//अमृतध्वनि छंद संग्रह//
(छत्तीसगढ़ी मा)
छंदकार:-बोधन राम निषादराज"विनायक"
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छत्तीसगढ़ राज भाषा आयोग रायपुर ले प्रकाशित
अमृतध्वनि छंद संग्रह
(छत्तीसगढ़ी मा)
छंदकार
बोधन राम निषादराज"विनायक"
परम पूज्य माता स्व. बुधियारिन बाई निषाद
(यहाँ फोटो)
दाई महिमा तोर ओ,कतका करौं बखान।
तोरे ले जिनगी हवै, अउ तोरे ले मान।।
अउ तोरे ले, मान मोर हे, हे महतारी।
तोर चरन मा,करौं समर्पण,जिनगी सारी।।
तहीं शारदा, ज्ञान बँटइया, मोर सहाई।
फूल चढ़ावँव, पइँया लागौं, मोरे दाई।।
-समर्पण-
परम पूण्य गुरुदेव श्री अरुण कुमार निगम जी ला सादर समर्पित-
(यहाँ फोटो)
गुरुजी अर्पण मँय करौं,जम्मों पुण्य प्रताप।
मोर सदा लेखन चलै,दव अशीष ला आप।।
दव अशीष ला,आप दया के,मागँव भिक्षा।
तुँहर चरन मा,रहिके मँय तो,पावँव शिक्षा।।
रोज बिहनिया,लेखन ला मँय,करथौं शुरु जी।
पइँया लागौं,माथ नवावौं,निशदिन गुरुजी।।
भूमिका - 1
"विलक्षण कवि के विलक्षण छन्द संग्रह"
अमृतध्वनि छन्द ला कुण्डलिया छन्द के एक भेद माने जाथे। कुण्डलिया छन्द असन यहू छन्द मा दोहा के दू पद के बाद एक रोला छन्द होथे। दोहा के चौथा चरण, रोला के पहिली चरण बनथे फेर रोला के हर चरण 8-8 मात्रा के तीन हिस्सा मा बँटे रहिथे। दोहा के पहिली शब्द या शब्द-समूह, रोला के अंत मा आथे।
ओज बढ़ाए बर ट वर्ग अउ संयुक्ताक्षर के ज्यादा प्रयोग के संग अनेक वर्ण ला द्वित्व दे जाथे। वीर रस के सुप्रसिद्ध कवि भूषण ये छन्द की सुग्घर प्रयोग करिन हें। रोला मा 11, 12, 14, 16 मा यति हो सकथे।
कढ़ि कढ़ि अति श्रोनित उमगि, गढ़ि गढ़ि अरिन उदण्ड।
चढ़ि धाइय बदनेस सुत, खग्गग्गहि रनमण्ड।।
खग्गग्गहि रनमण्ड, समर उद्दण्डद्दलनी।
खण्डक्करि नित खंडित, खलनि विमुण्डद्धरनी।।
झुण्डक्कटि संमुंदफ्फटिय चमुण्डज्जयरढ़ि।
तण्डव करत उमण्डतिधरनि वितुण्ड क्कढ़िकढ़ि।।
आचार्य जगन्नाथ प्रसाद "भानु" के "छन्द-प्रभाकर" मा ए छन्द के नाम "अमृतधुनि" बताए गेहे। अमृतधुनि छन्द मा लिखे उँकर विधान देखव -
अमृतधुनि दोहा प्रथम, चौबिस कल सानंद।
आदि अन्त पर एक धरि, स्वच्छच्चित रच छन्द।।
स्वच्छच्चित रच छन्दद्ध्वनि लखि पद्दद्दलि धरि।
साजज्जमक तिवाजज्झमक सुजामम्मद्धरि।।
पद्दद्दरि सिर विद्वज्जन कर युद्धद्ध्वनि गुनि।
चित्तत्थिर करि सुद्धिद्धिरि कह यो अम्मृतधुनि।।
ये परिभाषा मा दोहा के बाद के चार पद ला रोला नाम नइ दे के अलिपद भँवरा के 6 पद (गोड़) सहीं षट्पद कहे गेहे अउ 6 पद रख के 8-8 मात्रा मा यति सहित यमक ला 3 पइत झमकाव के संग सजाए बर बताए गेहे।
आधुनिक काल के कुछ विद्वान कवि मन अमृतध्वनि ला सरल रूप दे के पुनर्जीवित करे हवँय। ये सरल रूप मा दोहा के बाद के चार पद ला 8-8 मात्रा मा यति दे के लिखे गेहे। छत्तीसगढ़ी भाषा मा अमृतध्वनि छन्द के पहिली रचना मोर "छन्द के छ" किताब मा प्रकाशित होइस हे।
जाबे जब तँय जगत ले, का ले जाबे साथ।
संगी अइसन करम कर, जस होवै सर-माथ।।
जस होवै सर, माथ नवाबे, नाम कमाबे।
जेती जाबे, रस बरसाबे, फूल उगाबे।।
झन सुस्ताबे, अलख जगाबे, मया लुटाबे।
रंग जमाबे , सरग ल पाबे, जब तयँ जाबे।।
एखर बाद "छन्द के छ" ऑनलाइन गुरुकुल के अनेक साधक मन ये छन्द के रचना कर डारिन हें। बोधन राम निषादराज घलो "छन्द के छ" परिवार के सदस्य आँय। "छन्द के छ" परिवार बर ये बहुत खुशी अउ गर्व के बात आय कि छत्तीसगढ़ी भाषा मा "अमृतध्वनि छन्द" के पहिली संग्रह सुकवि बोधन राम निषादराज जी के प्रकाशित होइस हे। मोर जानकारी मा अभी तक देश के कोनो भाषा मा "अमृतध्वनि छन्द" के निमगा संग्रह प्रकाशित नइ होइस हे। हम बोधन राम निषादराज जी के ये किताब ला देश के पहिली "अमृतध्वनि छन्द संकलन" के किताब घलो बोल सकथन।
समय अउ काल के हिसाब ले कविता के विषय वस्तु बदलत रहिथे। तइहा के जमाना मा युद्ध होवत रहिस तब "आल्हा छन्द" अउ "अमृतध्वनि छन्द" मा युद्ध के वर्णन होवत रहिस। तब ये छन्द मन मा वीर रस अउ ओज के प्रयोग प्रासंगिक रहिस। आज के जमाना मा काव्य के विषय वस्तु सामाजिक समरसता, विज्ञान, विसंगति, विकृति, पर्यावरण संतुलन, नैतिक शिक्षा, नशा उन्मूलन, नँदावत संस्कृति-परम्परा आदि हो गेहे। विषय वस्तु के चयन कवि के जागरूकता के साक्षात प्रमाण होथे। एक जागरूक नागरिक अउ शिक्षक होए के नाता मा बोधन राम निषादराज जी सबो क्षेत्र के विषय वस्तु ला 174 अमृतध्वनि छन्द मा समेट के विलक्षण काम करे हें। ये किताब पाठक ला संतुष्टि प्रदान करे के संगेसंग अनेक किसम के जानकारी ला बढ़ाही अउ एक सुग्घर समाज के निर्माण करे बर सहायक सिद्ध होही। सुकवि बोधन राम निषादराज जी ला मोर शुभकामना अउ आशीष।
अरुण कुमार निगम
संस्थापक : "छन्द के छ", छत्तीसगढ़
अध्यक्ष : दुर्ग जिला हिन्दी साहित्य समिति, दुर्ग, जिला दुर्ग, छत्तीसगढ़
संपर्क : 9907174334
मेल arun.nigam56@gmail.com
पता - आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)
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भूमिका - 2
*सिद्धहस्त छंदकार के अनुपम कृति--अमृतध्वनि छंद संग्रह*
वरिष्ठ साहित्यकार छंदविद परम श्रद्धेय गुरुदेव श्री अरुण कुमार निगम जी(सेवा निवृत बैंक अधिकारी) द्वारा छंद सृजन के साधना करे बर स्थापित 'छंद के छ' आनलाइन गुरुकुल कोनो परिचय के मोहताज नइये। आज येकर ले जुड़के छत्तीसगढ़ के कोना-कोना के सैकड़ो कवि,साहित्यकार मन छंद सीखत अउ सिखावत हें। वर्तमान मा चौदह 'छंद के छ' आनलाइन कक्षा चलत हें।
ये गुरुकुल के कई झन साधक मन के जेमा ख्यातिलब्ध साहित्यकार श्रीमती शकुंतला शर्मा , सर्व श्री रमेश कुमार चौहान , चोवा राम 'बादल', मनीराम साहू , जगदीश साहू'हीरा' अउ रामकुमार चंद्रवंशी मन के छंद संग्रह प्रकाशित हो चुके हे, कुछ मन के प्रकाशित होवइया हे।इही कड़ी मा बहुतेच प्रतिभावान अउ अनुशासित साधक बोधन राम निषादराज जी 'विनायक' के कालजयी कृति "अमृत ध्वनि छंद संग्रह' प्रकाशित होवत हे।
कोनो भी साधना होवय वोमा अनुशासन अउ समर्पण के बिना सफलता नइ मिलय। अइसे भी छंद लिखना काव्यानुशासन के बिना संभव नइ हो सकय। बोधन राम निषादराज जी के ये काव्य संग्रह के अक्षर-अक्षर,पंक्ति-पंक्ति मा अमृतध्वनि छंद के विधान अनुसार मात्रा, गति, यति, तुक के शुद्ध निर्वाह के संगे संग भाव मा अनुशासन झलकथे जेन वोकर कठोर साधना के फल आय।
कोनो कालोनी मा बने बहुत कस भवन मन बाहिर ले एके आकार अउ रूप-रंग के हो सकथें फेर भीतर ले सजावज मा सबो के एके जइसे होना जरूरी नइये।ओइसने ये संग्रह के जम्मो 174 ठन अमृतध्वनि छंद मन एके नियम मा बँधे हें फेर सब के भावभूमि अलग-अलग हे।
बोधन राम निषादराज जी गीतकार, गजलकार अउ छंदकार के ज्ञान-गरिमा ले सम्पन्न एक शिक्षक तको आयँ। एक भावुक अध्यापक कवि मा अपन मातृभूमि, समाज,संसार अउ प्रकृति बर जेन सोच होना चाही वो जम्मो बात ये संग्रह मा समाये हे।
जननी अउ जन्मभूमि सरग ले बड़का होथे।निषादराज जी ये संग्रह के श्रीगणेश अपन महतारी के वंदना करत लिखथे--
*दाई महिमा तोर ओ, कतका करवँ बखान।*
*तोरे ले जिनगी हवै, अउ तोरे ले मान।*
हमर सनातन संस्कृति मा गुरु ला पारब्रह्म परमेश्वर माने गे हे। गुरु के बिना ज्ञान नइ मिल सकय। ये कृति के वंदना क्रम मा सब ले जादा पाँच अमृतध्वनि छंद गुरु ला समर्पित हे। गुरु महिमा के बखान करत उन लिखथें--
*गुरु के बानी सार हे,गुरु के ज्ञान अपार।*
*जे मनखे ला गुरु मिलय,होवय बेड़ा पार।*
*होवय बेड़ा,पार सबो चल,माथ नवावौ।*
*महिमा जप लौ, माथा टेकव,गुन ला गावौ।*
*मन ला सौंपव,गुरु भगती मा,मूरख प्रानी।*
*आवव सुन लौ, ध्यान लगावौ,गुरु के बानी।*
कृतिकार व्यापक दृष्टि सम्पन्न सुकवि हें।समाज मा व्याप्त विसंगति जइसे--भ्रष्टाचार(39,40) ,पद-पइसा के अहंकार(58,59), विदेशी चाल चलन(34 वेलेंटाइन डे ),आपस मा बैर(24 बइरी),राजनीतिक छल(22 राजनीति) बर करारा व्यंग्य कसे हें।
हम सब ला अपन महतारी भाखा छत्तीसगढ़ी ऊपर गरब होना चाही।ये बात के सुग्घर संदेश अमृतध्वनि --31 गुरुतुर बोली अउ 44 मीठा भाखा मा दे हावयँ ओइसने हमर लोक नृत्य-गीत ,मेला-मड़ई सँग तीज-तिहार --देवारी, गौरा- गौरी,सकरायेत, छेरछेरा, भोजली परब, राखी तिहार, कमरछठ, आठे कन्हैया(जन्माष्टमी),पोरा ,मातर, जेठौनी, माघी पुन्नी, बसंत पंचमी,होली, नवरात्रि, रामनवमी अउ अक्ती के बड़ मनभावन वर्णन करे हावयँ।
