया,खाय माथ नवाँव।।
दिन बितावौं मँय कमावँव,फोर पथरा खाँव।
मेहनत के आड़ संगी, देश ला सिरजाँव।।
चाँद में पहुँचे ग भइया,देख सब जर जाय।
कोन हिम्मत अब ग करही,आँख कोन उठाय।।
अब पछीना हा चुहत हे,टोर जाँगर देख।
भाग हा बनही सुनौ जी,ये बिधाता लेख।।
मेहनत मा आज देखौ, स्वर्ग बनगे खार।
ईंट से जी ईंट बजगे, देख लव संसार।।
रचनाकार:-
बोधन राम निषादराज"विनायक"
सहसपुर लोहारा,जिला-कबीरधाम(छ.ग.)
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कुंडलियाँ
शूट-बूट मजदूर (ब्यंग्य)
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1-
चारो कोती देख ले, बासी के हे धूम |
नेता पीछू मीडिया, धरे कैमरा घूम ||
धरे कैमरा घूम, घूम के खींचे फोटू |
बोरे बासी संग, दिखत हे मंत्री मोटू ||
कौंरा भर नइ खाय, नजर हे ऐती वोती |
शूट-बूट मजदूर, दिखत हे चारो कोती ||
2-
बासी के महिमा अभी, काला आज बताँव |
देखाये बर एकदिन, बासी कइसे खाँव ||
बासी कइसे खाँव, खिंचाये बर मै फोटू |
देखा देखी आज, खाय सब बड़कू छोटू ||
नेता मंत्री ढोंग, देख ले खरचे रासी |
बटकी सीथा पेज, बइठ के खावय बासी ||
कमलेश प्रसाद शरमाबाबू
कटंगी-गंडई जिला-केसीजी
छग. 9977533375
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बोरे बासी----- कुंडलिया छंद
बोरे बासी संग मा, अउ भाजी हे साग ।
खा ले संगी तँय बने, अपन जगाले भाग ।।
अपन जगाले भाग, रोज बासी ला खा के ।
तन के भागे रोग, विटामिन एकर पा के ।।
पी के जवाव पेज, अपन जाँगर ला टोरे ।
ताकत मिलथे खूब, खाव जी बासी बोरे ।।
मुकेश उइके "मयारू"
ग्राम- चेपा, पाली, कोरबा(छ.ग.)
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: *बनिहार*
*दोहा छंद*
हाँवव मैं बनिहार गा, करथँव बूता काम।
कतको बूता मैं करँव, उचित मिलय नइ दाम।।
खाके बासी घाम मा, करथँव दिन भर काम।
रथँव मगन मँय काम मा, करँव नहीं आराम।।
संगी जाँगर ले मोर गा , बनगे बड़े मकान।
छितका कुरिया मा रथँव, दे हँव सब ला शान।।
मँय पानी ओगारथँव, बनके गा बनिहार।
बूता करथँव रात दिन, तभो हवँव लाचार।।
मोला नइ हे लाज गा, मँय हँव गा बनिहार।
बूता करथँव घाम मा, सब्बो दुख ला टार।।
*अनुज छत्तीसगढ़िया*
*पाली कोरबा*
*सत्र 14*
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: सार छंद गीत ______
"" "बासी"" ".
बासी मा हे सबे बिटामिन, चवनप्रास नइ लागे।
खाले भइया कँवरा आगर, मन उदास नइ लागे।
रतिहा कुन के बोरे बासी, गुरतुर पसिया पीबे।
मही मिलाके झड़कत रहिबे, सौ बच्छर ले जीबे।
नाँगर बक्खर सूर भराही, करबे तिंहीं सवाँगे--------------।
बटकी के बारा उप्पर मा, थोरिक नून मड़ाले।
थरकुलिया के आमा चटनी, गोही चुचर चबाले।
ठाढ मँझनिया पीले पसिया, प्यासो दुरिहा भागे----------------।
कातिक अग्घन सिलपट चटनी, धनिया सोंध उड़ाथे।
पूस माँघ मा तिंवरा भाजी, बासी संग मिठाथे।
बासी महिमा ला सपनाबे, रतिहा सूते जागे--------------------।
राजकुमार चौधरी "रौना"
टेड़ेसरा राजनांदगांव।
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: दोहा
बोरे बासी के मजा,मिरचा चटनी संग।
खाव गोंदली डार के,स्वस्थ रही तब अंग।।
बनी भुती ला रात दिन,करत हवै मजदूर।
घाम प्यास मा हे डटे,जिनगी *हे* मजबूर।।
खड़े हवै बनिहार के,बल मा ये संसार।
पावय नइ जी मान ला,जीथे बिन आधार।।
काम बुता के फेर मा,भटकत रहिथे रोज।
