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Sunday, May 1, 2022

बासी दिवस विशेष छंदबद्ध कविता- प्रस्तुति(छंद के छ परिवार


 

बासी दिवस विशेष छंदबद्ध कविता- प्रस्तुति(छंद के छ परिवार)

बोरे बासी

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रोला छंद

पानी डारे भात, कहाथे बोरे बासी।

ये सुग्घर जुड़वास, आय गर्मी के नासी।

पसिया प्यास बुझाय, दूरिहाके लू रहिथे।

 जे हा एला खाय, झाँझ ला हाँसत सहिथे।


बासी अबड़ सुहाय, गोंदली सँग मा खाले।

 थोकुन डारे नून,चाब मिरचा सुसवाले।

 मिलगे कहूँ अथान, स्वाद का कहिबे भाई।

 ये हर दवा समान, भगाथे टेंशन हाई।


धरे शुगर के रोग, खाय बासी मिट जाथे।

होथे कायाकल्प, झड़क बुढ़ुवा फुन्नाथे।

बासी के गुन खास, सफाई करथे नस के।

खा मजदूर किसान, मेहनत करथें कसके।


बोरे बासी खाय, कलेक्टर आफिस जाही।

ठंडा रखे दिमाग, योजना बने बनाही।

बटकी भरे दहेल, एस० पी० धरही डंडा। 

नइ होही अपराध,  न्याय के गड़ही झंडा।


का गरीब धनवान, भोग ये छप्पन सब बर ।

संस्कृति अउ संस्कार,इही हे हमर धरोहर।

बासी गुन के खान,जेन हा एला खाथे।

छत्तीसगढ़ के मान, सरी दुनिया बगराथे।


चोवा राम ' बादल '

हथबंद, छत्तीसगढ़

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 आशा देशमुख: बोरे बासी


कुण्डलिया छंद


राजा के आव्हान हे ,बोरे बासी खाव।

संस्कृति रीति रिवाज ला, सब झन बने निभाव।

सब झन बने निभाव, सुघर पहिचान बनावौ।

अपन गीत अउ राग, सबो मिल जुल के  गावौ।

हमर कलेवा शान, ठेठरी खुरमी खाजा।

बासी नून अथान, आज खावत हे राजा।।1



छत्तीसगढ़ के आज तो, जागिस संगी भाग।

राजा तक खावत हवय ,बोरे बासी साग।।

बोरे बासी साग, संग मा आमा चटनी।

अपन भाग सँहरात, पठौहाँ बटकी पटनी।।

बासी गुण के खान, कहत हें साक्षर अनपढ़।

बासी के अध्याय, लिखत हे हमर छतीसगढ़।।2


बोरे बासी हा हमर, रचत हवय इतिहास।

का राजा अउ का प्रजा, सब बर बनगे खास।।

सब बर बनगे खास, दूर भागे बीमारी।

नून गोंदली साग, देह बर हे हितकारी।।

ममता मया सुवाद, लगय अमरित कस घोरे।

राजा के आव्हान,  खाव सब बासी बोरे।।3


आशा देशमुख

एनटीपीसी जमनीपाली कोरबा

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तेजराम नायक, रायगढ़: *बासी*


★दोहा छंद★


खा के बासी नून ला, चलय खेत खलिहान।

भुइँया के सेवा करय, माटी मीत किसान ।।


बासी ले ताकत मिले, स्वाद घलो भरपूर।

बासी के में का कहँव, होय थकावट दूर।।


★रूपमाला छन्द★


खाय बासी पीस चटनी, स्वाद भारी आय।

देय ताकत भूख भागे, प्यास हा तिरयाय।।

बात चटनी संग बासी, बड़ मजा हे आय।

खाय नोनी रोज चटनी, ये बने पतियाय।।

तेजराम नायक

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रोला छंद- विजेंद्र वर्मा

बासी

रतिहा बोरे भात, सुबे बासी बन जाथे। 

येला सब झन खाव, दवा टानिक कहलाथे। 

होगे बासी संग, चेंच के सुग्घर भाजी। 

झड़व पालथी मोड़, मजा लेवत सब राजी।। 


  विजेंद्र वर्मा

नगरगाँव धरसीवाँ

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 सुखदेव: #बोरे बासी (लावणी छन्द)


