मद्य निषेध दिवस विशेष छंदबद्ध कविता- छन्द के छ परिवार की प्रस्तुति
*त्रिभंगी छंद -नशा छोड़व*
(1)
ये नशा नाश के,नहीं आस के,झन पीयौ ये,जहर हवै।
एखर ले दुनिया,बिगड़ै भइया,चारों कोती,कहर हवै।।
बिगड़त समाज हे,नहीं लाज हे,कोन बतावै,राह इहाँ।
सब गाँव सुधरही,मन मा रइही,मनखे के जब,चाह इहाँ।।
(2)
अब नशा छोड़ दव,राह मोड़ दव,बने काम बर,ध्यान रहै।
बदनामी हो झन,राखव तन मन,दुनिया मा जी,मान रहै।।
धन दौलत घर ले,जिनगी भर ले,सब खुवार जी,होत हवै।
बिन इज्जत जग मा,दुख रग-रग मा,माथा धरके,रोत हवै।।
(3)
दुरिहा जी रहना,मानौ कहना,नशा नाश के,चीज हवै।
घर सबो बिखरथे,मनखे मरथे,बरबादी के,बीज हवै।।
लइका लोगन मन,रहिथे भूखन,घर मा दाना,एक नहीं।
सब छूत समाथे,दुरमत आथे,अइसन आदत,नेक नहीं।।
छंदकार:-
बोधन राम निषादराज"विनायक"
सहसपुर लोहारा,जिला-कबीरधाम(छ.ग.)
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छन्न पकैया-नशा
छन्न पकैया छन्न पकैया, लाइन लगे समारू।
मदिरालय के द्वार खड़े हे, पीए बर जी दारू।।
छन्न पकैय छन्न पकैया,पी के गिरगे नाली।
देह सना गे लद्दी मा जी, देवत सब झन गाली।।
छन्न पकैया छन्न पकैया, खोय मान वो अपना।
पी के दारू गिरिस तभे तो, टूटिस ओकर सपना।।
छन्न पकैया छन्न पकैया, होय नाश गा धन के।
एक एक पल इहाँ कीमती, झन कर अपने मन के।।
छन्न पकैया छन्न पकैया, छोड़ नशा के दानव।
कलह क्लेश मिट जाही भइया, बन जा सुग्घर मानव।।
छन्न पकैया छन्न पकैया, झन तँय मार लबारी।
नैतिकता ला भूल जबे ता, गर मा चलथे आरी।।
छन्न पकैया छन्न पकैया, कर तँय सुग्घर जेवन।
खोवत हावस जोश होश ला, करके मदिरा सेवन।।
छन्न पकैया छन्न पकैया, चरदिनियाँ जिनगानी।
नशा नाश के जर ये भइया, झन कर तँय मनमानी।।
विजेंद्र वर्मा
नगरगाँव(धरसीवाँ)
रायपुर
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: चौपाई छन्द ।। नशा पान।।
दारू मउहाँ गुटखा पान। होथे येहर जहर समान।।
खोथे संगी धन अउ मान। मुस्किल मा पड़ जाथे जान।।1
आनी बानी होथे रोग।भरे जवानी मरथे लोग।।
नशा नाश के कारक आय। चक्कर जेन पड़े पछताय।।2
करथे भारी ये नुकसान। भला बुरा ला ले पहिचान।।
सबो बात ये लेवव मान। करन नही हम ये कर पान।।3
सर्वगामी सवैया ।।छोड़व नशा पान ।।
छोड़ौ नशा पान ला आज जम्मो,नशा पान ले जी न होवै भलाई।
टूटै नता देह मा रोग होवै,नशा नाश के जी हवै जान खाई।
काया बनै खोखला चैन खोवै,घटै मान होवै नशा ले लड़ाई।
पैसा सिरावै लचारी हमावै,सबो बात मा ध्यान देवौ ग भाई।।
-गुमान प्रसाद साहू
ग्राम- समोदा (महानदी),रायपुर
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: रूप घनाक्षरी
बात सुनले समारू, छोड़ आज ले तैं दारू,
कहिथे डॉक्टर बाबू, जी के हवय जंजाल।
कुकुर गतर कस, मनखे होवय जस,
जग बर अपजस, बिगड़े ओखर चाल।
बाँचे नइ खेत खार, टूट जाथे परिवार,
खावय गा गारी मार, बाँचे ना ओकर खाल।
होवय गा दुर्घटना, मनखे के हे मरना,
गाँठ बाँध ले कहना, हवय गा नशा काल।।
हेमलाल साहू
छंद साधक सत्र -01
ग्राम गिधवा, जिला बेमेतरा(छ. ग.)
