पितर- कुकुभ छंद
पुरखा मन के सुरता कर गुण, गावँव बारम्बार।
ये धरती मा जनम लेय के, करिन हमर बढ़वार।
खेत खार बन बाट बनाइन, बसा मया के गाँव।
जतिन करिन पानी पुरवा के, सुन चिरई के चाँव।
जीव जानवर पेड़ पात सँग, रखिन जोड़ के तार।।
पुरखा मन के सुरता कर गुण, गावँव बारम्बार।
रीत नीत अउ धरम करम के, सदा पढ़ाइन पाठ।
अपन भरे बर कोठी काठा, बनिन कभू नइ काठ।
जियत मरत नइ छोड़िन हें सत,नेत नियम संस्कार।
पुरखा मन के सुरता कर गुण, गावँव बारम्बार।।
डिही डोंगरी मंदिर मंतर, सब उँकरे ए दान।
गाँव गुड़ी के मान बढ़ाइन, अपन सबे ला मान।
एक अकेल्ला रिहिन कभू नइ,दिखिन सबे दिन चार।
पुरखा मन के सुरता कर गुण, गावँव बारम्बार।
उँखरे कोड़े तरिया बवली, जुड़ बर पीपर छाँव।
जब तक ये धरती हा रइही, चलही उंखर नाँव।
गुण गियान के गुँड़ड़ी गढ़के, चलिन बोह सब भार।
पुरखा मन के सुरता कर गुण, गावँव बारम्बार।।
पाप पुण्य पद प्रीत रीत के, करिन पितर निर्माण।
स्वारथ खातिर आज हमन हन, धरे तीर अउ बाण।
देख आज के गत बुढ़वा बर, बइठे हे थक हार।
पुरखा मन के सुरता कर गुण, गावँव बारम्बार।।
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को,कोरबा(छग)
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