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Sunday, June 5, 2022

5 जून 2022,विश्व पर्यावरण दिवस विशेष छंदबद्ध कविता-


 

5जून2022,विश्व पर्यावरण दिवस विशेष छंदबद्ध कविता-



दोहा सप्तम


पर्यावरण  विनाश  बर, आज  जतावत  रोष।

लिखके अपन विचार जी, करथन मन संतोष।।१।।

कटत हवय जंगल इहॉं, नित विकास के आड़।

सोझियात  हन  का कभू,  खावत रोज लताड़।।२।।

मुरझाए   हें   पेड़   मन,   देव   भूमि    के   जान।

सड़क  बनाए  बर  कटत, हवय  पहाड़  मितान।।३।।

अइसन  मा  कइसे  भला,  होही  जग कल्यान।

प्रकृति ताण्डव तो शुरू,   करही   फेर   सुजान।।४।।

महतारी   भुॅंइया   हमर,  हो    गे   हे  हलकान।

हो    गे    हावन   निर्दयी,   हम  ओकर  संतान।।५।। 

आजे के दिन तो कसम, खाथन हम हर साल।

भुला जथन राखन नहीं, एकर  कभू  खियाल।।६।।

भले   लगाए  नइ  सकन,  कॅंहुचो   एको   पेड़।

कटवइया  काटत  दिखय,  देवन  तुरत  खदेड़।।७।।


सूर्यकान्त गुप्ता

सिंधिया नगर दुर्ग (छत्तीसगढ़)

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पाना-पाना स्वाँस चलाये। 

अंग-अंग जिनगानी। 

परमारथ बर सबो लुटाये, 

अजबे तोर कहानी। 


कतको काटत रहिथें तोला, 

बुरा कभू नइ माने। 

अउ उत्साहित होके अँग भर, 

डारा खाँदा ताने।  

जस-जस काटयँ तस-तस तोरो, 

निखरत हवय जवानी। 

परमारथ बर सबो लुटाये,

अजबे तोर कहानी। 


अपन फूल के गंध बहाये, 

अउ फर तक नइ खाये। 

छइहाँ देके बैरी तक ला, 

अपने पास बुलाये। 

त्याग करत जिनगी बीतत हे, 

हावस बड़ बलिदानी। 

परमारथ बर सबो लुटाये, 

अजबे तोर कहानी। 


मूरख मनखे हर नइ समझय,  

तोर बिना का होही। 

लालच के जब भूत उतरी, 

तहाँ मुड़ी धर रोही। 

किसिम-किसिम के धर बीमारी,

मरही सबो परानी। 

परमारथ बर जान गँवाये, 

अजबे तोर कहानी।


दिलीप कुमार वर्मा 

बलौदाबाजार

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विश्व पर्यावरण दिवस के उपलक्ष्य मा चौपाई छंद आधारित.. 


गीत 


पर्यावरण बनय सुखदाई।

चलव छेड़बो नवा लड़ाई।। 


स्वारथ के हम भाव मिटाबो।

काली बर हम नीर बचाबो।।

करन बात नइ हवा-हवाई।

चलव छेड़बो नवा लड़ाई।। 


आही कइसे संकट भारी।

नियम बनाबो जब हितकारी।।

अपना के हम साफ-सफाई।

चलव छेड़बो नवा लड़ाई।। 


जीव-जंतु के हितवा बन के।

रक्षा करबो वन-उपवन के।।

बादर तब लेही अँगड़ाई।

चलव छेड़बो नवा लड़ाई।। 


आशा के सुतरी नइ टोरन।

बिख हावा मा अउ नइ घोरन।।

फेर लहुट आही पुरवाई।

चलव छेड़बो नवा लड़ाई।। 


धुर्रा धुँगिया नइ बगरावन।

गाँव-शहर ला रखबो पावन।।

भुइयाँ सुग्घर देय दिखाई।

चलव छेड़बो नवा लड़ाई।। 


गीतकार - श्लेष चन्द्राकर,

महासमुंद (छत्तीसगढ़)

