श्री रमेश कुमार सिंह चौहान के दोहा -
सुमरनी
1. हे आखर के देवता, लंबोदर महराज ।
भरे सभा मा लाज रख, सउॅंहे आके आज ।।
2. जय जय मइया षारदे, रख दे मोरो मान ।
तोर षरण मैं आय हॅव, दे दे मोला ज्ञान ।।
3. दुर्गा दाई तोर तो, परत हंव मैं पांव ।
दे दे मोला आय के, सुख अचरा के छांव ।।
राधा राधा बोल तैं, पा जाबे भगवान ।
जिहां जिहां राधा रहय, उहां उहां गा ष्याम ।।
दोहा के मरम
4. कविता के हर षब्द मा, अनुषासन के बंद ।
आखर आखर के परख, गढ़थे सुघ्घर छंद ।।
5. चार चरण दू डांड़ के, होथे दोहा छंद ।
तेरा ग्यारा होय यति, रच ले तै मतिमंद ।।
6. विशम चरण के अंत मा, रगण नगण तो होय ।
तुक बंदी सम चरण रख, अंत गुरू लघु होय ।।
7. सागर ला धर दोहनी, दोहा हा इतराय ।
अंतस बइठे जाय के, अपने रंग जमाय ।।
8. बात बात मा बात ला, मनखे ला समझाय ।
दोहा अइसन छंद हे, जेला जन जन भाय ।।
9. दोहा हर साहित्य के, बने हवय पहिचान ।
बीजक संत कबीर के, तुलसी मानस गान ।।
10. छत्तीसगढ़ी मा घला, दोहा के हे मान ।
धनीधरम जी हे रचे, जाने जगत महान ।।
11. विप्र दलित मन हे रचे, रचत हवे बुधराम ।
अरूण निगम ला देख लौ, रचत हवय अविराम ।।
12. बोली ले भासा गढ़ी, रखी सोच ला रोठ ।
षिल्प विधा मा हम रची, जुर मिल रचना पोठ ।।
13. अनुसासन के पाठ ले, बनथे कोनो छंद ।
देख ताक के षब्द रख, बन जाही मकरंद ।।
14. छोट बुद्धि तो मोर हे, करत हंवव परयास ।
चतुरा चतुरा बड़ हवय, लाही जेन उजास ।।
कविता मा रस
15. सुने पढ़े मा काव्य ला, जउन मजा तो आय ।
आत्मा ओही काव्य के, रस तो इही कहाय ।
16. चार अंग रस के हवय, पहिली स्थाई भाव ।
रस अनुभाव विभाव हे, अउ संचारी भाव ।।
17. भाव करेजा मा बसे, अमिट सदा जे होय ।
ओही स्थाई भाव हे, जाने जी हर कोय ।।
18. ग्यारा स्थाई भाव हे, हास, षोक, उत्साह ।
क्रोध,घृणा,आष्चर्य भय,षम,रति,वतसल,भाह ।। (भाह-भक्ति)
19. कारण स्थाई भाव के, जेने होय विभाव ।
उद्दीपन आलंबन ह, दू ठन तो हे नाव ।।
20. जेन सहारा पाय के, जागे स्थाई भाव ।
जेन विशय आश्रय बने, आलंबन हे नाव ।।
21. जेन जगाये भाव ला, ओही विशय कहाय ।
जेमा जागे भाव हा, आश्रय ओ बन जाय ।।
22. जागे स्थाई भाव ला, जेन ह रखय जगाय ।
उद्दीपन विभाव बने, अपने नाम धराय ।।
23. आश्रय के चेश्टा बने, व्यक्त करे हेे भाव ।
करेे भाव के अनुगमन, ओेही हेे अनुभाव ।।
24. कभू कभू जे जाग के, फेर सूत तो जाय ।
ओही संचारी भाव गा, अपने नाम धराय ।।
25. चार भाव के योग ले, कविता मा रस आय ।
पढ़े सुने मा काव्य के, तब मन हा भर जाय ।।
सुमरनी
1. हे आखर के देवता, लंबोदर महराज ।
भरे सभा मा लाज रख, सउॅंहे आके आज ।।
2. जय जय मइया षारदे, रख दे मोरो मान ।
तोर षरण मैं आय हॅव, दे दे मोला ज्ञान ।।
3. दुर्गा दाई तोर तो, परत हंव मैं पांव ।
दे दे मोला आय के, सुख अचरा के छांव ।।
राधा राधा बोल तैं, पा जाबे भगवान ।
जिहां जिहां राधा रहय, उहां उहां गा ष्याम ।।
दोहा के मरम
4. कविता के हर षब्द मा, अनुषासन के बंद ।
आखर आखर के परख, गढ़थे सुघ्घर छंद ।।
5. चार चरण दू डांड़ के, होथे दोहा छंद ।
तेरा ग्यारा होय यति, रच ले तै मतिमंद ।।
6. विशम चरण के अंत मा, रगण नगण तो होय ।
तुक बंदी सम चरण रख, अंत गुरू लघु होय ।।
7. सागर ला धर दोहनी, दोहा हा इतराय ।
अंतस बइठे जाय के, अपने रंग जमाय ।।
8. बात बात मा बात ला, मनखे ला समझाय ।
