अंगद रावण संवाद
दूत बनाके अंगद जी ला, लंका मा भेजे श्रीराम।
समझाबे रावण ला जाके, बन जाही जी हमरो काम।।
अंगद जावय तुरते लंका, पहुँच गए रावण दरबार।
पूछय रावण कोनच तैहा, आये हच काबर ये पार।।
रावण ला समझावय अंगद, झन कर शंका कहना मान।
अबड़ कृपा करथे प्रभु राघव, झन तँय ओला मनखे जान।।
सीता ला लहुटादे तैहा, बैर छोड़के कुल ला तार।
अजर अमर हो जाबे तैहा, सुरता रखही जी संसार।।
रावण हा गुस्साके कहिथे, नइ चाही फोकट के ज्ञान।
अपन भलाई चाहत हच ता, भाग इहाँ ले लेके जान।।
नइते आजा मोर शरण मा, ताकत ला नइ जानच मोर।
थर-थर काँपय ये दुनिया हा, का सकही मालिक हा तोर।।
गुस्साके अंगद हा कहिथे, फोकट के फाँकी झन मार।
पाँव पटक के बोलय सबला, हिम्मत हे ता येला टार।।
लहुट जही प्रभु राम अवधपुर, सीता ला जाहूँ मैं हार।
सुनके रावण गरजत कहिथे, मौका हावय जी ए बार।।
सुनके सब राक्षस मन दौड़े, उठा सकय ना अंगद पाँव।
तब रावण हा मन मा सोचय, पाँव उठाये मैंहा जाँव।।
आवत देखय जब रावण ला, अपन पाँव ला देथे टार।
मोर पाँव ले गति नइ बनही, प्रभु ला भजके सबला तार।।
जावत हौं तँय सुरता रखबे, झन बिसराबे तैहा ज्ञान।
पाँव धरे बिन प्रभु के रावण, नइ होवय तोरे कल्यान।।
रचनाकार - श्री जगदीश "हीरा" साहू
कड़ार (भाटापारा)
छत्तीसगढ़
दूत बनाके अंगद जी ला, लंका मा भेजे श्रीराम।
समझाबे रावण ला जाके, बन जाही जी हमरो काम।।
अंगद जावय तुरते लंका, पहुँच गए रावण दरबार।
पूछय रावण कोनच तैहा, आये हच काबर ये पार।।
रावण ला समझावय अंगद, झन कर शंका कहना मान।
अबड़ कृपा करथे प्रभु राघव, झन तँय ओला मनखे जान।।
सीता ला लहुटादे तैहा, बैर छोड़के कुल ला तार।
अजर अमर हो जाबे तैहा, सुरता रखही जी संसार।।
रावण हा गुस्साके कहिथे, नइ चाही फोकट के ज्ञान।
अपन भलाई चाहत हच ता, भाग इहाँ ले लेके जान।।
नइते आजा मोर शरण मा, ताकत ला नइ जानच मोर।
थर-थर काँपय ये दुनिया हा, का सकही मालिक हा तोर।।
गुस्साके अंगद हा कहिथे, फोकट के फाँकी झन मार।
पाँव पटक के बोलय सबला, हिम्मत हे ता येला टार।।
लहुट जही प्रभु राम अवधपुर, सीता ला जाहूँ मैं हार।
सुनके रावण गरजत कहिथे, मौका हावय जी ए बार।।
सुनके सब राक्षस मन दौड़े, उठा सकय ना अंगद पाँव।
तब रावण हा मन मा सोचय, पाँव उठाये मैंहा जाँव।।
आवत देखय जब रावण ला, अपन पाँव ला देथे टार।
मोर पाँव ले गति नइ बनही, प्रभु ला भजके सबला तार।।
जावत हौं तँय सुरता रखबे, झन बिसराबे तैहा ज्ञान।
पाँव धरे बिन प्रभु के रावण, नइ होवय तोरे कल्यान।।
रचनाकार - श्री जगदीश "हीरा" साहू
कड़ार (भाटापारा)
छत्तीसगढ़
बहुत बढ़िया आल्हा साहू जी
ReplyDeleteधन्यवाद भाई जी
Deleteबहुत बढ़िया आल्हा साहू जी
ReplyDeleteजबदस्त जगदीश जी वाह....
ReplyDeleteधन्यवाद भैया जी
Deleteजबदस्त जगदीश जी वाह....
ReplyDeleteजबदस्त जगदीश जी वाह....
ReplyDeleteजबदस्त जगदीश जी वाह....
ReplyDeleteसुग्घर रचना साहू भाई
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteबहुत बढ़िया सर जी
ReplyDeleteधन्यवाद वर्मा जी
Deleteधन्यवाद वर्मा जी
Deleteकथा गीत हे बहुत जरूरी, लिखव सबो झन छंद सुजान
ReplyDeleteअपन देश के संस्कार के, दुनियाँ भर मा करव बखान ।
बहुत बहुत धन्यवाद दीदी,
Deleteवाहःहः बहुते सुघ्घर सृजन हे भाई
ReplyDeleteधन्यवाद दीदी
Deleteगजब के आल्हा सिरजाय हव हीरा भाई।बधाई
ReplyDeleteधन्यवाद गुरूजी
Deleteवाह्ह्ह् वाह्ह्ह् अति सुंदर रचना सर।बधाई
ReplyDeleteधन्यवाद भइया जी
Deleteवाह्ह्ह् वाह्ह्ह् अति सुंदर रचना सर।बधाई
ReplyDeleteवाह्ह शानदार आल्हा सर जी।
ReplyDeleteधन्यवाद अहिलेश्वर जी
Deleteधन्यवाद अहिलेश्वर जी
Deleteधन्यवाद अहिलेश्वर जी
Deleteवाह वाह बेहतरीन आल्हा छंद हे भाई। बधाई अउ शुभकामनाएं ।
ReplyDeleteधन्यवाद
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