एक मई मजदूर दिवस ला, सँहुराही बोरे बासी।

नून गोंदली सो बतियावत, मुस्काही बोरे बासी।


कय प्रकार के होथे बासी, प्रश्न परीक्षा मा आही।

काला कथें तियासी बासी, लइकन सो पूछे जाही।


रतिहाकन के बँचे भात मा, पानी डार रखे जाथे।

होत बिहनहा नून डार के, बासी रूप भखे जाथे।


नौ दस बज्जी भात राँध के, जल मा जुड़वाये जाथे।

बोरे बासी कहत मँझनिया, अउ संझा खाये जाथे।


बोरे बासी बाँच कहूँ गय, दूसर दिवस बिहनहा बर।

उही तियासी बासी आवय, गाँव गरीब किसनहा बर।


बिन सब्जी के दुनो जुहर ला, नहकाही बोरे बासी।

नून गोंदली सो बतियावत, मुस्काही बोरे बासी।


छत्तीसगढ़ सरकार दिखावत, हावय छत्तीसगढ़िया पन।

अच्छा हे सबके तन मन ला, भावय छत्तीसगढ़िया पन।


बात चलत हे गोबर आँगन, खेत खार घर बारी के।

नरवा गरुवा घुरुवा मनके, संरक्षण रखवारी के।


बड़ गुणकारी होथे बासी, घर बन सबो बतावत हें।

नवा खवइया मन भलते, बासी खा के जम्हावत हें।


एक सइकमा बोरे बासी, कय रुपिया मा आही जी।

होटल मन मा बहुते जल्दी, मेनू कार्ड बताही जी।


जिलाधीश नेता मंत्री खुश हो खाहीं बोरे बासी।

नून गोंदली सो बतियावत, मुस्काही बोरे बासी।


छप्पन भोग सुने हन सबझन, रहन कहूंँ के रहवासी।

भोग कहाही सन्तावनवा, अब छत्तीसगढ़ के बासी।


देवालय मनमा अब जाही, बासी हर पकवान सहीं।

जे बासी के भोग लगाही, उही हमर भगवान सहीं।


छठ्ठी-बरही बर-बिहाव मा, बासी हर आदर पाही।

पूजा करके हमर पुजेरी, खुश हो के बासी खाही।


मँहगाई हर मुँह उथराही, बासी बर जलमरही बड़।

'अहिलेश्वर' सिरतो काहत हे, निंदा चारी करही बड़।


बफे भोज मा जगह बड़ाई, भर पाही बोरे बासी।

नून गोंदली सो बतियावत, मुस्काही बोरे बासी।


रचना-सुखदेव सिंह"अहिलेश्वर"

गोरखपुर कबीरधाम छत्तीसगढ़

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"*बोरे बासी*"( सार छंद)


रतिहा बाँचय भात जतक कन,ओमा डारव पानी।

बिहना बोरे बासी बनगे,एखर इही कहानी।


बड़े बिहनिया उठके जेहर, खेत खार मा जावय।

जाँगर टोरय देह खपावय, ओहा बासी खावय।


कुरसी के बइठइया मनखे,जबरन बासी खाही।

नइ पचही ता अलहन होही,ओखर पेट पिराही।


बोरे बासी मिहनत माँगे,एला थोकिन जानव।

भड़कउनी मा आके कखरो,उदे बात झन मानव।


पुरखा हमरो बताय हावय,गुन अड़बड़ हे एमा।

गजब सुहाथे बासी ओहा, मही डराथे जेमा।


लिमऊ नइते आमा अथान,नून गोंदली मिरचा।

साग अमारी भाजी तहले,बासी के हे चरचा।


पिज्जा बरगर ब्रेड खवइया बोरे,बासी खाही।

असली छतीसगढ़िया आवँव,छाती अपन फुलाही। 


हमर कका गोहार करिस हे,बासी सबझन खावव।

छतीसगढ़ के परम्परा ला, भारत मा बगरावव।


पुष्टइ होथय बोरे बासी,ज्ञानी गुनी बताथे।

अड़बड़ ताकत पाथे ओहा, बटकी भर जे खाथे।


सुसायटी मा मिलही बासी, जब सरकारी होही।

 लइकामन हा इस्कूल जाके, तब बासी बर रोही।


हीरालाल गुरुजी "समय"