किसान पुत्र कवि ला अपन गाँव-गँवई,बखरी-बारी, खेत-खार, किसानी के औजार, छत्तीसगढ़ी रोटी-पीठा अउ घर-गृहस्थी मा जेन जिनिस मन ला बउरे जाथे, जेमा के बहुत कस नँदावत तको हें ,तिंकर बर घातेच मया हे।ये संग्रह मा--गोरसी,ढेरा,ढेंकी,कोठी,खटिया, सूपा, खरहेरा, बटलोही, जाँता,फुँकनी, हँसिया,बिजना, मचोली, कुँदरा,मूसर-बाहना,चिमनी,गुपती,भँदई-अखतरिया,घानी,टेंड़ा के संगे संग छत्तीसगढ़िया लइका मन के परम्परागत खेलकूद --चुकिया,गोंटा,गड़गड़ी,तुक्का मार, सरफल्ली, गिल्ली-डंडा,रेस-टीप,अटकन-बटकन,सगरी-भतली,फुगड़ी,खो-खो,नदी-पहाड़,बिल्लस मन के मनभावन वर्णन हे।
साहित्य के उद्देश्य मनखे ला जागरूक करना घलो होथे।नारी बर सम्मान के भाव जगावत बोधन राम निषादराज जी लिखथें--
*करव सुरक्षा ,रोकव सब मिल, अत्याचारी।*
*भुइयाँ के सब,भार हरइया,होथे नारी।*
गरीबी ले लड़े बर दू जब्बर हथियार माने जाथे-मेहनत अउ शिक्षा ला। बिन मेहनत के भला सुख कहाँ ले मिलही? उन कहिथें--
*सुख मिलही दुख भागही,झन खोजव आराम।*
*महिनत जाँगर टोर के,करलव सुग्घर काम।*
बोधन राम निषादराज जी के ये काव्य संग्रह हा छत्तीसगढ़ी साहित्य-खजाना के अनमोल चमकत हीरा के समान हे।येला पढ़-गुन के हिरदे मा आनंद रूपी अमृत के वर्षा हो जथे, सुन के कान मा अमृतध्वनि गूँजे ल धर लेथे जेन रचनाकार के लेखन के सफलता आय। अइसन कालजयी कृति अउ सिद्धहस्त रचनाकार के अंतस ले सम्मान करत मोर बहुतेच शुभकामना हे।
चोवा राम 'बादल'
( साहित्यकार)
हथबंद
जिला--बलौदाबाजार-भाटापारा, छत्तीसगढ़,493113
सम्पर्क--9926195747
मेल--chowaramverma2@gmail.com
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भूमिका - 3
'अमृत ध्वनि छंद संग्रह' किताब- कठिन साधना के फल
ये सच बात हे बिना साधना के सिध्दि नइ मिलय। बहुत पहिली के बात बतावत हँव मँय औ निषाद जी एक साहित्यिक वाट्सअप ग्रुप म जुड़े रेहेन, जिहाँ निषाद जी रोज अपन गीत- कविता भेजय। मोला पढ़के बहुत अच्छा लगय औ मनेमन विचार करँव कहूँ येला थोरकुन मार्गदर्शन मिल जतिस त जरूर छंद लिखे बर धर लिही। सोचके एक- दू बेर संपर्क घलो करेंव फेर निषाद जी सहमति प्रदान नइ करीन।
अइसे- तइसे एक बछर गुजरगे। जब छंद के छ के नवा सत्र शुरु होय के बेरा आइस त मँय परम आदरणीय गुरुदेव श्री अरुण कुमार निगम जी ले अनुमति लेके निषाद जी ले फेर संपर्क
करेंव। औ छंद के छ आनलाइन कक्षा के बारे म विस्तृत ढंग ले बतायेंव त बड़ खुश होवत अपन सहमति प्रदान करीन। आज ओखर कठिन साधना के परिणाम आप सबके आगू म हे।
एक बात निषाद जी के बारे म जरूर बताना चाहूँ। निषाद जी भले शारीरिक रूप ले कमजोर हे फेर मानसिक रूप ले पहाड़ असन मजबूत हे। अपन कक्षा म शिष्य के संगे-संग दूसर कक्षा म गुरु के भूमिका निभावत छंद के छ परंपरा ल आगू बढ़ाय म अपन योगदान प्रदान करत हे।
अब आखिरी म बस मोर इही शुभकामना हे साहित्य जगत म आप ध्रुव तारा कस चमकत रहव। अपन ये किताब 'अमृत ध्वनि छंद संग्रह' बर दू आखर लिखे के मौका देव येखर बर हिरदै आभार प्रकट करत हँव।
ज्ञानुदास मानिकपुरी
(छंदकार)
चंदेनी- कवर्धा,जिला- कबीरधाम (छत्तीसगढ़), 491995
संपर्क नंबर- 9993240143
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अपन गोठ -
मोर परम आदरणीय दाई - ददा जेखर कोरा मा मँय पले बढ़े हँव। जेखर आशीष जिनगी भर बर मोर बर छत्रछाया बने हवै। मँय इँखर ऋण ले कभू उऋण नइ हो सकँव।अइसन दाई - ददा ला शत् शत् नमन करत हँव।
परम आदरणीय गुरुदेव श्री अरुण कुमार निगम जी ला सादर चरन वंदन करत हँव। संगे सँग श्री ज्ञानु दास मानिकपुरी जी ला सादर चरन वंदन करत हँव। वेद शास्त्र मा कहे गे हे कि बिना गुरु के ज्ञान नइ मिलै। ज्ञान पाय बर गुरु के मार्गदर्शन के आवश्यकता परथे। गुरु के बताय रद्दा मा चल के मनखे ला ओखर अंतिम लक्ष्य के प्राप्ती हो जथे। एखर बर मन मा लगन अउ कठिन साधना के जरूरत परथे। बिना कठिन साधना के ज्ञान प्राप्ती नइ हो सकय।
इही बात ला ध्यान मा रखके गुरुदेव के निर्देशन मा अपन छत्तीसगढ़ के लोक संस्कृति,रीति रिवाज अउ परम्परा ला उजागर करत छत्तीसगढ़ी *अमृतध्वनि छंद संग्रह* के रचना करे के कोशिश करे हवँव। "छंद के छ" के खुला मंच ले जम्मों साधक दीदी भैया अउ गुरुदेव मन ले छत्तीसगढ़ी के जुन्ना शब्द मन ला सीखे अउ जाने के मौका मिलिस । इही जुन्ना शब्द मन ला मँय अपन *अमृतध्वनि छंद संग्रह* के विषय वस्तु बनाय बर उपयोग करे हवँव। एक-एक शब्द मोर बर हीरा-मोती के बरोबर लागिस । इही हीरा-मोती रूपी शब्द मन ला अपन विचार के डोरी मा गूँथ के *अमृतध्वनि छंद संग्रह* के माला के रूप मा ये किताब के सृजन करे हवँव।
*अमृतध्वनि छंद संग्रह* लिखे के प्रेरणा मोला आद.ज्ञानु दास मानिकपुरी जी से मिलिस। जेखर माध्यम ले मँय अपन छत्तीसगढ़ के जुन्ना जुन्ना जिनिस जउन नँदा वत हे उँखर बारे मा संग्रह लिखे के कोशिश करे हँव।
अप्रत्यक्ष रूप ले सहयोग देवइया मोर धरम पत्नी श्रीमती शांति देवी निषाद, पुत्री कु.लतारानी निषाद अउ पुत्र कुलेश्वर कुमार निषाद के योगदान बहुत मिलिस हे।
मँय परम आदरणीय गुरुदेव श्री अरुण कुमार निगम जी के सादर चरन वंदन करत हँव जउन हा अपन "छंद के छ" ऑनलाइन कक्षा 5 मा छंद सीखे के मौका दिस हे तब ले आज तक मँय छंद साधना ला एक पूजा समझ के करत हवँव अउ आगू जिनगी के रहत ले घलो इही उदीम करत रहूँ। एखर बर मँय गुरुदेव श्री निगम जी के सादर आभारी हँव।
मँय "भोरमदेव साहित्य सृजन मंच कबीरधाम" के जम्मों आदरणीय संगी मन के सदा आभारी रहूँ जिंखर मन ले मोला हमेशा प्रत्यक्ष अउ अप्रत्यक्ष रूप ले सहयोग मिलत रहिथे अउ मिलत रइही इही आशा करत हावँव।
मँय वरिष्ठ साहित्यकार डॉ.पीसीलाल यादव जी गंडई-राजनांदगाँव, वरिष्ठ साहित्यकार बड़े भइया श्री दुर्गा प्रसाद पारकर जी "केवट कुँदरा" भिलाई-दुर्ग अउ वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामेश्वर शर्मा जी रायपुर,इँखर मन के बहुत बहुत आभारी हँव। आप मन के माध्यम ले छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति अउ परम्परा ला जाने बर अउ सीखे बर मिलिस।
मोर छत्तीसगढ़ी किताब *अमृतध्वनि छंद संग्रह* हा छत्तीसगढ़ राज भाषा आयोग रायपुर के सहयोग ले प्रकाशित होय हावय। एखर बर आयोग के जम्मों सदस्य मन के ह्रदय ले आभारी हँव।
एखर पहिली मोर छत्तीसगढ़ी गीत संग्रह -"मोर छत्तीसगढ़ के माटी" अउ छत्तीसगढ़ी भजन संग्रह - "भक्ति के मारग" दुनों किताब घलो छत्तीसगढ़ राज भाषा आयोग रायपुर के सहयोग ले प्रकाशित होय हवै। अब ये तीसरा किताब छत्तीसगढ़ी *अमृतध्वनि छंद संग्रह* अब आपमन के हाथ मा हवै। मँय अपन जम्मों शुभचिंतक पाठक मन ले हाथ जोर के विनती करत हावँव कि मोर ऊपर अपन मया दुलार ला बरसावत रहिहौ।
छंदकार:-
बोधन राम निषादराज"विनायक"
व्याख्याता वाणिज्य विभाग
नगर पंचायत सहसपुर लोहारा
जिला - कबीरधाम(छ.ग.)
पिन कोड नं. - 491995
मो.नं. - 9893293764
ईमेल - bodhanramnishad@gmail.com
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जीवन परिचय-
छंदकार का नाम-- बोधन राम निषादराज
पत्नी का नाम--श्रीमती शांति देवी
पिता का नाम-- श्री अघनू राम निषाद
माता का नाम--स्व.बुधियारिन् बाई
जन्मतिथि-- 15/02/1973
जन्मस्थान-- थान खम्हरिया,बेमेतरा
शिक्षा-- M.Com.वाणिज्य
सम्प्रति/व्यवसाय-- व्याख्याता (वाणिज्य विभाग),शास.उच्च.मा.वि.सिंघनगढ़,सहसपुर लोहारा,कबीरधाम(छ.ग.)
सम्मान-- आंचलिक भाषा साहित्य संस्था (हरियाणा) द्वारा "स्व.फणीश्वर नाथ रेणू" सम्मान 2018.
"छंद के छ" स्थापना दिवस समारोह सिमगा द्वारा सम्मान 2018.
छत्तीसगढ़ कलमकार मंच द्वारा सम्मान 2018.
"उम्मीद की किरण - साहित्य मंच" गुजरात द्वारा "साहित्य तुलसी सम्मान" 2018 .
"कृति कला साहित्य सम्मान समारोह",सीपत,जिला-बिलासपुर द्वारा "कृति सारस्वत सम्मान" 2018.
प्रजातंत्र का स्तंभ समूह द्वारा प्रदत्त सम्मान "प्रजातन्त्र का स्तंभ गौरव" 2019.