जिनगी के ये खेल हा,कहाँ हवै जी सोज।।
राजेन्द्र कुमार निर्मलकर
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सार छन्द गीत
मजदूर
हावँव जी मजदूर महूँ हा,अब्बड़ महिनत करथौं।
चटनी बासी पसिया पीके,पेट अपन मँय भरथौं।।
करम करइया मोर सहीं गा,कोनों नइ हें दूजा।
मोर भुजा मा बल हे देखौ,मोर करम हे पूजा।।
महिनत मा ही जीथौं संगी,महिनत मा तो मरथौं।
हावँव जी मजदूर महूँ हा,अब्बड़ महिनत करथौं।।
राँपा गैंती कुदरी झउहा,कहाँ मोर गा माढ़ै।
आठो पहरी मोर करम ले,दुनिया आगू बाढ़ै।।
ए जाँगर के पाछू मँय हा,दुख पीरा ला हरथौं।
हावँव जी मजदूर महूँ हा,अब्बड़ महिनत करथौं।।
जाड़ झाँझ अउ पानी बरसा,मोर करम ले डरथे।
लोहा तामा हीरा मोती,मोर करम ले झरथे।
सोना जइसे तपथौं संगी,आगी जइसे बरथौं।
हावँव जी मजदूर महूँ हा,अब्बड़ महिनत करथौं।।
डी.पी.लहरे'मौज'
कवर्धा छत्तीसगढ़
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: गंगोदक सवैया
लाभकारी हवै नून बासी मही डार के खा बिमारी भगाथे सदा।
स्वस्थ काया रखे दूर सुस्ती भगाथे घलो ताप फुर्ती जगाथे सदा।
गोंदली संग दाई ददा औ बबा रोज खा खेतबारी कमाथे सदा।
जाड़ गर्मी लगे हो वर्षा भरे पेट मोला खवाथे सुहाथे सदा।
ज्ञानु
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: गीतिका छंद
पेर जाँगर जौन खाथे, आज भी मजबूर हे।
भूख प्यासे रोज सहिथे, देखले मजदूर हे।
कोस दुरिहाँ हे इंखर ले, आज शासन योजना।
पेट खातिर अउ मरत हे, इन बिचारा रोज ना।
ज्ञानु
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: रोला छंद
मजदूर
महल अटारी देख, मोर मन होथे भारी।
मँय हँव गा मजदूर, रोज होथे लाचारी।
रोजी रोज कमाँव, भूल के दुनियादारी।
दिन भर कनिहा टोर, खाँध मा जिम्मेदारी।।
जाड़ा गरमी घाम, कभू नइ मोला लागय।
चेम्मर मोरो चाम, देख बीमारी भागय।
मँय हँव गा मजदूर, भाग पर के सिरजाथँव।
सबके बोझा रोज, इहाँ गा मही उठाथँव।।
मोर करम के मार, कोन दिन जाने टरही।
भपकत हावय देह, अइसने मरना परही।
फुटहा मोरो भाग, आँव चुहके मँय गोही।
श्रम के सिरजन हार, मही हर हावँव जोही।।
विजेन्द्र वर्मा
नगरगाँव (धरसीवाँ)
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विजेन्द्र: मनहरण घनाक्षरी
आरती श्रम के गाथौं, जग ला मैं सिरजाथौं,
महल अटारी इहाँ, मही तो बनाँव जी।
कतको पहाड़ बड़े, अड़जंग हवै खड़े,
मार हथौड़ा मा टोर, राह सिरजाँव जी।।
मिल जथे दाना-पानी, जीये बर जिनगानी,
भाग गढ़ँव सबके, नइ सहराँव जी।
अपन करम बोझ, लाद के चलँव सोझ,
सबके सुख आधार, मजदूर आँव जी।।
विजेन्द्र वर्मा
नगरगाँव (धरसीवाँ)
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*बनिहार - हरिगीतिका छंद*
बनिहार मन के दुःख ला,अब कोन देखत हे बता।
कइसन जमाना आय हे,सब टूट गे रिश्ता नता।।
जाथे कमाये बर सबो,घर छोड़ के परदेश मा।
मनखे अपन ये भोगथे,जिनगी गरीबी भेष मा।।
दुनिया रचइया देखले,अब झोपड़ी के हाल ला।
रहिथे सड़क के तीर मा,छाये रथे तिरपाल ला।।
भूखे पियासे रात दिन,करथे गजब ये काम ला।
टावर बनाथे अउ महल,डर्राय नइ जी घाम ला।।
बेटा महूँ बनिहार के, ईंटा उठाथँव हाथ मा।
गारा मताके बोहथँव, दाई - ददा के साथ मा।।
सब पेट के खातिर इहाँ,छोटे कमावै अउ बड़े।
नइ लाज लागै थोरको,धनवान देखयँ जी खड़े।।
रचनाकार:-
बोधन राम निषादराज"विनायक"
सहसपुर लोहारा,जिला-कबीरधाम(छ.ग.)
