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Saturday, February 4, 2023

पतझड विशेष छंदबद्ध सृजन



 पतझड विशेष छंदबद्ध सृजन

 चौपाई - दिलीप कुमार वर्मा 


पतझड़ 

गरमी आवत जान के, रुखुवा करे विचार। 

पानी अब कइसे बचे, दौं का पान उतार।


जब -जब गरमी के दिन आथे। 

नदिया नरवा ताल सुखाथे। 

हाल देख रुखुवा घबराथे। 

लउहा जम्मो पान झड़ाथे। 


जानय ओ पाना के करनी। 

पानी के होथे ये झरनी। 

भाप बना जम्मो उड़ियाथे। 

देखत रुखुवा ठाड़ सुखाथे।  


पाये बर कुछ खोना परथे। 

कचरा जारत रुखुवा बरथे। 

बुढ़वा पाना जभे झराही। 

तभे नवा पाना ला पाही। 


जब-जब पतझड़ के दिन आथे।

एक पंथ दुइ काज सधाथे।

सूखा पन ले जान बचा थे। 

आवत पान जवानी छाथे। 


मानत हौं पतझड़ दुखदाई। 

सबो डहर मातय करलाई। 

पर ये सुख के आहट देथे। 

फुलुवा आवत दुख हर लेथे। 


पान पतउवा चरमिर चइया। 

सड़ गल खाद बनावय भइया। 

नवा पेड़ सुग्घर उपजावय।  

पतझड़ सबके भाग जगावय। 


पतझड़ ला कम आंक झन, इही सरग के द्वार। 

नवा पान अउ फूल ले, आथे सुघर बहार। 


रचनाकार - दिलीप कुमार वर्मा 

बलौदाबाजार छ ग

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 ताटंक छन्द गीत..

विषय-पतझड़


पेड़ झड़ाथे सुख्खा पाना,अइसे अवगुण झारौ जी

नवा नवा पाना उलहाथे,तइसे सतगुण धारौ जी।।


पतझड़ हा देथे संदेशा,दुख के दिन जल्दी जाथे ।

दुख के पाछू-पाछू भइया,सुख के दिन जल्दी आथे ।।

कभू उदासी मा झन जीयव,चलौ उदासी टारौ जी।

पेड़ झड़ाथे सुख्खा पाना,अइसे अवगुण झारौ जी।।(१)


पेड़ छोड़ के जुन्ना पाना,खुश होथे हरियाली मा।

इही किसम के राहव भाई,आप सबो खुशहाली मा।।

जात-पात के भरम-भूत ला,मिलके भुर्री बारौ जी।

पेड़ झड़ाथे सुख्खा पाना,अइसे अवगुण झारौ जी।।(२)


डी.पी.लहरे"मौज"

कवर्धा छत्तीसगढ़

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 कुंडलियां - दिलीप कुमार वर्मा 