"छन्द के छ" तीसरा स्थापना दिवस सम्मान जिला-कबीरधाम 2019
हिंदी भाषा डॉट कॉम,इंदौर म.प्र.द्वारा- "अभिनन्दन पत्र" -2019
राष्ट्रिय कवि चौपाल कोटा,राजस्थान द्वारा- "राष्ट्रभाषा गौरव" सम्मान - 2019
वक्ता मंच रायपुर द्वारा - कलमकार सम्मान 2020
प्रकाशित पुस्तकें -
(1)छत्तीसगढ़ी गीत संग्रह- "मोर छत्तीसगढ़ के माटी"।
(2)छत्तीसगढ़ी भजन संग्रह-"भक्ति के मारग",
(3)हिंदी गज़ल संग्रह- "यार तेरी कसम"।
वर्तमान पता-- बोधन राम निषादराज,वार्ड न.(1) जमातपारा ,नगर पंचायत+तहसील,स/लोहारा,कबीरधाम,छ.ग.पिन कोड न. 491995
मोबाईल न. 9893293764
ईमेल:
bodhanramnishad@gmail.com
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(1) माता सरस्वती वंदना
मन के अँधियारी मिटा,करके ज्ञान अँजोर।
जय हो माता सरस्वती,पइँया लागँव तोर।।
पइँया लागँव, तोर चरन के,मँय गुन गावँव।
दे अशीष ला,मइया जिनगी,सफल बनावँव।।
तोर आसरा,शब्द रचत हँव,साधक बन के।
इच्छा पूरन, करबे मइया, मोरो मन के।।
(2) श्री गणेश वंदना
वंदन गणपति राज जी,कृपा करौ हे नाथ।
देवव आज अशीष ला, जोडँव दुन्नों हाथ।।
जोडँव दुन्नों, हाथ पसारौं, हे गणदेवा।
ध्यान लगाके,निसदिन करथौं,तुँहरे सेवा।।
मोदक लाड़ू, भोग लगावँव, माथा चन्दन।
बुद्धि - ज्ञान ला, देवव देवा, हे जग वंदन।।
(3) श्री हनुमान वंदना
वंदन हे हनुमान जी,बड़ तँय बुद्धि निधान।
तोर शरन मा आय हँव, देवव मोला ज्ञान।।
देवव मोला, ज्ञान मारुती, अड़हा हावँव।
छंद लिखेबर,मँय तो थोकन,गुन ला पावँव।।
लाल पवनसुत, तँय बजरंगी, अँजनी नंदन।
ये लइका बर, बनौ सहाई, करथौं वंदन।।
(4) गुरु वंदना
चरनन माथा टेक के,गुरुवर करौं प्रणाम।
महिमा तोर अपार हे,पूजँव बिहना शाम।।
पूजँव बिहना,शाम आरती, गुन ला गावँव।
तोर चरन के, धुर्रा माटी, माथ लगावँव।।
मन मन्दिर मा, सदा बिराजौ,दे के दरशन।
गंगा जल कस,बरसत आँसू,धोवँव चरनन।।
(5) गुरु वंदना
दरशन के आशा लगे, गुरुवर पूरनकाम।
महिमा अमित अपार हे,जग मा तुँहरे नाम।।
जग मा तुँहरे, नाम अबड़ हे, बड़ गुनधारी।
सत् के डोंगा, पार लगैया, तारनहारी।।
सेवा मा हे,तुँहर सदा गुरु,तन-मन जीवन।
सुत उठ पावँव,निसदिन मँय तो,तुँहरे दरशन।।
(6) गुरु वंदना
माथ नवावँव गुरु चरन,बंदत औ करजोर।
नाम लेत भव पार ले,उतरौं मँय बिन डोर।।
उतरौं मँय बिन,डोर धरे जी,भव तर जावँव।
तुँहर दिखाये,रस्ता चल के,हरि पद पावँव।।
गुरु चरणन मा,जिनगी बीतय,महिमा गावँव।
सेवा भगती,भाव भजन कर,माथ नवावँव।।
(7) गुरु महिमा
गुरु के बानी सार हे, गुरु के ज्ञान अपार।
जे मनखे ला गुरु मिलै,होवय बेड़ा पार।।
होवय बेड़ा,पार सबो चल,माथ नवावौ।
महिमा जपलौ,माथा टेकव,गुन ला गावौ।।
मन ला सौंपव,गुरु भगती मा,मूरख प्रानी।
आवौ सुनलव,ध्यान लगावौ,गुरु के बानी।।
(8) मातृ बंदना:-
धरती मइया मोर ओ,जिनगी इहाँ बिताँव।
जिनगी कर उद्धार ओ,परत हवौं मँय पाँव।।
परत हवौं मँय,पाँव तोर ओ,गुन ला गावँव।
तोर चरन के,धुर्रा ला मँय, शीश चढ़ावँव।।
सोना उगलय,हीरा उगलय, सोन चिरइया।
सरग बरोबर,दिखत हवय जी,धरती मइया।।
(9) महतारी
महतारी सेवा करँव, धन्य होत हे भाग।
लक्ष्मी जइसे रूप अउ,बानी मँदरस राग।।
बानी मँदरस, राग बरोबर, लगथे भइया।
अँचरा सुख के,खान हवै ये,दुःख हरइया।।
निशदिन पूजौं,चरन पखारौं,मँय सँगवारी।
घर मन्दिर के, देवी हावय, ये महतारी।।
(10) श्री राम :-
भजलौ भइया राम ला,महिमा अपरम्पार।
दुखिया के दुख टारथे,राम नाम हे सार।।
राम नाम हे,सार उही हे ,पार करइया।
करथे सबला,पार इहाँ जी,जग चलवइया।।
करलौ बिनती,संझा बिहना,बंदव पइँया।
राम चरन मा,ध्यान धरौ जी,भजलौ भइया।।
(11) छंद कक्षा
लगथे कक्षा छंद के, गुरुवर देथे ज्ञान।
बहिनी भाई हा सबो, पाथें सुग्घर मान।।
पाथें सुग्घर, मान सबो ला, छंद सिखाथें।
कठिन साधना,करके जम्मों,गुन ला पाथें।।
गुरु किरपा ले,सबके मन मा,भाव ह जगथे।।
अरुण निगम के,गुरुकुल जइसे,कक्षा लगथे।।
(12) छंद कक्षा
कोनो डॉक्टर छंद मा,कोनो गाँव किसान।
इंजिनियर सिखथे घलो,मिलथे सब ला मान।।
मिलथे सब ला,मान वकालत,कोनो करथे।
लइका सँग मा,बुढ़वा मन हा,कापी धरथे।।
सरलग सीखत,रहिथे एमा,कतको मास्टर।
एक बराबर, कोनो हलधर, कोनो डॉक्टर।।
(13) छंदकार परिचय
बोधन राम निषाद जी, हावय मोरे नाँव।
राज हवै छत्तीसगढ़, लोहारा हे गाँव।।
लोहारा हे, गाँव सुघर जी, मंदिर पारा।
उत्तर मा हे,जिला-कवर्धा,जग ले न्यारा।।
शिक्षक आवँव,छंद लिखे बर,लगथे जी मन।
अरुण-ज्ञानु गुरु,छंद जगत के,चेला बोधन।।
(14) दाई ददा परिचय
दाई बुधियारिन हवै, देवी रूप समान।
ददा मोर अघनू हवै,करथौं ओखर मान।।
करथौं ओखर,मान गाँव हे,थान खम्हरिया।
पालिस पोसिस,पढ़ा लिखादिस,सबले बढ़िया।
मजदूरी मा, कमा-कमा के, घर सिरजाई।
ददा घलो जी,महिनत करथे,सँग मा दाई।।
(15)मोर परिवार
रहिथौं सुख मा मँय इहाँ,छुटकन हे परिवार।
पत्नी देवी शांति हे, सुग्घर हे घर द्वार।।
सुग्घर हे घर, द्वार दुनों खुश, बाबू - दाई।
बेटी - बेटा,लता - कुलेश्वर, बहिनी - भाई।।
इही मोर हे,धन अउ दौलत,सब ले कहिथौं।
गोड़ हाथ नइ,चलै तभो ले,सुख से रहिथौं।।
(16) मोर जिला
खजुराहो एला कथे, भोरमदेव ग नाम।
जिला-कवर्धा जानले,ये कबीर के धाम।।
ये कबीर के, धाम घूम लौ, पचराही ला।
लोहारा के, बड़े बावली, माई-पीला।।
रानी दहरा, सुग्घर झरना, आना चाहो।
पुरातत्व के, दर्शन होथे, ये खजुराहो।।
(17)ए तन माटी
ए तन माटी जानके,झन कर गरब गुमान।
इक दिन चोला छूँटही,राम राम कर गान।।
राम राम कर,गान सुनाले,जिया लगाले।
जिनगी गढ़ले,पुन्य कमाले,जोत जगाले।।
बने बने तँय,करम धरम कर,घर मोहाटी।
जीयत जग में,नाम कमाले,ए तन माटी।।
(18) छावय बसंत
माता शारद के परब, बगरे ज्ञान अँजोर।
होली के शुरुआत हे,रंग दिखय चहुँ ओर।।
रंग दिखय चहुँ-ओर छोर मा, हे फुलवारी।
सुघ्घर मौसम,मन ला भावै,खुशियाँ भारी।।
नदिया नरवा, निरमल पानी, गढ़े बिधाता।
सुर संगम ला, छोड़त हावै, शारद माता।।
(19) बेटी मोर
पढ़ बेटी तँय मोर ओ,अव्वल बाजी मार।
बेटा ले तँय कम नहीं,जिनगी अपन सुधार।
जिनगी अपन-सुधार बना ले, बनबे रानी।
दाम कमाबे, नाम कमाबे, आनी-बानी।।
दाई -बाबू, भाई- बहिनी, दुनिया ला गढ़।
नवा जमाना,आए हावय, बेटी तँय पढ़।।
(20) बादर
कइसन देखौ छाय हे,चारों मुड़ा घपाय।
मरना होगे रोग मा,बादर भड़ुवा आय।।
बादर भड़ुवा, आय धरे हे, गला पकड़ के।
खाँसी खाँसय,नाक बोहाय,तने अकड़ के।।
जंजाल बने, हाड़ा काँपे, भुतहा जइसन।
घापे हावय,बादर भडुवा, देखौ कइसन।।
(21) हरियर रुखवा
हरियर रुखवा देख तो,कतका सुग्घर छाँव।
डोंगर के बिच मा बने,मोरो हावय गाँव।।
मोरो हावय,गाँव इहाँ जी, घन अमरइया।
डारा पाना, नाचत हावै, ता-ता थइया।।
पेड़ लगावौ, संगी जम्मो, भगही दुखवा।
होही हावा,शुद्ध तभे जब,हरियर रुखवा।।
(22) राजनीति
अब के नेता देख ले,झोला भर-भर खाय।
पइसा धरते नइ बनय,भुइँया खींचत लाय।।
भुइँया खींचत,लाय घलो जी,झूठ लबारी।
कुटहा परगे, कतको बोलव, देवव गारी।।
आही चुनई, देही पइसा, हितवा कब के।
माँगय देखव,अपन बोट दव,नेता अब के।।
(23) मँगनी जचनी
मँगनी जचनी होइ गे,अब तो लगिन धराय।
मड़वा गड़गे अब इहाँ,देखव पतरी छाय।।
देखव पतरी, छाय हवै जी, चूल्हा बनगे।
नेवता बगरे, हरदी चढ़गे, करसा भरगे।।
होही न्योता, पातर पनिया, बासी चटनी।
बने निपटही,करौ सबो झन,मँगनी जचनी।।
(24) बइरी
देखव दुनिया आज जी,कोनों ला नइ भाय।
मानुस मानुस बर जरय,बइरी होवत जाय।।
बइरी होवत, जाय इहाँ सब, भाई-भाई।
कखरो जीना, नइ देखत हे, बड़ करलाई।।
कोन इहाँ अब,समझावै गा,बइगा गुनिया।
जम्मो कोई, एक्के हावै, देखव दुनिया।।
(25) रंग माते हे
देखव संगी धूम हे, रंग बसंती छाय।
झूमत हावय फूल हा,फागुन हाँसत आय।।
फागुन हाँसत, आय हवै गा, गावत गाना।
रंग उड़ावत, डोलत हावय, परसा पाना।।
चारों कोती, जंगल झाड़ी, रंग बिरंगी।
रँग माते हे, मन झूमे हे, देखव संगी।।
(26) पानी-पानी
देखव पानी के बिना , होवय हाहाकार।
नदिया तरिया सूख गे,बंजर परगे खार।।
बंजर परगे, खार सबो जी,सुनलौ भाई।
देखव पानी, बचत करव ओ, दाई-माई।।
एखर ले हे, जम्मो जन के, ए जिनगानी।
ए भुइयाँ हा, माँगत हावय,देखव पानी।।
(27) तीरथ बरथ
कतको तीरथ घूम लव,काशी हरि के द्वार।
गंगा जमना डूब लव,पी लौ अमरित धार।।
पीलौ अमरित,धार अबिरथा,नइ हे सेवा ।
