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Sunday, June 5, 2022

गढ़बो नवा कहानी*

 *गढ़बो नवा कहानी*


चइत जेठ बैसाख मास मा, तरिया नहर अटागे सब।

जिहाॅं रहे गरमी भर पानी, गिन-गिन कुआँ पटागे सब।।


रोज धड़ाधड़ बोर खोदके, चूस डरिन धरती के पानी।

बूँद-बूँद बर नोहर भइगे, करत हवय बड़ मनमानी।।


आ रो के पानी पियईया,राग शुद्धि के गावत हें।

अशुध हवय कहिके बाकी ला, नाली मा बोहावत हें।।


जे गरमी मा पानी उलचत,जग मा काँटा बोंवत हें।

पानी के का मोल जानही,रोज कार जे धोवत हें।।


सरर-सरर दिन भर एसी ला, जे निस दिन अबड़ चलाथें।

वो बलदा मा धीरे-धीरे, धरती के ताव बढ़ाथें।।


अगल बगल सब पेड़ काट के, पक्का सड़क बनावत हें।

सब कोंदा कस देखत भइया,मुड़ी अपन डोलावत हें।।


फेंकत डारत ले बउरत हें,कप पलेट पाउच पतरी।

कोन सकेले डिस्पोजल ला, पटे परे तरिया डबरी ।।


अनर बनर चारो कोती सब, परे हवय बड़ झिल्ली हा।

खुद के सोच नेक नइहे ता,का करही जी दिल्ली हा।।


अपने सुर मा सबे चलत हे, कहाँ हवय चोला धरमी।

अपन करम के दोस देख ले,धरती मा बाढ़त गरमी।।


समय रहत ले जागव संगी, बनव तुमन मत गेदा जी।

दूर गगन ओजोन परत मा, कभू परय झन छेदा जी।।


जगा जगा मा पेड़ लगा के, करबो सब रखवारी ला।

पाल पोस तैयार करे बर, समझन जुम्मेदारी ला।।


धरती मा जब पेड़ रही ता, पाबो शीतल छँइया ला।

चलो बचालव जंगल झाड़ी , बर पीपर अमरइया ला।।


हरियर शीतल छाँव पेड़ के, बादर ला सदा बलाही।

हवा धरा ला नरम राख के,पानी के सोत बढ़ाही।।


एक कटे ता दस लगाय बर, अब सबझन पीयव मानी।

पेड़ उगा के आरो लेवत, चल गढ़बो नवा कहानी।।


महेंद्र बघेल

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