पतझड़ 


जिनगी जब पतझड़ लगे, तब झन मानव हार। 

दुख के बादर छट जही, फिर से आय बहार। 

फिर से आय बहार, नवा पाना ला लेके। 

महकावय सरि अंग, रंग फुलुवा के देके। 

मानव कहत दिलीप, कभी झन करहू गड़बड़। 

राखव मन मा धीर, लगे जिनगी जब पतझड़।1। 


रुख राई बिन पान के, अलगे रूप दिखाय। 

योगी जस ठाढ़े रहे, झांझ हला नइ पाय। 

झांझ हला नइ पाय, सुरुज बपुरा थर्रावय। 

कतको ताप बढ़ाय, पेड़ हर नइ घनरावय। 

पतझड़ हे वरदान, समझ झन तैं करलाई। 

गरमी झेलय मस्त, पान के बिन रुख राई।2।


रचनाकार - दिलीप कुमार वर्मा 

बलौदाबाजार छ ग

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छप्पय छंद

पतझड़ 

पतझड़ देथे ज्ञान, पुराना ढर्रा बदलव |

अन्तस भीतर एक, नवा आशा ला भरलव ||

होय सदा पुरुषार्थ, सीख हम ला दे जाथे |

जइसे जरके दीप, रोशनी जग फइलाथे ||

एक नवा विस्वास के, देथे जग ला ज्ञान जी |

सदा प्रकृति के संग मा, बसथे सबके प्रान जी ||


झरगे जुन्ना पान, नवा के आगे पारी |

फूटय कोपल झाड़, खार अउ कोला बारी ||

मउँरे अमवा डार, नवा नेवननिन आवय |

चले पवन उनचास, कोयली मंगल गावय ||

बदलय जुन्ना ओनहा, देखव आज बसंत जी |

जस दुल्हा घाटी दिखै, परसा भगवा संत जी ||


कमलेश प्रसाद शरमाबाबू

 कटंगी-गंडई जिला केसीजी

छंद साधक- सत्र 20

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 बसंत ऋतु (लावणी छंद)


पूस माघ के महिना मा जब,पतझड़ के बेरा आथे।

जम्मों रुखराई के संगी,पान पतउवा झर जाथे।।


पतझड़ के जाये ले सुग्घर,ठुड़गा रुख के का कहना।

बुढ़वा बने जवान बरोबर,चुक चुक ले ओखर गहना।।

रंग रंग के फूल लदाए,बने प्रकृति हा ममहाथे।

पूस माघ के महिना मा..............


खेत खार लहरावत रहिथे,आमा मौर बने भाथे।

तान कोयली मँदरस बोली,सुग्घर सुर गाना गाथे।।

ऋतु बसंत के बेरा आथे,उलहा पाना हरियाथे।

पूस माघ के महिना मा..............


भुइयाँ के श्रृंगार गजब के,नवा दुल्हनिया लागे जी।

सुर सुर सुर सुर पुरवइया मा,मन भौंरा बइहागे जी।।

सबके मन आनंदित होथे,भुइयाँ मा खुशियाँ छाथे।।

पूस माघ के महिना मा...............


रचनाकार:-

बोधन राम निषादराज"विनायक"

सहसपुर लोहारा,जिला-कबीरधाम(छ.ग.)

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: अमृत ध्वनि छंद -"पतझड़"

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डारा  डारा  हरियाय, सुघ्घर  चले  बयार।

फूले फूल किसम किसम, धरती पहिरे हार।।

धरती पहिरे,  हार लगे हे,  सुघ्घर नारी।

पतझड़ पाछू, पाना नावा, निकले भारी।‌।

झरगे पाना,  नावा निकले,  झारा झारा।

पान फूल ले,  सजे फेर ले,  डारा डारा।।


आरी पारी हे लगे, सुख अउ दुख हा आय।

दुख आ के पहिली सबो, सुख के मरम बताय।।

धीरज धरके,  पतझड़ में गा,  चेत लगाए।

खड़े पेड़ मन, धीर मा खीर,  आस जगाए।।

होथे पूरा,  आस बिसवास,  राखव  भारी।

आना जाना, सुख दुख के हे,  आरी पारी।।


परसा लाली फूल हा, जींये  बर  सीखाय।

पिँवरा सरसों फूल ले, प्रेम भाव भर जाय।।

पातर दूबर,  अरसी सरसों,   सीखा जाथे।

जावव पाछू, झन जी तन के, जग गुण गाथे।।

गरमी  पाथे,  सहिके भुइयाँ, पाथे बरसा।

तब कोरा मा,  पाथे सुघ्घर, लाली परसा।।

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द्रोपती साहू "सरसिज"

महासमुन्द, छत्तीसगढ़

पिन-493445

मों. 9179134271

Email; dropdisahu75@gmail.com

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अमृत ध्वनि -छंद

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      पतझड़ 

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पाना झरगे डार के, ठक-ठक दिखथे पेड़ |