मात-पिता के, सेवा करलव, पाहू मेवा।।
इँखर चरन मा,जम्मो देबी,झन तुम भटको।
पा लव दरशन,इहाँ बसे हे, तीरथ कतको।।
(28) राजिम महिमा
महिमा गावव झूम के,राजिम हवै महान।
महानदी के घाट मा,बइठ लगावव ध्यान।।
बइठ लगावव,ध्यान सबो जी,माथ नवावव।
कल्प कुम्भ मा,नहा धोइ के,पुन्न कमावव।।
बिच धारी मा, भोले बाबा, दरशन पावव।
घाट बिराजे,राजिम लोचन,महिमा गावव।।
(29) वाह रे पानी
बिन बरसा के देख तो,कतका बरसत जाय।
कखरो मन आवय नहीं,काम बिगाड़े आय।
काम बिगाड़े,आय इहाँ जी,सब गुस्सावय।
चना फरे हे, तेमा देखव, करा गिरावय।।
मूड़ ल धरके, कइसे मारे, तँय तरसा के।
दूबर बर तँय,काल बने हस,बिन बरसा के।।
(30) जय भोले नाथ
जय हो भोले नाथ जी,आज नवावँव माथ।
दे मोला आशीष ला, बाबा औघड़ नाथ।।
बाबा औघड़,नाथ मोर जी,सुनले अरजी।
नइ डोलय जी,डारा पाना, तोरे मरजी।।
बइठे आसन, डमरू धारी, डमरू बोले।
नाचत हावय,गण मन तोरे,जय हो भोले।।
(31) गुरतुर बोली
गुरतुर बोली बोल के,सबके मन ला जीत।
पाबे बढ़िया मान तँय,बन जाबे जी मीत।।
बन जाबे जी,मीत सबो के,मन ला भाही।
तुँहर गोठ हा,मिसरी जइसे,गजब मिठाही।।
आवव संगी,खेलव जुरमिल,हँसी ठिठोली।
बोलव जम्मों , छत्तीसगढ़ी, गुरतुर बोली।।
(32) गुजर बसर
जिनगी नइया डोलथे,करलौ अपन उपाय।
दुख मा सुख ला जोरलौ,गुजर बने हो जाय।।
गुजर बने हो,जाय दुःख ला,झन बिसराहू।
इही हमर बर, जिनगी रद्दा, सँगे चलाहू।।
जतके पावव,खुशी मनावव,आवव भइया।
रखलौ धीरज,गुजर बसर मा,जिनगी नइया।।
(33) अकरस पानी
अकरस पानी आय हे, मूड़ी धरे किसान।
बिन मौसम बरसात हे,बिपदा मा हे जान।।
बिपदा मा हे, जान जाय जी, चिंता भारी।
खेती बारी, सब गुड़माटी, अब संगवारी।।
अइसन बेरा, कइसे बितही, ए जिनगानी।
मनखे मन बर,काल बने हे,अकरस पानी।।
(34) वेलेंटाइन डे
देखव भइया देश मा, वेलेंटाइन आय।
रूप मया के देख ले,का-का होवत जाय।।
का-का होवत,जाय बिदेशी,धाक जमावय।
टूरा टूरी, जम्मो भिड़के, खुशी मनावय।।
नवा जमाना,लाज शरम नइ,कोन पुछइया।
वेलेंटाइन, मानत हावय, देखव भइया।।
(35) काम करव
काम करव जी सोच के,तभे बनै सब काज।
बिगड़े ले फिर नइ बनै,महिनत बिरथा आज।।
महिनत बिरथा,आज होय ले,तँय पछताबे।
मन मा गुस्सा,चिंता बढ़ही, कहाँ बताबे।।
बने बने गा,देख-ताख के, लगन धरव जी।
बनही जम्मो,सोचे सुघ्घर,काम करव जी।।
(36) काम करव
खाली कोनों झन रहव,काम करव जी पोठ।
अन धन पाहू सोच लौ,जग मा होही गोठ।।
जग मा होही, गोठ तुँहर जी, कहना मानौ।
ठलहा बइठे, आन तान मन, होथे जानौ।।
झन छोड़व जी,काम आज के,पाछू काली।
सोच समझलौ,झन बइठौ जी,कोनो खाली।।
(37) होरी आगे
फागुन महिना आय हे,होरी डाँड़ गड़ाय।
लइका मन मुसकात हे,सबके मन ला भाय।।
सबके मन ला,भाय सुनौ जी,खुशी मनावय।
लइका नाचय,माँदर बाजय,मन बउरावय।।
रंग कटोरा,धरके दउड़य,अब का कहिना।
देखव संगी,आए हावय,फागुन महिना।।
(38) सुरता आथे
सुरता आथे रोज के,अन पानी नइ भाय।
काम बुता ला छोड़ के,तोरे डाहर जाय।।
तोरे डाहर, जाय पिरोही, गुनना भारी।
कइसे मोरो,जिनगी बितही,सुन सँगवारी।
आके तँय हा,धीरज दे दे, दिन हा जाथे।
घेरी बेरी, संझा बिहना, सुरता आथे।।
(39) भ्रष्टाचार
बाढ़े भ्रष्टाचार हे,मोर समझ नइ आय।
बिन पइसा के आज तो,काम कहाँ हो पाय।।
काम कहाँ हो,पाय इहाँ अब,दुख बड़ होथे।
भटकत रहिथे,मनखे दर-दर,पइसा बोथे।।
लूटत हावय,घूसखोर हर,आफिस ठाढ़े।
आगे कइसन,देख जमाना,करजा बाढ़े।।
(40) भ्रष्टाचार
चारों कोती छाय हे, देखव भ्रष्टाचार।
मनखे मन मा लूट हे,आँखी देखत यार।।
आँखी देखत,यार सबो हे,भ्रष्टाचारी।
बिन पइसा के,काम बनै नइ,सुन सँगवारी।।
करे काय अब, मनखे होगे, सीका जोती।
फइले हावै, भ्रष्टाचारी, चारों कोती।।
(41) माटी
माटी के पुतला बने, माटी ले इंसान।
सबकुछ माटी हो जही,कहना मोरो मान।।
कहना मोरो,मान तहूँ जी, बने करम हो।
नाम कमाना,जग में संगी,इही धरम हो।।
जीव जन्तु के, डेरा एमा, हाथी चाटी।
एखर रक्षा, करलव संगी,जिनगी माटी।।
(42) फसल
सोना जइसे धान हे,लहरावत सब खार।
हीरा कस कोदो लगै,चाँदी राहर दार।।
चाँदी राहर, दार बने जी, गुन हे भारी।
सब माटी ले,उपजत हावै,सुन सँगवारी।।
माते चिखला,खेत-खार के, कोना-कोना।
तभे उपजथे,धान बने जी, जइसे सोना।।
(43) मया मोह
माया ला तँय जोर के,घर ला बने बसाय।
पहुना बनके तँय चले,दुनिया छूँटत जाय।।
दुनिया छूँटत,जाय तोर गा, का ले जाबे।
जइसन करनी,करे इहाँ जी,फल ला पाबे।
काय धरे हे, माटी जइसन, तोरे काया।
छिन भर के हे,ये दुनिया मा,संगी माया।।
(44) मीठा भाखा
मन ला सबके जीत के,बोलव भाखा तोल।
जीव जगत मा सार हे,दया मया रस घोल।।
दया मया रस, घोल चलौ जी,सुग्घर बानी।
जिनगी पबरित,तोरो बनही, तभे कहानी।।
झूठ लबारी, पाप कहाथे, बहका तन ला।
समझालव जी,जम्मों मनखे,अपने मन ला।।
(45) महिनत
सुख मिलही दुख भागही,झन खोजव आराम।
महिनत जाँगर टोर के,करलव सुग्घर काम।।
करलव सुग्घर,काम सबो जी,आवव संगी।
दुख ला छोड़व,गीत सुमत के,गावव संगी।।
काँटा मा जी,फूल तभे तो,सुग्घर खिलही।
चिंता छोड़व,बढ़े चलौ तब,सुख हा मिलही।।
(46) दीया
सुघ्घर दीया बार लव,करलव नवा अँजोर।
हमरो भारत देश मा, बगरय चारों ओर।।
बगरय चारों,ओर छोर मा, अब उजियारा।
भागै जम्मों,रोग दोष अउ,जग अँधियारा।।
गाँव गली अउ,आरा पारा,चमकय उज्जर।
दया मया के,बारव दीया, जगमग सुग्घर।।
(47) नारी
नारी हे बड़ भागिनी, देबी रूप समान।
मान करौ जी ओखरे,पावौ सबझन ज्ञान।।
पावौ सबझन, ज्ञान बने जी, शारद माई।
बिगड़े मा ये,रूप कालिका,बड़ करलाई।
बहिनी-बेटी,रूप अबड़ हे,अउ महतारी।
घर के लक्ष्मी, होथे भइया, सुग्घर नारी।।
(48) नारी
नारी ले जग हे बने, नारी बिन बेकार।
दूनों कुल ला राखथे, देथे सब ला तार।।
देथे सब ला, तार इहाँ ले, नाम कमाथे।
जे मन करथे, सेवा वो मन, फल ला पाथे।।
करव सुरक्षा, रोकव सब मिल,अत्याचारी।
भुइँया के सब, भार हरइया, होथे नारी।।
(49) देवारी
देवारी सुग्घर लगै, कातिक के त्योहार।
लीपे पोते सब दिखै,चुक-चुक ले घर द्वार।।
चुक-चुक ले घर,द्वार लिपाए,सुग्घर दमके।
हँसी खुशी के,दीया जगमग,देखव चमके।।
चउदस के दिन,चउदा दीया,भर-भर थारी।।
अम्मावस दिन,लक्ष्मी पूजा, शुभ देवारी।।
(50) लक्ष्मी माता
बने मिठाई खीर अउ,कलशा बने सजाय।
लाई नरियर फूल ला,लक्ष्मी माता भाय।।
लक्ष्मी माता, भाय बने तब, घर मा आवै।
लइका मन सब,फोर फटाका,खुशी मनावै।।
जोर बतासा, भर-भर दोना, बाँटय दाई।
हँसी खुशी सब,खावत हावै,बने मिठाई।।
(51) गौरी गौरा
गौरी गौरा के परब, सुग्घर रीत रिवाज।
परम्परा अद्भुत बने, छत्तीसगढ़ी साज।।
छत्तीसगढ़ी,साज सजे जी,देखव सुग्घर।
शंकर बिलवा,गौरा बनथे,गौरी उज्जर।।
रात-रात भर,बर बिहाव के,सजथे चौरा।
होत बिहनिया,करे विसर्जन,गौरी गौरा।।
(52) सुआ नाच
हरियर पींयर साज के,खोपा गजरा डार।
सुआ धरे अउ टोकनी,नाचै सबके द्वार।।
नाचै सबके, द्वार घरो घर, जा के नारी।
तरि हरि ना ना,मिल सब गावैं,बन सँगवारी।।
सुआ खाय बर,अन्न चघाथे,सँग मा नरियर।
नाचत माँगय,पहिरे लुगरा,पींयर हरियर।।
(53) गोरसी
बड़ उपयोगी गोरसी, खरसी भूसा जोर।
बने तापहू जाड़ मा, डारव झींटी टोर।।
डारव झींटी, टोर-टोर के, बने सुहाथे।
ये सियान बर,बड़े काम के,मन ला भाथे।।
अँगरा रोटी,सेंक घलो ले, बन के जोगी।
जड़काला मा,इही गोरसी,बड़ उपयोगी।।
(54) ढेरा
होत बिहनिया खोर मा,तापत तापत घाम।
ढेरा आँटे बइठ के, मोर बबा के काम।।
मोर बबा के,काम बने जी, सुरता आथे।
सन पटवा के,डोरी आँटत,समय पहाथे।।
गाँथै खटिया,सुग्घर-सुग्घर, वो बरदखिया।
चाहा पीयत, ढेरा आँटय,होत बिहनिया।।
(55) ढेंकी
सुग्घर धनकुट्टी कहै, जेखर ढेंकी नाम।
हमर गाँव दाई करय, धान कुटे के काम।।
धान कुटे के,काम बिहनिया, करथे दाई।
एक छोर मा, चढ़के कूदै, सँग भौजाई।।
आगू डाहर, मूसर सामी,चमकै उज्जर।
परै रचारच,छलकै बहना, चाउँर सुग्घर।।
(56) चटनी
खा लव चटनी चाँट के,बने पताल सुहाय।
धनिया मिरचा संग मा,देख लार मुँह आय।।
देख लार मुँह,आय गजब जी,अबड़ सुहाथे।
छत्तीसगढ़ी, खान - पान ये, मन ला भाथे।।
आवव बइठौ,ये अमरित कस,येला पा लव।
अँगरा रोटी, मजा लेत जी,चटनी खा लव।।
(57) धन
धन दौलत माया हरे, मनखे सब मोहाय।
हाय-हाय करते रथे, तभो नहीं सुख पाय।।
तभो नहीं सुख,पाय इहाँ वो,दिन भर मरथे।
अपने हित नइ,सोचै कुछु भी,अनुचित करथे।।