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विश्व पर्यावरण दिवस के उपलक्ष्य मा छत्तीसगढ़ी रचना 


अशोक धीवर "जलक्षत्री"

कज्जल छंद- पर्यावरण बचावव


बर पीपर के पेड़ लाव।

घेरा कर बढ़िया लगाव।।

पर्यावरण सबो बचाव।

ऑक्सीजन भरपूर पाव।।1।।


ठण्डा करथे गरम ताव।

पुष्टइ येकर फर ल खाव।।

लीम मिटाथे गहीर घाव।

सबझन येकर लाभ पाव।।2।।


अँवरा जिनगी ला बढ़ाय।

दाँत दरद बँभरी मिटाय।।

रकत बढे़ मुनगा ल खाय।

पेड़ लगइया पुण्य पाय।।3।।


अशोक धीवर "जलक्षत्री"

ग्राम- तुलसी (तिल्दा-नेवरा)

 जिला-रायपुर (छत्तीसगढ़)

 मो.नं.- 9300716740

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पर्यावरण


एक पेड़ लाखों के प्राण। 

कहिथें गा सब वैद्य सुजान।

देवव थोकिन सब झन ध्यान। 

शुद्ध हवा हे सुख के खान। 


रुखवा भुइयाँ के सिंगार। 

जीव जनावर के आधार। 

जंगल के झन करव उजार। 

सुख से रहय प्रकृति परिवर।। 


रुखवा मन देवय फल फूल। 

बने दवा बूटी जड़ मूल। 

 करत हवंय मनखे मन भूल। 

बगरावव झन काँटा शूल।।


आशा देशमुख

एनटीपीसी जमनीपाली कोरबा

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कुण्डलिया छंद- *रोवत हे हसदेव हा*


आवव संगी मिल सबो, जंगल पेड़ बचाव।

पाँच जून पर्यावरण, उत्सव फेर मनाव।।

उत्सव फेर मनाव, छोड़ के सबो दिखावा।

जीवन के आधार, पेड़ हे बात बतावा।।

गजानंद सुख सांस, फूल फल औषध पावव।

करिन जतन मिल आज, पेड़ जंगल के आवव।।1


होथे बड़ तकलीफ जी, कटथे जब-जब पेड़।

निज स्वारथ मा पड़ मनुज, आज उजाड़त मेड़।।

आज उजाड़त मेड़, कहाँ अब पेड़ लगाथें।

पाये जग मा नाम, गजब फोटू खिंचवाथें।।

करके पेड़ विनाश, खुदे बर काँटा बोथे।

गजानंद बिन पेड़, कहाँ सुख जीवन होथे।।2


हरियाली हे पेड़ से, पेड़ करे बरसात।

फेर कोंन समझत इहाँ, गजानंद के बात।।

गजानंद के बात, पेड़ हे पुत्र समाना।

आथे बहुते काम, फूल फल जड़ अउ पाना।।

करिन सुरक्षा आज, तभे सुख मिलही काली।

अरजी हे कर जोर, बचा लिंन हम हरियाली।।3


रोवत हे हसदेव हा, आँख भरे दुख नीर।

छत्तीसगढ़ के गोद मा, कोंन भरत हे पीर।।

कोंन भरत हे पीर, आज समझे ला परही।

कतका दिन ला फेर, हमर सुख अँगरा जरही।।

गजानंद धर ध्यान, पड़े रह झन तँय सोवत।

देख आज हसदेव, पुकारत हे जी रोवत।।4


छंदकार- इंजी. गजानंद पात्रे 'सत्यबोध'

बिलासपुर (छत्तीसगढ़)