दोहा अइसन छंद हे, जेला जन जन भाय ।।
9. दोहा हर साहित्य के, बने हवय पहिचान ।
बीजक संत कबीर के, तुलसी मानस गान ।।
10. छत्तीसगढ़ी मा घला, दोहा के हे मान ।
धनीधरम जी हे रचे, जाने जगत महान ।।
11. विप्र दलित मन हे रचे, रचत हवे बुधराम ।
अरूण निगम ला देख लौ, रचत हवय अविराम ।।
12. बोली ले भासा गढ़ी, रखी सोच ला रोठ ।
षिल्प विधा मा हम रची, जुर मिल रचना पोठ ।।
13. अनुसासन के पाठ ले, बनथे कोनो छंद ।
देख ताक के षब्द रख, बन जाही मकरंद ।।
14. छोट बुद्धि तो मोर हे, करत हंवव परयास ।
चतुरा चतुरा बड़ हवय, लाही जेन उजास ।।
कविता मा रस
15. सुने पढ़े मा काव्य ला, जउन मजा तो आय ।
आत्मा ओही काव्य के, रस तो इही कहाय ।
16. चार अंग रस के हवय, पहिली स्थाई भाव ।
रस अनुभाव विभाव हे, अउ संचारी भाव ।।
17. भाव करेजा मा बसे, अमिट सदा जे होय ।
ओही स्थाई भाव हे, जाने जी हर कोय ।।
18. ग्यारा स्थाई भाव हे, हास, षोक, उत्साह ।
क्रोध,घृणा,आष्चर्य भय,षम,रति,वतसल,भाह ।। (भाह-भक्ति)
19. कारण स्थाई भाव के, जेने होय विभाव ।
उद्दीपन आलंबन ह, दू ठन तो हे नाव ।।
20. जेन सहारा पाय के, जागे स्थाई भाव ।
जेन विशय आश्रय बने, आलंबन हे नाव ।।
21. जेन जगाये भाव ला, ओही विशय कहाय ।
जेमा जागे भाव हा, आश्रय ओ बन जाय ।।
22. जागे स्थाई भाव ला, जेन ह रखय जगाय ।
उद्दीपन विभाव बने, अपने नाम धराय ।।
23. आश्रय के चेश्टा बने, व्यक्त करे हेे भाव ।
करेे भाव के अनुगमन, ओेही हेे अनुभाव ।।
24. कभू कभू जे जाग के, फेर सूत तो जाय ।
ओही संचारी भाव गा, अपने नाम धराय ।।
25. चार भाव के योग ले, कविता मा रस आय ।
पढ़े सुने मा काव्य के, तब मन हा भर जाय ।।
रचनाकार - श्री रमेश कुमार सिंह चौहान
नवागढ़ (बेमेतरा)
छत्तीसगढ़
वाह रमेश भैया सुग्घर दोहा । बड़ दिन होंगे आपसे मुलाकात होय,भाटापारा कब आहू ।
ReplyDeleteवाह रमेश भैया सुग्घर दोहा । बड़ दिन होंगे आपसे मुलाकात होय,भाटापारा कब आहू ।
ReplyDeleteबड़ सुग्घर दोहा चौहान जी। बधाई।
ReplyDeleteविघ्नहर्ता देव गजानन अउ दोहा छंद विधान के सुघ्घर वर्णन।।बहुत बढ़िया रमेश भैया।।
ReplyDeleteविघ्नहर्ता देव गजानन अउ दोहा छंद विधान के सुघ्घर वर्णन।।बहुत बढ़िया रमेश भैया।।
ReplyDeleteवाह्ह्ह्ह्ह् रमेश भइया ,दोहा के विधान ला दोहा मा गुँथ डारे हव ,
ReplyDeleteआप मन के दोहा गागर में सागर ए
बहुँत सुंदर दोहा रमेश भईया जी... बधाई आपमन ल
ReplyDeleteबहुँत सुंदर दोहा रमेश भईया जी... बधाई आपमन ल
ReplyDeleteआदरणीय रमेश चौहान जी के दोहा--सुमरनी, दोहा के मरम,कविता मा रस आदि विधान सम्मत अउ भावपूर्ण हे।पढ़े मा आनन्द आगे।
ReplyDeleteचौहान जी ला हार्दिक शुभकामनाए।
बहुत सुग्घर भावपूर्ण अउ हमर जइसन नेवरिया मन बर अनुकरणीय दोहावली रचे हव,चौहान जी।बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteनिर्दोष अनुकरनीय दोहालरी बड़े भैयाजी।
ReplyDeleteअनुपम दोहावली भाई रमेश
ReplyDeleteलेखनी ला सादर नमन
वाह वाह सर बहुत बढ़िया दोहा
ReplyDeleteबहुत सुग्घर दोहावली के सृजन सर।सादर बधाई
ReplyDeleteबहुत सुग्घर दोहावली के सृजन सर।सादर बधाई
ReplyDeleteसुघ्घर भावपूर्ण दोहावली बर बधाई।
ReplyDeleteसुघ्घर भावपूर्ण दोहावली बर बधाई।
ReplyDeleteदोहा के मरम
ReplyDeleteबड़ सुग्घर छंद ज्ञान ल धरे दोहावली रमेश भैया बहुत बहुत बधाई