(1)
जरे अब देश न बाँचय जी,उमड़े सब लोगन हा बड़ भारी।
धरे बरछा अगनी तक ला,नइ मांढ़त हे कखरो सँग तारी।
लगा अगनी कब कोन कहे,नइ जानत हे पर जंग ह जारी।
करे नुकसान सबो झन के,अपनों तक हा झुलसे सँगवारी।।
(2)
विरोध करौ जब जायज हे,पर आग कभू झन खेलव भाई।
सबो बर माँगत हौ कुछ ता,फिर काबर होवत हे ग लड़ाई।
समान जरे जतका मन के,उन लोगन के रहिथे करलाई।
मरे कतको जब मार परे,बड़ रोवत हे उँखरो अब दाई।2।
(3) झगरा
करे झगरा बिन फोकट के,मुड़ गोड़ तको हर टूट जथे जी।
धरे लकड़ी बड़ मारत हे,तब जीव तको हर छूट जथे जी।
कहाँ बरजे अब मानत हे,कहिबे तब ता उन रूठ जथे जी।
रहे बदमास करे झगरा,रहिथे सिधवा उन लूट जथे जी।3।
(4) जल
भरे नदिया अब सूख गये,तरिया तक सूख गये अब भाई।
सबो तरसे जल बूँद बिना,जल खातिर होवत आज लड़ाई।
धरे गगरी जल लानत हे,अब रेंगत होवत हे करलाई।
करे बरबाद रहे जल ता,अब का मिलहै जल गै गहराई।4।
(5) ज्ञान
रहे जब ज्ञान तभे मनखे,जनमानस मा हुसियार कहावै।
विचारत हे जब काम करै,तब ही मनखे अबड़े सुख पावै।
कभू गलती नइ होवत हे ,हर लोगन हा उन ला बड़ भावै।
रखौ सब ज्ञान बटोर सखा,जब आय समे तब काम ग आवै।5।
(6) पेड़
लगावय पेंड़ बँचाय धरा,तब ही मनखे हुसियार कहाही।
रहे जल हा धरती म बने,तब ही मनखे हर गा सुख पाही।
कटे जब पेंड़ सुखाय धरा,सब जीव तको तड़फे मर जाही।
मिले जल ना धरती जब जी,तब अंत समे मनखे पछताही।6।
(7) गरमी
गये अब जाड़ न आवय जी,अब तो गरमी हर आग लगाही।
जरे पँउरी ललियाय जही,त हवा तक हा अब रार मचाही।
लगे झन लू बँचके रइहौ,अब सूरज हा अगनी बरसाही।
रखौ गमछा मुँड़ बाँध सबो,जिन बाँधत हे उन हा सुख पाही।7।
(8) पियास
पियास मरे मनखे तब जी,तरिया नदिया झिरिया खनवाथे।
लड़े अबड़े मनखे मन ले,जल खातिर गा कतको मर जाथे।
बहे जब बारिस मा नदिया,बरबाद करे अबड़े अटियाथे।
परे परिया धरती हर जी,अब देखत गा मनखे पछताथे।8।
(9) समे
समे जब हे तब काम करौ,तरिया झिरिया बढ़िया खनवावौ।
बनावव बाँध थमे नदिया,बरबाद बहे नल बंद करावौ।
भरे तरिया नदिया तब जी,सब साफ़ रखौ जल ना मइलावौ।
रहे जल हा तब जीवन हे,नइ जानय ओ मन ला समझावौ।9।
रचनाकार - श्री दिलीप कुमार वर्मा
बलौदा बाज़ार, छत्तीसगढ़
जरे अब देश न बाँचय जी,उमड़े सब लोगन हा बड़ भारी।
धरे बरछा अगनी तक ला,नइ मांढ़त हे कखरो सँग तारी।
लगा अगनी कब कोन कहे,नइ जानत हे पर जंग ह जारी।
करे नुकसान सबो झन के,अपनों तक हा झुलसे सँगवारी।।
(2)
विरोध करौ जब जायज हे,पर आग कभू झन खेलव भाई।
सबो बर माँगत हौ कुछ ता,फिर काबर होवत हे ग लड़ाई।
समान जरे जतका मन के,उन लोगन के रहिथे करलाई।
मरे कतको जब मार परे,बड़ रोवत हे उँखरो अब दाई।2।
