फैशन संस्कृति
उमर डोकरा के हे साठ। तभो देख ले ओखर ठाठ।।
पहिरे कुरता आधा पेंट। तन मा अड़बड़ छींचे सेंट।।०१।।
पान गाल मा रोज दबाय। तम्बाकू उपराहा खाय।।
जुआँ नशा वोला बड़ भाय। सज्जन संग कभू नइ जाय।।०२।।
मटमटहा हे ओखर चाल। चाहे बिगड़े घर के हाल।।
मेछा मा पोते हे रंग। जम्मों हवय देख के दंग।।०३।।
कतको ओखर हवय मितान। सबके बीच बघारे शान।।
उमर घलो वो कमे बताय। घर के लइका लोग लजाय।।०४।।
देख डोकरी पार्लर जाय। फैशन करे केंश बगराय।।
आनी-बानी चीज बिसाय। चारी करके समे बिताय।।०५।।
नाती पोता ला सब छोड़। घूमे बर हावय जी होड़।।
गाल होंठ ला लेवय पोत। मुख बिगड़े तब राहय रोत।।०६।।
फैशन रक्सा लेहे घेर। मनखे करे अबड़ अंधेर।।
जम्मों समझे खुद ला शेर। बात करे वो नयन तरेर।।०७।।
नोनी बाबू सब झन आज। अलकरहा करथे जी साज।।
फटे जींस मा तन देखाय। लोक-लाज ला कोन बचाय।।०८।।
बेटा बहू घलो मोहाय। फैशन मा सुख चैन गँवाय।।
पश्चिम संस्कृति भारत आय। हमर देश मा पाँव जमाय।।०९।।
कम बूता मा जादा दाम। खोजत हे सब ऊँचा नाम।।
सबो करे जब उल्टा काम। कइसे कलजुग बाँचे राम।।१०।।
रामायण पढ़थे अब कोन। दिनभर धरथे सबझन फोन।।
ललित गोठ मा करव विचार। तभे बाँचही संस्कृति सार।।११।
देखावा मा तुम झन जाव। परंपरा ला अपन बचाव।।
जीवन के जानव आधार। सुग्घर हे सादा श्रृंगार।।१२।।
रचनाकार- श्री ललित साहू "जख्मी" छुरा
जिला- गरियाबंद (छत्तीसगढ़)
उमर डोकरा के हे साठ। तभो देख ले ओखर ठाठ।।
पहिरे कुरता आधा पेंट। तन मा अड़बड़ छींचे सेंट।।०१।।
पान गाल मा रोज दबाय। तम्बाकू उपराहा खाय।।
जुआँ नशा वोला बड़ भाय। सज्जन संग कभू नइ जाय।।०२।।
मटमटहा हे ओखर चाल। चाहे बिगड़े घर के हाल।।
मेछा मा पोते हे रंग। जम्मों हवय देख के दंग।।०३।।
कतको ओखर हवय मितान। सबके बीच बघारे शान।।
उमर घलो वो कमे बताय। घर के लइका लोग लजाय।।०४।।
देख डोकरी पार्लर जाय। फैशन करे केंश बगराय।।
आनी-बानी चीज बिसाय। चारी करके समे बिताय।।०५।।
नाती पोता ला सब छोड़। घूमे बर हावय जी होड़।।
गाल होंठ ला लेवय पोत। मुख बिगड़े तब राहय रोत।।०६।।
फैशन रक्सा लेहे घेर। मनखे करे अबड़ अंधेर।।
जम्मों समझे खुद ला शेर। बात करे वो नयन तरेर।।०७।।
नोनी बाबू सब झन आज। अलकरहा करथे जी साज।।
फटे जींस मा तन देखाय। लोक-लाज ला कोन बचाय।।०८।।
बेटा बहू घलो मोहाय। फैशन मा सुख चैन गँवाय।।
पश्चिम संस्कृति भारत आय। हमर देश मा पाँव जमाय।।०९।।
कम बूता मा जादा दाम। खोजत हे सब ऊँचा नाम।।
सबो करे जब उल्टा काम। कइसे कलजुग बाँचे राम।।१०।।
रामायण पढ़थे अब कोन। दिनभर धरथे सबझन फोन।।
ललित गोठ मा करव विचार। तभे बाँचही संस्कृति सार।।११।
देखावा मा तुम झन जाव। परंपरा ला अपन बचाव।।
जीवन के जानव आधार। सुग्घर हे सादा श्रृंगार।।१२।।
रचनाकार- श्री ललित साहू "जख्मी" छुरा
जिला- गरियाबंद (छत्तीसगढ़)
जख्मी जी शानदार व्यंग्यात्मक जयकारी छन्द।हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteवाह्ह जख्मी भइया अब्बड़ सुग्घर व्यंग्य करत लाजावाब जयकारी छंद भइया बधाई हो
ReplyDeleteगजब के रचना सर
ReplyDeleteगजब के रचना सर
ReplyDeleteवाहःहः ललित भाई
ReplyDeleteसुघ्घर छंद सिरजाय हव
बहुत बहुत बधाई
वाहहहह वाहह जबरदस्त रचना।
ReplyDeleteबहुतेच बढ़िया भाव के संग रचना , बधाई
ReplyDeleteप्रणम्य गुरुदेव ला आभार, अउ जम्मों आदरणीय आदरणीया मन ला उत्साहवर्धन बर धन्यवाद..।
ReplyDeleteजोरदार जयकारी छंद ।व्यंग विधा मा
ReplyDeleteजयकारी के जय हो
ReplyDeleteबहुत सुंदर जयकारी छंद भइया बधाई हो आप ला
ReplyDeleteजयकारी छंद मा सुग्घर व्यंग भाई जी
ReplyDeleteजयकारी छंद मा सुग्घर व्यंग भाई जी
ReplyDeleteवाह जबरदस्त रचना।बधाई
ReplyDeleteवाह गजब
ReplyDeleteपंदोली अउ आशीष देवईया जम्मों झन के आभार.. प्रणाम..।
ReplyDeleteबहुत सुघ्घर जयकारी छंद,बधाई
ReplyDeleteबहुत सुघ्घर जयकारी छंद,बधाई
ReplyDeleteबहुत बढ़िया रचना बधाई हो जख्मी जी
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