छुरा, जिला- गरियाबंद

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 कुण्डलिया छंद -बोरे बासी


बोरे  बासी  नून मा, बटकी  भर-भर  खाव।

चटनी पीस पताल के,छप्पन भोग ल पाव।।

छप्पन भोग ल पाव,सबो के मन भर जाही।

अइसन सुख ला छोड़,कहाँ ले दुनिया पाही।

इही हमर बर  खीर, इही मा खुश बनवासी।

अब तो खा  के  देख, नून मा  बोरे  बासी।।


बोधन राम निषादराज

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 डी पी लहरे: चौपाई छन्द


*शीर्षक-बासी*


बासी के गुण अब्बड़ भारी।

तन बर हायव ये हितकारी।

अंतस मा लावय जी नरमी।

बासी टारय तन के गरमी।।(१)


नून डार के खाले बासी।

करथे ए गरमी के नासी।

पसिया प्यास बुझाही भइया।

लू ले जान बचाही भइया।।(२)


जे मनखे हा बासी खाथे।

अब्बड़ ओ हा ताकत पाथे।

बोरे बासी हे गुणकारी।

खावव जी जम्मो नर-नारी।।(३)


सबो बिटामिन एमा मिलथे।

जेखर ले काया हा खिलथे।

तन के जम्मो रोग भगाथे।

गैस  पेट  के  दूर  हटाथे।।(४)


कहाँ खोजबे जी तरकारी।

महँगाई  बाढे  हे  भारी।

खाले भइया बोरे बासी।

छिन मा टरही तोर उदासी।।(५)


द्वारिका प्रसाद लहरे"मौज"

कवर्धा छत्तीसगढ़

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प्रिया: *बोरे बासी* (रोला छन्द)


बोरे बासी आज, सबो के मन ला भागे।

खावव बिहना रोज, अबड़ गरमी हर आगे।।

रतिहा बेरा भात, बोर के राखव भाई।

लेवव थोरिक स्वाद, बइठ सँग मा भौजाई।।


काटव मिरचा प्याज, चाब के सबझन खावौ।

दुरियाही सब रोग, देह ला स्वस्थ बनावौ।।

जाथे कमिया रोज, खेत मा धर के बासी।

जाँगर टोर कमाय, नहीं लागय ग उँघासी।।


लाज शरम ला छोड़, हाँस के खावव बासी।

सुग्घर दिखही देह, भागही सबो उदासी।।

छत्तीसगढ़ी रीत, आज येला अपनावौ।

बासी के गुणगान, अपन लइका ल सुनावौ।।


प्रिया देवांगन *प्रियू*

राजिम

छत्तीसगढ़

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*चौपई छंद*

*बासी*


बासी खा ले मिरचा संग । झन करबे तै मोला तंग ।।

बढ़ जाही रे तोर उमंग । करबे झन *काँही* उतलंग ।।


खा ले बासी बिहना बोर । मुनगा संग बरी के झोर ।।

राँधे हावय दाई तोर । फोकट के झन दाँत निपोर ।।


बिहना ले उठथे मजदूर । खा के बासी जाथे दूर ।

चटनी अउ आमा के कूर । मेहनत करय तब भरपूर ।।


अब्बड़ परत हवय जी  घाम । चट चट *जरही* सबके चाम ।।

खा के बासी करबे काम। सिरतो मा मिलही आराम।


खावय जे बासी अमचूर । पाय विटामिन वो भरपूर ।।

बीमारी सब होवय दूर । *होवय* नहीं कभू मजबूर ।।


बासी खावय हमर सियान । बाँटय वोहर सबला ज्ञान ।।

लइका मन बर देवय ध्यान । सबझन के करथे कल्यान ।।


खावय चैतू *चाँटय* हाथ । भोंदू देवय वोकर साथ ।।

पकलू देखय *पीटय* माथ । अक्कल दे दे भोलेनाथ ।।


बासी *खावत* "माटी "आज । डारे हावय मिरचा प्याज ।।

खाये *मा हे काबर* लाज । चटनी बासी सबके ताज ।।


महेंद्र देवांगन *माटी*

राजिम

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*बोरे बासी*(त्रिभंगी छंद)