मुड़े गड़रिया मन हवय, जइसे कोनो भेड़ ||

जइसे कोनो, भेड़ मुड़ाये, उँन के खातिर |

आसमान मा, घुँमरत कोनो, कातिल शातिर ||

कोयल के जी, मीठ बोल हा, लागय ताना |

जंगल झाड़ी,  पट्टागे हे, झरगे पाना ||


कमलेश प्रसाद शरमाबाबू कटंगी-गंडई जिला-केसीजी छग 

छंद साधक सत्र-20

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दोहा (पतझड़)


पाना झरगे डार ले,ठुठवा परगे रूख।

छँइहा खोजय जीव हा,पाना गेहे सूख।।


हे बिरान अब खार जस,गहना उतरे नार।

उखड़े उखड़े अन मने,लागत हे संसार।।


आसा रखथे पेड़ हा,छटहि बिपत के काल।

फेर उही सूरज नवा,बदले हमरो चाल।।


आही उलहा पान हा,छाही मस्ती रंग।

झूमे लगही रूख सबो,मन मे भरे उमंग।।


राजेन्द्र कुमार निर्मलकर

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 इंद्राणी साहू: *पतझड़*

विधा - मनहरण घनाक्षरी

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हवा चले सरसर, पाना झरे झरझर,

बइहा पतझड़ हा, कइसे बौराय हे।


नवा-नवा पाना आही, रुखराई हरियाही,

भुइयाँ हा मुसकाही, संदेशा ये लाय हे।


भुला पतझड़ पीरा, आमा मौरे लहसे हे,

कोयली के मीठ बोली, मन ला लुभाय हे।


पियर-पियर दिखे, सरसों के सुघराई,

लाली-लाली परसा हा, वन ला सजाय हे।।



        *इन्द्राणी साहू ”साँची"*

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 पतझड़ (हेम के विधाता छंद)


सबो रुख ले झरे पाना, रहे ठुठवाँ अकेला जी।

तभो ले फूल मुस्काये, कहे दुख ये सहेला जी।।

समे के संग मा चलबे, तभे जिनगी चलेला जी।

नवा बदलाव आही अब, इही आशा रखेला जी।।


-हेमलाल साहू

छंद के छ सत्र-१

ग्राम-गिधवा, जिला बेमेतरा

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: कुण्डलिया छंद 

विषय - पतझड़ 


पाना मन बिक्कट झड़त, पट जावत घर-द्वार।

पतझड़ के मौसम हरय, जुच्छा होवत डार।।

जुच्छा होवत डार, देख के लागत झटका।

करत तपस्या पेड़, नवा जिनगी बर कतका।।

फेर पाय बर मान, बुनत हे ताना-बाना।

हवय पेड़ ला आस, नवा उलहोही पाना।।


✍️ श्लेष चन्द्राकर,

छंद के छ सत्र-9

महासमुंद (छत्तीसगढ़)

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: *दोहा छंद*

(पतझड़)


खड़े रूख सोंचत हवै, अब बितगे जी जाड़।

बाढ़त हावय घाम हा,सूरज होवत ठाड़।।


जुन्ना पाना देख तो, होगे पींयर रंग।

लगथे लगगे माघ हा, पुलकत हे सब अंग।।


पींयर पाना झर जही, उलहोही सब डार।

हरियर पाना आय ले, छाँव होय भरमार।।


पतझड़ जब होही नहीं, पान नवा नइ आय।

हवा शुद्ध मिलही कहाँ, छाँव कहाँ मिल पाय।।


हरियर हरियर रूख हे, धरती के सिंगार।

पतझड़ अवगुन जाय ले, उलहोथे सब डार।।


जिनगी रूपी पेड़ मा,दुख ला पतझड़ जान।

हरियावत पाना सहीं, सुख हा मिलथे मान।।


 पतझड़ देथे सीख ला,दुख पाछू सुख आय।

दुख सुख मिलथे प्रभु कृपा, दूनो सीख समाय।।


भागवत प्रसाद चन्द्राकर🙏🙏🙏🙏🙏

सत्र -15

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: कुंडलिया छन्द

विषय-पतझड़


हरियर-हरियर पेड़ के, झरगे जम्मो पान।

बुढ़वा ठुरगा हे दिखय, जइसे नइये जान।।

जइसे नइये जान, सबो मुरझाये हावय।

सुख्खा होंवत ताल, कहाँ हरियाली पावय।।

राखय मन मे धीर, ओनहा पाही फरियर।

झरही  जुन्ना पान, कोपलें आही हरियर।।


राज साहू

छंद के छः सत्र- 20

नगर पंचायत समोदा, जिला रायपुर

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विष्णुपद छंद ( *पतझड़* )