काम करे बर,उल्टा पुल्टा,लगथे जी मन।
मर्यादा ला,छोड़ कमाथे,मनखे हा धन।।
(58) पद
पद पा के झन कर गरब, होथे बारा हाल।
चरदिनिया पद हा रथे,बदल जथे बस चाल।।
बदल जथे बस,चाल-ढाल हा,कोन पुछइया।
एखर सेती,गरब गुमानी,झन कर भइया।।
सब ले हिलमिल,रहना हावय,माथ झुका के।
जादा कभ्भू, झन अँटियाबे,पद ला पा के।।
(59) पइसा
पइसा ले ईमान हे, पइसा ले भगवान।
पइसा ले दुनिया चलै, पइसा ले हे मान।।
पइसा ले हे,मान सबो के,अउ जिनगानी।
पइसा पा के,मनखे होथे,सब अभिमानी।।
पइसा ले हे,दुनिया बस मा, चाहे भइसा।
मरे जियें के, संगी ये तो, हावय पइसा।।
(60) सत्
जाँगर पेरत दिन बितै,सत् मारग पहिचान।
जिनगी बीतय जी बने,सरग बरोबर मान।।
सरग बरोबर, मान जान के, बूता करबे।
बात नीति के,गाँठ बाँध के,मन मा धरबे।।
परती भुइँया, सोन उगाबे, धरके नाँगर।
सत् मारग मा,चलबे सुग्घर, पेरत जाँगर।।
(61) ध्यान
कर लौ संगी ध्यान से,बिगड़ै झन सब काम।
काम बने से होय ले, होथे सुग्घर नाम।।
होथे सुग्घर, नाम इहाँ जी,ध्यान लगा लौ।
मन मा धीरज,धरके भइया,आस जगा लौ।।
मिलै सफलता,एखर ले सब,झोली भर लौ।
आघू आवव,ध्यान लगाके,कारज कर लौ।।
(62) लगन
मन मा जब होथे लगन,लगे काम आसान।
महिनत के फल मीठ औ,मिलथे संगी मान।।
मिलथे संगी,मान सदा ही,अच्छा करबे।
बने उमर भर,सुख से जींबे,खुशियाँ धरबे।।
लगन लगे ले,हिम्मत मिलथे,ये जीवन मा।
हीन भावना,धरौ नहीं जी,कभ्भू मन मा।।
(63) मगन
होथे जब मन हा मगन,नाचे चारों ओर।
भागत रहिथे सुध बिसर,गाँव गली अउ खोर।।
गाँव गली अउ,खोर सबो मा,चरचा भारी।
पाँख लगाके, उड़े अगासा, सुन सँगवारी।।
आशा पूरा, खातिर कतको, पइसा बोथे।
नाचत कूदत,देख मगन जब, मन हा होथे।।
(64) अँधियार
मन के दीया बार के,करव ज्ञान उजियार।
मिटै सबो अँधियार हा,जिनगी के हे सार।।
जिनगी के हे, सार इही हा, चेत लगावौ।
जागौ खुद अउ,मनखे सब ला,चलौ जगावौ।।
दुरिहा राहय,मन अँधियारा,सब जन-जन के।
गोठ करव हित,सबके बारव,दीया मन के।।
(65) अँजोर
बगरय ज्ञान अँजोर हा,सबो जगत मा आज।
कर लौ शिक्षा दान ला,इही सफल हे काज।।
इही सफल हे,काज आज सब,आगू आवव।
झन राहय जी,कोनों अड़हा,पाठ पढ़ावव।।
जाति धरम बर,झन कभ्भू जी,कोनों झगरय।
मिटय भेद हा,ज्ञान अँजोरी, शिक्षा बगरय।।
(66)कोठी
लागै कोठी निक अबड़,हमर राज पहिचान।
माटी के ये हा बने, धरथे वोमा धान।।
धरथे वोमा,धान बने सब,बच्छर भर बर।
चना गहूँ अउ,कोदो राहर,तिवरा सुग्घर।।
बने जतन के, रखले एमा, घुनहा भागै।
लक्ष्मी दाई, कोरा जइसे, कोठी लागै।।
(67) सुख
आही सुख परिवार मा,जब तँय करबे काम।
घर ला आसा तोर बर, तोरे ले हे नाम।।
तोरे ले हे, नाम कमइया, बेटा बन तँय।
जाँगर पेरत, चिखला माटी,पाबे धन तँय।।
घाम प्यास मा, लहू पछीना, बने बोहाही।
तब तो तोरे,जिनगी मा जी,सुख हा आही।।
(68) ढेलवा
मेला - ठेला मा सजे, घोड़ा हाथी साथ।
गोल-गोल जी घूमथे, देख ढेलवा हाथ।।
देख ढेलवा,हाथ पकड़ के, सब मनखे मन।
घूमत रहिथें,गोल गोल खुश,लइका लोगन।।
होथे अड़बड़, ये बजार मा, रेलम - पेला।
देखव सुग्घर, बने ढेलवा, मेला - ठेला।।
(69) खटिया
खटिया मा कथरी जठा,बड़ मिलथे आराम।
सेज सुपेती के इहाँ, नइ हे कोनों काम।।
नइ हे कोनों, काम हमर बर,गद्दा मखमल।
झन लेबे तँय, नाम रजाई, के एको पल।।
इही हमर बर,सोफा बिस्तर,नइ जी तकिया।
बने रहय ये,हमर चिन्हारी,पुरखा खटिया।।
(70) कुरिया
माटी के भिथिया बने,छानी खदर छवाय।
सरग बरोबर सुख मिलै,देखौ मन ला भाय।।
देखौ मन ला,भाय अबड़ जी,कुरिया मोला।
छिन मा दुख हा,भागै दुरिहा,हरषय चोला।।
लीपे-पोते, चुक-चुक ले सब, लगे मुहाटी।
दया मया के, सुग्घर छइँहा, कुरिया माटी।।
(71) लइकापन
लइकापन सुग्घर लगै,घर भर खुशी समाय।
मुच-मुच हाँसे देख के,जम्मों सुख ला पाय।।
जम्मों सुख ला,पाय सरग कस,सिरतों भाई।
अँगना सुग्घर, फूल झरै जब, हाँसै दाई।।
नइ तो चिंता, रहै थोरको, गुन लौ मन मा।
दाई अँचरा, सुख के छइँहा, लइकापन मा।।
(72) खरही
खरही गाँजै मिल सबो,भरे-भरे खलिहान।
मींजत कूटत खेत मा,हँसी खुशी मा धान।।
हँसी खुशी मा, धान सकेलै, बाँधय भारा।
बादर पानी, डरै नहीं जी, ये बेचारा।।
महिनत पाछू, कमा-कमा के,कोठी भरही।
बेयारा मा, सुग्घर देखव, गाँजै खरही।।
(73) शुकवा
शुकवा देख किसान सब,जाथे सुग्घर खेत।
रोज कमाथे घाम मा, बने लगा के चेत।।
बने लगा के, चेत सबोझन, कारज करथे।
महिनत जाँगर,टोर - टोर के,कोठी भरथे।।
पेट पालथे, दुनिया भर के, हरथे दुखवा।
करै किसानी,बड़े मुँधरहा,देखत शुकवा।।
(74) मेला मड़ई
जाथे मनखे मन सबो, माते रहिथे सोर।
कातिक पुन्नी मास मा,मेला के बड़ जोर।।
मेला के बड़, जोर रथे जी,जघा-जघा मा।
खेल तमासा,देखय संगी,मजा-मजा मा।।
माघी पुन्नी, अउ नवराती, मन ला भाथे।।
जघा-जघा मा,जुरमिल जम्मों,मेला जाथे।।
(75) जाड़ा
जाड़ा के शुरुआत हे, अघ्घन महिना जान।
सुरुर-सुरुर पुरवा चलै,देख जुड़ावत कान।।
देख जुड़ावत,कान नाक अउ, भुर्री भावय।
छेना खरसी, जोर गोरसी, बबा जलावय।।
पैरा दसना, ओढ़व कमरा, काँपय हाड़ा।
भिनसरहा अउ,संझा बेरा,लागय जाड़ा।।
(76) नरवा
आवव करलौ जी जतन,नरवा हवै महान।
एखर ले जिनगी चलै,पानी अमरित मान।।
पानी अमरित,मान सबो जी,करौ सफाई।
बिन पानी के,जिनगी बिरथा,बड़ करलाई।।
खेत किसानी, नरवा ले जी, पानी पावव।
जिनगी रक्षा, खातिर संगी, आघू आवव।।
(77) भारा
भारा बाँधत खेत मा,मिलजुल सब परिवार।
सुआ ददरिया संग मा, बाँधे मन के तार।।
बाँधे मन के, तार सबोझन, धनहा डोली।
मुच-मच हाँसै, मिल के रेंगै, करै ठिठोली।।
गाँव - गाँव के, मनखे बगरै, झारा-झारा।
लिच-लिच डोलै,कनिहा सबके,बोहै भारा।।
(78) कोला बारी
कोला बारी मा सबो, तरकारी सिरजाय।
धनिया मेथी संग मा, सेमी भाटा भाय।।
सेमी भाटा, भाय सबो अउ, पाला भाजी।
चुटचुटिया औ,जीमी काँदा,सुग्घर खा जी।।
तुमा नार के, मड़वा झूलै, मखना भारी।
फुलवारी कस,बड़ निक लागै,कोला बारी।।
(79) सूपा
जानौ तइहा के बने,गाँव किसानी शान।
दाई सूपा ले फुनै,चाँउर कनकी धान।।
चाँउर कनकी,धान निमारै,गोटी माटी।
फुनै कोड़हा,कोदो कुटकी,पहिरे साटी।।
अबड़ काम के,होथे सूपा,बात ल मानौ।
बने बाँस के,कड़रा घर मा,एला जानौ।।
(80) बहारी(झाड़ू)
सुग्घर छिंदी के बने,लेवव खोर बहार।
कचरा कूड़ा ला सबो,गड्ढा मा दव डार।।
गड्ढा मा दव,डार बने जी,घर सुघराही।
लीपे पोते,गोबर छूही,बड़ चिकनाही।।
चिक्कन चाँदन,घर कुरिया हा,दिखही उज्जर।
रोज बहारी,परही घर मा,लगही सुग्घर।।
(81) बटलोही
बटलोही के दार हा,मोला गजब मिठाय।
भात घलो जी राँधले,खाय-खाय मन भाय।।
खाय-खाय मन,भाय गौटिया,दै महतारी।
काँसा पीतल,भाँड़ा रँधना, गुन बड़ भारी।।
बइठ राँध ले,अमरित जइसन,दुन्नों जोही।
सुरता आथे,हमर ददा के,वो बटलोही।।
(82) पिसनही जाँता
हमरो जाँता पिसनही,दू पखरा के जोड़।
चना गहूँ ला पीस ले,चोकर ला झन छोड़।।
चोकर ला झन,छोड़ एखरे,अँगरा रोटी।
बने लागथे,चटनी सँग मा,पीस सिलोटी।।
मिक्सी आगे,जाँता नइहे,घर मा कखरो।
पिसौ पिसनही,पखरा जाँता,हावै हमरो।।
(83) हँसिया
हँसिया बड़ उपयोग के,करथे काम किसान।
राहर कोदो अउ गहूँ, लू थे एमा धान।।
लू थे एमा, धान सबो जी, डोली भर के।
गावत करमा,गीत ददरिया, बइहाँ धर के।।
हरियर काँदी, मेड़ पार के, लू थे भइया।
रँधनी खोली, के तरकारी, काटव हँसिया।।
(84) धुर्रा माटी
धुर्रा माटी गाँव के, सबो नँदागे ठाँव।
घर कुरिया माटी नहीं,नइ हे पीपर छाँव।।
नइ हे पीपर,छाँव इहाँ सब, होगे पक्का।
मोटर गाड़ी,जगह-जगह नइ,गाड़ा चक्का।।
गली खोर नइ,खेलय लइका,भौंरा बाटी।
पक्का होगे,अब नइ पावव,धुर्रा माटी।।
(85) फुँकनी
फुँकनी लोहा के बने, करे काम वो धूँक।
जादा महिनत नइ लगै,चूल्हा लेवव फूँक।।
चूल्हा लेवव,फूँक बने जी,आगी बरथे।
लकड़ी छेना,जोर बने तब,बने सुलगथे।।
नइ लागै अब,सूपा-बिजना,अउ जी धुँकनी।
रखौ संग मा,रँधनी खोली,सुग्घर फुँकनी।।
(86) जुन्ना बर्तन
फुलकँसिया बटकी डुवा,थारी काँस गिलास।
हउँला बांगा केटली,मुड़िया लोटा खास।।
मुड़िया लोटा,खास रथे अउ,बने खुराही।
बटलोही अउ,हंडा गगरी,सोज सुराही।।
ताँबा पीतल,छोट कटोरी,सुग्घर मलिया।
कहाँ नँदागे,अइसन बर्तन,अब फुलकँसिया।।
(87) बइला गाड़ी
बइला गाड़ी के मजा, लेथे बने मितान।
खन-खन घुँघरू बाजथे,बढ़ जाथे जी शान।।
बढ़ जाथे जी, शान गँवइहा, बेटा मन के।
