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Thursday, November 26, 2020

छत्तीसगढ़ी राजभाषा दिवस पर-दलित जी की कविता


 छत्ततीसगढ़ी राजभाषा पर

गरीब गोहार/ कोदूराम दलित


परमेश्वर कइसन दिन आइस, का कलजुग सिरतोन खराइस,

पापिन–चण्डालिन महँगाई, हम गरीब–गुरबा ला खाइस ।


कइसे करके पाली–पोसी डउकी–लइका, कुटुम–कबीला,

कब तक हम बड़हर मन के, देखत रहीं चरित्तर–लीला ।


अड़बड़ मुसकिल होगे हमला, पाए खातिर रोजी-रोटी,

निठुर मनन के करना परथै, गजब किलौली, पाँव–पलौटी


बड़े बिहिनिया ले संझा तक, माई–पीला जाँगर पेरीं,

पापी पेट भरे खातिर हम, गारी खाथीं घेरी-बेरी ।


पसिया-पेज, कभू तिउँरा के, ठोम्हा भर घुघरी हम खाईं,

होगे हमर पुनस्तर ढीला, काकर मेर जाके गोहराईं ।


लइका मन हमार लुलवाथें, पाए बर कोंढ़ा के रोटी,

खेत-खार में जाके खाथैं, उरिद-मुंगेसा अऊ चिरपोटी ।


लाँघन-भूखन मरथीं हम्मन, ओमन माल-मलीदा खाथैं,

मरकी अउर कुढ़ेरा साहीं, उनकर पेट बड़े हो जाथैं ।


हमर सिरागे रुँजी-पूँजी, ऊँकर मन के भरगै थैला,

हम्मन अनपढ़, लेड़गा-कोंदा, बने हवन घानी कस बैला ।


कब सुराज के सुख ला पाबो, कब मिलिही भुइयाँ घर कुरिया,

कब हमार मन के दिन फिरही, कब तक रहिबो दुरिहा-दुरिहा ।


निच्चट कुकुर-बिलाई साहीं, कब तक ले ठुकरायें जाबो,

ठगरा मन सब ठगतेच जाथैं, कब तक इनला बड़े बनाबो ।


जर जावै अइसन जिनगानी, जम्मो झिन ला जउन अखरगे,

का ? हमार बर देउँता-धामी, घलो रूठिन कि पट ले मरगें ।


कब तक हम भरमाए जाबो, कब तक कहिबो ‘किस्मत खोटी’,

बीता भर चिरहा-फरिहा के, कब तक रही हमार लिंगोटी ।


रचनाकार-कोदूराम 'दलित'

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