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: दोहा छंद
नशा
नशा नाश के जड़ हरे,जिनगी करे खुवार।
रोग बिमारी घेरथे,दुखी रहै परिवार।।
बरबादी के रासता, बेंचय खेती खार।
झगरा करथे रोज के,बाई खाथे मार।।
नशा कराथे रोज दिन, चोरी बलात्कार।
नशा छोड़ दौ आज ले,होही तोर उबार।।
मारे दाई बाप ला,धरे हाथ तलवार।
कोनो कहिथे छोड़ दे,पारत रथे गुहार।।
कलह करे घर में सदा,नइ खावौं मैं दार।
कुकरी रोजे राँध दे नइतो खाबे मार।।
कतको हत्या रोज दिन, करथें बन हुसियार ।
जाँता पीसे जेल मा ,खावे ड़ंड़ा मार।।
जिनगी हे अनमोल गा,मन मा करौ बिचार।
मान घटे तन हा घुरे,रोवै घर परिवार।।
खोबे झन तँय होश ला, करके मदिरा पान।
दरुहा कहिही लोग सब, मिट जाही सम्मान।।
केवरा यदु"मीरा"राजिम
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मधुशाला छंद
दारुभट्ठी
गाँव गली पथ शहर नगर मा, मिल जाथे दारू भट्ठी।
कभू बड़े छोटे नइ लागे, सब आथें दारू भट्ठी।
सब ला एक समान समझ के, कहै जेब कर लौ खाली,
अपन तिजोरी मा पइसा नित, खनकाथे दारू भट्ठी।।1
भीड़ भाड़ रहिथे मनखे के, चहल पहल रहिथे भारी।
रदखद दिखथे चारो कोती, करे नही कोनो चारी।
कतको झन छुप छुपके लेवैं, कतको झन खुल्लम खुल्ला,
झगरा माते दिखे इही कर, दिखे इही कर बड़ यारी।।2
कोनो कोनो गम कहि ढोंके, कोनो पीये मस्ती मा।
साहब बाबू कका बबा का, सब सवार ये कस्ती मा।
लड़भड़ाय पीये पाये ते, खुदे मूड़ माड़ी फोड़े,
कतको पड़े अचेत इही कर, कतको भूँके बस्ती मा।।3
बिलायती कोनो पीये ता, कोनो देशी अउ ठर्रा।
रोक पियइया ला नइ पावै, गरमी पानी घन गर्रा।
अद्धी पाव जुगाड़ करे बर, कतको पाँव परत दिखथे,
नसा पान के कतको आदी, पीथें खीसा नित झर्रा।।4
मालामाल आज अउ होगे, जेन रिहिस काली कँगला।
चिंता छोड़ पियइया पीये, बेंच भाँज घर बन बँगला।
रोज पियइया बाढ़त हावय, हाँसत हे दारू भट्ठी।
खाय हवै किरिया कतको मन, नइ छोड़े दारू सँग ला।।5
पूल समुंदर में पी बाँधे, टार सके नइ जे ढेला।
चोर पुलिस सबझन के डेरा, भट्ठी मेर भरे मेला।
दारू छोड़व कहे सुबे ते, संझा दिखथे भट्ठी मा,
रोजगार तक देवै भट्ठी, हें दुकान पसरा ठेला।।6
छट्ठी बरही सब मा दारू, नइ सुहाय मुनगा मखना।
पी के मोम लगे कतको मन, ता कतको लागय पखना।
तालमेल तक दिखे गजब के, दिखे गजब दोस्ती यारी,
एक लेय बिन बोले दारू, एक जुगाड़े झट चखना।।7
कतको सज धज बड़े बने हे, खुद बर खुद हार बनाके।
सब दिन हीने हें गरीब ला, ऊँच नीच के पार बनाके।
एक पियइया होय बेवड़ा, फेर एक के फेंसन हे,
भला बुरा भट्ठी ला बोले, बड़का मन बार बनाके।।8
हरे आज के थोरे दारू, सुन शराब के गाना ला।
कतको बाढ़े किम्मत चाहे, कोन भुले मयखाना ला।
अनदेखा करके सब पीथें, नसा नास के हाना ला,
गोद लिये सरकार फिरत हे, भट्ठी भरे खजाना ला।।9