नइ लगे उदासी,खा ले बासी ,साग हवै जी ,चना जरी।

चटनी मन भावय,खीरा हावय,मीठ गोंदली,संग बरी ।।

सब रोग भगावय,प्यास बुझावय,

बासी पाचन,खूब करे।

खा ले जी हॅसके,निसदिन डटके,भर के बटकी ,ध्यान धरे।


लिलेश्वर देवांगन

   बेरला

छंद साधक (१०)

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*दोहे*


गरमी दिन-दिन बढ़त हे, तात-भात नइ भाय।

बासी खाले बोर के,'प्यारे' गजब सुहाय।।


बासी मा गुण बहुत हे, कहिथें हमर सियान।

खाले बासी पेट भर, सुत जा फेर उतान।।


भाजी चटनी संग मा, बासी गजब सुहाय।

दही मही अउ गोंदली, मजा कहे नइ जाय।।


रोज बिहिनिया खाय ले, जर-बुखार नइ आय।

जे बासी सेवन करे,  डॉक्टर घर नइ जाय।।


चाहा पीके लोग सब, बासी गइन भुलाय।

बासी खाये के मजा, 'प्यारे' कह नइ जाय।।


*प्यारेलाल साहू मरौद छत्तीसगढ़*

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बोरे बासी - आल्हा छन्द


गुरु गणपति ला माथ नवाके, मात शारदा चरण मनाँव।

बोरे बासी के महिमा ला, सब संगी ला आज सुनाँव।।


भात बचे बिहना के एमा, बूड़त ले पानी तँय डार।

बन जाथे जी एहा बोरे, खाव साँझ के पाल्थी मार।।


रतिहा के बाँचे जेवन ला, रखौ रात भर पानी बोर।

बासी कहिथे जानौ येला, खाव पेट भर भैया मोर।।


काट गोंदली सइघो मिरचा, नून डार के मही मिलाय।

कहूँ पाय आमा के चटनी, एक कौर उपराहा खाय।।


भरे विटामिन कतको एमा, हमर सबो पुरखा मन खाय।

सूजी-पानी नइ लागय गा, काम करय सब ताकत पाय।।


बोरे बासी रोज खाय मा, ताकत देथे ये भरमार।

बस एके दिन एला खाय म, नइ होवय ककरो उद्धार।।


देखावा बर खाहव झन जी, पड़ जाहू तुरते बीमार।।

बोरे बासी दोष लगाहव, छत्तीसगढ़िया होही खार।।


खावव बासी पीयव पसिया, जीयव साल एक सौ बीस।

साथ दिही जिनगी भर तन हा, ताल ठोंक बोलय जगदीश।।


जगदीश "हीरा" साहू (व्याख्याता)

कड़ार (भाटापारा)

01.05.22

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       *बासी*( सरसी छंद)


गँजिया मा बोरे बासी अउ, पताल  चटनी संग।

खेड़हा झोरहा मा सब झन, बासी खाँय मतंग।।


लोहा करछुल मा घी डारव, फोरन देव बघार।

आमा के चटनी पिस लव जी, बने पुदीना डार।


छत्तीसगढ़िया किसान बेटा, धान तोर पहिचान।

बनिहारी जाये के आघू, बासी खाय किसान।।


आज दिवस हे बोरे बासी, कहत हवै सरकार।

बासी खाय बर नेवता हे, छंद के छ परिवार।


                 🌹🙏🏻🌹


              - वसन्ती वर्मा 

                  बिलासपुर

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: बासी (कुण्डलिया ) - अजय अमृतांशु