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 *जागव रे (सरसी छंद)*


जागव रे जवान जागव रे, संगी मोर सियान।

धरती गोहार लगावत हे, देवव अबतो ध्यान।।


झन काँटव जंगल झाड़ी ला, धरती के श्रृंगार।

सबो जीव के हवय बसेरा, जिनगी के आधार।।


जैसे काँटत जाबे जंगल, कतको बनही घाँव।

बंजर हो जाही भुइँया हर, उजड़त जाही गाँव।।


सूखा जाही पानी सब्बो, मर जाबे तँय प्यास।

बिना हवा पानी जिनगी के, तोर छूट जहि साँस।।


तीप जही भुइँया लकलक ले, चट-चट जरही पाँव।

लेसा जाही तन तोर घाम मा, मिले नहीं जुड़ छाँव।।


रुख राई ले पवन बहे गा, जिनगी के बन प्रान।

पैसा खातिर झन बेचव गा, भविष्य अउ ईमान।।


जंगल हसदेव ला बचाके, करलव गरब गुमान।

हमर आदिवासी संस्कृति के, जेन हवय पहचान।।


समे रहत ले चेत लगाके, जंगल अपन बचाव।

सुखी रही जिनगानी सबके, सुघ्घर पेड़ लगाव।।


- हेमलाल साहू

छन्द साधक, सत्र-1

ग्राम- गिधवा, जिला बेमेतरा

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*काबर हसदेव उजारे?*

(कुकुभ छंद)


छत्तीसगढ़ के सिधवा बेटा,

                काय करम तैं कर डारे।

काबर हसदेव उजारे तैं,

                 काबर हसदेव उजारे।।



जंगल झाड़ी जीव जन्तु बर,

                     हावय बने बसेरा ये।

इही हमर जिनगी के रक्षक,

                    कन्द मूल के डेरा ये।।

कहाँ जाय अब वन के वासी,

                  बिन लउठी के तैं मारे।

काबर हसदेव उजारे........



लूट डरिन परदेशी मन हा,

                   महतारी ये भुइयाँ ला।

धन दौलत के लालच पाके,

                 बेंचे धरती मइया ला।।

हाहाकार करत हे मनखे,

                दुख ला तैं इँखर बिसारे।

काबर हसदेव उजारे .........



का होही नदिया तरिया के,

                 कइसे बाँधा बिन पानी।

लाखों पेड़ कटा जाही तब,

              कइसे बँचही जिनगानी।।

पर्यावरण सुरक्षा कइसे,

                 जुआ सहीं तैं सब हारे।

काबर हसदेव उजारे ........


छंदकार:-

बोधन राम निषादराज"विनायक"

सहसपुर लोहारा,जिला-कबीरधाम(छ.ग.)

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*लावणी छंंद*


रुख-राई हा आज उजरगे, जंगल बनगे हे परिया।

भू-जल स्तर गिरगे हावय अब, सुक्खा परगे हे तरिया।। 


जीव-जंतु मन तरसत हें सब, छाँव कहाँ एमन पावय।

अब हावय भरमार स्वार्थ के, रुख-राई कोन लगावय।। 


आज प्रदूषण बढ़गे हावय, अब्बड़ घाम जनावत हे।

बेरा आगी उगलत हावय, सब झन ला तड़पावत हे।। 


रुख-राई ला आज लगाके, धरती ला सबो बचावव।

धरती के दोहन कम करके, भुइयाँ ला सरग बनावव।।


*अनुज छत्तीसगढ़िया*

 *पाली जिला कोरबा*

        *सत्र 14*

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विजेन्द्र वर्मा: घनाक्षरी

पेड़ हवा माटी पानी,येकर ले जिनगानी,

प्रकृति बचाय बर,बनौ रखवार जी।

प्रकृति जब बचाहू,सुख मा दिन पहाहू,

अवैइया पीढ़ी मन,करही सत्कार जी।।

जंगल झाड़ी कटाही,प्रकृति फेर रिसाही,

भागत फिरहू जानें,पारत गोहार जी।

करौ झन मनमानी,बद लव जी मितानी,

उजारव झन इहाँ,प्रकृति सिंगार जी।।


विजेंद्र वर्मा

नगरगाँव (धरसीवाँ) 

