हरिगीतिका छंद
मारे मरे के खेल ला मनखे सहज अपनात हे।
कोई बने यमराज हे कोनो जहर जर खात हे।।
जिनगी खुदे हे चार दिन के तेन मा तक ये बला।
मर जात हे धन धान बर हीरा असन तन ला गला।।
कखरो चरित बिगड़े हवे कखरो बिगड़हा चाल हे।
कतको धनी गरजत फिरे कोनो निचट कंगाल हे।।
कोई लबारी मार के अघुवाय हावय हार के।
गुंडा गढ़े निज भाग ला हक मार रोजे चार के।।
पग आज नइ ते कल उखड़ही पाप पोंसे तौन के।
ओखर कभू कुछु होय नइ सत सार करनी जौन के।।
बरकत बुराई देय नइ बारो महीना जान ले।
कर काज बढ़िया आज बर मरना हवै कल मान ले।।
इहि लोक मा सब मोह माया छोड़ के जाना हवै।
नेकी करे मा नाम हे बदमाश बर ताना हवै।।
कब छोड़ जाही पिंजरा के सुख सुवा हा का पता।
जिनगी बने जी हाँस के भुलके कहूँ ला झन सता।।
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को,कोरबा(छग)
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