मैं वीर जंगल के -
झरथे झरना झरझर झरझर,पुरवाही मा नाचे पात।
ऊँच ऊँच बड़ पेड़ खड़े हे,कटथे जिँहा मोर दिन रात।
पाना डारा काँदा कूसा, हरे मोर मेवा मिष्ठान।
जंगल झाड़ी ठियाँ ठिकाना,लगथे मोला सरग समान।
कोसा लासा मधुरस चाही,नइ चाही मोला धन सोन।
तेंदू पाना चार चिरौंजी,संगी मोर साल सइगोन।
घर के बाहिर हाथी घूमे,बघवा भलवा बड़ गुर्राय।
आँखी फाड़े चील देखथे,लगे काखरो मोला हाय।
छोट मोट दुख मा घबराके,जिवरा नइ जावै गा काँप।
रोज भेंट होथे बघवा ले, कभू संग सुत जाथे साँप।
लड़े काल ले करिया काया,सूरुज मारे कइसे बान।
झुँझकुर झाड़ी अड़बड़ भारी,लगे रात दिन एक समान।
घपटे हे अँधियारी घर मा,सूरुज नइ आवै गा तीर।
बघवा भलवा हाथी सँग मा,रहिथौं मैं बनके गा बीर।
रेंग सके नइ कोनो मनखे,उँहा घलो मैं देथौं भाग।
आलस जर जर भूँजा जाथे,हरे खुदे तन मोरे आग।
गरब गठैला तन के करथौं,चढ़ जाथौं मैं झट ले झाड़।
सोना उपजाथौं महिनत कर,पथरा के छाती ला फाँड़।
उतरौं चढ़ौ डोंगरी घाटी ,तउरौं मैं नँदिया के धार।
कतको पीढ़ी इँहिचे खपगे,मानन नहीं कभू जी हार।
डर नइ लागे बघवा भलवा,डर नइ लागे बिखहर साँप।
मोर जीव हा तभे कापथे,जब होथे जंगल के नाँप।
पथरा कस छाती ठाहिल हे,पुरवा पानी कस हे चाल।
मोर उजाड़ौ झन घर बन ला,झन फेकव जंगल मा जाल।
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को(कोरबा)
झरथे झरना झरझर झरझर,पुरवाही मा नाचे पात।
ऊँच ऊँच बड़ पेड़ खड़े हे,कटथे जिँहा मोर दिन रात।
पाना डारा काँदा कूसा, हरे मोर मेवा मिष्ठान।
जंगल झाड़ी ठियाँ ठिकाना,लगथे मोला सरग समान।
कोसा लासा मधुरस चाही,नइ चाही मोला धन सोन।
तेंदू पाना चार चिरौंजी,संगी मोर साल सइगोन।
घर के बाहिर हाथी घूमे,बघवा भलवा बड़ गुर्राय।
आँखी फाड़े चील देखथे,लगे काखरो मोला हाय।
छोट मोट दुख मा घबराके,जिवरा नइ जावै गा काँप।
रोज भेंट होथे बघवा ले, कभू संग सुत जाथे साँप।
लड़े काल ले करिया काया,सूरुज मारे कइसे बान।
झुँझकुर झाड़ी अड़बड़ भारी,लगे रात दिन एक समान।
घपटे हे अँधियारी घर मा,सूरुज नइ आवै गा तीर।
बघवा भलवा हाथी सँग मा,रहिथौं मैं बनके गा बीर।
रेंग सके नइ कोनो मनखे,उँहा घलो मैं देथौं भाग।
आलस जर जर भूँजा जाथे,हरे खुदे तन मोरे आग।
गरब गठैला तन के करथौं,चढ़ जाथौं मैं झट ले झाड़।
सोना उपजाथौं महिनत कर,पथरा के छाती ला फाँड़।
उतरौं चढ़ौ डोंगरी घाटी ,तउरौं मैं नँदिया के धार।
कतको पीढ़ी इँहिचे खपगे,मानन नहीं कभू जी हार।
डर नइ लागे बघवा भलवा,डर नइ लागे बिखहर साँप।
मोर जीव हा तभे कापथे,जब होथे जंगल के नाँप।
पथरा कस छाती ठाहिल हे,पुरवा पानी कस हे चाल।
मोर उजाड़ौ झन घर बन ला,झन फेकव जंगल मा जाल।
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को(कोरबा)
परम पूज्य गुरुदेव को सादर पायलागी
ReplyDeleteपरम पूज्य गुरुदेव को सादर पायलागी
ReplyDeleteवाह्ह्ह्ह्ह् भइया सुग्घर आल्हा छन्द
ReplyDeleteवाहःहः भाई जितेंन्द्र
ReplyDeleteजीत डरे सबके मन ला
बधाई हो
वाह्ह्ह्ह सर लाजवाब आल्हा छंद के सृजन।
ReplyDeleteअतिसुन्दर अभिव्यक्ति हावै सर जी
ReplyDeleteबढ़िया सुग्हर आल्हा हावय, पढव सबो झन लव आनंद।
ReplyDeleteवाह-वाह।आदरणीय जितेन्द्र भैया,शानदार आल्हा छंद ।बधाई अउ शुभकामना।
ReplyDeleteवाह्ह्ह् वाह्ह्ह् शानदार सृजन।बधाई जितेंद्र जी।
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना वर्मा भैया
ReplyDeleteबहुत सुघ्घर जितेन्द्र भाई आल्हा छंद लिखे हव बधाई
ReplyDeleteवाह्ह्ह् वाह्ह्ह् सुग्घर आल्हा छंद सर।सादर बधाई
ReplyDeleteमस्त आल्हा छंद वर्मा जी
ReplyDeleteसुग्घर आल्हा छंद।।बधाई
ReplyDeleteबहुँत बढ़िया बधाई हो भईया जी
ReplyDeleteबहुँत बढ़िया बधाई हो भईया जी
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