जिला- रायपुर

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चौपाई छंद


जतन करव सब अब तो भाई,धरती अउ ठाड़े रुख राई। 

करव नहीं अब तो मनमानी, मिलही कइसे दाना पानी।। 


शुद्ध हवा अउ पानी देथे,सोचव बदला मा का लेथे। 

जीव जगत बर चारा दाना, जुड़ पुरवाही देथे खाना।। 


हरियर हरियर रइही जंगल, जिनगी मा आही तब मंगल। 

इही सबो के सुख के दाता, जीव जगत बर बने विधाता।। 


पेड़ लगा के भाग जगा ले, इही जगत मा पुण्य कमा ले। 

जिनगी चंदन कस ममहाही, तन मन सुग्घर तब फरियाही।।


संगीता वर्मा

भिलाई

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जंगल बचाओ-सरसी छन्द


पेड़ लगावव पेड़ लगावव, रटत रथव दिन रात।

जंगल के जंगल उजड़त हे, काय कहँव अब बात।


हवा दवा फर फूल सिराही, मरही शेर सियार।

हाथी भलवा चिरई चिरगुन, सबके होही हार।

खुद के खाय कसम ला काबर, भुला जथव लघिनात।

जंगल के जंगल उजड़त हे, काय कहँव अब बात।


जंगल हे तब जुड़े हवय ये, धरती अउ आगास।

जल जंगल हे तब तक हावै,ये जिनगी के आस।

आवय नइ का लाज थोरको, पर्यावरण मतात।

जंगल के जंगल उजड़त हे, काय कहँव अब बात।


सड़क खदान शहर के खातिर, बन होगे नीलाम।

उद्योगी बैपारी फुदकय, तड़पय मनखे आम।

लानत हे लानत हव घर मा, आफत ला परघात।

जंगल के जंगल उजड़त हे, काय कहँव अब बात।


जीतेंन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

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लावणी छंद-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"


धरती दाई


जतन बिना धरती दाई के, सिसक सिसक पड़ही रोना।

पेड़ पात बिन दिखे बोंदवा, धरती के ओना कोना।।


टावर छत मीनार हरे का, धरती के गहना गुठिया।

मुँह मोड़त हें कलम धरइया, कोन धरे नाँगर मुठिया।

बाँट डरे हें इंच इंच ला, तोर मोर कहिके सबझन।

नभ लाँघे बर पाँख उगा हें, धरती मा रहिके सबझन।

माटी ले दुरिहाना काबर, आखिर हे माटी होना।

जतन बिना धरती दाई के, सिसक सिसक पड़ही रोना।।


दाना पानी सबला देथे, सबके भार उठाय हवै।

धरती दाई के कोरा मा, सरि संसार समाय हवै।

मनखे सँग मा जीव जानवर, सब झन ला पोंसे पाले।

तेखर उप्पर आफत आहे, कोन भला ओला टाले।

धानी रइही धरती दाई, तभे उपजही धन सोना।

जतन बिना धरती दाई के, सिसक सिसक पड़ही रोना।


होगे हे विकास के सेती, धरती के चउदा बाँटा।

छागे छत सीमेंट सबे कर, बिछगे हे दुख के काँटा।

कभू बाढ़ मा बूड़त दिखथे, कभू घाम मा उसनावै।

कभू काँपथे थरथर थरथर, कभू दरक छाती जावै।

देखावा धर मनुष करत हे, स्वारथ बर जादू टोना।

जतन बिना धरती दाई के, सिसक सिसक पड़ही रोना।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को, कोरबा(छग)

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कुंडलियाँ छ्न्द


जामे नान्हे पेड़ हे,एती वोती देख।

समय हवै बरसात के,बढ़िया जघा सरेख।

बढ़िया जघा सरेख,बगीचा बाग बनाले।

अमली आमा जाम,लगाके मनभर खाले।

हवा दवा फर देय,पेंड जिनगी ला थामे।

खातू पानी छींच,मरे झन पौधा जामे।।


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को(कोरबा)

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1 comment:

  1. पर्यावरण बचाय बर, प्रकटिन अपन विचार।
    सुन के करतिन उन उदिम, देश राज रखवार।।
    सुंदर संकलन भाई खैरझिटिया के तीनों रचना बड़ सुंदर 👏👏👍👍👌👌🌹🌹🙏🙏

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