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पतझड़ के दिन घलो जरूरी,प्रकृति सँवारे बर।

नवा पान उलहोवँय कहिके, जुन्ना जाथें झर। ।

सजे धजे धरती के कोरा, झन लागय भद्दा। 

पाना झर बर के भविष्य बर,चतवारँय रद्दा। 

पीढ़ी नवा उठावय बाना,सब सियान मन के। 

पतझड़ देथे सीख हमेशा,सुघ्घर जीवन के। ।

नवा पुराना के सुमता मा, ममहावय भुइँया ।

इही सिखावय होश रहय जी,जोश संग गुइँया।

परगट दिखय उदासी मन के, पतझड़ के बेरा। 

औगुन जब निकलय तब लागय, मन निर्मल डेरा। ।

ए डेरा मा हँसी खुशी के, बिरवा नवा जगय। 

अउ बसंत के अगवानी मा, तन मन सबो लगय। ।


दीपक निषाद--लाटा (बेमेतरा)

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: मनहरण धनाक्षरी


पतझड़ 


जनावत घाम अब,जाड़ बिदा लागे तब,

फूल फूले चारो कोती, बने महमात हे।


अमुआ  मऊर धरे,पिंवरा पाना ह झरे, 

ड़ारा म हे फुदकत,कोयलिया गात हे।


महुआ महक मारे,मन मा उमंग डारे,

बन बाग चारो कोती, सबो मदमात हे।


गोंदा व गुलाब फूले,ड़ारा पाना सबो झूले,

चूम-चूम फुलवा ला,भौंरा इतरात हे।


केवरा यदु"मीरा"राजिम

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 कुंडलिया छंद------पतझड़


डारा- पाना  हे  झरत, पतझड़ मौसम आय ।

रुखवा मन ले देख अब, छइहाँ नइ मिल पाय ।।

छइहाँ नइ मिल पाय, घाम हा घलो जनावय ।

ठुड़गा  होवत  पेड़,  नवा पाना तब आवय।।

ऋतु  बसंत  के  संग,  नेवता  झारा- झारा ।

रुख  राई  ले  देख,  झरत हे पाना  डारा ।।


मुकेश उइके "मयारू"

ग्राम- चेपा, पाली, जिला- कोरबा(छ.ग.)

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गीत-पतझड़(सार छंद)


पतझड़ आरो ए बहार के, संसो फिकर तियागौ।

नैन मूंद के सुतव रात पा, देख सुरुज झट जागौ।


गरमी के जब आहट आथे, होय लगे कम पानी।

पात पेड़ झर्रा के जीथे, संत सरिक जिनगानी।।

हाँकै नियति सबे के रथ ला, खड़े रहौ झन भागौ।

पतझड़ आरो ए बहार के, संसो फिकर तियागौ।।


नवा पात हा दुःख झेलथे, घाम झांझ के बेरा।

धीर धरे लत लोभ तियागौ, तभे रही शुभ डेरा।

समय बिगाड़ै नइ सपना ला, लगन आस नित पागौ।

पतझड़ आरो ए बहार के, संसो फिकर तियागौ।।


देख खोंधरा के खग पतझड़, नव छत छानी खोजे।

मरे चढ़े परजीवी बेला, पियय रकत जे रोजे।।

जड़ चेतन सबके भल होही, पाँव नियति के लागौ।

पतझड़ आरो ए बहार के, संसो फिकर तियागौ।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

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