1
बनारस के सब पान कहे,जिन खावत हे मुँह लाल करावय।
लगे चुनिया जब पान सखा,तब स्वाद तको अबड़े मन भावय।
बने जब ख़ैर ल डारत हे,ललियावत हे मुँह देखत हावय।
मिठावत हे मन भावत हे,सब लोगन पान बने तब खावय।1।
2
कटाकट चाबत मच्छर हा,जब मारत हौं झट ले उड़ियावय।
बड़ा बनथे उन सायर जी,नज़दीक म आवत गीत सुनावय।
रहे दिन रात सतावत हे,इखरो रहना हमला नइ भावय।
दया भगवान करौ अइसे,सब मच्छर हा पट ले मर जावय।2।
3
रहे सब के घर मच्छर हा,त गरीब अमीर तको नइ जानय।
मिले जस खून ल पीयत हे,उन जात बिजात कहाँ पहिचानय।
कहाँ उन देखत हे कुछ जी,गरवा तक ला अपने सब मानय।
इहाँ मनखे गदहा बन के,बस छूत अछूत रटे मुँह तानय।3।
4
अरे मनखे अब तो समझौ,मनखे बनके अपने पहिचानव।
जनावर जानत हे तब जी,मनखे अब तो मनखे सब मानव।
कहाँ तुम जात बिजात लड़े,मनखे सब एक हरे सब जानव।
करे जिन लोगन के करनी,उन लोगन के मुँड़ ला अब खानव।4।
5
लड़ावत हे हमला उन जी,अपने सब स्वारथ साधत हावय।
रहे हम हा जिन हालत मा,अउ हालत बत्तर गा कर जावय।
बटावत हे पइसा कवड़ी,हम हारत है उन राज ल पावय।
कहे अब मानव बात अरे,कतको करलौ उन हा नइ भावय।5।
6
दिवार बनावत हे मनखे,मनखे मनखे ल लड़ावत हावय।
बने सिधवा सब देखत हे,मरथे तब देख बड़ा सुख पावय।
लगे जब आग त डारत घीव नचावत लोग बड़ा हरसावय।
बतावत जात बिजात सबो,मनखे लड़ आपस मा मर जावय।6।
रचनाकार--दिलीप कुमार वर्मा
बलौदा बाज़ार, छत्तीसगढ़
बनारस के सब पान कहे,जिन खावत हे मुँह लाल करावय।
लगे चुनिया जब पान सखा,तब स्वाद तको अबड़े मन भावय।
बने जब ख़ैर ल डारत हे,ललियावत हे मुँह देखत हावय।
मिठावत हे मन भावत हे,सब लोगन पान बने तब खावय।1।
2
कटाकट चाबत मच्छर हा,जब मारत हौं झट ले उड़ियावय।
बड़ा बनथे उन सायर जी,नज़दीक म आवत गीत सुनावय।
रहे दिन रात सतावत हे,इखरो रहना हमला नइ भावय।
दया भगवान करौ अइसे,सब मच्छर हा पट ले मर जावय।2।
3
रहे सब के घर मच्छर हा,त गरीब अमीर तको नइ जानय।
मिले जस खून ल पीयत हे,उन जात बिजात कहाँ पहिचानय।
कहाँ उन देखत हे कुछ जी,गरवा तक ला अपने सब मानय।
इहाँ मनखे गदहा बन के,बस छूत अछूत रटे मुँह तानय।3।
4
अरे मनखे अब तो समझौ,मनखे बनके अपने पहिचानव।
जनावर जानत हे तब जी,मनखे अब तो मनखे सब मानव।
कहाँ तुम जात बिजात लड़े,मनखे सब एक हरे सब जानव।
करे जिन लोगन के करनी,उन लोगन के मुँड़ ला अब खानव।4।
5
लड़ावत हे हमला उन जी,अपने सब स्वारथ साधत हावय।
रहे हम हा जिन हालत मा,अउ हालत बत्तर गा कर जावय।
बटावत हे पइसा कवड़ी,हम हारत है उन राज ल पावय।
कहे अब मानव बात अरे,कतको करलौ उन हा नइ भावय।5।
6
दिवार बनावत हे मनखे,मनखे मनखे ल लड़ावत हावय।
बने सिधवा सब देखत हे,मरथे तब देख बड़ा सुख पावय।
लगे जब आग त डारत घीव नचावत लोग बड़ा हरसावय।
बतावत जात बिजात सबो,मनखे लड़ आपस मा मर जावय।6।
रचनाकार--दिलीप कुमार वर्मा
बलौदा बाज़ार, छत्तीसगढ़
उत्कृष्ठ लवंगलता सवैया सरजी।सादर बधाई
ReplyDeleteधन्यवाद ज्ञानु जी।
Deleteबहुत सुग्घर गुरूजी
ReplyDeleteहार्दिक बधाई
आभार।
Deleteबहुतेच सुग्हर सवैया लिखे हस दिलीप, बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteप्रणाम दीदी।
Deleteआप के कलम के का वरणन करव दिलीप भैया। बहुत सुंदर रचना हे। मच्छर पान ला विसय बना के कतेक सुघर संदेश तक पहुंचे हव। गजब। आपके कलम अउ गुरुदेव ला नमन्।
ReplyDeleteबहुँत बहुँत धन्यवाद बलराम भइया।
Deleteवाह वर्मा जी बहुत सुन्दर लवंगलता सवैया
ReplyDeleteआभार साहूजी।
Deleteदिलीप भाई जी के सृजन मा विषय विविधता के भरमार रहिथे।
ReplyDeleteबहुते सुघ्घर सवैया हे भाई जी
बहुत बहुत बधाई
आभार दीदी।
Deleteबनारस के पान, मच्छर के कटाई।
ReplyDeleteमनखे मनखे के भेद , अउ लड़ाई।।
गजब के वर्णन वर्मा जी,
धन्यवाद साहू जी।
Deleteबहुत सुघ्घर बधाई हो भईया जी
ReplyDeleteधन्यवाद भाई।
Deleteरंग रंग के विषय म जोरदार मनभावन सवैया
ReplyDeleteएक से बढ़के एक सवैया हे दिलीप जी।हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteवाह वाह बेहतरीन लवंगलता सवैया मा रचना। आदरणीय वर्मा जी। सादर बधाई।
ReplyDeleteशानदार लाजवाब उत्कृष्ट सवैया सृजन भैयाश्री।
ReplyDeleteएक शंका समन करव ....यति कोनो जघा नव, कोनो जघा दस ता कोनो जघा गियारा वर्ण मा आप लगाय हव। एखर कोई निश्चित ठौर नइ रहय का भैयाजी???
शानदार लाजवाब उत्कृष्ट सवैया सृजन भयाश्री।
ReplyDeleteएक शंका समन करव .... यति कोनो जघा नव, कोनो जघा दस ता कोनो जघा गियारा वर्ण मा तुम लगाय हव। एखर कोई निश्चित ठौर नइ रहय का भैयाजी ???