कुंडलियाँ छंद-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बरसात मा लइका
लइका मन हा नाँचथे, होथे जब बौछार।
माटी मा जाथे सना, रोक रोक जल धार।।
रोक रोक जल धार, खेलथे चिखला पानी।
कखरो सुनयँ न बात, बरजथे दादी नानी।
जायँ कलेचुप खोर, हेर के राचर फइका।
पावयँ जब बरसात, मगन सब नाँचयँ लइका।
पावै जब बरसात ला, लाँघै घर अउ द्वार।
माटे के रँग मा रचे, रोकै जल के धार।
रोकै जल के धार, गली मा भागै पल्ला।
संगी सब सकलायँ, मचावै नंगत हल्ला।
खेलै हँस हँस खेल, पात कागज बोहावै।
नाचै गावै खूब, मजा बरसा के पावै।।
अबके लइकन मन कहाँ, बारिस मा इतराय।
जुड़ जर के डर हे कही, घर भीतर मिटकाय।
घर भीतर मिटकाय, भिंगै का कुरथा चुन्दी।
का कागज के नाव, खेल का घानी मुन्दी।
हवै मुबाइल हाथ, सहारा टीवी सबके।
होगे हे सुखियार, देख लइकन मन अबके।
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को,कोरबा(छग)
No comments:
Post a Comment