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Sunday, May 8, 2022

जेठ बैसाख जे गर्मी- छंदबद्ध कविता संग्रह

 

जेठ बैसाख जे गर्मी

 बइसाख के घाम

(रूपमाला छंद)


कोन घर ले तो निकलही,छूट जाही प्रान।

चरचरावत घाम हावय, जीवरा हलकान।

भोंभरा जरथे चटाचट,लू तको लग जाय।

लाल आँखी ला गुड़ेरय, हे सुरुज गुसियाय।


तात भारी झाँझ झोला, देंह हा जरिजाय।

जीभ चटकय मुँह सुखावय,प्यास बड़ तड़फाय।

का असो अब मार डरही,काल बन बइसाख।

लेसही आगी लगाके, कर दिही का राख।


चोवा राम 'बादल'

हथबंद, छत्तीसगढ़


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: हरिगीतिका छंद


आज के हालात


नदिया पटय जंगल कटय, कतका प्रदूषण बाढ़गे।

पथरा बिछत हे खेत मा, मिहनत तरी कुन माढ़गे।।

तरसे बटोही मन घलो, मिलही कहाँ जी छाँव अब।

शहरीकरण के लोभ मा ,करथें नकल सब गाँव अब।।


आगी सहीं बैशाख मा , सूरुज जराये चाम ला।

मनखे खुदे करनी करे, दोषी बनायें राम ला।।

थोकिन गुनँव  कइसे दिखे ,धरती बिना सिंगार के।

कइसे लगय घर द्वार हा ,मनखे बिना परिवार के।।


आशा देशमुख

एनटीपीसी कोरबा

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घनाक्षरी 


जेठ के महीना संगी, कपड़ा न रहे तंगी, 

कभू उघरा जे रहे, उहू मूँड़ ढाँकथे। 

घर मा खुसर रहे, बजार ल कोन कहे, 

गली पाँव राखे बर, दुवारी ले झाँकथे।  

काम ह अकाम होय, सब गरमी ल रोय, 

फटे नानकन रहे, कोन भला टाँकथे। 

जेठ के महीना घाम, कहाँ अब होय काम, 

लगे ब्रेक जिनगी मा, माढ़े धूल फाँकथे।


दिलीप कुमार वर्मा 

बलौदाबाजार

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