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को, कोरबा(छग)
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मनहरण घनाक्षरी
जिनगी के दिन चार,नशा झन कर यार,
दूर रह एखर ले,छुबे तैं अगास हे।
पैसा कउँड़ी के नाश,गर मा लगथे फाँश,
बात ला ध्यान धरबे,जिनगी उजास हे।।
मन मा सफ्फा विचार,भगा ले सबो विकार,
सुग्घर जिनगानी ला,बना ले तैं खास हे।
खुश होही परिवार,सुख के बन आधार,
जग अँधियारी मिटा,बनके तैं आस हे।।
विजेंद्र वर्मा
नगरगाँव (धरसीवाँ)
रायपुर
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अमृतध्वनि छंद
करथे तन ला नाश जी, छोड़व मदिरा पान।
कतका झगरा मातथे, जाथे कखरो जान।
जाथे कखरो,जान जेन मन, पीथे भारी।
कतको झन मन, इहाँ आज तो, बने भिखारी।
घर के मनखे,पाई पाई, बर तो मरथे।
पी के मदिरा, मनखे मन हा, अति जब करथे।।
संगीता वर्मा
भिलाई
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छप्पय छन्द
विषय-नशा
होथे नशा खराब,नशा झन करहू भाई।
टोरय घर परिवार,नशा मा हे करलाई।
तन ला करय खुवार,बढ़ावय ए दुखदाई।
छोड़व मन मा ठान,इही मा हवय भलाई।
नशा पान महुरा सहीं,ले लेथे ए जान जी।
बदनामी करथे नशा,सदा मिटाथे मान जी।।
द्वारिका प्रसाद लहरे"मौज"
कवर्धा छत्तीसगढ़
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कुंडलियां
नशा मुक्ति
सुख के बैरी ये नशा, सुनले बात मितान।
घर दुवार तक बिक जथे, मिटे मान सम्मान।।
मिटे मान सम्मान, बात ला सुनले संगी।
दुखी रहे परिवार, सदा जी घेरे तंगी।।
तन मन धन बरबाद, नशा कारण हे दुख के।
लूटे घर के शांति, पाँव रोके ये सुख के।।
आशा देशमुख
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सार छंद
विषय-दारू नशा
गाँव गाँव मा खुलगे हावय,अब तो दारू भठ्ठी।
कतको बेरा पीयत हावँय,मरनी चाहे छठ्ठी।।
संझा बेरा दउँड़े दउँड़े,भट्ठी कोती जाथें।
लेन लगे मा धक्का खाके,अद्धी पउवा लाथें।।
खेत बेंच के दारू पीयँय,मारँय रोज़ फुटानी।
दारू के चक्कर मा परके,बोरत हें जिनगानी।।
घर मा आके गदर मतावँय,उल्टा देवँय ताना।
भले खाय बर रहे कभू झन,घर मा एक्को दाना।।
नान-नान लइका मन रोवैं,माते हे करलाई।
ये दारू के चक्कर भइया,हावय जी दुखदाई।।
झगरा-झंझट दारू लावे,घर ला इही उजारै।
दरुहा मन माने नइ कहना,उनला कोन सुधारै।।
धन दौलत ला दारू लेगय,लेगय कंचन काया।
घर के मनखे रोवत राहँय,छूटत हावय माया।।
बात मान लव समझौ अब गा,भइया मोर मयारू।
महुरा जइसे ए ला जानव,झिन पीहू गा दारू।।
नाश करै जी नशा रोग हा,काया करथे माटी।
तुरते छोड़व दारू संगी,कहे मौज हा खाँटी।।
डी.पी.लहरे"मौज"
कवर्धा छत्तीसगढ़
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बहुत ही सुग्घर संकलन आदरणीय गुरुदेव
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