खा ले बेटा चाव से, बासी संग अथान।

बड़ गुणकारी ये हवय, सिरतो येला मान।।

सिरतों येला मान, विटामिन येमा हावय।

होय उदासी दूर, रोज येला जे खावय।

पाचन रहिथे ठीक, बने तँय मजा उड़ा ले।

टेंशन जाही भाग, चाव से बासी खा ले ।


अजय अमृतांशु

भाटापारा( छत्तीसगढ़)

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महेंद्र बघेल: *बासी*


हमर कमाई के परसादे, उनकर महल अटारी हे।

कहाॅं भाग मा घीव पराठा, बासी हा फरहारी हे।

बासी सुनके नाक सिकोड़े, वो चम्मच मा झड़कत हे।

बहिरुपिया के दिल हा कैसे, आज लफालफ धड़कत हे।

बोरे बासी मा कतको मन ,चमकावतहें ताज अपन।

ए सी मा बैठे चतुरा मन, तोपत ढाकत राज अपन।।


बिलमें रहिजा भकुवाये कस, आगू के तैयारी हे।

हमर भाग मा कहाॅं पराठा, बासी हा फरहारी हे।


महेंद्र बघेल

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: *कुण्डलिया छंद--- बोरे बासी*


माते अड़बड़ पोठ के, बोरे बासी आज।

करे दिखावा बड़ सबो, होत खाय के काज।।

होत खाय के काज, फोटु मा सजके भारी।

नून गोंदली संग, पाय हे मान अचारी।।

नेता अफसर खीच,फोटु मा चटनी चाटें।

करलाई बड़ भूख, गरीबी घर घर माते।।


बोरे बासी के दिवस, बड़हड़ हवै मनाय।

घर गरीब के भूख हर, बइठे नता बनाय।।

बइठे नता बनाय, बने पहुना महॅंगाई।

रोज ठगावय भाग, भात बासी बर भाई।।

मिहनत कनिहा टोर, लिखे बड़ किस्मत मोरे।

हड़िया दुच्छा रोय, काय के बासी बोरे।।


मनोज कुमार वर्मा

बरदा लवन बलौदा बाजार

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 बासी- दिलीप कुमार वर्मा 


आज कहय सब बासी खावव, हमतो बचपन ले खावत हन। 

कइसन स्वाद भरे बासी मा, हमतो बचपन ले जानत हन। 


पुरखा मन बासी खावयँ ता, झन समझव कोनो लाचारी। 

भात बना के बासी बोरयँ, जानय कतका हे गुणकारी।   


गरमी मा जब नरी सुखाथे, पानी प्यास बुझा नइ पावय।  

बासी सँग पसिया ला पीयव, पेट भरय अउ प्यास बुझावय। 


पेट साफ सुग्घर कर देथे, नींद तको हर जम के आथे। 

तन के दुख पीरा हर लेथे, जब कोनो बासी ला खाथे।


साग दार के नइ हे चिंता, बस आमा चटनी मा खावव। 

उहू नही ता नून मिरच मा, खाके बासी मजा उड़ावव।


सुन सुधुवा बुधुवा मनटोरा, बासी अब बासी नइ रहिगे। 

वाटर राइस नाम धराये, बड़े बड़े होटल मा बहिगे।  


आज हमर मुखिया हर सब ले, कहिथें बोरे बासी खावव। 

अपन संस्कृति रखव सुरक्षित, अपन राज के मान बढावव।


रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा 

बलौदाबाजार

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     "*बोरे बासी*"( सार छंद)



