शंकर छंद- उमाकान्त टैगोर
जब मुड़घमम्मा परही तोला, याद आही गाँव।
सुरता करके रोबे भारी, लीम चौरा छाँव।।
छोड़ छाड़ के घर अँगना ला, रेंग झन परदेस।
ये भुइँया के कारज माढ़े, तेन ला झन लेस।।
जब ले तँय बाढ़े पोढ़े हस, होय हस हुसियार।
आने कोनो हितवा बनगे, बाप बनगे भार।।
तोला पोसे पाले बर गा, करय अब्बड़ काम।
तर तर तर तर चुहय पसीना,रहय बिक्कट घाम।।
बिन रुखराई के दुनिया मा, कोन पाही छाँव।
कलकुत हो जाही गा भाई, कहाँ मिलही ठाँव।।
गरमी भारी बाढ़त जाही, निकल जाही प्रान।
राखे ला परही जी संगी, चिटिक हमला ध्यान।।
जागव रे जागव रे संगी, भूमि के रखवार।
ये माटी के रक्षा खातिर, बनँव जी हुसियार।।
चिमनी के कुहरा मा देखव, तन झँंवागे मोर।
धरती दाई हा रो रो के, कहत हे कर जोर ।।
मूड़ी धर के रोवत हावँय, देख इहाँ किसान।
नदिया नरवा सुक्खा परगे, होय कइसे धान।।
काला खाहीं काला बोहीं, परे हवय दुकाल।
एक एक दाना बर तरसँय, तोर धरती लाल।।
पाँव पसारे तँय हर बुद्धू, सुते रह झन आज।
झर झर झर झर गिर गे पानी, देख नांगर साज।।
विनती हमरो सुन के दाता, करे हे उपकार।
अब हरियाही देखत रहिबे, मोर खेती खार।।
मन मारे झन बइठे राहव, करव जी भर काम।
भले पसीना कतको टपकय, करय कतको घाम।।
दुख के सब बिरथा टर जाही, रही सुख घर बार।
मिहनत ले हे माटी भुइँया, हवे ये संसार।।
दान धरम ले बढ़ के नइ हे, कहय संत फकीर।
दुखिया के रक्षा जे करथे, उही सच्चा वीर।।
जात पात ले ऊपर उठ के, रहव सब झन एक।
मानवता ले बढ़ के कोनो, काम नइ हे नेक।।
भूत प्रेत कछु नइ होवय, भरम मन के आय।
अंधभक्ति मा ये जग हे, कोन जी समझाय।।
जादू टोना नइ हे जग मा, लेव थोरिक जान।
ये धरती मा जतका हावय, सबो आय विज्ञान।।
छंदकार- उमाकान्त टैगोर कन्हाईबंद, जांजगीर छत्तीसगढ़
जब मुड़घमम्मा परही तोला, याद आही गाँव।
सुरता करके रोबे भारी, लीम चौरा छाँव।।
छोड़ छाड़ के घर अँगना ला, रेंग झन परदेस।
ये भुइँया के कारज माढ़े, तेन ला झन लेस।।
जब ले तँय बाढ़े पोढ़े हस, होय हस हुसियार।
आने कोनो हितवा बनगे, बाप बनगे भार।।
तोला पोसे पाले बर गा, करय अब्बड़ काम।
तर तर तर तर चुहय पसीना,रहय बिक्कट घाम।।
बिन रुखराई के दुनिया मा, कोन पाही छाँव।
कलकुत हो जाही गा भाई, कहाँ मिलही ठाँव।।
गरमी भारी बाढ़त जाही, निकल जाही प्रान।
राखे ला परही जी संगी, चिटिक हमला ध्यान।।
जागव रे जागव रे संगी, भूमि के रखवार।
ये माटी के रक्षा खातिर, बनँव जी हुसियार।।
चिमनी के कुहरा मा देखव, तन झँंवागे मोर।
धरती दाई हा रो रो के, कहत हे कर जोर ।।
मूड़ी धर के रोवत हावँय, देख इहाँ किसान।
नदिया नरवा सुक्खा परगे, होय कइसे धान।।
काला खाहीं काला बोहीं, परे हवय दुकाल।
एक एक दाना बर तरसँय, तोर धरती लाल।।
पाँव पसारे तँय हर बुद्धू, सुते रह झन आज।
झर झर झर झर गिर गे पानी, देख नांगर साज।।
विनती हमरो सुन के दाता, करे हे उपकार।
अब हरियाही देखत रहिबे, मोर खेती खार।।
मन मारे झन बइठे राहव, करव जी भर काम।
भले पसीना कतको टपकय, करय कतको घाम।।
दुख के सब बिरथा टर जाही, रही सुख घर बार।
मिहनत ले हे माटी भुइँया, हवे ये संसार।।
दान धरम ले बढ़ के नइ हे, कहय संत फकीर।
दुखिया के रक्षा जे करथे, उही सच्चा वीर।।
जात पात ले ऊपर उठ के, रहव सब झन एक।
मानवता ले बढ़ के कोनो, काम नइ हे नेक।।
भूत प्रेत कछु नइ होवय, भरम मन के आय।
अंधभक्ति मा ये जग हे, कोन जी समझाय।।
जादू टोना नइ हे जग मा, लेव थोरिक जान।
ये धरती मा जतका हावय, सबो आय विज्ञान।।
छंदकार- उमाकान्त टैगोर कन्हाईबंद, जांजगीर छत्तीसगढ़
वाह बहुत सुंदर छंद, बहुत बधाई
ReplyDeleteधन्यवाद श्लेष भैया जी🙏🏻🙏🏻🙏🏻
Deleteबहुत सुग्घर टैगोर जी बधाई हो
ReplyDeleteधन्यवाद गुरुजी
Deleteशानदार रचना भाई
ReplyDeleteधन्यवाद गुरुजी
Deleteभावपूर्ण शंकर छंद के सिरजन करे हव भाई उमाकांत जी।बधाई
ReplyDeleteबहुतेच धन्यवाद आदरणीय🙏🏻🙏🏻
ReplyDeleteअती सून्दर दुःख सुख से भरे सागर रूपी कविता
ReplyDeleteसागर रूपी बधाई हो भाई जी
Bahut badhiya bhaiya
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