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: बोरे बासी ( दोहा छंद )
बोरे बासी खाव जी, दूर भगावव रोग।
येखर आगू मा हवे, फीका छप्पन भोग।।1।।
बोरे बासी संग मा, खावव भाजी चेंच।
हवे मिठाथे जान ले, येहर जी अबड़ेच।।2।।
बासी खाये मा मिले, पानी जी भरपूर।
पसिया हा पानी कमी, करथे घलो ग दूर।।3।।
बासी चटनी गोंदली, खा के देखव आप।
सारी दुनिया हा घलो, कथे दवा के बाप।।4।।
लगे नहीं जी लू घलो, करथे गरमी शांत।
गैस बने ना पेट मा, करे सफाई आंत।।5।।
दिन ज्यादा जीना हवे, कहूँ आप ला आज।
खाना कर दे तैं शुरू, बोरे बासी प्याज।।6।।
सुधर जथे जी हाजमा, पक्का तेहा मान।
करय नहीं ये थोरको, कोनो ला नुकसान।।7।।
कुलदीप सिन्हा "दीप"
कुकरेल ( सलोनी ) धमतरी
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*कुण्डलिया - बोरे बासी*
बोरे बासी नून मा, बटकी भर-भर खाव।
चटनी पीस पताल के,छप्पन भोग ल पाव।।
छप्पन भोग ल पाव,सबो के मन भर जाही।
अइसन सुख ला छोड़,कहाँ ले दुनिया पाही।
इही हमर बर खीर, इही मा खुश बनवासी।
अब तो लेवव स्वाद, नून मा बोरे बासी।।
बोधन राम निषादराज
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: *त्रिभंगी छंद-- बोरे बासी*,,,,,,
नइ लगे उदासी,खा ले बासी ,साग हवै जी ,चना जरी।
चटनी मन भावय,खीरा हावय,मीठ गोंदली,संग बरी ।।
सब रोग भगावय,प्यास बुझावय,बासी पाचन,खूब करे।
खा ले जी हॅसके,निसदिन डटके,भर के बटकी ,ध्यान धरे।।
लिलेश्वर देवांगन
गुधेली
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: *सरसी छंद*
विषय- बनिहार.
जाँगर टोर कमाथँव मैं हर, माटी के बनिहार |
मोर मेहनत धरम करम हे, जिनगी के आधार ||
किसम किसम के चीज बनइया,मैं जग सिरजनहार |
मोर हाथ ले गइस बसाये, ये जम्मो संसार ||
ईंटा ईंटा जोर अटारी, देथँव मैं हर तान |
जेमा छोटे बड़े बिराजै, मनखे अउ भगवान ||
दगदग करत कारखाना मा, लोहा ला टघलाँव |
छोटे बड़े मशीन बना के, आगु देश बढ़ाँव ||
पढ़ लिख इंजीनियर रूप धर, गढ़थँव मैं हर देश |
वैज्ञानिक डाक्टर हितवा के, धरँव कई ठन वेश ||
सरहद सैनिक बन के गरजँव,अपन खून बोहाँव |
सेवा करथँव माटी के मैं, दूलरु बेटा ताँव ||
जब जब लेवँव जनम इहाँ मैं, धरँव रूप बनिहार |
सेवा महतारी के निशदिन, करँव लहू ओगार ||
अशोक कुमार जायसवाल
भाटापारा
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छंदकार:- श्री मोहन लाल वर्मा
विषय :- मजदूर
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(1) रोला छंद:-
कतको बड़े पहाड़, टोरके सड़क बनाथँव ।
महल-अटारी रोज, घलो मँय हा सिरजाथँव ।
जिनगी के आनंद, मेहनत करके पाथँव ।
कहलाथँव मजदूर, आरती श्रम के गाथँव ।।
(2) कुण्डलियाँ छंद:-
जीवन भर अविराम मँय, करथँव
श्रम भरपूर ।
सेवा हित संसार मा, कहलाथँव मजदूर ।
कहलाथँव मजदूर, पछीना खून बहाथँव ।
करथँव नव निर्माण, भले भूखा रहि जाथँव ।
मिलय उचित नइ दाम, कभू मोला हे ईश्वर ।
"मोहन" कर संतोष, सुखी हँव मँय जीवन भर।।
(3) हरिगीतिका छंद:-
मजदूर सत ईमान ले, करथें सबो के काम ला।
कोनो कहाँ देथें उँकर, श्रम के उचित गा दाम ला।
अधिकार बर लड़थें तभो, आवय नहीं कुछु हाथ मा।
श्रम के पुजारी ला सिरिफ, मिलथे पछीना माथ मा।।
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छंदकार- मोहन लाल वर्मा
पता- ग्राम-अल्दा, पो.आ.-तुलसी (मानपुर), व्हाया- हिरमी, तहसील - तिल्दा,जिला-रायपुर (छत्तीसगढ़)पिन-493195
मोबा.9617247078
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सुग्घर संग्रह
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