रतिहा बाँचय भात जतक कन,ओमा डारव पानी।

बिहना बोरे बासी बनगे,एखर इही कहानी।


बड़े बिहनिया उठके जेहर, खेत खार मा जावय।

जाँगर टोरय देह खपावय, ओहा बासी खावय।


कुरसी के बइठइया मनखे,जबरन बासी खाही।

नइ पचही ता अलहन होही,ओखर पेट पिराही।


बोरे बासी मिहनत माँगे,एला थोकिन जानव।

भड़कउनी मा आके कखरो,उदे बात झन मानव।


पुरखा हमरो बताय हावय,गुन अड़बड़ हे एमा।

गजब सुहाथे बासी ओहा, मही डराथे जेमा।


लिमऊ नइते आमा अथान,नून गोंदली मिरचा।

साग अमारी भाजी तहले,बासी के हे चरचा।


पिज्जा बरगर ब्रेड खवइया बोरे,बासी खाही।

असली छतीसगढ़िया आवँव,छाती अपन फुलाही। 


हमर कका गोहार करिस हे,बासी सबझन खावव।

छतीसगढ़ के परम्परा ला, भारत मा बगरावव।


पुष्टइ होथय बोरे बासी,ज्ञानी गुनी बताथे।

अड़बड़ ताकत पाथे ओहा, बटकी भर जे खाथे।


सुसायटी मा मिलही बासी, जब सरकारी होही।

 लइकामन हा इस्कूल जाके, तब बासी बर रोही।


हीरालाल गुरुजी "समय"

छुरा, जिला- गरियाबंद

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.        *बासी*( सरसी छंद)


गँजिया मा बोरे बासी अउ, पताल  चटनी संग।

खेड़हा झोरहा मा सब झन, बासी खाँय मतंग।।


लोहा करछुल मा घी डारव, फोरन देव बघार।

आमा के चटनी पिस लव जी, बने पुदीना डार।


छत्तीसगढ़िया किसान बेटा, धान तोर पहिचान।

बनिहारी जाये के आघू, बासी खाय किसान।।


आज दिवस हे बोरे बासी, कहत हवै सरकार।

बासी खाय बर नेवता हे, छंद के छ परिवार।

              - वसन्ती वर्मा 

                  बिलासपुर

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जयकारी छन्द- बासी


जरे घाम मा चटचट चाम, लगे थकासी रूकय काम।

खेवन खेवन गला सुखाय, बदन पछीना मा थर्राय।


चले हवा जब ताते तात, भाय नही मन ला जब भात।

चक्कर घेरी बेरी आय, तन के ताप घलो बढ़ जाय।


घाम झाँझ मा पेट पिराय, चैन चिटिक तन मन नइ पाय।

तब खा बासी दुनो जुवार, खाके दुरिहा जर बोखार।


बासी खाके बन जा वीर, खेत जोत अउ लकड़ी चीर।

हकन हकन के खंती कोड़, धार नदी नरवा के मोड़।


गार पछीना बिहना साँझ, सोन उगलही धरती बाँझ।

सड़क महल घर बाँध बना, ताकत तन के अपन जना।


खुद के अउ दुनिया के काम, अपन बाँह मा ले चल थाम।

करके बूता पाबे मान, बन जाबे भुइयाँ के शान।


सुनके बासी मूँदय कान, उहू खात हे लान अथान।

खावै बासी पेज गरीब, कहे तहू मन आय करीब।


खावत हें सब थारी चाँट, लइका लोग सबे सँग बाँट।

बासी कहिके हाँसे जौन, हाँस हाँस के खावै तौन।


बासी चटनी के गुण जान, खाय अमीर गरीब किसान।

पिज़्ज़ा बर्गर चउमिन छोड़, खावै सबझन माड़ी मोड़।


बदलत हे ये जुग हा फेर, लहुटत हे बासी के बेर।

बड़े लगे ना छोटे आज, बासी खाये नइहे लाज।


बासी बासी के हे शोर, खावै नून मही सब घोर।

भाजी चटनी आम अथान, कच्चा मिरी गोंदली चान।


बरी बिजौरी कड़ही साग, मिले संग मा जागे भाग।

बासी खाके पसिया ढोंक, जर कमजोरी के लू फोंक।


करे हकन के बूता काम, खा बासी मजदूर किसान।

गर्मी सर्दी अउ आसाढ़, एको दिन नइ होवै आड़।।


जीतेंन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

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शोभन छंद

चान चानी गोंदली के, नून संग अथान।

जुड़ हवै बासी झडक ले, भाग जाय थकान।

बड़ मिठाथे मन हिताथे, खाय तौन बताय।

झाँझ झोला नइ धरे गा, जर बुखार भगाय।

जीतेंन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)


3 comments:

  1. अनुपम संग्रह।हार्दिक बधाई आद० जितेंद्र वर्मा जी।

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  2. बहुत सुग्घर छंदबद्ध संकलन

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  3. अद्भुत संकलन

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