छत्तीसगढ़ी, इही सवारी, होथे जन के।।
करथे सबझन, गाँव किसनहा,खेती बाड़ी।
ऊँखर बर ये, ट्रेक्टर मोटर, बइला गाड़ी।।
(88) रहिचुली(ढेलवा)
मेला मड़ई रहिचुली,वो दिन कभू न आय।
झूलै लइका लोग मन,अबड़ मजा ला पाय।।
अबड़ मजा ला,पाय सबोझन,हँसी ठिठोली।
जावय मिल के,आरा-पारा,बन हमजोली।।
हरे थके सब, बइठे देखय, सुग्घर ठेला।
खई-खजानी,खावत मन भर, घूमय मेला।।
(89) तन-मन
तन ला धो उज्जर करे,मन ला तँय नइ धोय।
मन ला धो के देख ले,तन-मन उज्जर होय।।
तन-मन उज्जर,होय तभे तो,ईश्वर मिलथे।
चारों कोती,फूल ज्ञान के,सुग्घर खिलथे।।
का करबे तँय,जोर सकेले, संगी धन ला।
लोभ मोह ले,दुरिहा रखले,मन अउ तन ला।।
(90) बिजना(धुकनी)
भारी धमका जब लगै,आथे बिजना काम।
बइठे-बइठे धूक लव, लेवत हरि के नाम।।
लेवत हरि के,नाम सबो जी,गुन ला गावव।
चूल्हा आगी,इहि बिजना ले,बने जलावव।।
बर बिहाव मा, नेंग घलो जी, ये चिन्हारी।
पुरखा जानै,धुकनी के जी,महिमा भारी।।
(91) ढपेल गाड़ी
चक्का होथे तीन गा,गाड़ी कथे ढपेल।
टीक-टाक जे रेंगथे,लइका करथे खेल।।
लइका करथे,खेल इही मा,पेलत-पेलत।
अँगना परछी,सीखय चलना,खेलत-खेलत।।
कभू गिरै वो,फुद ले डिग ले,मारै धक्का।
बने ढपेलै,गुड़-गुड़ भागै,गाड़ी चक्का।।
(92) मचली
मचली मा बइठे बबा,ढेरा आँटै सोज।
दाई बइठ बजार मा,भाजी बेचै रोज।।
भाजी बेचै,रोज बइठ के,दिन भर पसरा।
तभे पेट भर,अन्न मिलै जी,मुँह मा सथरा।।
चार खुरा के,चरपटिया ये,होथे छिछली।
काँशी डोरी,गाँथे रहिथे,सुग्घर मचली।।
(93) परवा छानी(छप्पर)
छानी के गुन का कहँव,खपरा रथे छवाय।
माटी के कुरिया बने,अब्बड़ मोला भाय।।
अब्बड़ मोला, भाय दुवारी, चुक ले लागै।
कमा-धमा के,आवौं घर मा,दुख हा भागै।।
तुर-तुर-तुर-तुर, चुहै ओरछा, बरसा पानी।
बड़ निक लागै,झड़ी धरै तब,परवा छानी।।
(94) कुँदरा
बारी बखरी खार मा, छइहाँ एक बनाय।
लकड़ी के छवनी बने, पैरा भूसा छाय।।
पैरा भूसा,छाय बने अउ, कस के बाँधय।
इहि कुँदरा मा,सोवै जागय,खावय राँधय।।
मिरचा भाँटा,अउ पताल के,कर रखवारी।
समय पहावै,बइठ बबा हा,बखरी बारी।।
(95) भाजी
भाजी के का गुन कहँव,पालक करे कमाल।
तिवरा मुनगा गोंदली, मेथी भाजी लाल।।
मेथी भाजी, लाल लहू ला, बने बढ़ाथे।
चुनचुनिया अउ,चना चरोटा,मन ला भाथे।।
कुरमा भथवा,जरी खेंड़हा,सब मा राजी।
पुतका गोभी,राँध अमारी,सरसो भाजी।।
(96) भाजी
गुँझियारी बर्रे कुसुम,भाजी गजब सुहाय।
चेंच चनौरी चिरचिरा,कजरा उरला भाय।।
कजरा उरला,भाय करमता,अउ तिनपनिया।
खा मुसकेनी,गुमी करेला,भाजी धनिया।।
चौलाई अउ,काँदा भाजी,गुन बड़ भारी।
जंगल मा जी,मिलथे गजबे,ये गुँझियारी।।
(97) छत्तीसगढ़ी ब्यंजन
मुठिया खुरमी ठेठरी,फरा बिजौरी पाव।
भजिया गुलगुल अइरसा,गुरहा चीला खाव।।
गुरहा चीला, खाव पेट भर, मन भर जाही।
चौसेला अउ, अँगरा रोटी, सुरता आही।।
बोइर रोटी, बरी-बरा अउ, बूँदी गुझिया।
तिली करी अउ,मुर्रा लाड़ू, खा ले मुठिया।।
(98) छत्तीसगढ़ी साग
कढ़ही इड़हर कोचई,डुबकी भजिया बोर।
भाँटा सेमी लेड़गा, जीमी काँदा झोर।।
जीमी काँदा, झोर खेड़हा, जरी सुहाथे।
बरी अदौरी, मुनगा सँग मा, बने मिठाथे।।
मोमन काँदा,ढेंस करेला, खा मन बढ़ही।
अमसुरहा मा,रमकलिया के,सुग्घर कढ़ही।।
(99) गुरु घासीदास
लाला अमरौतिन तहीं, बाबा घासीदास।
सत् मारग सत् ज्ञान के,जोत जलाए खास।।
जोत जलाए, खास धरम के, पाठ पढ़ाए।
मानवता के, दे संदेशा, जग समझाए।।
जनहित बर तँय,धरे जपे हस, कंठी माला।
सादा झंडा, गाड़े तँय हा, महँगू लाला।।
(100) गुरु घासीदास
जंगल झाड़ी खार मा,गूँजत हावय नाम।
अलख जगाइस ज्ञान के,बाबा पूरन काम।।
बाबा पूरन, काम बनाइस, तप ला करके।
दया मया के,भाव जगाइस, सत् ला धरके।।
नाम सुमरले, बाबा घासी, होथे मंगल।
जनहित खातिर,बाबा भटकिस,झाड़ी जंगल।।
(101) गुरु घासीदास
जय हो घासीदास के,जय हो जय सतनाम।
जइसन एखर काम हे, सुग्घर एखर नाम।।
सुग्घर एखर, नाम सत्य के, हवै पुजारी।
जात-पात के, भेद मिटइया, ये सँगवारी।।
आँसू ढारव,गुरु चरनन मा,अमरितमय हो।
मनखे ला सत्,पाठ पढ़इया,बाबा जय हो।।
(102) रँधनी खोली
रँधनी दरहा केटली, चूल्हा आगी बार।
डुवा कराही करछुली,बटकी ठठिया सार।।
बटकी ठठिया,सार चार जी,ठन-ठन बोले।
थारी लोटा,अउ गिलास ला, सुग्घर धोले।।
लोहा तावा, पोथे रोटी, दाई भोली।
चटनी मरकी, हउँला बाँगा, रँधनी खोली।।
(103) बारी बखरी
बारी बखरी ढेखरा, तुमा तरोई झूल।
धनिया मेथी गोंदली, पाना गोभी फूल।।
पाना गोभी,फूल बने जी,पालक भाजी।
केरा लहसे,अरन पपाई,गाजर खा जी।।
करू करेला,मखना झुरगा,सब तरकारी।
फरथे सेमी,अउ पताल जी,बखरी बारी।।
(104) मूसर-बाहना
मूसर लकड़ी के बनै, लोहा सामीदार।
देशी खलबट्टा इही, धान बाहना डार।।
धान बाहना, डार कूटथे, दाई - माई।
उज्जर चाँउर,दिखथे संगी,बड़ सुघराई।।
एक अकेल्ला,कूट घलो ले,लगै न दूसर।
बड़ उपयोगी,हमर निशानी,लकड़ी मूसर।।
(105) मछरी
मछरी भुंडा टेंगना,पिच-पिच कूदत जाय।
फाँदा ढ़ूँटी खाँध धर, ढीमर केंवट आय।।
ढीमर केंवट,आय धरे बर,बाम तलफिया।
मार कोतरी, बने खोखसी,नरवा तरिया।।
कतको मारै, गरी डँगानी, बइठे पचरी।
लाल मोंगरी,बड़े पढ़ीना,कतला मछरी।।
(106) भुइयाँ
ये भुइयाँ के गोद मा,थोकन लव सुरताव।
अन-पानी देथे इही, एखर गुन ला गाव।।
एखर गुन ला,गाव सबोझन, बहिनी भाई।
छत्तीसगढ़ी, अबड़ मयारू, येहर माई।।
सेवा गावव, चरन पखारव, सँग मा गुइयाँ।
सिरजाहू तब,अन फल देही, दाई भुइयाँ।।
(107) कमरा(कम्बल)
जाड़ा अउ बरसात मा,संगी एला जान।
आथे काम किसान के,इही बचाथे प्रान।।
इही बचाथे, प्रान सबो के, बाढ़े ठंडा।
ओढ़े कमरा, जावै बखरी, धरके डंडा।।
माघ पूस के,महिना थर-थर,काँपय हाड़ा।
बड़ उपयोगी,होथे जब-जब,आथे जाड़ा।।
(108) काँटा
काँटा गड़गे पाँव मा,माथा धरके रोय।
मनखे गड़गे आँख मा,दुख हिरदय मा होय।।
दुख हिरदय मा,होय अबड़ जी,गुरतुर बोलव।
बैर भाव ला,छोड़ चलौ मन,अमरित घोरव।।
देख-ताख के,रद्दा चलिहौ,रहिथे चाँटा।
हितवा बन के,संगी रहिहौ,झन जी काँटा।।
(109) गड़वा बाजा
गड़वा बाजा मोहरी, संस्कृति के पहिचान।
छत्तीसगढ़ निशान ये, बढ़ जाथे जी मान।।
बढ़ जाथे जी,मान गउन हा,दफड़ा सँग मा।
मिलके नाचै, लइका जम्मों, एके रँग मा।।
सज-धज निकलै, सबो बराती,दूल्हा राजा।
बाजै सुग्घर,रीति नियम मा,गड़वा बाजा।।
(110) हरियर मड़वा
हरियर मड़वा बाँस के,अँगना मा गड़ियाय।
धरके लगन बिहाव के,जम्मों पुन ला पाय।।
जम्मों पुन ला, पाय ददा हा, दे के बेटी।
सबो सँवांगा, जोरे राहय, दाहिज पेटी।।
सबो नेंग मा,सुग्घर दफड़ा, बाजय गड़वा।
छत्तीसगढ़ी, संस्कृति होथे, हरियर मड़वा।।
(111) पनिहारिन
पनिहारिन मन तो कुँआ,नरवा झिरिया जाय।
संझा अउ बिहना सबो,सँग मा पानी लाय।।
सँग मा पानी, लाय मया मा, हाँसत गावत।
सुख दुख बाँटत,अपन परानी,आवत जावत।।
अब तो होगे,सबो बहुरिया, बड़ सुखयारिन।
नल जल आगे,घर-घर मा अब,नइ पनिहारिन।।
(112) चिमनी(दीया)
आवै चिमनी काम के,घर-घर करै अँजोर।
अँधियारी भागै इहाँ,छिन मा पल्ला छोर।
छिन मा पल्ला,छोर घरो घर,तब उजियारी।
माटी के जी,घर कुरिया के,होय चिन्हारी।।
सब घर बिजली,अब तो चिमनी,थोर जलावै।
तइहा मा जी,काम करे बर,चिमनी लावै।।
(113) मितान
भाई सहीं मितान तँय,देवत रहिबे साथ।
बने रहय सँग साथ हा,छूँटय झन जी हाथ।।
छूँटय झन जी,हाथ सदा जी,रहै मितानी।
नहीं भरोसा,कब ढल जाही,ये जिनगानी।।
किसन सुदामा, जइसे जग मा, रहै दुहाई।
सुख दुख हितवा,मीत मितानी,होथे भाई।।
(114) पैरा
पैरा होथे काम के,दसना घलो बिछाय।
सुग्घर पैरा धान के,रोज मवेशी खाय।।
रोज मवेशी,खाय पेट भर,पगुरा पगुरा।
बबा लान के,बोझा-बोझा,देवय बपुरा।।
खातू कचरा, घुरुवा गड्ढा, घलो सरोथे।
मछरी भुँजथे, कोदो के जी, पैरा होथे।।
(115) गुपती
गर मा पहिरे डोकरी, दाई बड़ मुस्काय।
गुपती मा पइसा धरय,मोला अब्बड़ भाय।।
मोला अब्बड़,भाय खवावै, खई खजानी।
ये सियान के, माला मा जी, रहै निशानी।।
देखे बर नइ, मिलै कहूँ जी, गुपती घर मा।
सबो भुलागे,दिखै नहीं ये,कखरो गर मा।।
(116) छेरी पठरू
छेरी होथे काम के, आथे बड़ उपयोग।
सुनलौ एखर दूध ले, हरथे कतको रोग।।
हरथे कतको,रोग घलो जी,बड़ गुनकारी।
ये गरीब के, पूँजी होथे, सुन सँगवारी।।
छै महिना मा, पीला देथे, घेरी - बेरी।
गजब बाढ़थे, तभे पोसथे, पठरू छेरी।।
(117) खरहेरा(झाड़ू)