(3) झगरा
करे झगरा बिन फोकट के,मुड़ गोड़ तको हर टूट जथे जी।
धरे लकड़ी बड़ मारत हे,तब जीव तको हर छूट जथे जी।
कहाँ बरजे अब मानत हे,कहिबे तब ता उन रूठ जथे जी।
रहे बदमास करे झगरा,रहिथे सिधवा उन लूट जथे जी।3।
(4) जल
भरे नदिया अब सूख गये,तरिया तक सूख गये अब भाई।
सबो तरसे जल बूँद बिना,जल खातिर होवत आज लड़ाई।
धरे गगरी जल लानत हे,अब रेंगत होवत हे करलाई।
करे बरबाद रहे जल ता,अब का मिलहै जल गै गहराई।4।
(5) ज्ञान
रहे जब ज्ञान तभे मनखे,जनमानस मा हुसियार कहावै।
विचारत हे जब काम करै,तब ही मनखे अबड़े सुख पावै।
कभू गलती नइ होवत हे ,हर लोगन हा उन ला बड़ भावै।
रखौ सब ज्ञान बटोर सखा,जब आय समे तब काम ग आवै।5।
(6) पेड़
लगावय पेंड़ बँचाय धरा,तब ही मनखे हुसियार कहाही।
रहे जल हा धरती म बने,तब ही मनखे हर गा सुख पाही।
कटे जब पेंड़ सुखाय धरा,सब जीव तको तड़फे मर जाही।
मिले जल ना धरती जब जी,तब अंत समे मनखे पछताही।6।
(7) गरमी
गये अब जाड़ न आवय जी,अब तो गरमी हर आग लगाही।
जरे पँउरी ललियाय जही,त हवा तक हा अब रार मचाही।
लगे झन लू बँचके रइहौ,अब सूरज हा अगनी बरसाही।
रखौ गमछा मुँड़ बाँध सबो,जिन बाँधत हे उन हा सुख पाही।7।
(8) पियास
पियास मरे मनखे तब जी,तरिया नदिया झिरिया खनवाथे।
लड़े अबड़े मनखे मन ले,जल खातिर गा कतको मर जाथे।
बहे जब बारिस मा नदिया,बरबाद करे अबड़े अटियाथे।
परे परिया धरती हर जी,अब देखत गा मनखे पछताथे।8।
(9) समे
समे जब हे तब काम करौ,तरिया झिरिया बढ़िया खनवावौ।
बनावव बाँध थमे नदिया,बरबाद बहे नल बंद करावौ।
भरे तरिया नदिया तब जी,सब साफ़ रखौ जल ना मइलावौ।
रहे जल हा तब जीवन हे,नइ जानय ओ मन ला समझावौ।9।
रचनाकार - श्री दिलीप कुमार वर्मा
बलौदा बाज़ार, छत्तीसगढ़
अभार गुरुदेव। प्रणाम।
ReplyDeleteवाह!घातेच सुग्घर वाम सवैया वर्मा जी
ReplyDeleteधन्यवाद सरजी।
Deleteसवैया बहुत सुग्हर लागथे, दिलीप ! तोला बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteदिलीप भाई जी के वाम सवैया के कोई सानी नइहे
ReplyDeleteआदरणीय दिलीप भईया बहुत बढ़िया बधाई हो
ReplyDeleteवाह वाह बेहतरीन वाम सवैया के सृजन करे हव गुरुदेव वर्मा जी। सादर बधाई।
ReplyDeleteसुघ्घर सवैया के बरसात,नमन सर जी
ReplyDeleteबहुत बढ़िया रचना भैया जी बहुत बहुत बधाई
ReplyDeleteवाह्ह वाह्ह् आदरणीय वर्मा सर बेहतरीन सृजन।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर वाम सवैया के संकलन गुरुदेव जी सादर नमन
ReplyDeleteश्री दिलीप वर्मा जी के (3) रा वाम सवैया मा (मुड़ गोड़) लिखाय हे। फेर हमन तो मूड़ सीखे हन।
ReplyDeleteकोन सहीं हे (मुड़) या (मूड़) गुरुदेव जी।