सार छंद-आशा देशमुख
दारू भठ्ठी गाँव गाँव मा, बिगड़त हे सब लइका।
बेंचत हे सब खेत खार ला, नइ बाँचत हे फइका।1।
रोज रोज अपराध बढ़त हे,नइहे काम ठिकाना।
बेंच डरे हे सबो जिनिस ला, नइहे एको दाना।
ये दारू के सेती घर घर,माते हावय झगरा।
कतको सच्चा होय तभो ले,बन जाथे वो लबरा।
नान नान लइका मन तक हा, दारू भठ्ठी जाथें।
खई खजाना लेबो कहिके ,घर ले बॉटल लाथें।
सबो जगह अब दारू चलथे, चाहे होवय छठ्ठी।
बर बिहाव अउ मँगनी झरनी,सब मा जावँय भठ्ठी।
कतको दुर्घटना के कारण ,बनगे हावय दारू।
काल नेवता पावत रहिथे,चेतय नहीँ समारू।
नवा जमाना कहिके लोगन,करँय नशा के सेवन।
सुघ्घर तन मन धन ला राखव, सादा राखव जेंवन।
नशा नाश के कारण बनगे,घर परिवार लुटागे।
दाना दाना बर तरसत हें, सुख अउ मान भगागे।
जे घर मुखिया दारू बेचय, वो घर कोन बचाये।
पैरावट मा आगी धरके,बीड़ी ला सुलगाये।
अपने रद्दा अपन गढ़व गा, कोन इहाँ समझाही।
अपन बुद्धि से काम करव सब,इही काम बस आही।
छंदकार --आशा देशमुख
सादर बधाई
ReplyDeleteबहुत सुग्घर रचना बधाई
ReplyDeleteबढ़िया रचना दीदी संदेश देवत, बधाई हो आपला
ReplyDeleteवाह दीदी जी अतिसुंदर रचना के सृजन,बधाई हो💐💐💐👌👏
ReplyDeleteसच कहेव दीदी शराबखोरी रूपी दानव मनखे के भविष्य ल लिलत जात हे।एखर ले बाँचना बहुत जरूरी हे।सुग्घर छंद सृजन
ReplyDeleteसादर आभार गुरुदेव
ReplyDeleteबहुत सुघ्घर रचना बहिनी
ReplyDeleteदारू के दुख दारुन बहिनी, सबो जानथें एला।
ReplyDeleteमस्ती मा बूड़े हें जम्मो, रहय न रुपिया धेला।।
मुखिया बर तो भरे खजाना के साधन ए जानौ।
एके थैली के आवँय इन, चट्टा बट्टा मानौ।।
कतका सुग्घर छंद खजाना,बहिनी हमर सजाइन।
दारू के दुरगुन मानुख ला,बने असन समझाइन।।
छंद साधिका साहित बर तो सदा समर्पित बहना।
नइये इंकर कउनो सानी, रचना के का कहना।।
बहुत बहुत बधाई बहिनी...👏👏👏👍👍👌👌🌹🙏
सुग्घर सार छंद दीदी
ReplyDeleteबहुत सुन्दर दीदी,,,बहुत-बहुत बधाई
ReplyDeleteबहुत सुग्घर दीदी जी । हार्दिक बधाई ।
ReplyDeleteसमाज ला सुघराई बर जोजियावत रचना।बहुत बढ़िया
ReplyDeleteअद्भुत बड़ा नीक लिखे हव दीदी जी, बहुतेच सुग्घर
ReplyDeleteसादर प्रणाम🙏🏻🙏🏻🙏🏻
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ReplyDeleteसबो भाई बहिनी मन ला बहुत बहुत धन्यवाद
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