खरहेरा खरहार ले, कोठा अँगना खोर।
मूठा भर तँय बाँध ले,राहर काड़ी जोर।।
राहर काड़ी, जोर बाँध ले, कस के धरले।
गोबर पानी,छरा छिटकले,पबरित करले।।
साफ सफाई, संझा बिहना, सुग्घर बेरा।
बड़े काम के, होथे संगी, ये खरहेरा।।
(118) भँदई-अख्तरिया
अख्तरिया भँदई दुनों,बड़ होवय उपयोग।
चमड़ा के सिरजय इही,तइहा पहिरैं लोग।।
तइहा पहिरैं, लोग सबोझन, मान बढ़ावैं।
पानी ला नइ, एमन संगी, बिलकुल भावैं।।
भँदई पहिरै, बबा बिचारा,बिरबिट करिया।
सुग्घर रेंगय, पहिर डोकरी,ये अख्तरिया।।
(119) घानी(तेल पेरनी)
घानी मा पेरय तिली,अउ सरसों के तेल।
धंधा तेली जात के,सँग बइला के मेल।।
सँग बइला के,मेल हवै जी,मातय झूमय।
बइला आँखी,टोपा बाँधे,कोल्हू घूमय।।
धारन खम्भा,चारों कोती, मिल सब प्रानी।
अंडी सरसों,तिली तेल ला,पेरय घानी।।
(120) सवनाही
सावन महिना आय तब,देखव जम्मों खोर।
चिनहा सवनाही बनै, भिथिया चारों ओर।।
भिथिया चारों, ओर - छोर मा, गोबर ढेरा।
मुँदराहा ले, उठ के दाई, घेरय घेरा।।
जादू टोना, राहय दुरिहा, घर मनभावन।
छत्तीसगढ़ी, परम्परा ये, सुग्घर सावन।।
(121) निसैनी
छानी परवा मा चघौ, या भिथिया टेकाव।
बाँस निसैनी काम के,सुग्घर खपरा छाव।।
सुग्घर खपरा,छाव बने जी,पकती चढ़के।
ओरी-ओरी, पाना नाली, बइठव धरके।।
चघौ पेड़ मा,टोरव फल ला,आनी बानी।।
बड़ उपयोगी,इही निसैनी,चघलौ छानी।।
(122) टेंड़ा
बारी बखरी मा सुघर, टेंड़य कुँआ मरार।
तरकारी गजबे लगे,बोंवय डुहरू पार।।
बोंवय डुहरू,पार सबो मा,भाजी खेड़ा।
कुँआ पार मा,गड़े देख लौ,सुग्घर टेंड़ा।।
दू थाँघा के, टेंड़ा पटिया, होय चिन्हारी।
टेंड़ कुँआ ले, पानी देवय, बखरी बारी।।
(123) धान के प्रकार
रानी काजर चेपटी,विष्णुभोग पहिचान।
बासमती सफरी डँवर,परी माँसुरी धान।।
परी माँसुरी,धान सरोना,अउ गुरमटिया।
एच एम टी,महमाया अउ,लुचई बढ़िया।।
पसहर खधुहन,धान करेरा,आनी बानी।
जीरा फुलवा,तुलसी मँजरी,धनिया रानी।।
(124) गाँव के देवी देवता
कोसागाई शीतला, आय गाँव के नेंव।
भँइसासुर अउ साँहड़ा, ठाकुर बूढ़ादेव।।
ठाकुर बूढ़ा, देव सुमरलव, ये समलाई।
रिक्षिन दाई, चंडी दाई, अउ महमाई।।
सर्वमंगला, हे बंजारी, हे बमलाई।
सत्ती दाई, गौरी - गौरा, कोसागाई।।
(125) अमराई
अमराई मा गाँव के, गीत कोइली गाय।
सुग्घर पुरवाई चलै,मन ला अब्बड़ भाय।।
मन ला अब्बड़,भाय सबो के,कुँहु कुँहु बोली।
खेलय लइका,मीत मितानी,मिल हमजोली।
आथे सुरता, हमर गाँव के, बहिनी भाई।
झुलना झूलै,हँसी खुशी मा,इहि अमराई।।
(126) गेड़ी
गेड़ी लइका साजथे,सावन महिना आय।
परब हरेली हा सुघर,सबके मन ला भाय।।
सबके मन ला,भाय बने खुश,माई-पीला।
घर के देवी, देव सबो मा, चढ़थे चीला।।
रच-रच-रच-रच,पउवा बाजै,जेमा एड़ी।
चढ़े सबोझन,लइका नाचय,चढ़ के गेड़ी।।
(127) खेत-खार
चनवारी अउ बाहरा, धरसा मेड़ कछार।
लमती डोली टेंड़गी,चउँक मेड़रा खार।।
चउँक मेड़रा, खार मटासी,घर गौरासी।
टिकरा भांठा,सुतिया भगदा,अउ जेठासी।।
मुरमी गाँसा,बने अपासी,सुन सँगवारी।।
चुहरा डोली,भर्री भुइयाँ,अउ चनवारी।।
(128) चौपाल(गुड़ी)
पाके फुरसत गाँव मा,लगय गुड़ी चौपाल।
करै सियानी गोठ अउ, पूछै सबके हाल।।
पूछै सबके, हाल चाल अउ, पंच सियानी।
गाँव गौटिया, खेती बारी, मीत मितानी।।
बर-चौरा मा,रोज सँझाती, झटकुन खाके।
सकलावै सब,काम धाम ले,फुरसत पाके।।
(129) हमर खेल
चुकिया गोंटा गड़गड़ी,तुक्का मार गुलेल।
कागज के डोंगा बनै,सरफल्ली के खेल।।
सरफल्ली के,खेल ढेलुवा,गजब सुहावय।
गिल्ली डंडा,कूद बितंगी,टीप लुकावय।।
अटकन बटकन,पुतरी पुतरा,अउ घरघुँदिया।
बाँटी भौरा,खेलय लइका,पोरा चुकिया।।
(130) हमर खेल
सगरी - भतरी जनउला,गोबर छेना खेल।
फुगड़ी खो-खो संग मा,रेस टीप अउ रेल।।
रेस टीप अउ,रेल खेल मा, मजा लुटावय।
बने कबड्डी, परी नचउला, लिल्ला भावय।
नदी पहाड़ी, बिल्लस गोंटा, बोहय गगरी।
घानी - मूँदी, गिल्ली-डंडा,भतरी - सगरी।।
(131) बर-बिहाव
डूमर आमा ले बने,मड़वा सुघर सजाय।
मँगरोहन अउ पीढ़ली,पर्रा बिजना लाय।।
पर्रा बिजना,लाय ढेड़हिन, खोर मुहाटी।
संझा बेरा,जावय गावत,सब चुलमाटी।।
हरदी सँग मा,तेल चढ़ावत,जावय झूमर।
नाचय मायन,घूमय भाँवर,मड़वा डूमर।।
(132) बर-बिहाव
दूल्हा बाबू हा सम्हर, दुलहिन घर बारात।
दुलहिन वाले चौथिया,जावँय सिरतों बात।।
जावय सिरतों, बात इही हा, माँदी पंगत।
करी अइरसा, सोहारी के, गजबे रंगत।।
गीत भड़ौनी, गावँय राँधँय, बारँय चूल्हा।
मउर बाँध के,सुग्घर बइठे, दुलहिन दूल्हा।।
(133) बर-बिहाव
सैना दुन्नो पक्ष के, सकलावय परिवार।
समधी समधन भेंट औ,नवा-नवा घर द्वार।।
नवा-नवा घर,द्वार मिलै औ, नवा बहुरिया।
परघवनी के,संग चलय वो,अपन दुवरिया।।
सारा - सारी, बाँटँय सुग्घर, मिल के बैना।
हँसी खुशी मा, खावँय माँदी, जम्मों सैना।।
(134) फूल
पानी मा जलमोंगरा, दसमत फूल मँदार।
सेवंती अउ खोखमा, फूल मोखला खार।।
फूल मोखला,खार धतूरा,सदा सुहागिन।
बन तुलसा औ,परसा डोंगर,जस हे नागिन।।
लाल चँदैनी, सुघर चिरइया, आनी बानी।
गोंदा लाली, पींयर फुलथे, बरसत पानी।।
(135) छेरछेरा
छेरिक छेरा छेर के, लइका करैं गुहार।
दरबर दरबर रेंग के,झाँकँय सब घर द्वार।।
झाँकँय सब घर,द्वार धान ला,माँगे बर जी।
बाँधे कनिहा,बाजै घँघरा,खनर खनर जी।।
नाचँय कूदँय, धूम मचावँय, रेंगत बेरा।
आय परब तब,हाँसत गावैं,छेरिक छेरा।।
(136) तुलसी चौरा
सुघ्घर अँगना द्वार औ,तुलसी चौरा भाय।
गोंदा फूल रवार के, मोला सुरता आय।।
मोला सुरता,आय गजब जी,अँगना घर के।
तुलसी चौरा,माथ नवावँव,बिनती कर के।।
लीपे पोते, चारों कोती, चुक ले उज्जर।
लहरावत वो,तुलसी मइया,लागय सुग्घर।।
(137) बइला गाड़ी
बइला गाड़ी के मजा,सरपट दउड़त जाय।
संग सबो परिवार हा,जम्मों सुख ला पाय।।
जम्मों सुख ला,पाय गौंटिया, बइठै तनके।
ये गरीब के, मोटर गाड़ी, राहय मन के।।
पनिहारिन मन, रेंगत देखँय, बोहे घइला।
खन-खन घुँघरू,बाजत आवै,गाड़ी बइला।।
(138) बरदी
सकलावय गइया सबो,गाँव-गाँव गौठान।
बइला भैंसा संग मा, खावँय पैरा धान।।
खावँय पैरा, धान बने अउ,काँदी-कोला।
दरबर-दरबर, बरदी रेंगय,भावय मोला।।
सबो टेपरा,बाजय ठन-ठन,बने सुहावय।
जब परिया मा,गइया बछरू,सब सकलावय।।
(139) गेरवा
सन पटुआ के डोर ले, गाँथे बने बनाय।
गरुआ बछरू भइँस ला,बाँध गेरवा लाय।।
बाँध गेरवा, लाय कुदावत, गइया गर मा।
बड़े काम के, होथे ये तो, कोठा घर मा।।
रथे सुरक्षित, एखर ले जी, जम्मों पशुधन।
खेत खार मा, बोथें संगी, पटुआ पटसन।।
(140) रुख राई
औंरा साजा बेहरा, चिरई जाम खम्हार।
सलिहा सरई सेनहा, बीजा तेंदू चार।।
बीजा तेंदू,चार आम अउ, तिलसा कर्रा।
मउहा कउहा, भिरहा बोइर, डूमर हर्रा।।
मूढ़ी मोंदे, कलमी परसा, सेम्हर धौंरा।
बेल मकइया,गस्ती कैथा,बम्हरी औंरा।।
(141) डोंगरी के जीव जन्तु
लिलवा बिज्जू कोटरी,बरहा खरहा शेर।
खेखर्री हुँड़रा सबो, घूमँय संझा बेर।।
घूमँय संझा,बेर कोलिहा,माँचाडेवा।
गवर रेड़वा,साम्हर चीतर,सब जी-लेवा।।
भलुवा भइँसा,हरिन कोटरी,हाथी पिलवा।।
साई कुकरी,सोन कुकुर अउ,मंजुर लिलवा।।
(142) गोदना
आनी बानी गोदना, नारी के सिंगार।
इही हमर संस्कृति हवै,गोठ सुनौ जी सार।।
गोठ सुनौ जी,सार कहत हँव,सुग्घर गहना।
जींती मरती, ये चिन्हारी, मानौ कहना।।
झाड़ करेला, बिच्छी पुतरा, आमा चानी।
सबो अंग भर, गुदवाथे जी, आनी बानी।।
(143) डोंगरी के फर-फूल
डारा पाना फर जड़ी, बूटी के भंडार।
महुआ लकड़ी फूल औ,काँदा तेंदू चार।।
काँदा तेंदू, चार बहेरा, सरई घेरा।
कोसा मँदरस,बाँस बाँख औ,चिरई डेरा।।
हर्रा अँवरा, रँग-रँग भाजी,मिलै खजाना।
चूल्हा बारौ,बड़ मिलथे जी, डारा पाना।।
(144) पहुना देव बरोबर
पानी लोटा मा धरे, होथे बड़ सत्कार।
संस्कृति ये सुग्घर हमर,आये पहुना द्वार।।
आये पहुना, द्वार इहाँ ता,सब सँगवारी।
मान - गउँन ला, देव बरोबर,करथें नारी।।
भूले बिसरे, करथें जम्मों, गोठ सियानी।
सबो बहुरिया, मूड़ ढाँक के, देवँय पानी।।
(145) दाई-ददा
बड़ सुग्घर दाई-ददा, देथे मया-दुलार।
सरग बरोबर लागथे, इहाँ सबो घर-द्वार।।
इहाँ हमर घर, द्वार मुहाटी,जस फुलवारी।
देव बरोबर, सेवा करलौ, जी सँगवारी।।
रथे गोठ जी,गुड़ मिसरी कस,अंतस उज्जर।।
ददा मयारू, दाई लगथे, जी बड़ सुग्घर।।
(146) इड़हर(कढ़ी)
खा ले इड़हर तँय सँगी,अम्मट मुँह चटकार।
पान कोचई काट के, बेसन ओमा डार।।
बेसन ओमा, डार फेंट के, गढ़ ले भजिया।
या चीला कस,सेंक घलो ले,तँय हा बढ़िया।।
पानी अँधना, ऊपर पैना, रख झझिया ले।
दही मही मा,राँध बने फिर, इड़हर खा ले।।
(147) चीला
चीला के का गुन कहौं, इही हमर हे शान।
कनकी बने पिसान मा,नून मिर्च ला सान।।
नून मिर्च मा, सान घोर के, लई बनाले।
तेल डार के, आगी तावा, फिर लहुटाले।।
तात-तात फिर, खावव संगी, माई पीला।
गजब मिठाथे,चाँउर कनकी,के ये चीला।।
(148) बरसय बरखा
भागै जब दिन घाम के,करिया बादर छाय।
नाचत झुमरत सँग पवन,बरखा बरसत आय।।
बरखा बरसत,आय धरा तब,भरथे डोली।
चारों कोती, सुनौ मेचका, टर-टर बोली।।
अब किसान के,प्यास बुतावै,भाग ह जागै।
चमकै बिजली,बरसय पानी,दुःख ह भागै।।
(149) चँदैनी गोंदा
घर-घर अँगना द्वार मा, लगे रथे हर साल।
रिगबिग ले दिखथे बने,फूल चँदैनी लाल।।
फूल चँदैनी,लाल-लाल जी, मन ला भाथे।
शोभा पाथे, तुलसी चौरा, बड़ सुघराथे।।
हार गूँथ ले, फूल टोर के, सूजी भर-भर।
कत्था ललहू,फूल चँदैनी,फुलथे घर-घर।।
(150) आमा चटनी
भाथे आमा नुनचरा, बढ़िया डार अथान।
सरसों मेथी के मजा,लहसुन गुन के खान।।
लहसुन गुन के, खान रथे जी,पोषक भारी।
दार-भात या, बासी सँग मा, खा सँगवारी।।
हरियर आमा, हाट-गली मा, बड़ बेचाथे।
मुँह मा पानी, आथे अड़बड़,आमा भाथे।।
(151) भोजली परब
सावन महिना के परब,जम्मों बने मनाय।
सुग्घर देवी रूप मा, इही भोजली आय।।
इही भोजली, आय घरो घर, ला सुघराथे।
चरिहा टुकना, माटी भर के, गहूँ बुवाथे।।
सावन साते,ले पुन्नी तक, बड़ मनभावन।
राखी डोरी,बाँध भोजली, महिना सावन।।
(152) राखी के परब
भाई बहिनी के मया,मिलथे बने दुलार।
राखी मा भाई सबो,जाथे बहिनी द्वार।।
जाथे बहिनी,द्वार परब मा,सावन पुन्नी।
थारी राखी, फूल सजाथे, चुन्नी मुन्नी।।
जोरे रहिथे, गजब मयारू, रोटी दाई।
दया मया के,बँधना ये तो,बहिनी भाई।।
(153) कमरछठ परब
रहिथे दाई निरजला,परब कमरछठ आय।
सगरी मा पानी भरै, फूल - पात ला छाय।।
फूल-पात ला,छाय माह जब,भादो आवै।
पारवती सँग,शिव भोला ला, सबो मनावै।।
सुग्घर कहिनी,दाई-माई,मिलजुल कहिथे।
लइका खातिर, ये उपास ला, दाई रहिथे।।
(154) आठे कन्हैया(जन्माष्टमी)
आथे भादो अष्टमी, अँधियारी के रात।
सबो मनाथे ये परब, मोरो सुनलौ बात।।
मोरो सुनलौ,बात जनम ये,कृष्ण कन्हैया।
लइका जम्मों,ये उपास ला,रहिथे भइया।।
आठे चिनहा,औ भिथिया मा,सुघर बनाथे।
करथे पूजा, आठ कन्हैया, भादो आथे।।
(155) पोरा (पोला)
पोरा हमर तिहार हे, छत्तीसगढ़ी रीत।
भाद्र अमावस के परब,चढ़थे चीला मीत।।
चढ़थे चीला,मीत सबो घर,जाँता चुकिया।
खेलय नोनी, सगा पुताली, गुड्डा गुड़िया।।
नंदी पूजा, नरियर भेला, फोरिक फोरा।
बच्छर भर मा, आथे संगी, सुग्घर पोरा।।
(156) तीजा
सावन पाख अँजोर तिथि,तीजा तीज मनाय।
तिजहारिन ससुरार ले, मइके डाहर आय।।
मइके डाहर,आय खुशी मा,मया दिखावय।
पति के खातिर,ये उपास दिन,रात सहावय।।
शिव शंकर के,पूजन अर्चन,बड़ मनभावन।
दया मया के,सुग्घर महिना,आवय सावन।।
(157) मातर-मड़ई
देवारी मातर इहाँ, गँवई गाँव मनाँय।
सहड़ा के दैहान मा,नाच-नाच सब गाँय।।
नाच-नाच सब,गाँय गीत अउ,दोहा बाचँय।
दुनों हाथ मा, मड़ई धरके, राउत नाचँय।।
परम्परा ये, छत्तीसगढ़ी, सुन सँगवारी।
कातिक महिना,जगमग दीया,औ देवारी।।
(158) जेठौनी तिहार
जेठौनी एकादशी, सुग्घर परब तिहार।
सबो देवता जागथें,शुभ दिन होथे बार।।
शुभ दिन होथे, बार बिहाथे, तुलसी दाई।
गन्ना मड़वा,सालिग दुलहा, होय सगाई।।
ऋतु फल चढ़थे,दान पुण्य ला,देथे पौनी।
गइया गर मा, बँधे सोहई, ये जेठौनी।।
(159) माघी पुन्नी
मेला होथे हर जगह, जिहाँ देवता स्थान।
माघी पुन्नी मा सबो,करथें अब्बड़ दान।।
करथें अब्बड़,दान पुण्य औ,फल ला पाथे।
तीरथ संगम, या नदिया मा, नारि नहाथे।।
शिव भोले ला, सबो चढ़ाथें, नरियर भेला।
व्रत उपास ला, करथें जम्मों, जाथें मेला।।
(160) होली
होली जलथे होलिका,सुग्घर फाग सुनाय।
ढोल नँगारा बाजथे,फागुन महिना आय।।
फागुन महिना, आय रंग मा, सबो नहाथें।
घर के देवी, देव पूजके, रोट चढ़ाथें।।
हँसी खुशी मा,खावैं कतको,भँगिया गोली।
पिचकारी भर,लइका जम्मों,खेलँय होली।।
(161) सकरायत(संक्रांति)
आथे ये पहिली परब,नवा बछर जब आय।
दिन ये चौदह जनवरी,सबके मन ला भाय।।
सबके मन ला,भाय नहा के,बड़े बिहनिया।
सुरुज देव के, करैं आरती, दीदी भइया।।
तिल औ गुड़ के, मुर्रा लाड़ू, मिलके खाथे।
खुशी मनाथे,शुभ सकरायत,शुभ दिन आथे।।
(162) बसंत पंचमी
हरियाली चारों डहर, आथे माघ बसंत।
सुघर मनाथे पंचमी, होय जूड़ के अंत।।
होय जूड़ के, अंत तहाँ ले, घाम जनाथे।
मातु शारदा,जनम परब ला,सबो मनाथे।।
लइका होली, डाँड़ गड़ा के, बड़ खुशहाली।
दिखथे भुइयाँ,सरग बरोबर,औ हरियाली।।
(163) अक्ती (अक्षय तृतिया)
आथे अक्ती के परब,महिना जब बैसाख।
पुतरी - पुतरा साजथे,तीज अँजोरी पाख।।
तीज अँजोरी,पाख मनाथे,शुभ फल पाथे।
बेटी - बेटा, बर बिहाव के, लगन लगाथे।।
घर-घर करसा, पूजा करथे, बड़ सुघराथे।
काम किसानी,शुरु होथे जब,अक्ती आथे।।
(164) नवरात
आथे महिना चइत के,नवा बछर शुरुआत।
जोत जँवारा साजथे,नव दिन औ नवरात।।
नव दिन औ नव, रात मनाथे, दुर्गा माई।
सेवा करके, मेवा पाथे, बड़ सुखदाई।।
घर मन्दिर मा,जोत कलश हा,सुग्घर भाथे।
नवराती के, ये तिहार हा,जब जब आथे।।
(165) रामनवमी
भाथे महिना चइत के,नवमी तिथि उजियार।
लिए राम अवतार ला,शुभ दिन शुभ फल चार।।
शुभ दिन शुभ फल,चार खुशी ला,सबो मनाथें।
बर बिहाव के, सुग्घर बेरा, बिहा रचाथें।।
बाजा दफड़ा, सुघर बराती, धरके जाथे।
मड़वा भाँवर,नवमी परथे,मन ला भाथे।।
(166) होरी आगे
फागुन महिना आय हे,होरी डाँड़ गड़ाय।
लइका मन मुसकात हे,सबके मन ला भाय।।
सबके मन ला,भाय सुनौ जी,खुशी मनावय।
लइका नाचय,माँदर बाजय,मन बउरावय।।
रंग कटोरा,धरके दउड़य,अब का कहिना।
देखव संगी,आए हावय,फागुन महिना।।
(167) रंग माते हे
देखव संगी धूम हे, ऋतु बासंती छाय।
झूमत हावय फूल हा,फागुन हाँसत आय।।
फागुन हाँसत, आय हवै गा, गावत गाना।
रंग उड़ावत, डोलत हावय, परसा पाना।।
चारों कोती, जंगल झाड़ी, रंग बिरंगी।
मया रंग मा, मन झूमे हे, देखव संगी।।
(168) लाली परसा(पलाश)
लाली परसा मात के,तन मा अगन लगाय।
अपन मयारू के इहाँ,बहुते सुरता आय।।
बहुते सुरता, आय कोइली, ताना मारय।
धुकुर-धुकुर जीं,दिन भर करथे,मन नइ माढ़य।।
काय बतावँव, रद्दा देखत, रहिथँव खाली।
चारों कोती, देख डोंगरी, परसा लाली।।
(169) किसान
जाँगर ला बड़ पेरथे, ये किसान दिन रात।
कमा-कमा के हार थक,करथे सुग्घर बात।।
करथे सुग्घर, बात सबो सँग, गुरतुर बानी।
गिरै पछीना, मूड़ माथ ले, अमरित पानी।।
खेत कमाथे, सँगवारी बन, बइला नाँगर।
सोन बरोबर, धान उगाथे, पेरत जाँगर।।
(170) महतारी
महतारी गोदी सँगी, सुग्घर सरग समान।
मिट जाथे दुख हा इहाँ,हावै सुख के खान।।
हावै सुख के,खान मया ला,अड़बड़ करथे।
साँझ बिहनिया,कमा-कमा मुँह,चारा भरथे।।
कतका गावँव, गुन ला एखर, महिमा भारी।
लक्ष्मी जइसन,दय अशीष ला,ये महतारी।।
(171) सुआ
पाँखी हरियर ये सुआ, बोली करै कमाल।
लाली पिँवरी चोंच औ,खावै मिरचा लाल।।
खावै मिरचा, लाल लाल ये, मन ला भावै।
लइका सँग मा,हँसी ठिठोली,सुग्घर गावै।।
मोर सुआ के,देखव सुग्घर,करिया आँखी।
फर-फर-फर-फर,बने उड़ावै,हरियर पाँखी।।
(172) डोंगा
सावन के बरसात मा,घात मजा हा आय।
बाढ़े पूरा गाँव मा, नरवा छलकत जाय।।
नरवा छलकत,जाय सबोझन,डोंगा चढ़के।
काठ बाँस के, बने बनावै, सुग्घर गढ़के।।
पार लगावै, केवट डोंगा,जब हम जावन।।
दिन हा आवै,ये बरसा के,महिना सावन।।
(173) पीपर पान
तारा पीपर पान के, लइकापन संसार।
घरघुँदिया खेलय सबो, लगै मुहाटी द्वार।।
लगै मुहाटी, द्वार घरो घर, सुग्घर लागय।
सगा पुताली,खेल खेल मा,मन हा भागय।।
सकलावय सब,नान्हें लइका,जम्मों पारा।
अउ पीपर के, पान बनावै, छुटकन तारा।।
(174) घठौंदा
नरवा पचरी घाट ला, लेवव जी पहिचान।
बने घठौंदा हा रथे, करथे मनखे स्नान।।
करथे मनखे,स्नान सबोझन,लोटा धर के।
पानी हउला, मूड़ बोह घर,जाथे भर के।।
कपड़ा लत्ता, बने काँचथे, चद्दर कथरी।
रगड़-रगड़ के, सबो नहाथे, नरवा पचरी।।
~~~~~~~समाप्त~~~~~~~~~~
रचनाकार:-
बोधन राम निषादराज"विनायक"
सहसपुर लोहारा,जिला-कबीरधाम(छ.ग.) भारत
सादर नमन गुरुदेव जी
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